शनिवार, 15 दिसंबर 2012

फ़ुरसत में ... इशक़ वाले लव की तलाश

फ़ुरसत में ... 111

इशक़ वाले लव की तलाश

मनोज कुमार

‘दाग अच्छे हैं’ स्लोगन वाले दौर में कोयला अभी तक काला ही है! किसी ने एक चिंगारी जलाई और ऐसी आग लगी कि ‘शोले’ दहक उठे हैं। ‘शोले’ का फ़ेमस डायलोग तो आपको याद होगा ही, “अब तेरा क्या होगा कालिया?” आज का यह “कालिया” सिर्फ़ ‘सरदार’ का नमक खाने वाला वफ़ादार ही नहीं रह गया है, बल्कि ‘असरदार’ चरित्र-निर्माण, संस्कृति सेवा आदि करने वाले प्रतीकों के रूप में दिख रहा है। अब जब कोयले की आंच से शोले दहके हैं, तो दोनों पक्ष कह ही सकते हैं – “अब तेरा क्या होगा कालिया?”

कोयले का धुंआ प्रदूषण बढ़ाता है। इससे धुंध घनी हो जाती है। धुंध भरी सुबह को तेज़ क़दमों से चलते वक़्त किसी से टकरा जाना अच्छा लगता है। यह अच्छा लगना तब और भी खूबसूरत हो जाता है, जब टकराने वाला आपकी कार्बन कॉपी लगे। इस तरह के व्यक्तित्व से टकराने से जो तड़ित-सम प्रकाश फूटता है, उससे आस-पास छाए धुंध की गहनता विरलता में परिणत होती प्रतीत होने लगती है। मॉर्निन्ग वाक तो एक बहाना होता है, अपन को तो आज भी ट्रैक सूट पहने जॉगिंग कम, चहलक़दमी ज़्यादा करते हुए कुछ ख़ास शक्लों की तलाश रहती है, जो मेरे साहित्य सृजन की प्रेरणा बन सकें। पिछले दिनों इन चेहरों का ऐसा अकाल पड़ा था कि मेरी सृजन-सरिता सूख ही गई थी। आज जब अपने कार्बन कॉपी से टकराया तो बलबला कर सोता-सा फूट पड़ा।

मेरे दिल में सृजन के हज़ारों विषय उथल-पुथल मचाए रहते हैं और दिमाग़ मुझे बराबर ‘यस’ – ‘नो’ के द्वन्द्व में घेरे रहता है – जीवन प्रांगण में आज एक बार फिर से क्रांति की रणभेरी बजने लगी है। मेरी लेखनी का चक्का जाम करने वाले मज़दूर दिमाग के सामने सृजन की क्रांति का मशाल लिए दिल ने मैदान-ए-जंग में डटकर मुक़ाबला किया और अंततोगत्वा जीत मेरी ‘फ़ुरसत’ की ही हुई। विजय के उल्लास में दिल बल्लियों उछल रहा है।

जिससे टकराया था, उसने ‘फ़ुरसत में ..’ मुझे कहीं कुछ पढ़ लिया होगा, और शायद वह मेरी विलक्षण शैली, विनोदी स्वभाव और किस्सागोई का मुरीद भी बन गया हो। लेकिन जिस अंदाज़ में उसने मुझे महिमा-मंडित किया वह उसके मेधावी होने का प्रमाण दे रहा था। हम दोनों उस सैर-सपाटा पार्क के चक्कर लगाते रहे और एक-दूसरे को सुनते-सुनाते रहे। जब मैं अपने विनोदी स्वभाव के नमूने स्वरूप कोई लतीफ़ा सुनाता तो वह पूरी तन्मयता से सुनता और बड़ी ज़ोर से हंसता। फिर वह नहले पर दहला मारने के अंदाज में अपनी बातें रखता और इतने ज़ोर से मेरी पीठ पर धौल जमाते हुए कहता, “बोल गुरु कैसी रही?

मेरा कार्बन कॉपी मुझे बातों ही बातों में उस जगह ले गया जहां मैं जाना नहीं चाहता था। कहने लगा, ‘यार ! बता – इस जीवन में तूने इकतरफ़ा प्यार कितनी बार किया है?’ मैं चौंका। आश्चर्य और प्रश्न मिश्रित भाव लिए जब मैंने उसके चेहरे की तरफ़ देखा, तो कुछ ज़्यादा ही खुलते हुए उसने कहा, “अरे यार! ‘इशक़’ वाला ‘लव’ … अब भी नहीं समझा? … तूने तो किया, पर उसे पता भी नहीं चला!”

कार्बन कॉपी की बातों से मुझे मेरी ही लिखी हुई एक पंक्ति का स्मरण हो आया – ‘हमारे स्वभाव में ही था झट से किसी के प्रेमपाश में बंध जाना और नसीब में था फट से उस बंधन का टूट जाना।’ ये उन भूले-बिसरे दिनों की नादानियां हैं, जिसे आज मेरे कार्बन कॉपी ने याद दिला दी। पढ़ाई-लिखाई के बीच ‘इशक़’ तो होता था, ‘लव’ नहीं हो पाता था। ‘इशक़’ और ‘लव’ के बीच कैरियर का सांप कुंडली मारकर बैठ जाता और ‘कैरियर चौपट न हो जाए’ की फुंफकार में ‘लव’ की फुसफुसाहट गुम हो जाती थी। ‘स्टुडेंट ऑफ द इयर’ जीत जाता था, लेकिन ‘लवर ऑफ द डे’ भी हार जाता था। हम तो मध्यमवर्गीय बच्चे थे, - जो पालथी मारकर पढ़ते थे। इसलिए हम पढ़ाकू तो बने रहे, - लड़ाकू न बन सके।

आज कार्बन कॉपी ने मेरी इस नादानी को सुन कर मुझे ‘डरपोक’ करार दिया। सच ही तो कहा उसने। मैं क्रांतिकारी तो बन ही नहीं सका। मैंने न कभी क्लास बंक की, न कभी लाइब्रेरी या कैंटिन में बैठा, न कभी नुक्कड़ों पे गॉसिप की, न कभी नौटंकी, सिनेमा, क़व्वाली देखने के लिए रात-रात भर घर से बाहर रहा, न कभी देखी गई फ़िल्म के क़िस्से सुनाने के लिए पार्क में महफ़िल जमाई। कितनी ही चीज़ें छूट गईं या छोड़ता चला गया। शुभचिंतक टाइप के मित्र लानत भेजते। कहते – बड़का प्राइज जीत लेगा। छात्रों में कई उद्दंड किस्म के भी थे, जो पढ़ाकू छात्रों के विकेट उखाड़ने की ताक में लगे रहते थे। उनके बाउंसरों को झेलते हुए ‘पिच’ पर अपनी विकेट सही-सलामत रखना भी बड़े धैर्य और कौशल का काम था। विकेट पर टिके रहना तो आया पर तेज़ी से रन बनाने की कुशलता न आ पाई। लिहाजा छोर बदलने का सिलसिला थमा-सा ही रहा।

IMG_4383इस तरह से एक उदासीनता द्वारा सर्जित वातावरण में अपनी भावना दबा देने का जो अपराधबोध रहा, उससे मुक्ति के लिए क़लम का सहारा लिया, और गाहे-ब-गाहे फ़ुरसत में कुछ लिख-लिखा लिया। लेकिन उस पढ़ाकू पारिवारिक माहौल में जाने क्यों लिखना भी अपराध माना जाता था। फिर भी, चोरी-छिपे ही सही, लिखने का क्रम ज़ारी रहा। उन दिनों के बड़े-बड़े, नामी-गिरामी, प्रेरक लेखकों की रचनाओं के गहन अध्ययन से दिल से यह आवाज़ उठी कि सतत लेखन के लिए प्रेरक-शक्ति चाहिए। अब यह शक्ति या प्रेरणा तो किसी के ‘इशक़’ में पड़ कर ही प्राप्त की जा सकती है। समस्या यह कि मुझ जैसे निठल्ले के लिए ऐसी प्रेरणा उपलब्ध होना एक टेढ़ी खीर थी। एक तरफ़ जहां लड़कियां मां-बाप, समाज से डरती थीं, वहीं दूसरी तरफ़ हमारे ‘लव गुरु’ ऐसे थे जिन्होंने अपनी किताब लिख कर कहा था, “इस उपन्यास का लिखना मेरे लिए वैसा ही रहा है जैसा पीड़ा के क्षणों में पूरी आस्था से प्रार्थना करना; और इस समय भी मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं वह प्रार्थना मन ही मन दोहरा रहा हूं।” जी हां, उन दिनों गुनाहों का देवता मध्यमवर्गीय जीवन की कहानी ही तो थी। आदर्श प्रेमिका की जो छवि उसमें गढ़ी गई थी उसे आज तक खोज रहा हूं। मिली नहीं। मुश्किल हमारी यह थी कि बिना इस प्रेरणा के लिख कैसे पाऊंगा? इसलिए झूठ-सच का झट से वाला ‘इशक़’ और फट से वाला ‘ब्रेकअप’ गढ़ता गया और रचता गया।

जो गुनाह कभी किया नहीं, उस गुनाह को बार-बार दुहराता रहा। लेकिन मेरा कार्बन कॉपी उसे मानने के लिए कत्तई तैयार नहीं है। किसी ने कहा है, ‘इंतज़ार करने वालों को उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वालों से छूट जाता है।’ पता नहीं मैंने इंतज़ार नहीं किया या कोशिश नहीं की। लेकिन तलाश मेरी बदस्तूर ज़ारी है। इंशा अल्लाह, अगर कभी यह तलाश पूरी हुई तो ‘फ़ुरसत में...’ ज़रूर मिलेंगे। और अगर इस तलाश में आप मेरी मदद कर सकें, तो ज़रूर ख़बर कीजिएगा। त्त-उम्र एहसानमन्द रहूँगा!

सोमवार, 26 नवंबर 2012

थानेदार बदलता है

थानेदार बदलता है

श्यामनारायण मिश्र



कितना ही सम्हलें लेकिन हर क़दम फिसलता है
जाने  क्यों हर  बार  हमें  ही  मौसम  छलता  है।

खेतों खलिहानों में मंडी की दहशत फैली
बनिया  सीख गया है साहू सेठों की शैली
ज़मींदार था स्थिर, थानेदार बदलता है।

गौशाले  की  सांठ  -  गांठ   है   बूचड़ख़ाने   से
फिर भी है कुछ नहीं शिकायत तुम्हें ज़माने से
दूध  नहीं  चूल्हे  पर  अब  तो ख़ून उबलता है।

पात - पात  संगीत  डाल  कंदील कसी थी
रात किसी बंजारे की दुनिया यहीं बसी थी
उजड़ा  हुआ  सवेरा  बरगद को खलता है।

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

दिवाली तब दिवाली हो


-- करण समस्तीपुरी  

दुआ हर ओर से आए, दिवाली तब दिवाली हो।
दिया हर घर में जल जाए, दिवाली तब दिवाली हो॥

जले आहुतियाँ पहले सभी कलुषित विचारों की।
अँधेरा मन का मिट जाए, दिवाली तब दिवाली हो॥


न जानें कौन से रस्ते से वन को थे गए रघुवर।
अवध में लौट कर आएँ, दिवाली तब दिबाली हो॥





विदेशी क़ैद में विष्णु-प्रिया बैठी सिसकती हैं।
जो अपने घर चली आए, दिवाली तब दिवाली हो॥

न माँगे भीख होरी, ना मरे बुधिया कुपोषण से।
मिले जब काम हाथों को, दिवाली तब दिवाली हो॥

ये भ्रष्टाचार, ये आतंक, ये महँगाई है 'केशव'।
इन्हें कोई मिटा जाए, दिवाली तब दिवाली हो॥


-: ज्योति-पर्व की अनंत मंगल-कामनाएँ :-

सोमवार, 12 नवंबर 2012

बुद्धिजीवी किंकर्त्तव्यविमूढ़ है

बुद्धिजीवी   किंकर्त्तव्यविमूढ़   है

श्यामनारायण मिश्र

गज समस्या का उठाता सूंढ़ है
जीविका  का  प्रश्न  पूरा रूढ़ है

एक भद्दा  अंग  भी  ढंकता नहीं
चीथड़ों   की   हो   गई हड़ताल
मौत की मछली फंसाने के लिए
भूख बुनती  हड्डियों  के  जाल
वैताल सा निर्वाह लटका गूढ़ है

हर शहर है बागपत की आत्मा
अलीगढ़,  दिल्ली,  मुरादाबाद,
गांव की हर गली  में है घूमता
जातीयता का क्रूरतम उन्माद
हार  बैठा  मूढ़  छप्पर  ढूंढ़ है

राजनैतिक  दल  जलाने  को  खड़े
आसाम की यह अर्द्ध जीवित लाश
आदमी के तांडव की देख  क्षमता
तड़तड़ा    कर    टूटता   आकाश
बुद्धिजीवी   किंकर्त्तव्यविमूढ़   है
***     ***     ***

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं!

सोमवार, 5 नवंबर 2012

उदासी के धुएं में


उदासी के धुएं में

श्यामनारायण मिश्र

लौट आईं
भरी आंखें
भींगते रूमाल-आंचल
      छोड़कर सीवान तक तुमको,
      ये गली-घर-गांव अब अपने नहीं हैं।

अनमने से लग रहे हैं
द्वार-देहरी
      खोर-गैलहरे
            दूर तक फैली उदासी के धुएं में।
आज वे मेले नहीं
दो चार छोटे घरों के
      घैले घड़े हैं
            घाट पर प्यारे प्यासी के कुएं में।
खुक्ख
सन्नाटा उगलती है
चौधरी की कहकहों वाली चिलम
नीम का यह पेड़,
      चौरे पर शकुन सी छांव अब अपने नहीं हैं।

पर्वतों के पार
घाटी से गुज़रती
      लाल पगडंडी
      भर गई होगी किसी के प्रणय फूलों से।
भरी होगी पालकी
फूलों सजी तुमसे
      औ’ तुम्हारा मन
            लड़कपन में हुई अनजान भूलों से।
झाम बाबा की
बड़ी चौपाल
रातों के पुराने खेल-खिलवाड़ें
      वे पुराने पैंतरे
            वे दांव अब अपने नहीं हैं।

सोमवार, 29 अक्टूबर 2012

तस्वीर


लघुकथा

तस्वीर

मनोज कुमार
उसने अपने मृत पिता की तस्वीर बेड रूम में लगा ली।
रोज़ सुबह अपने जन्म-दाता को देखकर दिन की शुरुआत करता। तस्वीर के इर्द-गिर्द उसने अपनी, बीवी और बच्चों की तस्वीरें भी रख दीं, जैसे पिता का परिवार पूरा हो गया हो। आशीष-वर्षा की कल्पना में मन सन्तोष से भर उठा।
एक दिन दूर का रिश्तेदार घर आया। उसकी पत्नी ने इसकी पत्नी के कान में कहा, मरे हुए लोगों के साथ अपनी तस्वीरें नहीं रखनी चाहिए। और वह भी बेड रूम में ! ........ अशुभ होता है।
पत्नी के मन में शंका के बीज पलने लगे।
पिता की तस्वीर अब स्टोर रूम की शोभा बढ़ा रही थी।
***

रविवार, 28 अक्टूबर 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 128


भारतीय काव्यशास्त्र – 128
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में यमक अलंकार के भेदोपभेद पर चर्चा की गई थी। इस अंक में यमक अलंकार के संदर्भ में पुनरुक्तवदाभास पर चर्चा करने का विचार था। लेकिन यह एक मात्र उभयालंकार है, अर्थात् इसमें शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों की विशेषताएँ पाई जाती हैं। बाद में विचार आया कि पहले शब्दालंकारों की चर्चा समाप्त कर ली जाए, फिर इस अलंकार पर चर्चा ठीक रहेगी। अतएव इस अंक में श्लेष अलंकार पर चर्चा अभिप्रेत है। विषय पर आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि श्लेष शब्दालंकार भी है और अर्थालंकार भी। यहाँ शब्द-श्लेष पर ही चर्चा होगी।
काव्यप्रकाश में आचार्य मम्मट ने श्लेष शब्दालंकार का लक्षण इस प्रकार किया है-
वाच्यभेदेन  भिन्ना  यद्  युगपद्भाषणस्पृशः।
श्लिष्यन्ति शब्दाः श्लेषोSसावक्षरादिभिरष्टधा।। 
अर्थात् अर्थ-भेद के कारण भिन्न-भिन्न शब्द एक साथ उच्चरित होने से जब आपस में मिल जाते हैं, तो उसे श्लेष अलंकार कहते हैं।
अर्थभेदेन शब्दभेदः अर्थात् अर्थ के भेद के कारण शब्दों का भेद होता हैतात्पर्य यह कि प्रत्येक अर्थ के लिए अलग-अलग शब्द का प्रयोग किया जाता है या वाक्य में प्रयुक्त एक शब्द एक ही अर्थ का बोध कराता है। इस सिद्धांत के अनुसार काव्य में उदात्त, अनुदात्त, स्वरित स्वरों के भेद के कारण शब्दों का भेद नहीं होता है। इन स्वरों के आधार पर शब्दों का भेद केवल वेदों में ही माना जाता है। इस नियम के चलते, अर्थात् काव्य में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों का बिना विचार किए जब शब्द एक साथ उच्चारण के कारण परस्पर जुड़ जाते हैं या दूसरे शब्दों में अपने स्वरूप की भिन्नता को छोड़ देते हैं, तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि दो या अधिक अर्थों के लिए एक ही शब्द पर्याप्त होने पर उसका कई बार प्रयोग न कर एक बार ही प्रयोग किया जाता है, तो उसे शब्द-श्लेष अलंकार कहते हैं। कवि उन्हें एक बार प्रयोग कर दो या अधिक अर्थों को अभिव्यक्त करता है।
साहित्यदर्पण में इसकी परिभाषा निम्नवत दी गई है- श्लिष्टैः पदैरनेकार्थाभिधाने श्लेष इष्यते। अर्थात् श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों का अभिधान (संकेत) होने पर श्लेषालंकार होता है।
जबकि हिन्दी में कहा जाता है कि जहाँ एक शब्द अनेक अर्थ श्लिष्ट (चिपके) हों, तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है। व्यावहारिक तौर दोनों एक ही हैं। अन्तर इतना है कि संस्कृत परिभाषाओं के अनुसार पद (शब्द) श्लिष्ट होते हैं, जबकि हिन्दी में दो या अधिक अर्थ के श्लिष्ट होने की बात बताई जाती है।
संस्कृत में शब्द-श्लेष अलंकार के निम्नलिखित आठ भेद बताए गए हैं- वर्णश्लेष, पदश्लेष, लिंगश्लेष, भाषा-श्लेष, प्रकृति-श्लेष, प्रत्यय-श्लेष, विभक्ति-श्लेष और वचन-श्लेष। हिन्दी में शब्द-श्लेष अलंकार को केवल एक अलंकार ही माना गया है। इसका कारण दोनों भाषाओं की प्रकृति है। क्योंकि हिन्दी और संस्कृत - दोनों भाषाओं की प्रकृति काफी भिन्न है।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंकों में शब्द-श्लेष के विभिन्न रूपों पर चर्चा की जाएगी।
*****

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

वह प्राचीन क़िला

वह प्राचीन क़िला

श्यामनारायण मिश्र


आसमान से बातें करता,
वह प्राचीन क़िला।
हमको मरे हुए कछुए-सा,
औंधा पड़ा मिला।

गुंबद गले, छत्र टूटे,
दीवारों में बीवांई।
भव्य बावली में है
जल की जगह, सड़ी काई।
जल के सपनों-सा टूटा,
पत्थर में कमल खिला।

फानूसों की जगह हो गया,
जालों का अनुबंध।
इत्र-सुगंधों की वारिस
सीलन औ’ दुर्गन्ध।
तोत मैना नहीं
चहकते उल्लू मूड़ हिला

राजकुमारी झांड़ू देती,
बर्तन मलती रानी।
राजकुमार बावला,
कुल की, अंतिम एक निशानी।
दादा से दिल्ली कंपती थी,
पोतों को दूभर है,
अपना ही तहसील, ज़िला।

(चित्र : आभार गूगल सर्च)


रविवार, 21 अक्टूबर 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 127


भारतीय काव्यशास्त्र – 127
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में अनुप्रास अलंकार पर चर्चा समाप्त की गई थी। इस अंक में शब्दालंकार के अन्तर्गत यमक अलंकार पर चर्चा अभीष्ट है।
काव्यप्रकाश में यमक अलंकार कि निम्नलिखित परिभाषा की गई है -
अर्थे सत्यर्थभिन्नानां वर्णानां सा पुनः श्रुतिः यमकम्
अर्थात् अर्थयुक्त होने पर भिन्नार्थक वर्णों की उसी क्रम में आवृत्ति को यमक अलंकार कहते हैं।
साहित्यदर्पणकार कुछ इसी प्रकार यमक का लक्षण बताते हैं -
सत्यर्थे पृथगर्थायाः स्वरव्यञ्जनसंहतेः।
क्रमेण तेनैवावृत्तिर्यमकं विनिगद्यते।।
अर्थात् अर्थयुक्त होने पर भिन्न अर्थवाले स्वर और व्यंजन के समुदाय की उसी क्रम में आवृत्ति हो, तो यमक अलंकार होता है।
आचार्य मम्मट ने यमक के ग्यारह भेद बताए हैं-
1. प्रथम चरण की द्वितीय चरण में आवृत्ति को मुख यमक,
     2. प्रथम चरण की तृतीय चरण में आवृत्ति को सन्दंश यमक,
3. प्रथम चरण की चतुर्थ चरण में आवृत्ति को आवृत्ति यमक,
4. द्वितीय चरण की तृतीय चरण में आवृत्ति होने पर गर्भ यमक,
5. द्वितीय चरण की चतुर्थ चरण में आवृत्ति होने पर सन्दष्ट यमक,
6. तृतीय चरण की चतुर्थ चरण में आवृत्ति होने पर पुच्छ यमक,
7. प्रथम चरण की आवृत्ति द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ चरणों में होने पर 
        पंक्ति यमक,
     8. प्रथम चरण की द्वितीय चरण में और तृतीय चरण की चतुर्थ चरण में
        आवृत्ति होने पर युग्मक यमक,
     9. प्रथम चरण की चतुर्थ चरण में और द्वितीय चरण की तृतीय चरण में
   आवृत्ति होने पर परिवृत्ति यमक,
10. श्लोक के पूर्वार्ध की उत्तरार्ध में आवृत्ति को पादभागावृत्ति और
11. श्लोक की आवृत्ति को श्लोकावृत्ति यमक नाम दिया गया है।
हालाँकि श्लोक की आवृत्ति को पादभागावृत्ति (चरणभागावृत्ति) में नहीं माना गया है। अतएव यमक के ग्यारह के स्थान पर दस भेद ही शेष बचते हैं। इसके अतिरिक्त श्लोक के चरणों के अंश की आवृत्ति के स्थान को आधार मानकर काव्यप्रकाश में अनेक भेद किए गए हैं। चालीस की संख्या तो आचार्य मम्मट ने गिनाई है और कहा है कि इस प्रकार यमक के अनेक भेद किए जा सकते हैं। वैसे, आचार्य मम्मट ने दिखाने के लिए उदाहरण स्वरूप आठ यमक                                                 अलंकारों के उद्धरण दिए हैं। साहित्यदर्पणकार ने भी यमक अलंकार के पादावृत्ति, पदावृत्ति, अर्धावृत्ति, श्लोकावृत्ति आदि भेदों के अनेक भेदों की चर्चा की है। अतएव यहाँ यमक अलंकार के इस विस्तार को छोड़कर उदाहरण के रूप में साहित्यदर्पण में उद्धृत महाकवि माघकृत शिशुपालवध का यह श्लोक दिया जा रहा है, जो यमक अलंकार की परिभाषा को सार्थक करता है। इसमें रैवतक पर्वत पर वसन्त के स्वरूप का भगवान कृष्ण की दृष्टि से वर्णन किया गया है -
नवपलाशपलाशवनं  पुरः   स्फुटपरागपरागतपङ्कजम्।
मृदलतान्तलतान्तमलोकयत्स सुरभिं सुरभिं सुमनोभरैः।।
अर्थात् जिसमें पलाशों का वन नवीन पलाश के पत्तों से युक्त हो गया है और कमल परागकणों की अधिकता से सम्पन्न हैं, लताओं की छोरें कोमल और विस्तृत होकर पुष्पों की बहुलता से झुक गई हैं और पुष्पों की सुगन्ध से युक्त वसन्त ऋतु को इस रूप में भगवान कृष्ण ने रैवतक पर्वत पर देखा।
यहाँ पदावृत्ति यमक है। इसमें पलाश पलाश और सुरभिं सुरभिं दोनों पद सार्थक हैं, जबकि लतान्त लतान्त में पहला पद निरर्थक है। पहले पद का मृदुल शब्द का है। पराग पराग में दूसरा पद गत का अंश है।
हिन्दी में यमक पर इतनी विस्तृत चर्चा नहीं हुई है। लेकिन इस तरीके से सोचा जाय तो सम्भवतः हिन्दी साहित्य में भी यमक का यह रूप देखा जा सकता है। वैसे, हिन्दी में यमक की परिभाषा की गई है कि जहाँ एक ही शब्द की आवृत्ति हो और जितनी बार आवृत्ति होती है, उसके उतने ही अर्थ होते हैं, तो वहाँ यमक अलंकार होता है। इसके लिए काफी प्रचलित दोहा यहाँ उदाहरण के लिए लिया जा रहा है-
कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा  खाए  बौरात नर,  वा   पाए   बौराय।।
अगले अंक में पुनरुक्तवदाभास आदि अलंकारों पर चर्चा करेंगे।

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

आंच-121 : माँ और भादो

आंच-121

माँ और भादो

मेरा फोटोमनोज कुमार

मेरा फोटोअरुण चन्द्र रॉय की ताज़ी कविता “मां और भादो” को पढ़ते ही लगा कि इसे आंच पर लिया जाए। मां को केन्द्रीत इस कविता में कवि ने जहां यह दर्शाने की कोशिश की है कि भादो के मास में जहां एक ओर वर्षा नहीं वहीं दूसरी ओर सरकार ने कई ऐसे निर्णय ले डाले हैं, जिससे आम जन को कोई खास राहत नहीं मिलने वाली है। एक ओर एफ़.डी.आई. आदि जैसे निर्णय हैं, जो बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियों को प्रतयक्ष रूप से लाभ पहुंचाएगा वहीं ग्रामीण कृषक और निर्धन वर्ग अभाव और संत्रास को झेल रहा है। इन सब के बीच मां है जो जिस देवता को पूजती है, इस बार उसे ही कोस रही है, कि तेरी चमक ने हर ओर आग लगा दी है और लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। इस कविता में कवि ने मां के रूप में ऐसा बिम्ब लिया है जिसे जितने रूपों में सोचा जाए साकार हो जाता है। इस कविता को पढ़ते हुए जो भाव अनायास मन में उपजे उन्हें टिप्पणी के रूप में मैं कुछ इस प्रकार लिख गया :

ये एक ऐसा भादो है
जिसमें सिर्फ़ कादो-ही-कादो है
सत्ता की बेरुख़ी है
मां दुखी है
जग, समाज, निज-का संताप लिए
जल रहा सूरज
चमक और ताप लिए
अब हमें बाज़ार जाना नहीं है
घुस आया है बाज़ार हमारे घर में
और
मुस्कुरा रहा सूरज
नीले अम्बर में!

आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया 1991 में शुरू हुई थी। उस समय सुधार-समर्थकों ने कहा था कि इसका एक मानवीय चेहरा भी होगा। जिन लोगों ने इसकी आलोचना तब की थी, आज भी कर रहे हैं। उन्होंने तब कहा था कि इनके मार्फ़त सांस्कृतिक हमले भी किए जाएंगे। आज दो दशक के बाद कम-से-कम यह तो पक्का हो ही गया है कि इनमें मानवीय चेहरे लापता हैं। ... और जो सांस्कृतिक हमले हो रहे हैं उसका तो कहना ही क्या!

ऊंचे पदों पर हो रहे भ्रष्टाचार में कहीं न कहीं इन तथाकथित आर्थिक सुधारों का बहुत बड़ा हाथ है। हर बड़े घोटाले के तथाकथित लाभ पाने वाले पर अगर नज़र डालें तो पाएंगे कि इन सुधारों का सबसे ज़्यादा फ़ायदा इन्हें ही पहुंचता रहा है। क्या आज ग़रीब आत्मसम्मान से सिर ऊंचा रख पा रहा है? सुधारों के द्वारा सौंपी जा रही जीवनशैली ने कितना भला किया है – हमारे आपसी संबंधों का? क्या बाज़ार की डोर हमारे आपसी संबंधों की पतंग को नहीं काटे दे रही है? दरसल मुनाफ़ा कमाने का सिलसिला हमारे घरों के भीतर ही नहीं हमारे मन के दरवाज़े से दिल के भीतर भी घुस आया है और बाहर से ताला जड़ दिया गया है। आम आदमी मैंगो पिपल बना दिया गया है जो अपने रोटी, कपड़ा और मकान की फ़िकर में ही दिन-रात घुला जा रहे हैं।

अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने के नाम पर पिछले दिनों खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की मंज़ूरी दी गई। और फिर कंपनी बिल और पेंशन बिल को भी आगामी संसद सत्र में पेश करने का ऐलान कर दिया गया है। आर्थिक सुधारों के नाम पर इन फैसलों के तहत किन क्षेत्रों पर निगाहें हैं, वह कवि (अरुण चन्द्र रॉय) की नज़रों से छिपा नहीं है। कंपनी बिल के नाम पर लिया जाने वाला फैसला कंपनियों, निवेशकों और अन्य साझीदारों के हितों को बेहतर तरीक़े से रक्षा करने के उद्देश्य से लिया गया है। गांव का गवर्नेन्स भले रसातल में जा रहा हो, कॉर्पोरेट जगत के गवर्नेन्स में कोई कमी नहीं आनी चाहिए!

अरुण चन्द्र रॉय की आलोच्य कविता “माँ” पर केन्द्रीत है। माँ – मातृभूमि भी हो सकती है, देश भी, वह गांव भी है, गांव की धरती भी, ज़मीन और खेत भी। माँ – जिसने हमें अस्तित्व में लाया, उसी के अस्तित्व को हम समाप्त करने पर तुले हैं। दूसरे शब्दों में कहे तो अपने मूल को ही नष्ट कर रहे हैं हम। ज़मीन है, तो हम हैं। उस ज़मीन से कटे और उखड़े लोगों की पीड़ा को, उन्हें विस्थापित करने की प्रक्रिया को इस कविता में स्वर दिया गया है। मां की चिंताओं के बहाने एक दिन में आर्थिक सुधार के नाम पर लिए गए फैसले की ओर इशारा करते हुए कवि कहता है –

न जाने माँ की
कैसी कैसी चिंताएं हैं
जो इस शोर में
दब कर रह जाती हैं

और इस बीच सरकार

एक दिन में ले लेती है

कई जरुरी निर्णय

जिसमे भादो के नहीं बरसने का

जिक्र नहीं होता

भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक, वस्तु एवं सेवा कर विधेयक, खाद्य सुरक्षा विधेयक, खान और खनिज (विकास और विनियमन) विधेयक, प्रतिस्पर्धा (संशोधन) विधेयक, और बीमा क़ानून विधेयक – ही वे विधेयक हैं, जिन पर एक दिन में निर्णय लिया गया। खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को अनुमति देने के बाद कैबिनेट ने बीमा क्षेत्र में भी विदेशी निवेश की मंज़ूरी दे दी है। चिंता जताने वाले यह चिंता जता रहे हैं कि विदेशी कंपनियां लोगों के निवेश पर रिटर्न की गारंटी नहीं देंगी। उनकी नीतियाँ भारत की तमाम बचत को अपनी तरफ़ खींच लेंगी। इससे भारत के बैंकों और वित्तीय संस्थानों के लिए पूंजी की कमी हो जाएगी और आम निवेशक के लिए असुरक्षा बढ़ जाएगी। संभवतः कवि की मां की यही चिंता का कारण है।

फ़िल्म एक काल्पनिक दुनिया है और कवि की कविता में मां वास्तविक संसार में रहती है। उसके इस संसार में भादो ही भादो है, लेकिन इस भादो को भी सूखा का ग्रहण लग गया है, सावन तो फ़िल्मी परदों पर ही बरस रहा है, या यूं कहें कि कुछ खास लोगों की दुनियां में उसकी रिमझिम फुहार की नज़रे इनायत है।

बिजली क्षेत्र सरकार की भ्रामक नीतियों के कारण घुप अंधेरे में फंसा हुआ है और सुधार के नाम पर हर बार बिजली दरों में इजाफ़ा किया जाता रहा है। ‘सुरुज देव’ की आराधना करती मां भादों के बरसने का इंतज़ार ही करती रह गई है, उन किसानों की तरह जो सरकार की तरफ़ से किसी राहत पैकेज का इंतज़ार करते-करते गले में फांसी का फंदा लगाने को विवश हो गए हैं। हो भी क्यों नहीं यह पैकेज कुछ घंटे के लिए उजाले का दीदार करने वाले लोगों को अंधेरे में डुबोने का इंतजाम करता है। गांव का खेतिहर ऋण के बोझ तले दबा है, ग़रीबी के दुष्चक्र में इस कदर फंसा है, कि आत्महत्या तक की नौबत आ जाती है। बिजली नहीं, तो पानी नहीं, पानी नहीं तो धान नहीं, धान नहीं तो भुखमरी और आत्महत्या, यानी जीवन नहीं। ऐसे में मां का ‘सुरुज देव’ से नाराज़ होना जायज़ ही है। रोशनी का वितरण ऐसा कि जो रोशन हैं, रोशनी वहीं है, और जो अंधेरे में हैं वे घुप अंधेरे में घिरते जा रहे हैं, और आर्थिक सुधार के नाम पर उनके लिए सिर्फ उजाले का सपना लगातार बेचा जा रहा है। यह मुक्त अर्थव्यवस्था, मुक्त बाजार के कारण है क्योंकि उनकी योजना के केंद्र में है सिर्फ मुनाफा। अपनी विशाल प्रतिद्वन्द्विता और मुनाफे की होड़ में इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के यहां इन भूखे बेबस लोगों के लिए कोई जगह नहीं बन पाती।

मां का ‘सुरुज देव’ को कोसने में मुझे भूमिहीन मज़दूरों और आदिवासियों के सड़क पर उतर आने के सत्याग्रह आंदोलन की झलक दीखती है। यह इस बात का परिचायक है कि केन्द्रीय सत्ता ने उनकी समस्याओं का समाधान की ओर कोई पहल नहीं की है। इस आंदोलन ने लोगों के सामने यह सत्य उजागर किया है कि शोषित-वंचित तबके के हितों के ऊपर सरकार का कोई खास ध्यान नहीं है और वे जीवनयापन की बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं।

अरूण जी की कविताएं अकसर हाशिए पर पड़े लोगों की न सिर्फ़ सुधि लेती है बल्कि उनके सरोकारों को हमारे सामने लाती हैं। इनकी कविताओं में काव्यात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी रहती है। वे जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत कर देते हैं। प्रस्तुत कविता भी इसी की एक कड़ी है और इस कविता के ज़रिए अरुण जी ने एक बार फिर अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों को समेट बाज़ारवादी आहटों और मनुष्य विरोधी ताकतों के विरुद्ध एक आवाज़ उठाई है। आसन्न संकटों की भयावहता से हमें परिचित कराती यह कविता बताती है कि इंडिया और भारत की खाई इन आर्थिक सुधारों के नाम पर, जहां यह उम्मीद की गई थी कि समय के साथ समृद्ध वर्ग और शोषित-वंचितों के बीच की खाई कम होगी, वहीं दो दशकों का हमारा अनुभव यही कहता है कि इन प्रयोगों और नीतियों के द्वारा कितनी चौड़ी और गहरी कर दी गई है। समय के बदलते इस दौर में आज एक अलग तरह की भूख पैदा हो गई है। समृद्ध वर्ग के लोग निम्‍नवर्ग के लोगों का शोषण कर अपनी क्षुधा तृप्त करते हैं। इसलिए इनकी स्थिति सुधरती नहीं। विकास के जयघोष के पीछे इन्‍हें आश्‍वासन के सिवा कुछ भी नहीं मिलता। इनकी किस्‍मत की फटी चादर का आज कोई रफुगर नहीं। किसानों के इस देश में किसानों की दुर्दशा किसी भी छिपी नहीं है।

अर्थव्यवस्था की चुनौतियों और आर्थिक सुधारों के नाम पर उठाए जा रहे कदमों के बीच विसंगति को उजागर करती अरुण जी की कविता हमें यह बताती है कि सरकार के सुधार एजेंडे की ताजा कोशिशें आर्थिक चुनौतियों से कोई तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं और नेतृत्व की नाकामी की ओर इशारा करती है। तभी तो आर्थिक विषमता भारत में समृद्धि की नई पहचान है। इस कविता की आख़िरी पंक्तियों में आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता से उत्पन्न वर्गों के आंतरिक संसार के द्वंद्व रेखांकित होते हैं। इन वर्गों के अस्तित्व रक्षा की बेचैनी और असहाय चिंता के विवरण मां के चेहरे की झुर्रियों की तरह स्पष्ट हैं और कवि के ही शब्दों में कोई मेकप नहीं बना / जिसे छुपाने के लिए

अरुण जी आप एक ज़रूरी कवि हैं – अपने समय व परिवेश का नया पाठ बनाने, समकालीन मनुष्य के संकटों को पहचानने तथा संवेदना की बची हुई धरती को तलाशने के कारण। आपकी यह कविता मौजूदा यथार्थ का सामना करने की कोशिश का नतीजा है। इस कविता में आप अपना ही पुराना प्रतिमान (कील पर टँगी बाबूजी की कमीज़) तोड़ते नजर आते हैं। आज की इस कवितागिरी के दौर में, जहां कविता-लेखन मात्र एक नारा या फैशन बनकर रह गया है, अरुण जी की कविता में कथ्य और शिल्प की सादगी मन को छू लेने वाली है और आज की ‘आंच’ का अंत अमृता जी की टिप्पणी के द्वारा अरुण जी को कहना चाहूंगा, कि अरुण जी कितनी सहजता से आप गंभीर बात को कह देते हैं जो कि भीतर तक हाहाकार मचा देती है। गद्य में विचारों को विस्तार देने की स्वतंत्रता होती है, इसलिए वह तनावों को कम करने में अधिक सक्षम होता है। लेकिन अरुण जी ने इस कविता में एक नहीं देश की कई ज्वलंत समस्याओं को घनीभूत कर दिया है। आठ-दस पन्ने में रंगा गद्य पहले मस्तिष्क को झकझोरता है फिर यदि सक्षम हुआ तो हृदय को। अरुण जी की यह कविता पहले हमारे हृदय में प्रवेश करती है, और फिर हृदय से मस्तिष्क की ओर जाती है। इस कविता में विडम्बनाओं का मारक और मर्मस्पर्शी प्रयोग है, इसलिए कविता काफ़ी बेधक हो गई है। यह पाठक को गुदगुदाती नहीं, झकझोरती है, तिलमिलाती है, आक्रोश भर देती है।

बधाई अरुण जी!!

सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

ऐसा ही बचा हुआ गांव है

ऐसा ही बचा हुआ गांव है
श्यामनारायण मिश्र
आमों    के      बाग     कटे
कमलों    के     ताल    पटे
भटक   रहे   ढोरों  के  ढांचे
दूर-दूर तक बंजर फैलाव है
ऐसा  ही बचा हुआ गांव है

पेड़ पर गिलहरी से चढ़ते
अध नंगे बालक
छड़ियों सी क्षीणकाय
पीली पनिहारियां
पत्तों की चुंगी में
बची-खुची तंबाखू
सुलगाते बूढ़े
सहलाते झुर्रियां
द्वार   पर   पगार    लिए
कामगार        बेटे      का
हफ़्तों  से  ठंडा  उरगाव है
ऐसा ही बचा हुआ गांव है

मेड़ों   पर    उगी
बेर   की  कटीली
कास की गठीली
खेतों तक फैल गई झाड़ियां
जोहड़े से कस्बे तक
लाद-लाद ईंटें
बैल हुए बूढ़े टूट चुकी गाड़ियां
मिट्टी      की      फटी-फटी
कच्ची      दीवारों       पर
झुके    हुए    छप्पर    की
आड़ी     सी     छांव     है
ऐसा ही बचा हुआ गांव है

कुत्तों के रोने सा साइरन बजातीं
बल  विवेक  खाती
फैल  रही   भट्टियां
देखते   ही   देखते
मोची के छातों सी
तन गई हैं झोपड़ पट्टियां
हाथ नहीं
हिंसक ये पंजा
गर्दन में ज़ोर का कसाव है
ऐसा ही बचा हुआ गांव है

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 126


भारतीय काव्यशास्त्र – 126
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में अनुप्रास अलंकार पर चर्चा की गई थी। कुछ आचार्य अनुप्रास के तीन भेद- छेकानुप्रास, वृत्त्यानुप्रास और लाटानुप्रास मानते हैं। कुछ आचार्य इसके पाँच भेद, अर्थात् उक्त तीन के अतिरिक्त दो और मानते हैं - श्रुत्यानुप्रास और अन्त्यानुप्रास। पिछले अंक में छेकानुप्रास, वृत्त्यानुप्रास और लाटानुप्रास पर चर्चा की जा चुकी है। इस अंक में श्रुत्यानुप्रास और अन्त्यानुप्रास  पर चर्चा की जाएगी। 
पिछले अंक में लाटानुप्रास पर चर्चा करते समय कुछ बातें छूट गई थीं। आगे बढ़ने के पहले उन्हें यहाँ पूरी कर लेते हैं। काव्यप्रकाश में अनुप्रास के केवल तीन भेद ही बताए गए हैं, जिनकी चर्चा पिछले अंक में की जा चुकी है। हाँ, इसमें लाटानुप्रास के पाँच भेद बताए गए हैं -
1.     जहाँ अनेक पदों की आवृत्ति हो,
2.     जहाँ केवल एक पद की आवृत्ति हो,
3.     जहाँ एक ही समास में पद की आवृत्ति हो,
4.     जहाँ दो अलग-अलग समासों में एक ही पद की आवृत्ति हो और
5.     जहाँ पद की आवृत्ति समास में और फिर बिना समास के हो।
इन सभी को आचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाश में सोदाहरण स्पष्ट किया है। पर, अन्य आचार्यों ने लाटानुप्रास को इस रूप में नहीं देखा है। चूँकि हिन्दी में संस्कृत भाषा की तरह समासों का प्रयोग नहीं होता है। इसलिए इसे यहीं छोड़ा जा रहा है। जहाँ तक मुझे देखने को मिला, हिन्दी में लाटानुप्रास के भेदों की चर्चा नहीं की गई है। आचार्य विश्वनाथ ने अनुप्रास के पाँच भेद मानते हुए श्रुत्यानुप्रास और अन्त्यानुप्रास की चर्चा की है। हिन्दी में भी आचार्यों ने इनकी चर्चा की है। अतएव इनपर यहाँ चर्चा की जा रही है।
आचार्य विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में श्रुत्यानुप्रास की परिभाषा इस प्रकार की है -
उच्चार्यत्वाद्यद्येकत्र  स्थाने  तालुरादिके।
सादृश्यं व्यञ्जनस्यैव श्रुत्यानुप्रास उच्यते।।      
अर्थात् तालु, कण्ठ, मूर्धा, दन्त आदि किसी एक स्थान से उच्चरित होनेवाले व्यंजनों की जहाँ आवृत्ति हो, तो वहाँ श्रुत्यानुप्रास होता है। जैसे -
दृशा  दग्धं  मनसिजं  जीवयन्ति दृशैव याः।
विरूपाक्षस्य जयिनीस्ताः स्तुमो वामलोचनाः।।
अर्थात् दृष्टि से जले हुए कामदेव को जो दृष्टि से ही जीवित करती है, अर्थात् भगवान शिव को, जिनके तीसरे नेत्र से भस्मीभूत कामदेव जिन सुलोचनाओं के कटाक्ष से पुनः जीवित हो जाते हैं, प्रसन्न करनेवाली उन वामलोचनाओं की हम स्तुति करते हैं।
यहाँ तालु से उच्चरित होनेवाले वर्ण ज, य तथा दन्त वर्ण स, त आदि की आवृत्ति होने के कारण श्रुत्यानुप्रास अलंकार है। हिन्दी में तुलसीदास जी की निम्नलिखित पंक्ति में श्रुत्यानुप्रास देखा जा सकता है -
तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई।
यहाँ त, ल, न, द आदि दन्त-वर्णों की आवृत्ति होने से श्रुत्यानुप्रास है। इसके अतिरिक्त त, स आदि की एक बार से अधिक आवृत्ति होने के कारण यहाँ वृत्यानुप्रास भी है।
जहाँ पद या चरण के अन्त में यथासम्भव स्वर, विसर्ग, अनुस्वार आदि सहित व्यंजन की आवृत्ति हो, तो उसे अन्त्यानुप्रास कहते हैं। साहित्यदर्पण में अन्त्यानुप्रास की परिभाषा निम्नवत् की गई है -
व्यञ्जनं  चेद्यथावस्थं  सहाद्येन स्वरेण तु।
आवर्त्यतेSन्त्ययोज्यत्वादन्त्यानुप्रास एव तत्।।
इसके लिए निम्नलिखित उदाहरण दिया गया है-
केशः काशस्तबकविकासः कायः प्रकटितकरभविलासः।
चक्षुर्दग्धवराटककल्पं त्यजति न चेतः काममनल्पम्।।
अर्थात् कास के फूल के समान केश सफेद हो चुके हैं। शरीर दो पैरों पर खड़े ऊँट के बच्चे की तरह हो गया है। आँखें जली कौड़ी की तरह हो गई हैं। फिर भी कामना को चित्त जरा भी नहीं छोड़ता।
इस श्लोक में पहले दो चरणों में आसः की विकासः और विलासः में आवृत्ति हुई है। इसी प्रकार तीसरे और चौथे चरण में ल्पम् की कल्पम् और अल्पम् के रूप में आवृत्ति हुई है। अतएव यहाँ श्रुत्यानुप्रास है। निम्नलिखित सोरठा हिन्दी में उदाहरण स्वरूप दिया जा रहा है -    
   कुंद इंदु सम देह, उमा रमन करुना अयन।
   जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन मयन।।
     इसमें पहले और तीसरे चरण में देह और नेह तथा तीसरे और चौथे चरण में अयन तथा मयन में श्रुत्यानुप्रास है। वैसे सोरठा में प्रायः प्रथम एवं तृतीय चरणों में ही अन्त्यानुप्रास देखने को मिलता है। पर इस सोरठे के दूसरे और चौथे चरणों में भी अन्त्यानुप्रास है। इसके अतिरिक्त कुंद, इंदु पदों के अंत में भी अन्त्यानुप्रास है।
     अन्त्यानुप्रास के कई भेद किए जा सकते हैं - 1. पद के अंत में, 2. सभी चरणों के अन्त में (सवैया), 3. विषम और सम चरणों के अंत में (चौपाई छंद), 4. सम चरणों के अन्त में (दोहा), 5. विषम चरणों के अंत में (प्रायः सोरठा में) समान वर्णों की आवृत्ति होती है। यहाँ सम चरण का अर्थ दूसरा और चौथा, विषम चरण का अर्थ पहला और तीसरा है।
     इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में यमक और पुनरुक्तवदाभास अलंकारों पर चर्चा होगी।   
******

मंगलवार, 2 अक्टूबर 2012

कविता - श्रद्धा-सुमन


श्रद्धा-सुमन
आचार्य परशुराम राय




क्या कहूँ
बापू,
आपके बन्दरों ने
जीना हराम कर दिया -
एक सुनता नहीं,
एक देखता नहीं
और
एक कुछ कहता नहीं।
जो देखता है, बोलता नहीं,
जो बोलता है, सुनता नहीं
और
जो सुनता है,
वह न देखता है, न बोलता है।


इन तीनों से
आ मिले हैं
दो और बन्दर,
एक बात-बात पर
देता रहता है
बन्दर-घुड़की
और दूसरा
सब कुछ
छीन लेता है।

अब तो
इनकी जनसंख्या भी
इतनी हो गई है
कि क्या कहूँ,
इनके आतंक से
त्रस्त जनता
किंकर्तव्यविमूढ़ है।
इनके द्वारा
आपकी समाधि पर
चढ़ाने के लिए फूल
लाए गए हैं
उजाड़कर
फुलवारियों को।
पर, पास मेरे
जो बचे श्रद्धा सुमन,
स्वीकार करें इनको
बापू।
****