आंच-104
ग़ज़ल (जंजाल आते हैं)
श्री संजय मिश्र ‘हबीब’ ब्लॉग जगत में काफी जाना पहचाना नाम है. सेक्युलर बयार में आप भी अपना नाम एस. एम्. हबीब (संजय मिश्र हबीब) लिखते हैं. जिसे जैसा लगे उसी के मुताबिक़ अपनी राय बना ले या सूरत गढ़ ले. बड़े सधे हुए साहित्यकार हैं और गज़ल, कविता और कहानियों पर बराबर दखल रखते हैं. गज़लें कहना इनकी खासियत है और ब्लॉग पर गज़ल प्रकाशित करने का इनका ढंग भी निराला है. वास्तव में गज़ल पढते वक्त सबसे पहले लोगों के सामने यह समस्या होती है कि गज़ल की बहर क्या है. जिसके कारण बाज मर्तबा लोगों को गज़ल पढने में परेशानी का सामना करना पडता है. हबीब साहब, गज़ल की शुरुआत से पहले बहर की बाबत इत्तिला दे देते हैं, ताकि गज़ल कहने वाले और पढ़ने वाले के बीच मतले से ही रिश्ता सा कायम हो और गज़ल का मज़ा बरकरार रहे.
यह गज़ल बहरे हजज मुसम्मन सालिम मफाइलुन/ मफाइलुन/ मफाइलुन/ मफाइलुन बहर में कही गयी है. इस बहर में गज़ल कहने पर एक सुविधा रहती है कि अपनी बात कहने के लिए समुचित जगह मिल जाती है. और यही इस गज़ल (जंजाल आते हैं) की सुंदरता भी है. यहाँ शायर ने अपनी बात बहुत खुलकर लोगों के सामने रखी है.
विदेशी बेचने हमको, हमारा माल आते हैं,
हमारी जान की खातिर बड़े जंजाल आते हैं.
गज़ल का मतला बहुत ही सामयिक है और देश के एक ज्वलंत मुद्दे की और इशारा करता है और तुरत बाद अगला शेर देश की राजनैतिक व्यवस्था पर व्यंग्य करता हुआ दिखाई देता है. एक ओर वॉलमार्ट और दूसरी ओर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाले के खिलाफ जांच शुरू कर देना, आज के दौर की सचाई है जो इन दोनों शेर में खुलकर सामने आई है.
रहो खामोश अपने देश की बातें न करना तुम,
जुबां खोली अगर, माजी तिरा खंगाल आते हैं ।
गज़ल की परम्परा के अनुसार मतला देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल होता है कि गज़ल का मिज़ाज कैसा है. लेकिन आजकल जिस तरह गज़लें कही जा रही हैं उनमें कमोबेश एक तरह की ही बात को सारे अशार में कहने का चलन है. जैसे सरकार की नाकामी, मुल्क की बदअमनी, फिरकापरस्ती या साम्प्रदायिक सद्भाव. ऐसे में यहाँ पर अलग-अलग भावों को अशार में पिरोने की कोशिश की गयी है. लेकिन अंतर में एक व्यथा, एक पीड़ा, एक कसक कहीं है जो पूरी गज़ल में स्पष्ट है. कारण यही है कि समाज में जो माहौल बन रहा है वहाँ शायद ऐसी ही फिजां बन गयी है. शायर ने भी वही महसूस किया है कि लुटेरे मेहमानों की तरह आ रहे हैं, रहनुमा झूठे सपने दिखाए जा रहे हैं, मरे इंसान की खाल तक नोची जा रही है, इंसानों को कंकाल बनाया जा रहा है उनका सबकुछ निचोडकर और फिर से एक गुलामी का दौर आ गया या आने वाला है. बातें अलग-अलग कही हैं हबीब साहब ने, लेकिन उन सब बातों में अंडरकरेंट एक ही है- बदहाली. उनके कहने का अंदाज़ सादगी से भरा है, जो उनकी ग़ज़लों की खासियत रही है.
सभी मिहमान को हम देव की भांती बुला लेते,
लुटेरे भी अगर आये बजाते गाल आते हैं ।
गज़ल कहने की एक और महत्वपूर्ण ज़रूरत यह है कि गज़ल सिर्फ दिल से नहीं कही जा सकती. दो मिसरों में कही गयी बात की सार्थकता इसमें नहीं कि बात दिल से निकले, बल्कि इसमें है कि दिल तक पहुंचे. बिना चीरा लगाये सर्जरी करने वाली बात. पहला मिसरा कहे जाने तक यह गुमान भी नहीं होता कि अगला मिसरा कौन सा मोड लेगा और जब कहा जाए तो आप हैरत में पड़ जाते हैं. वज़ह इतनी कि आपको अनुमान भी नहीं होता कि बात यूँ कही जायेगी. यहाँ आश्चर्य पैदा करने वाला तत्व नहीं दिखाई पड़ता है. मगर बयान में नयापन है जो बाँध लेता है और वाह कहने पर मजबूर करता है.
मशीनों की नई इक खेप बस आने ही वाली है,
उधर इनसान डालो तो इधर कंकाल आते हैं ।
लफ़्ज़ों की बाबत यह कहना होगा कि जितनी आसानी से ‘जंजाल’ कहा गया, उतनी आसानी से ‘खंगाल’ या ‘विकराल’ नहीं कहा जा पा रहा है. ये दोनों शब्द जिन मिसरों में आये हैं उनमें एक रुकावट आ रही है. गज़ल में गहरी बात भी कोमल लफ़्ज़ों में कहने का रिवाज़ है और यही इस विधा की खूबसूरती है. अंत में एक और त्रुटि की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है, “टेढ़े चाल” और “उनके खाल” के स्थान पर ‘टेढी चाल’ और ‘उनकी खाल’ होना चाहिए क्योंकि चाल और खाल दोनों स्त्रीलिंग शब्द हैं. ऐसे प्रयोग गज़ल पर शायर की पकड़ ढीली होने का संकेत करते हैं, जहां प्रतीत होता है कि लफ़्ज़ों को जबरन बिठाया जा रहा है.
कुल मिलाकर संजय मिश्रा ‘हबीब’ साहब की गज़लें आनंदित करती हैं, नई सोच को जन्म देती हैं और गज़ल की मांग के साथ इन्साफ करती हैं.
हिंदी में गजल का इतिहास बहुत पुराना है। अगर अमीर खुसरो हिन्दी के पहले रचनाकार हैं तो अमीर खुसरो हिन्दी के पहले गजलकार हैं। हिन्दी में गजल को लाने में सूफी कवियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कबीर, मीरा, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, अयोध्या सिंह उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद और निराला से होती हुई गजल शमशेर तक आई। इन्होंने खडी बोली हिंदी की प्रकृति के अनुरूप मात्र्कि छंदों एवं भारतीय उपमा-उपमानों, प्रतीकों, बिंबों का प्रयोग किया। यानी की उन्होंने फारसी गजल के कलेवर को अपनाया उसकी आत्मा को नहीं। लेकिन यहाँ तक गजल हिन्दी में अपना कोई महत्त्वपूर्ण मुकाम नहीं बना पाई। हिन्दी में गजल को अलग पहचान दी दुष्यंत ने।
जवाब देंहटाएंश्री संजय मिश्रा हबीब जी के गजल को सलील वर्मा जी ने आँच-104 के माध्यम से अच्छी तरह से व्याख्यायित किया है । सलील वर्मा जी की प्रशंसा में मेरे पास फिलहाल कोई विशेषण नही है । धन्यवाद।
संजय जी और सलिल जी, दोनों व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी हैं, अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंहबीब साहब उर्फ़ मिश्र जी से सलिल साब ने रूबरू कराया, बहुत संतुलित ढंग से.उनकी ग़ज़लें प्रभावित करती हैं.
जवाब देंहटाएंआदरणीय सलिल जी , संजय जी के ब्लॉग पर सीखने को बहुत कुछ मिलता है ....हम भी निरंतर इसी सीखने के भाव से उनके ब्लॉग पर घूम ही आते हैं ...आपकी मार्गदर्शन भरी टिप्पणियाँ हमारा भी मनोबल बढाती हैं और प्रेरित करती हैं ....निश्चित है यह समीक्षा नए आयाम स्थापित करेगी ....आप सबको ढेरों शुभकामनाएं ...!
जवाब देंहटाएंअद्भुत! मुझे तो बहुत सुंदर लगा। ग़ज़ल और समीक्षा दोनो।
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा, प्रेम जी सही कहा "हिन्दी में गजल को अलग पहचान दी दुष्यंत जी ने"
जवाब देंहटाएंvikram7: हाय, टिप्पणी व्यथा बन गई ....
सलिल जी के बहुमुखी प्रतिभा और ग़ज़ल में उनकी गहराई का प्रमाण है यह समीक्षा... आंच को उर्जा देती हुई...
जवाब देंहटाएंक्या बात है सलिल जी ! आज आपकी इस प्रतिभा से भी रू ब रू हुए.गज़ल और समीक्षा दोनों अच्छी लगीं.
जवाब देंहटाएंसलिल जी आपने बहुत ही लाजवाब चर्चा की है संजय जी की गज़ल की ...हिंदी आज की भाषा है गज़लों की ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआभार!
गजल के बारे में विशिष्ट जानकारी करत एक उत्कृत पोस्ट जिसकी उपादेयता स्सहित्यिक रूचि वालों के लिए तो है ही, सामान्य पाठक के लए भी कम नहीं है. आभार इस कृति के लिए.
जवाब देंहटाएंLajawab...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लाजवाब...
जवाब देंहटाएंखूबसूरत गज़ल की बहुत अच्छी समीक्षा .. त्रुटियों पर पैनी दृष्टि डाली है .. वैसे गज़ल के बारे में मुझे ज्यादा पता नहीं है :)
जवाब देंहटाएंकाफी कुछ सिखने को मिला !
जवाब देंहटाएंआपका बहुत आभार !
संजय जी की ग़ज़लों का तो मैं शुरू से ही बहुत प्रशंसक रहा हूं। सलिल भाई आपने इसकी इस बेहतरीन समीक्षा द्वारा इस ब्लॉग के इस स्तंभ में चार चांद लगा दिए है। आपका बहुत-बहुत आभार जो आपने हमारी बात रखी और इसकी समीक्षा प्रस्तुत की।
जवाब देंहटाएंपहली बार समीक्षा के तौर पर औपचारिक रूप से किसी गज़ल के विषय में कुछ कहना, उत्तरदायित्व का ऐसा बोझ है जिसका निर्वाह बहुत कठिन होता है... यह दायित्व मुझे सौंपकर मनोज जी ने मुझे जो मंच प्रदान किया है, उसके लिए मैं उनका आभारी हूँ... कितना सफल हुआ यह तो आपकी टिप्पणियाँ ही बताएंगी.. शायर साहब की अनुपस्थिति खटक रही है.. शायद उन्हें मनोज जी ने सूचित न किया हो!! एक बार पुनः आभार मनोज कुमार जी का!
जवाब देंहटाएं@ सलिल भाई,
जवाब देंहटाएंभले आपको नहीं सूचित किया, पर उन्हें तो ज़रूर सूचित किया था, जैसा कि आप जानते हैं बिना रचनाकार की सहमति के हम कोई समीक्षा पोस्ट नहीं करते। उन्होंने जो जवाब दिया उसे यहां पोस्ट करते मुझे हर्ष हो रहा है।
आदरणीय मनोज भईया,
सादर नमस्कार.
मेरी अनगढ़ कोशिशें आपको आपको भाईं यह निश्चित ही मेरा सौभाग्य है.
स्नेहाधीन रख कमियों को रेखांकित एवं मार्गदर्शन करते हुए अपने अनुज को सकारात्मक प्रयास करते
रहने हेतु प्रेरणा देते रहेंगे.. यही आपसे अनुनय है...
विनयावनत
संजय मिश्रा 'हबीब'
सर्वप्रथम समस्त सुधिजनों से क्षमा याचना अपनी विलम्बित आमद के लिए...
जवाब देंहटाएंतत्पश्चात सादर आभार “आंच” और आदरणीय सलील वर्मा जी का कि उन्होंने मेरी रचना को इस महत्त्वपूर्ण पटल पर रखने और उस पर चर्चा करने लायक माना. यह मुझ जैसे नाचीज के लिए अत्यधिक सम्मान की बात है.
मुझे यह स्वीकार करने में संकोच नहीं है कि मुकम्मल गज़ल कहने के लिहाज से मेरे लिए अभी दिल्ली बहुत दूर है. गज़ल की विधा से बेहद लगाव के चलते एक विद्यार्थी की भाँति सुधिजनों को पढकर, चर्चा कर कुछ कहने का प्रयास करता हूँ. संभव है सुधिजनों के मार्गदर्शन में आगे कुछ सार्थक रच पाऊं...
बहुत आभारी हूँ आदरणीय सलील वर्मा जी का उनके बहुमूल्य समीक्षा एवम सहृदय मार्गदर्शन के लिए. निश्चित ही यह चर्चा इस विधा में रूचि रखने वाले मुझ जैसे विद्यार्थी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साबित होगा.
बहुत आभारी हूँ आदरणीय मनोज भईया का जिनका स्नेह सकारात्मक सृजन की दिशा में उत्प्रेरित करता है.
बहुत आभार समस्त सुधिजनों का जिनकी प्रतिक्रियाएं हमेशा मेरा मनोबल बढाती हैं,
कार्यालय में इन दिनों कुछ ज्यादा ही व्यस्तता का आलम है जो अंतरजाल में मेरे लिए नियमित उपस्थिति दर्ज कराने में बाधक बनी हुई है... इसी लिए यहाँ आने में भी विलम्ब हुआ... संभवतः सप्ताह भर यह सिलसिला और चलने वाला है... अतः समस्त सुधि मित्रों से उनके ब्लाग में अपनी अनुपस्थिति के लिए अग्रिम क्षमा याचना सहित स्नेह बनाए रखने का निवेदन.
सादर.
संजय मिश्रा ‘हबीब’
कवि अपने समय के प्रति स्वयं तो जागरूक होता ही है,औरों को जगाना भी कवि-कर्म का हिस्सा होता है। इस लिहाज से,पहले ग़ज़ल और फिर इस विवेचना को पढ़ने के बाद ऐसा लगता नहीं कि कोई पक्ष छूटा है चर्चा से।
जवाब देंहटाएंआभार राधारमण जी! आपने समीक्षा रूपी गज़ल के मिसरे में गिरह लगा दी!
हटाएंgazal bahut khoobsurat hai.......aur saliljee ne 'aanch'ekdam sahi rakhi hai sameekcha karnte samay.....
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा.
जवाब देंहटाएंआंच की प्रतिष्ठा के अनुरूप समीक्षा ! सलिल जी को बधाई...
जवाब देंहटाएंइस ग़ज़ल की खूबसुरती : गज़ल कहने की एक और महत्वपूर्ण ज़रूरत यह है कि गज़ल सिर्फ दिल से नहीं कही जा सकती. दो मिसरों में कही गयी बात की सार्थकता इसमें नहीं कि बात दिल से निकले, बल्कि इसमें है कि दिल तक पहुंचे. बिना चीरा लगाये सर्जरी करने वाली बात. पहला मिसरा कहे जाने तक यह गुमान भी नहीं होता कि अगला मिसरा कौन सा मोड लेगा और जब कहा जाए तो आप हैरत में पड़ जाते हैं. वज़ह इतनी कि आपको अनुमान भी नहीं होता कि बात यूँ कही जायेगी. यहाँ आश्चर्य पैदा करने वाला तत्व नहीं दिखाई पड़ता है. मगर बयान में नयापन है जो बाँध लेता है और वाह कहने पर मजबूर करता है.
जवाब देंहटाएंग़ज़ल की पैठ में सलिल जी खूब रमें हैं।
@ “टेढ़े चाल” और “उनके खाल” के स्थान पर ‘टेढी चाल’ और ‘उनकी खाल’ होना चाहिए
जवाब देंहटाएंमैं ज़नाब हबीब साहेब का बचाव नहीं कर रहा हूँ ..पर "लिंगों" वाला यह झगड़ा आंचलिक है...'छत्तीसगढ़ी बोली' में प्रायः इसी तरह बोलते हैं लोग. साहित्यिक मंच पर लिंगो का झगड़ा वाकई अखरता है. यूँ, उनकी ये पंक्तियाँ दमदार लगीं -
मशीनों की नई इक खेप बस आने ही वाली है,
उधर इनसान डालो तो इधर कंकाल आते हैं ।
मुझे कभी-कभी सलिल भैया से डर लगने लगता है .... टर्मिनोलोजी का ऐसा तड़का लगाते हैं कि सब ऊपर से निकल जाता है.....बहरे हजज मुसम्मन सालिम मफाइलुन/ मफाइलुन/ मफाइलुन/ मफाइलुन बहर ....लगता है जैसे अरब में आ गया हूँ ....उड़ती रेत से शब्द और ऊपर से नासमझी की गर्मी ....ए भाई ! एक आध मेडिकल का भी टर्म डाल दिया करिए ....या फिर अरबी का मेडिकल संस्करण भी चलेगा, कुछ यूँ .....बहरेमिया हजाजुनाईटिस मुसम्मनोब्लास्ट सालिमोकुलाइटिस मफाइलूनोपिया....
ग़ज़ल कार और समीक्षक दोनों अपनी जगह विशेष स्थान बनाए हुएँ हैं .समीक्षक की कलम में आत्मीयता है दुराव या उपेक्षा नहीं .यही समीक्षक कर्म की खूबी होनी भी चाहिए .बहर -सूरत समीक्षा एक दम सटीक और अनुकरणीय है ग़ज़ल कहने वालों के लिए .
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