ऐसा ही बचा हुआ गाँव है
श्यामनारायण मिश्र
आमों के बाग कटे
कमलों के ताल पटे
भटक रहे ढोरों के ढांचे
दूर-दूर तक बंजर फैलाव है
ऐसा ही बचा हुआ गाँव है।
पेड़ों पर चढ़ते अधनंगे बालक
छड़ियों सी क्षीणकाय पिली पनिहारियां,
पत्तों की चुंगी में बची-खुची तंबाखू,
सुलगाते बूढ़े सहलाते झुर्रियां,
द्वार पर पगार लिए
कामगार बेटे का
हफ़्तों से ठंडा उरगाव है।
मेड़ों पर उगी काँस की गठीली
बेर की कटीली खेतों तक फैल गई झाड़ियां।
जोहड़ से कस्बे तक लाद-लाद ईटें
बैल हुए बूढ़े टूट चुकी गाड़ियां,
कटी-फटी मिट्टी की
कच्ची दीवारों पर
झुके हुए छप्पर की
आड़ी सी छांव है।
बढ़िया नवगीत.... गावं की आत्मा है इस गीत है
जवाब देंहटाएंगाँव की याद दिलाती रचना ...
जवाब देंहटाएंगाँव, तेरे नाना रूप! बढ़िया.
जवाब देंहटाएं..फिर भी बहुत-कुछ बचा हुआ गाँव है !
जवाब देंहटाएंइस रचना ने मेरे गाँव की याद दिला दी है !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना ....
गाँव का सुन्दर चित्रण्।
जवाब देंहटाएंगांव का जीवंत वर्णन है सुन्दर रचना को पढवाने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंनेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर उनको शत शत नमन!
वर्तमान में गॉंवों की यही दुर्दशा है, अच्छा चित्र खींचा है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों से गांव जाना हो ही नहीं पाया है ....लेकिन मैंने भी कुछ ऐसा ही सुना है गांव के बारे में .
जवाब देंहटाएंजिन्होंने वो गाँव देखा है उन्हें यह नवगीत पढकर पता चलता है कि उन्होंने क्या खोया है!!
जवाब देंहटाएंचिरयुवा कवि और चिरकाल तक प्रभावित करने वाली उनकी रचनाएं!!
मिले वो परिचित सा फिर गाँव..
जवाब देंहटाएंकटी-फटी मिट्टी की
जवाब देंहटाएंकच्ची दीवारों पर
झुके हुए छप्पर की
आड़ी सी छांव है।..सच है ! आज सभी गाँव के यही हाल है...
Mishra ji ki sundar gaon kee yaad taaji karati rachna prastuti hetu aabhar!
जवाब देंहटाएंगाँव का सुन्दर चित्रण्। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंकवि से क्षमा सहित, एक प्रतिक्रिया
जवाब देंहटाएंअमराईयों के बाग कटे
कमलडंडी के ताल पटे
भटक रहे ढोरों के ढांचे
भविष्य़ इनका कौन बांचे
दूर-दूर तक बंजर फैलाव है
ऐसा ही बचा हुआ गाँव है।
पेड़ों पर चढ़ते अधनंगे बच्चेँ
छड़ियों सी पीली पनिहारियां,
पत्तों की चुंगी में बची तंबाखू,
सुलगाते बूढ़े, सहलाते दाढि़यां,
द्वार पर पगार लिए बेटे का
हफ़्तों से ठंडा उरगाव है।
मेड़ों पर उगी काँस की गठीली
खेतों तक फैली बेर की कटीली
जोहड़ से कस्बे तक ढोकर ईटें
बैल हुए बूढ़े, टूट चुकी गाड़ियां,
कटी-फटी दीवारों पर
छप्पर की आड़ी सी छांव है।
राजेश जी,
हटाएंआपकी प्रतिक्रिया पर मेरी प्रतिक्रिया
बरसों के बाद गया
मैं अपने गांव,
क्या करता छू आया
बस बड़ों के पांव।
गौशालों की गंध से
थी सनी हवाएं,
छप्परों पर धूल सी
जमी मान्यताएं।
स्वेद सिक्त, श्रमरत,
सर गमछे की छांव।
सूरज तो भटक गया
शहरों की भीड़ में,
चांदनी भी फंस गई
मेघ की शहतीर में।
खोजते हैं शहर
वहां अपने ही दांव।
मक्खियाँ तक अब नहीं
करती हैं भिन- भिन,
आम के दरख़्तों पर
ठिठुरे से दिन।
सब गए शहर कहे
अम्मा की झाँव।
सिकुड़ी आँखों झुककर
झांके झींगुर दास,
पेठिये के शोरगुल पर
मण्डी का उपहास।
कब्बार के कोने उपेक्षित
दादाजी की खड़ाउँ।
झुर्रियों ढपी आंखें
सपने अब शेष नहीं,
शहर इन गांवों को
छोड़ आया दूर कहीं।
इनारों की जगत पर
शाम का ठिठकाव।
बरसों के बाद गया
हटाएंमैं अपने गांव,
क्या करता छू आया
बस बड़ों के पांव।
वाह! वाह! वाह! आदरणीय मनोज भईया...
बहुत सुन्दर गीत...
सादर...
कुछ दिनों पहले मैने अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट किया था "मुझे मेरे गांव में गांव का निशाँ नही मिलता" । मिश्र जी की इस कविता ने बीते वासर में जाने के लिए बाध्य कर दिया । सच मे अब मुझे ही नही हर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को देखने में अब वो गांव नही लगता जिसे वर्षों पूर्व हम सब देखे थे। .ताल, तलैया, बाग- बगीचा सब कुछ तो अदृश्य हो गए । .सामाजिक एवं आर्थिक युग के बदलते स्वरूप से प्रभावित होकर लोग पुरखों के लगाए हुए बाग- बगीचे को काट कर अब अपना "विल्डींग" बना रहे हैं लेकिन मेरी समझ में यही बात आती है कि वे लोग घर नही बना पाते हैं । रिश्ते, लोगों की संवेदनशीलता मृतप्राय:हो गयी है । कविता (नवगीत) भी अपने आप में मनोहारी है । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंसुंदर चित्र संवारा है गांव का साथ ही राजेश जी और मनोज जी उत्तर प्रत्युत्तर भी बहुत सुंदर लगा. वैसे गांव भी अपनी गर्माहट धीरे धीरे गुमाते जा रहे.
जवाब देंहटाएंकच्ची दीवारों पर
जवाब देंहटाएंझुके हुए छप्पर की
आड़ी सी छांव है।
सच में अब पहले सी बात नहीं रही ..........
सुंदर रचना ..
जोहड़ से कस्बे तक लाद-लाद ईटें
जवाब देंहटाएंबैल हुए बूढ़े टूट चुकी गाड़ियां,
कटी-फटी मिट्टी की
कच्ची दीवारों पर
झुके हुए छप्पर की
आड़ी सी छांव है।
जोहड़ से कस्बे तक लाद-लाद ईटें
बैल हुए बूढ़े टूट चुकी गाड़ियां,
कटी-फटी मिट्टी की
कच्ची दीवारों पर
झुके हुए छप्पर की
आड़ी सी छांव है।
यही बचा खुचा गाँव है पीपल की छाँव है .
इस सुंदर रचना को प्रस्तुत करने के लिए आभार!!!
जवाब देंहटाएंगांव निश्चित रूप से अब वो नहीं रहे.
सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना/सुन्दर अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंसादर आभार...
Bahut hi sundar kavita likhi hai...
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