आँच – 103
काव्य की भाषा – 6
काव्य की भाषा विषयक शृंखला के अंक-3 में महाकवि भारवि
द्वारा उत्तम भाषा की जो विशेषताएँ बतलाई गई हैं उनमें से
‘अपवर्जितविप्लव’ पर चर्चा की गई थी। अंक-4 में दूसरी
विशेषता ‘शुचौ’ अर्थात शुचिता पर चर्चा की गई। अंक-5 में
तीसरी विशेषता ‘हृदयग्राहिणी’ पर चर्चा की गई। इस क्रम में, इस अंक में चौथी विशेषता ‘मंगलास्पदे’ पर चर्चा की जाएगी। महाकवि भारवि द्वारा वर्णित कथित श्लोक के अन्तर्गत यह अंतिम
विशेषता है, अतः यह शृंखला यहाँ समाप्त होगी, तथापि महाकवि भारवि ने ‘किरातार्जुनीयम्’
में ही इसी प्रसंग में उत्तम भाषा के सन्दर्म में कुछ और गुणों का उल्लेख किया है,
जिनकी चर्चा फिर कभी की जाएगी।
मंगलास्पदे
मनुष्य ऐसा प्राणी है जो स्वभावतः अशुभ एवं अरुचिकर बातों से सदा बचने का
प्रयास करता है। भाषा माध्यम है अपने विचार प्रकट करने का। मूल तो विचार हैं और भाषा
में हमेशा शुभ संदेश ही नहीं प्रकट करने होते। जो विचार मनुष्य को अमंगलकारी
प्रतीत होते हैं, उनको वह सीधे-सीधे व्यक्त नहीं करता, बल्कि उनको प्रकट करते समय,
अर्थात अशुभ एवं अरुचिकर बातों को व्यक्त करते समय वह शब्द चयन के प्रति अत्यंत सतर्कता बरतते हुए ऐसे शब्दों
का प्रयोग करता है जो होते तो शुभ और रुचिकर ही हैं लेकिन प्रयोग की विशिष्टता से वह
अपेक्षित अर्थ को ध्वनित करते हैं। उद्देश्य मंगल कामना की है। साहित्य की रचना
में समस्त भावों की उपस्थिति हो सकती है। अतएव, अशुभ और अमंगलकारी भावों को प्रकट
करते समय बात को अभिधा में व्यक्त करने के बजाय शब्द की व्यंजना शक्ति का आश्रय
लेते हुए अर्थ संकेत करना चाहिए। जब अमंगल के परिहार के लिए मंगलसूचक शब्दों के
माध्यम से अमंगल की व्यंजना की जाती है, तो ऐसे प्रयोगों में नवीन अर्थ ग्राह्य हो
जाता है और ये प्रयोग मुहावरे का रूप धारण कर लेते हैं। अतः ऐसे प्रयोगों में सीधा
अर्थ लिया जाना उपयुक्त नहीं होता।
उदाहरण के लिए, मृत्यु अमंगल सूचक है और सभी धर्मों व सम्प्रदायों में अत्यंत
बुरी और अशुभ ही मानी जाती है। इसीलिए मृत्यु की सूचना देते समय कभी-भी ' .... मर गए' नहीं कहा जाता। इसके
लिए ' ..... नहीं रहे' ' ...... मिट्टी हो गई' ' स्वर्ग सिधारना' आदि प्रयोग किए जाते
हैं। अंगरेजी में भी 'पास्ड अवे' या 'ब्रीद हिज/हर
लास्ट' आदि प्रयोग होते हैं। इसी प्रकार 'जलाना' से आशय मृतक के
शरीर को जलाकर पंचतत्व में विलीन करने से होता है। इसलिए 'जलाना' क्रिया का प्रयोग
भी बहुत सजगता से किया जाता है। सायंकाल घरों में प्रकाश आदि करने के लिए 'दीपक
जलाना' प्रयोग शायद ही कोई करता हो। इसके लिए 'दीया बत्ती करना' जैसे
प्रयोग ही स्वीकार किए गए हैं। 'दुकान बन्द करना' कहने का आशय ऐसा प्रतीत
होता है जैसे दुकान हमेशा के लिए बन्द की जा रही हो, अतः यह प्रयोग भी ग्राह्य
नहीं है। इसके लिए 'दुकान बढ़ाना' ही चलता है, जिससे वृद्धि या विकास का
अर्थ ध्वनित होता है। बिलकुल सकारात्मक। इसी प्रकार, कुछ शब्द ऐसे हैं जिन्हें
जनमानस अशुभ मानता है, विशेष रुप से किसी मंगल कार्य, यथा - यात्रा आरम्भ,
हवन-पूजन आदि के समय उनके प्रयोग का निषेध करता है, जैसे 'तेल', 'नमक'
आदि। कहीं-कहीं 'साँप' और ‘गीदड़’ को लोग अशुभ मानते हैं और उसे उसके नाम
से नहीं पुकारते बल्कि उसे 'मामा' और 'पांडे' कह देते हैं और प्रयोग
की विशिष्टता से 'विषधर' और 'षडयंत्रकारी' का अर्थ आ जाता है। लोकमानस
में ऐसे बहुत से शब्द और प्रयोग प्रचलन में हैं जो भाषा में निहित लोकमंगल की
भावना की ही पुष्टि करते हैं।
भाव व्यंजकता की यह शैली मंगलास्पद कहलाती है, जिसमें अमंगलकारी बात को रुचिकर
और शुभता सूचक शब्दों में पिरोकर प्रस्तुत किया जाता है। अर्थात भाषा में लोकमंगल
की भावना निहित होनी चाहिए है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के हिन्दी साहित्य में आगमन
से पूर्व रीतिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग माना जाता था। किन्तु उन्होंने
साहित्य के सृजन के मूल में लोकमंगल की भावना की प्रतिष्ठा करते हुए उद्घोष किया
कि भक्तिकाल ही हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग है। वैसे भी, साहित्य शब्द की कुछ
विद्वानों ने व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है – ‘हितेन सहितं साहित्यम्’
अर्थात जो हित के साथ हो वही साहित्य है। जो भाषा लोकमंगल की भावना से विरत है वह गुणहीन वस्तु अथवा दूषित आचरणों से
सम्पन्न सुन्दर और आकर्षक रमणी की तरह है - 'विषरस भरा कनक घट
जैसे' और ऐसी वस्तु अथवा रमणी को कोई भी अपने समीप नहीं फटकने
देना चाहता।
जब अमंगल के परिहार के लिए मंगलसूचक शब्दों के माध्यम से अमंगल की व्यंजना की जाती है, तो ऐसे प्रयोगों में नवीन अर्थ ग्राह्य हो जाता है और ये प्रयोग मुहावरे का रूप धारण कर लेते हैं।
जवाब देंहटाएंअमंगल परिहार पर प्रस्तुत जानकारी अच्छी लगी । धन्यवाद ।
बहुत विस्तार से शब्दों को दूसरों के साहमने पेश करने के लिए बधाई स्वीकार करें |
जवाब देंहटाएंवे छोटी-छोटी बातें, जिनपर साधारणतः हमारा ध्यान नहीं जाता,आपने इतनी आसानी से समझा दी..! बड़ा आनंद अनुभव हो रहा है इस श्रृंखला में.. बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है!!
जवाब देंहटाएंहरीश जी, धन्यवाद!
बेहद सटीक प्रस्तुति ..आभार ।
जवाब देंहटाएंरुचिपूर्ण लगी जानकारी
जवाब देंहटाएंभाव व्यंजकता की यह शैली मंगलास्पद कहलाती है, जिसमें अमंगलकारी बात को रुचिकर और शुभता सूचक शब्दों में पिरोकर प्रस्तुत किया जाता है। अर्थात भाषा में लोकमंगल की भावना निहित होनी चाहिए है
जवाब देंहटाएंबेहद उपयोगी जानकारी.आभार इस पोस्ट का.
बहुत उपयोगी जानकारी ... आभार
जवाब देंहटाएंबढ़िया जानकारी दी आपने ...
जवाब देंहटाएंआभार !
@ सलिल भाई,
जवाब देंहटाएंबिना मंगल-भावना के सामाजिक संस्कार अधूरे हैं और भाषा भी तो एक संस्कार ही है। भाषा इसी प्रकार छोटी-छोटी बातों में सतर्कता और सजगता बरतने की अपेक्षा करती है। तभी भाषा का सौन्दर्य बढ़ता है। ...... मैं तो बस आप द्वारा प्रज्जवलित 'आँच' की ज्योति को मद्धिम न पड़ने देने का ही प्रयास कर रहा हूँ। इस शृंखला को प्रारम्भ करने का श्रेय आपको ही जाता है।
बहुत सी चीजें प्रकाशित हो गई हैं इस आलेख से।
जवाब देंहटाएंबहुत उपयोगी जानकारी| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब!!
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