बुधवार, 25 जनवरी 2012

रहिमन वे नर मर चुके...

स्मृति शिखर से... 4:

रहिमन वे नर मर चुके...

AIbEiAIAAAAhCOGGwPuf3efHRhC_k-XzgODa1moYsN388brgg9uQATABK_5TSqNcP8pRR08w_0oJ-am4Ew4करण समस्तीपुरी

107हमारा परिवार अभी तक गाँव में ही रहता है। विगत कुछ वर्षों के महानगरीय जीवन के उपरांत भी वह ‘अल्हड़ गँवई’ मेरे अस्तित्व से भिन्न नहीं हो पाया है या यूँ कहें कि वही मेरा वास्तविक अस्तित्व है। हलाँकि अब तो गाँव में भी शहर बो दिए गए हैं और तेजी से बोये जा रहे हैं किन्तु अभी भी वहाँ कुछ संस्कार अक्षुण्ण हैं। एक आत्मीयता है, उद्गार है, प्राकृतिक जीवन शैली है... हाँ ईर्ष्या-द्वेष भी है, लोभ-लालच भी है किन्तु आनुपातिक और अपेक्षित दृष्टि से कम। भले जीर्णा ही सही... भारतीय संस्कृति के दर्शन वहाँ आप अधुनैव कर सकते हैं। जीवन-मूल्यों का पूर्ण लोप अभी नहीं हुआ है वहाँ।

IMG_1846मेरे पिताजी उसी तरह हैं जैसे रेवाखंड का कोई भी सामान्य ग्रामीण। श्रमसाध्य, निष्कपट, धर्मावलंबी, सनातन मूल्यों के प्रति आस्थावान, माता-पिता-गुरु और श्रेष्ठ जनों का सम्मान करने वाले, जो मिल गया उस में प्रसन्न रहने वाले, क्रोध में ‘कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं और काचे घट जिमि डारौं फोरी।’ और प्रसन्न होने पर ‘एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा....!’ आर्थिक विपन्नता के बावजूद ‘साधु न भुखा जाए’ की प्रवृति दृढ़ रही।

नित्य प्रातः ‘आपदानां हर्तारं... लोकाभिराम-रामं... नमामीशमीशान निर्वाणरूपं’ पढ़ते हैं। रात को सोने से पहले ‘हमसे भी पढवाते थे, ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:...।’ जीवन में उतारने का प्रयास भी रहा होगा...। समय मिलते ही ‘नितिश्लोका:’ और ‘सुभाषितानि’ के श्लोक, तुलसी, रहीम, कबीर के दोहे साखियों के अर्थ-भावर्थ समझाने लगते थे। बाल्यावस्था में ये सूक्तियाँ बहुत सरस और श्रेष्ठ लगती थी।

पुश्तांतर से विचारांतर आना स्वाभिक है। माध्यमिक कक्षाओं में सामंतवादी प्रथा के गुण-दोष, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद का अंत, साम्यवाद का उदय आदि का आंशिक परिचय के बाद महाविद्यालय तक पहुँचते-पहुँचते अनेक विचारधाराओं से भेंट हो जाती है। वर्ग-भेद, वर्ण-भेद, सर्वहारा, शोषक, शोषित इत्यादि शब्दों का गढ़ित अर्थ समझ में आने लगता है। प्रगतिशील युवा-मन ‘क्रांति’ का सूत्रधार और समाज-सुधार का अग्रदूत बनने के सपने देखता है। उम्र के अस्थाई परिवर्तन के साथ-साथ विचार और आस्थाओं में तीव्र किन्तु अस्थाई परिवर्तन आते जाते हैं। स्थाई रहती है तो बस कौतुहल और विनोद-प्रियता।

श्रमिकों के एक-एक बूंद पसीने का हिसाब होता है। कृषक-समुदाय को ॠण भी दुष्कर मगर पंडे-पुजारी-भिखारी मुफ़्त की मलाई पर उदर-देव बने फिरते हैं। इनकी मुफ़्तखोरी जीडीपी और अर्थ-व्यवस्था के लिए अनर्थकारी है। मैं ने ऐसे हट्ठे-कट्ठे पहलवानों को कभी भीख न देने का प्रण कर लिया था।

वह रात्रि का दूसरा प्रहर था। मैं और मेरे कुछ मित्र बच्चों को शाम का ट्युशन देकर स्टेशन चौक स्थित ‘आम्रपाली होटल’ में ‘सात रुपए में भर पेट भोजन’ कर रहे थे। एक नेत्रहीन भिखारी वहाँ आता है। किन्तु अभी वह याचक नहीं ग्राहक है। वह कैशियर के पास अपना कटोरा नहीं खनकाता... बल्कि हमारे बराबर वाले मेज पर अपना डंडा-कमंडल टिकाकर मद्धिम स्वर में ‘मुर्गा-भात’ का आर्डर देता है। हमलोग हतप्रभ हो जाते हैं। वह मुफ़्त में नहीं खाता पूरे पंद्रह रुपए चुकाता है। हमारा आश्चर्य बढ़ता जा रहा है।

मांसाहार के उपरांत वह निकलता है... स्टेशन के पास ही भिखारियों की बस्ती है। मगर उसके कदम विपरीत दिशा में बढ़ रहे हैं। ओह... बेचारा नेत्रहीन है च...च...! हमलोग सहायता के लिये बढ़ते हैं। किन्तु वह तो अनवरोध बढ़ा जा रहा है। लोहे के सिखंचों से घिरे एक दूकाननुमा जगह पर वह रुकता है। उपर काष्ठ-पट्ट पर लिखा है, “रिम-झिम – अँगरेजी, मसालेदार शराब की दूकान”। जिस विश्वास के साथ वह बंधी मुट्ठी छोटी-सी लेन-देन खिड़की के अंदर करता है, उससे हमें उसकी नेत्रहीनता पर शंका होती है। फिर उसी लेन-देन खिड़की से वह हाथ बाहर करता है। इस बार मुट्ठी बंधी नहीं बल्कि हथेली पर पीले द्रव्य से भरी एक शीशी है जिसपर चिपके श्यामपत्र पर अंकित है, “अधिकारी की पसंद”।

अब तक करुण भाव तिरोहित हो चुके थे। कौतुहल और क्रांति एक साथ सर उठाने लगे थे। आखिर हम पूछ ही बैठे, “क्यों सूरदास जी, मुर्गा... दारू...! क्या बात है?” वह हमारी बातों से चिढ़ता नहीं बल्कि तर्कपूर्ण उत्तर देता है, “क्या करें बाबू साहब ! सुबह से शाम तक ‘ई उ टरेन-बस, समस्तीपुर-दरभंगा’ करते-करते थक कर चूर हो जाते हैं। रात में एकाध पैग नहीं देंगे तो फिर कल उठा ही नहीं जाएगा...।”

उस दिन हमें ज्ञात हुआ कि भीक्षाटन भी कम श्रमसाध्य नहीं है। शरीर और मन दोनो को कठोर बनाना पड़ता है। संभवतः निर्लज्ज भी। अन्यथा दो जगह झिड़की मिल जाए तो तीसरी जगह जाने की हिम्मत ही न हो...! धन्य हैं वह एकसाध्य श्रमरत जीव जो आलोचना, तिरस्कार, गाली-झिड़की से अप्रभावित अपने कर्म पर दृढ रहते हैं। लोग आए तो कारवां बनता गया नहीं आए तो एकला चलो...!

खैर इस घटना ने हमें समाज-सुधार का अवसर और मार्ग भी दे ही दिया था। हमने गाँव आकर ‘भिखारी भगाओ आंदोलन’ का शंखनाद कर दिया। हमारी युवक-मंडली मेरे हर निर्णय से अनायास ही सहमत रहती है। तीन-चार दिनों से चल रहे इस अभियान का पता मेरे पिताजी को तब चला जब डाकखाने में रविवार की छुट्टी हुई। दोपहर एक भिखारी को मैंने कठोरतापूर्वक लौटा दिया था। पिताजी की आस्था आहत हो गई थी। अपनी आँखों से अपनी संतान में शाश्वत मूल्यों का ह्रास देख काफ़ी क्षोभ हुआ था। बहुत ही व्यथित स्वर में मुझे बचपने में पढ़ाए गए रहीम के दोहे याद दिलाया था उन्होंने, “रहिमन वे नर मर चुके जे कहिं माँगन जाहिं। उन से पहिले वे मुए जा मुख निकसत नाहिं॥” माँ के बार-बार समझाने पर बड़ी कठिनाई से रात का भोजन ग्रहण किया था उन्होंने। दमित क्षोभ एक-एक ग्रास पर फूट पड़ता था, “द्वार से साधु को लौट दिया...! आज इस परिवार की परंपरा टूट गई। संस्कारों का पतन हो गया... मानवता मर गई... उनसे पहिले वे मुए जा मुख निकसत नाहिं!”

पिताजी के खेद को कम करने की गरज से मैंने वचन दिया था कि अब द्वार पर आए किसी भी याचक को ‘नहीं’ नहीं कहूँगा। उन्होंने यह भी वचन लिया कि सबसे सविनय और सप्रेम व्यावहार करूँगा। बड़ा मजा आया था पिताजी को वचन देने में। मैंने “बाय टू, गेट वन फ़्री” की तर्ज़ पर पिताजी को तीसरा वचन भी दे दिया, “मैं इन वचनों का अक्षरशः पालन करूँगा।” फिर सब कुछ सामान्य होता रहा था।

कुछ दिनों बाद फिर से एक याचक देवता का आगमन हो गया। मैं भोजन कर रहा था। पिताजी घर पर नहीं थे किन्तु उनको दिए वचन मुझे अक्षरशः याद थे। भोजन करते हुए ही मैंने बाबाजी का अभिवादन किया और दालान पर आसन-ग्रहण करने का अनुरोध भी। बाबाजी ने आशीषों की झड़ी लगा दी। बाबाजी दालान पर देवी-देवताओं की स्तुती कर रहे थे। बीच में गृहवासियों की जयकार भी जयकार भी कर देते थे जो यह बात का संकेत होता था कि उन्हें कुछ देकर विदा किया जाए। माँ ने बाबाजी से थोड़ा रुकने का आग्रह किया। हमारे गाँव में यह मान्यता है कि जब घर के पुरुष-पात्र भोजन कर रहे हों तो भिक्षा नहीं दी जाती। माँ के सविनय अनुरोध पर बाबाजी प्रफ़्फ़ुलित हो विद्यापति का गीत गाने लगे।

मेरा भोजन समाप्त होने को आ गया था। मुझे एक युक्ति सूझी। हमारा अभियान भी नहीं टूटेगा और पिताजी को दिया हुआ वचन भी। मैंने यथासंभव सुस्पष्ट स्वर में माँ से कहा, “माँ...! वो जो आंटा है, जिसमें तुमने चूहे मारने की दवा मिला रखी है, वो बाबाजी को दे दो ना...!” माँ ने अपनी जीभ दाँतों के बीच दबा लिया था। अकस्मात बाहर से बाबाजी के गीत का स्वर भी आना बंद हो गया था। मैं ने बाहर निकल कर देखा जटा-जूट-छाप-तिलक-कमंडल धारी एक सज्जन बाँए कंधे में एक लंबी सी झोली और दाँए हाथ में पलास्टिक के पादुका उठाए द्रुत वेग से भागे चले जा रहे हैं। माँ पीछे से पुकारती रही थी मगर वे उनके अनुरोध को अनसूना कर चलते बने।

मूक माँ की प्रश्नवाचक दृष्टि पूछ रही थी, “ये क्या किया...? पिताजी का वचन...?” मैंने बड़ी सरलता से समझा दिया, “हाँ...! मैंने तो याचक को ‘नहीं’ नहीं कहा न...! मैं तो देने की बात कह रहा था, उन्होंने स्वयं अस्वीकार कर दिया तो....इसमे मेरा क्या दोष?” माँ की ममता तो मान गई मगर पिताजी के आदर्श और सिद्धांत...!

माँ ने हँसते हुए पिताजी को बताया था। शायद मैं हँसने की चेष्टा न कर रहा होता तो पिताजी को भी हँसी आ जाती। लेकिन मुझे प्रत्यक्ष पाकर बिफ़र पड़े। उस दिन कई नई उपाधियाँ, नई उपमाएँ, उपनाम और विशेषण मिल गए थे। मुझे भी ऐसा लग रहा था कि चलो कम से कम आज इस विद्या में स्नातक तो हो ही गया। पिताजी का कोप-वाचन भी किसी ‘दीक्षांत-भाषण’ जैसा ही लग रहा था। नैतिक-पतन, उच्च विचार, जीवन-मूल्य, मानव-धर्म... और क्या-क्या... बड़ी-बड़ी बातें।

रात का भोजन माँ ने अंगीठी के पास ही लगाया था। पिताजी मौन थे। मैंने अपने इस अभियान की पृष्ठभूमि स्पष्ट किया। फिर पिताजी “बाबा भारती और खड़ग सिंह” वाली कहानी का सारांश समझाने लगे। एक भिखारी ने अनुचित किया तो तुम उसकी सजा पूरे समाज को दोगे...अगर एक यादृच्छ चयन तुम्हारे निर्णय का आधार है तो तुमने जो भद्दा मजाक किया है उससे पूरे सभ्य-समाज की पहचान की जानी चाहिए? क्या यह समझा जाए कि इस गाँव के लोग विष-मिला खाद्य भिखारियों को देते हैं...? बात सिर्फ़ दो रुपए या पाव भर आंटे की नहीं हमारे आचरण की है। जिस प्रकार तुमने एक भिखारी के आचरण से उस पूरे समुदाय को धुर्त मान लिया उसी प्रकार तुम्हारे इस नीच परिहास से हमारा समाज कलंकित नहीं हो जाएगा...? इसीलिए हमें अपने आचरण के प्रति सदैव सचेष्ट रहना चाहिए।”

मैं ने अनेक उदाहरणों के साथ कहा कि “अधिसंख्य भिखारी ऐसे ही हैं... वे हमारे विश्वास और दान दोनों का दुरुपयोग करते हैं।” खाने की थाली पर ही पिता जी की अगली कहानी शुरु हो गई, “साधु और केंकड़े” वाली कहानी। तात्पर्य यह कि यदि हम श्रेष्ठ मनुष्य हैं तो अपनी आदत और अपना कर्तव्य क्यों छोड़ दें? मेरा कहना था कि देश-काल के अनुसार आचरण में परिवर्तन भी आवश्यक होता है। भोजन के बड़ी देर बाद तक भी हमारे बीच तर्क-वितर्क चलता रहा। अंततः अनिर्णित समाप्त हुए इस वाक-युद्ध में हम इस बात पर सहमत हुए कि हम भले किसी को कुछ दें या न दें...किन्तु कटु-वचन तो नहीं ही कहें। ऐसा मज़ाक न करें जिससे व्यक्ति या समाज की साख को आघात पहुँचे। आखिर चरण से तो पशु भी चलते हैं, यदि मनुष्य आचरण से नहीं चला तो फिर दोनों में क्या अंतर है?

चित्र : साभार गूगल सर्च

29 टिप्‍पणियां:

  1. पिता का वचन रखना भी आवश्यक था, याचक के प्रति सहानुभूति का अनुचित लाभ उठाते हैं कई दुष्ट...

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  2. पशु आचरण में दिख जायेगा सिखाने से , आदमी खुद को पूर्ण समझता है -
    वे नर मर चुके , वाकई !

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  3. manoj ji behad prabhavshali sansmaran likha hai ......pita ji apni jagah bilkul sahi the....agar aise logon ko bhiksha di jayegi to vatvik patron jeevan chalana mushkil ho jayega..filhal behad achhi pravishti ....gantantr diwas ki badhai sweekaren .

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  4. बहुत ही प्रेरक। ऐसे पिता के कारण ही आज दुनिया में संस्‍कार जीवित हैं और हम सब समाज के लिए उपयोगी बने हुए हैं। जिस दिन ये संस्‍कार तिरोहित हो जाएंगे उस दिन दुनिया हिंसक हो जाएगी। आपके पिताजी को हमारा प्रणाम।

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  5. आपके इस उत्‍कृष्‍ठ लेखन का आभार ...

    ।। गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं ।।

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  6. करन भाई... गज़ब लिख रहे हैं आप.... एक बार एक सज्जन आये... खाए पिए... सौ रुपैया ले गए... बाद में पता चला कि दालान पर जो रेडियो था वो भी झोला में रखते गए.... किन्तु हमरे बाबूजी का स्वाभाव नहीं बदला... और हमरा भी.. अभिये दो हफ्ता पहले... एक सज्जन बाइक पर पेट्रोल ख़त्म होने का बहाना करके सौ रूपये ले लिए हमसे.... एक दो दिन पाहिले वही सज्जन फिर दिख गए रिंग रोड पर मिलेनियम पार्क के सामने.... क्या करियेगा... व्यक्ति सचमुच आचरण से ही चल सकता है.... बढ़िया संस्मरण...

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  7. किसी को कुछ दें या न दें...किन्तु कटु-वचन तो नहीं ही कहें। ऐसा मज़ाक न करें जिससे व्यक्ति या समाज की साख को आघात पहुँचे। आखिर चरण से तो पशु भी चलते हैं, यदि मनुष्य आचरण से नहीं चला तो फिर दोनों में क्या अंतर है?

    बहुत बढ़िया अच्छी लगी पोस्ट !

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  8. करण जी! आपके लेख पढकर प्रसन्नता होती है, लेखनी के प्रवाह को देखकर ईर्ष्या होती है और सोचकर ग्लानि भी होती है कि बच्चों से स्पर्धा कैसी.. इस तरह की स्मृतियाँ जीवंत तभी हो पाती हैं जब पूर्वजों के संस्कार धमनियों में प्रवाहित होते हों.. ग्रामीण परिवेश में परवरिश और गाँव से जुड़ाव ही इस आलेख और ऐसी श्रृंखलाओं में मिठास पैदा कर सकता है.. अब कोइ इन बातों को फैशन कहे तो उसे सैकरीन की मिठास ही कहेंगे, गाँव के गन्ने के गुड़ का स्वाद नहीं!!
    आशीष है!!

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  9. आज की पोस्ट तो कई दिल के कोनों को छूती है.

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  10. भीख मांगना वाकई बहुत श्रमसाध्य कार्य है:)और धन्य है हमारा देश जहाँ ऐसे मेहनतकश बहुत पाए जाते हैं.
    मजाक के अलावा, पोस्ट में ऐसी बहुत सी बातें हैं जो मन को छू जाती हैं.खासकर - चरण से तो पशु भी चलते हैं मनुष्य को आचरण से चलना चाहिए.रहीम या कबीर के दोहे जितने नैतिक हैं उतने ही व्यावहारिक भी.
    बहुत अच्छा लगा आलेख.

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  11. ha ha ha ha ... gyan aur vyangya ka aisa adbhut mishran... maja aa gaya karan bhai... ye line mujhe bahut achhi lagi - पुश्तांतर से विचारांतर आना स्वाभिक है

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  12. बहुत अच्छा लिखा है आपने ...
    बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हुई पोस्ट

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  13. आपके इस बेजोड़ लेखन ने मन्त्र मुग्ध कर दिया ...बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  14. पिताजी के संस्कार और आपका शंखनाद ..दोनों ही अपनी जगह दुरुस्त हैं .. बढ़िया संस्मरण .

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  15. बेजोड़ लेखन,बधाई...
    गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें

    vikram7: कैसा,यह गणतंत्र हमारा.........

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  16. बहुत सुंदर बेजोड प्रस्तुति,लेखन कला की बधाई

    WELCOME TO NEW POST --26 जनवरी आया है....
    गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाए.....

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  17. ग्रामीण युवा की सोच में होते बदलाव और संस्कारों के प्रति चेतना दोनों है इस लेख में... गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामना

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  18. जीवन में व्‍यवहार का मर्म ऐसे ही आत्‍मसात होता है.

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  19. दारू वाले साधू के लिए भी स्नेह उत्पन्न कर पाना कतिपय मुश्किल होगा...पिता जी को ये घटना बतानी चाहिए थी...संभव है बाबा खड्ग सिंह की तरह उन्हें भी भिकारियों की स्थिति का भान हो जाता...

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  20. क्या करें हम ,बचपन ही में रटवा दिया गया है....रहिमन वे नर.......
    संस्कार और आचार का ढोल लटकाना ही पडेगा

    इलाही वो भी दिन होगा जब अपना राज देखेंगे
    जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा.

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  21. आप और आपके पिताजी दोनों ही अपनी जगह सही हैं।

    *

    चार दिन पहले ही एक पड़ोसी के गांव से आए भाई ने इमरजेंसी कहकर सौ रुपए उधार लिए। और कहा कि सुबह लौटा दूंगा। एक नहीं दो सुबह गुजर गईं। रुपए नहीं लौटे। हारकर खुद मांगने जाना पड़ा। रुपए पड़ोसी ने दिए। अगली सुबह पड़ोसी के भाई फिर हाजिर थे,सौ रुपए मांगते हुए। पर इस बार तो मना करना ही बेहतर समझा।

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  22. इस लेख में शिक्षा भी है और अनुभव की सुषमा भी। नैतिकता की आंच भी है और सांच भी।

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  23. करनजी आपको पहली बार पढा है । अभिभूत कर देने वाली लेखन शैली है ।

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  24. इतना तो तय है कि इस तरह के अनिर्णित वाकयुद्ध से कुछ ना कुछ संस्कारिक निष्कर्ष निकलते हैं...

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आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।