फ़ुरसत में ... 90
दिल की खेती .. “प्यार” बोऊं या “नफ़रत” ?
कहीं पढ़ा था, “किसी की मदद करते वक़्त उसके चेहरे की तरफ़ मत देखो, ... क्योंकि उसकी झुकी हुई आंखें आपके दिल में गुरूर न भर दे ...।” इस सूक्ति को मैंने दिल में गांठ की तरह बांध ली थी। मुझे नहीं पता था कि यह गांठ दिल को सुकून पहुंचाएगी या किसी दिन गले की फांस बन जाएगी।
बात उन दिनों की है जब सौ, दो सौ, चार सौ, पांच सौ रुपए भी काफ़ी बड़े होते थे, आज भी हैं, तब कुछ ज़्यादा थे। क्योंकि तब यह राशि हमारी कुल मासिक तनख़्वाह की दस परसेंट हुआ करती थी ! तकरीबन पंद्रह-सोलह साल पहले की बात है। पंद्रह या सोलह? छोड़िए न, एक साल इधर-उधर होने से पांच सौ रुपए की सेहत पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
उन दिनों अपनी पोस्टिंग हैदराबाद के निकट मेदक ज़िले के एद्दुमैलारम नामक जगह में थी। दिल्ली किसी काम से आना हुआ था। काम ख़तम कर वापसी के लिए ट्रेन पकड़ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पहाड़गंज वाली साइड के प्लेटफ़ॉर्म पर पहुंचा, तो मालूम हुआ कि ट्रेन परली साइड के प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी है। गरमियों के दिन थे। दोपहर के ठीक बाद का समय था, जो काफ़ी गरम होता है। तपती धूप की वजह से पसीने से लथपथ ए.सी-II टियर की कोच में पिछले सोलह प्लेटफ़ॉर्म की थकान बढ़ाने वाले कारक, मेरे एक मात्र बक्से, को अपनी सीट, संख्या चार के ऊपर फेंका एवं दिल्ली की गरमी और उस ऑटो वाले को (जिसे बोला था कि हैदराबाद जाने वाली ट्रेन जिस साइड होगी उसी साइड उतारना ) भला बुरा कहते हुए अपनी सीट पर पसर गया।
बॉगी में ए.सी. ऑन थी या नहीं, उसकी परवाह किए बग़ैर मैंने पंखे को अभी ऑन किया ही था कि पीछे की किसी सीट से एक सज्जन मेरे पास आए। उन्होंने अंगरेज़ी में वार्तालाप करना शुरू किया। यह कोई नई या अचरज की बात नहीं थी मेरे लिए। अन्य भाषाओं के जानते हुए भी अंगरेज़ी इसीलिए तो बोली जाती है कि सामने वाले पर आपके सभ्य, बुद्धिजीवी, और पढ़ेलिखे ओहदेदार होने का रौब जमे। उन दिनों इस तरह की अंगरेज़ी बोलने वाले अधिकांश यात्री, यानी हमारे देश के शासन तंत्र (ब्यूरोक्रेसी) को चलाने वाले रहनुमा, ए.सी-II में ही सफ़र करते थे (आपका यह खादिम भी उसी तंत्र का एक मुलाजिम था), क्योंकि तब सिक्स्थ क्या फ़िफ़्थ पे कमीशन भी नहीं आया था। आज तो सिक्स्थ पे कमीशन का ज़माना है, ए.सी-II वाले मुसाफ़िर टर्मिनल थ्री की ओर शिफ़्ट कर गए हैं और ए.सी-II में स्थानीय भाषाओं ने अपनी जगह बनानी शुरू कर दी है। ऐसा नहीं था कि तब ए.सी-II में स्थानीय भाषाएं अपनी जगह नहीं बनाती थीं, बनाती थीं, बस उत्तर और मध्य भारत के हिंदी बोले जाने वाले आंचलिक भाषा-भाषी को छोड़कर। शायद शर्मिंदगी ... या कुछ और कारण था।
बहरहाल, अंगरेज़ी में उस सज्जन से जो वार्तालाप हुआ उसका लब्बो-लुआब यह था कि उनकी सीट मेरी सीट से दो-तीन खिड़की छोड़कर है, कि अपना सामान उन्होंने अपनी सीट पर छोड़ रखा है, कि वे हैदराबाद जा रहे हैं, कि उन्होंने चार्ट (जो बॉगी के बाहर चिपकी है) पर मेरा नाम पढ़ा और उन्हें मालूम था कि मैं भी हैदराबाद जा रहा हूं, कि वे आंध्र प्रदेश राज्य सरकार के सरकारी पदाधिकारी हैं, कि क्लॉक रूम में सामान रख कर वे इंडिया गेट आदि भ्रमण को गए थे, कि वापस क्लॉक रूम में जब वो सामान लेने गए, तो वहां काफ़ी भीड़ और लंबी लाइन थी, कि उस लंबी लाइन में जब वे खड़े अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे, तो किसी ने उनका बटुआ मार लिया था, कि उसी बटुए में उनका सारा पैसा और ट्रेन की टिकट थे, कि उन्होंने पता लगाया है, रेलवे के नियमों के तहत दुबारा टिकट बनवाने के उन्हें ढाई सौ रुपए लगेंगे, कि उन्हें मदद चाहिए।
उन्होंने जब मुझे सोचता पाया तो झट से बोले हैदराबाद स्टेशन पर उनका ड्राइवर उनको लेने आएगा। वे स्टेशन पर उतरते ही मुझे मेरा पैसा वापस कर देंगे। उनकी बातें सुनते वक़्त मैंने डिब्बे में इधर-उधर नज़र दौड़ाई, तो लगा कि उन सज्जन का एकमात्र सहयात्री, उस बॉगी में, अभी तक मैं ही था। दिमाग ने अपनी रफ़्तार तेज़ की, और मुझे सूचित किया कि दिल्ली के क्लॉक रूम से सामान निकालते वक़्त अकसर लंबी लाइन लगी ही रहती है। ... और वहां … आए दिन बटुआ मार ही लिया जाता है। यह सज्जन कोई अपवाद नहीं हैं।
फिर मेरी आंखों ने उन सज्जन की स्कैनिंग की। भाषा तो वे साहबों वाली बोल ही रहे थे, पोशाक भी (सफ़ारी सूट) साहबों वाली पहन रखी थी, मतलब सिर्फ़ चेहरे से ही नहीं उनके पूरे बदन से सहबियत टपक रही थी। इस मामले में, मेरी नज़रों ने मुझे ही धिक्कारते हुए कहा कि तुम ही तृतीय श्रेणी के यात्री लग रहे हो।
फिर मेरे कानों ने कहा कि सुन ही चुके हो ये सज्जन कितनी मोहक अंगरेज़ी बोल रहे हैं। साहबों वाले स्टाइल का जादू, साहबों वाली भाषा का ज़ोर और उस सूक्ति के प्रति मेरे कमिटमेंट ने मुझमें ऐसी हलचल पैदा की कि मैं बिना उनकी ओर देखे अपने बटुए से पांच सौ का नोट निकाल कर उनकी तरफ़ बढ़ा दिए।
उन सज्जन की सज्जनता बोल पड़ी, “इतना नहीं! बस ढाई सौ दीजिए। उसी में टिकट बन जाएगा।” कहते हैं संगत का असर होता है। उनकी सज्जनता संक्रामक थी। मुझसे चिपक कर मुझसे कहवा गई, “रखिए। हैदराबद स्टेशन पर वापस ले लूंगा। रास्ते में खाने-पीने के लिए भी तो आपको कुछ चाहिए।” उस सज्जन ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए अंगरेज़ी जैसी शिष्ट भाषा के शालीन नमूने और कई सुने-अनसुने जुमले मेरी शान में पेश कर दिए। मैं उनके द्वारा प्रकट किए गए आभार के भार तले दबा जा रहा था, मानों खुद को उस से बचाने के लिए मुझे कहना पड़ा, “बिना समय गंवाए आप अपनी डुप्लिकेट टिकट बनवा लाइए। बातें और आभार प्रदर्शन हम आगे भी कह-सुन लेंगे। अगले चौबीस घंटे की यात्रा तो हम साथ ही कर रहे हैं।” सज्जन बाहर की ओर लपके, मैं एक लंबी सांस छोड़ता हुआ अपने प्रिय लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की करिश्माई लेखनी के मायाजाल “पैंसठ लाख की डकैती” के थ्रिल में डूबने-उतराने लगा।
गाड़ी चल पड़ी थी। मैं अपनी हिचक के साथ अपनी तरफ़ से कोई पहल नहीं कर रहा था, पर मन में कहीं न कहीं यह इंसानी लालच तो था ही कि सज्जन आएं और इस ब्रेक के बाद स्टाइल में अपने आभार प्रदर्शन के वाधित सुरों को फिर से आगे बढ़ाएं। वो न तो दिखे, न आए ही। गाड़ी आगरा क्रॉस कर रही थी। अब मैंने आंखों-आंखों में ही अन्य सीटों की टोह लिया। फिर भी न दिखे। शायद बाथ रूम में हों। उनके बताए सीट संख्या बीस पर गया। खबर ली, सीट पर उनके द्वारा बताए नाम के सज्जन ही थे, पर वो नहीं। हैदराबाद भी आ गया। उन सज्जन को न तो आना था, न वो आए ही। उनकी सज्जनता के संक्रमण ने मुझे मुर्गा बना डाला था, और मैं हलाल भी किया जा चुका था।
उस घटना को आज फ़ुरसत में याद करते हुए मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि ऐसे ज़रूरतमंद इंसानों के लिए, ऐसे मदद मांगने वालों के लिए, अपने दिल में “प्यार” बोऊं या “नफ़रत”। इसी सप्ताह बुधवार को करण की “स्मृति-शिखर से” वाली “रहिमन वे नर मर चुके...” पोस्ट ने तो मेरी दुविधा और बढ़ा दी है। उस पर से आप तो जानते ही हैं कि
“दिल से ज़्यादा उपजाऊ जगह और कोई नहीं है – क्योंकि यहां कुछ भी बोया जाए बढ़ता ज़रूर है --- फिर वो “प्यार” हो या “नफ़रत”।”
आज फ़ुरसत में दिल की खेती करने चला हूं। मेरी उलझन अभी तक मिटी नहीं है। आप ही मेरी मदद कीजिए और मुझे बताइए कि मैं ऐसी मदद मांगने वाले ऐसे लोगों के लिए अपने दिल की ज़मीन पर “प्यार” बोऊं या “नफ़रत”??
....आपने अपना काम किया,बस नेकी कर दरिया में डाल लेनेवाला मुहावरा ही अपने मन में जमा लें,हालाँकि यह आपकी तरफ से ही थी !
जवाब देंहटाएंआपको पाँच सौ रूपये में सबक मिला,यही क्या कम है ?
मनोज भाई! आज आपकी पोस्ट से एक कहावत सीखी कि दान करते वक्त याचक के मुख की ओर न देखें. और पूरी घटना से जोर्ज बर्नार्ड शा का एक आलेख याद आ गया, कॉलेज में पढ़ा हुआ. वे कहते हैं कि समाज में सबसे सुन्दर शब्दावली का प्रयोग भिखारी करते हैं. शब्दकोष के जितने भी प्रभावशाली शब्द होते हैं वो दाता को प्रभावित करने में झोंक देते हैं... यह आलेख कॉलेज में पढ़े उस आलेख का सत्यापन है.. उस भिखारी ने आपको अंग्रेज़ी बोलकर प्रभावित किया. दुनिया भरी पडी है ऐसे भिखारियों से.. इलेक्शन के मौसम में तो ऐसे कई भिखारी मिलते हैं, जो पिछले सीज़न में आपको लूट चुके होते हैं, मगर लोग फिर भी लूटने को तैयार रहते हैं!!
जवाब देंहटाएंअच्छा संस्मरण!!
इलेक्शन के मौसम में तो ऐसे कई भिखारी मिलते हैं, जो पिछले सीज़न में आपको लूट चुके होते हैं, मगर लोग फिर भी लूटने को तैयार रहते हैं!! क्या बात कह दी भाई साब !!!
हटाएंचलिये, एक तरीका और पता लग गया, न ठगे जाने का।
जवाब देंहटाएंठगने वाले रामजी के ..
जवाब देंहटाएंठगे गए भी रामजी के..
कहीं कोई दिक्कत नहीं.
पूर्वार्ध पढने के बाद शिवानी जी की कहानी "सती" याद आई जिसमे की एक महिला अपनी सहयात्री महिला को ट्रेन में कैसे ठगा अपनी विपत्ति का रोना रोकर. बकिया तो बाबा भारती और खडकसिंह तो समाज में हमेशा रहे है और रहेंगे .
जवाब देंहटाएंमनोज जी - बोइये तो प्यार ही - क्योंकि नफरत की खेती - अव्वल तो सही नहीं है , दूजे - वह दूसरे को बाद में harm करेगी, पहले उसका नुक्सान करेगी , जिसके मन में उगेगी | :)
जवाब देंहटाएंदूसरी बात यह कि - यदि आपको १० लोगों ने भी धोखा दिया - तब भी यह उस ११ वे का दोष तो नहीं जिसकी समस्या सच में genuine है और उन दस धोखेबाजों के सजा जिसे मिलेगी ? if you decide to not help him because the earlier 10 cheated you ?
Aise anubhav hame sochnepe majboor kar dete hain....lekin phirbhee mai kahungee ki,apne dilme pyaar hee bona chahiye.
हटाएंकुछ भी हो खेती तो प्यार की ही बोएगे आप..सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबसंत पंचमी की शुभकामनाएं....
पर मनोज जी हमारी तो यह जानने की इच्छा है कि यह घटना तो सोलह बरस पहले की है। तब से अब तक तो ऐसे बहुत मौके आए होंगे तब आपने क्या किया। बहरहाल हम तो यही कहेंगे कि अगर एक ने धोखा दे दिया तो क्या दूसरी से प्यार का इजहार नहीं करेंगे।
जवाब देंहटाएंबड़े भाई! इंसानी याददाश्त की खासियत ही यही है.. हम पैदायशी शॉर्ट टाइम मेमोरी लॉस के रोगी हैं.. अब ये 'शॉर्ट' कितने समय का होगा/होता होगा यह लाख टके का प्रश्न है.. जब हर पाँच साल पर हम उसी कसाई को फिर गर्दन रेतने के लिए आमंत्रित कर देते हैं, तो फिर सोलह साल का वक्फा तो भूलने के लिए काफी होता है!! वैसे जिस धोखे को भूल जाने का इशारा आपने किया है, उसपर तो मनोज जी की ही सफाई बनती है!! :)
हटाएंराजेश जी,
हटाएंइसी ब्लॉग पर मेरी एक लघुकथा है जिम्मेदारी इसका अंत कल्पना से किया गया है, इसका अंत यह भी हो सकता था कि चलो मैंने उसे बेवकूफ़ बनाया और वह मुख्य पात्र पैसे गिनती हुई गली में मुड़ जाती। बाक़ी सब सच है इस कथा में।
आप अगर इसे पढ़ेंगे तो आपको जवाब मिल जाएगा।
बहुत सुन्दर,सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंऋतुराज वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
बहुत सुन्दर,सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंऋतुराज वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
कुछ भी हो आपके साथ प्यार ही बोना चाहिए लेकिन सतर्क रहना भी आवश्यक है ..बहुत से लोग अंग्रेजी से सम्मोहित आज भी हो जाते हैं. एक अच्छा अतीत का प्रसंग आपने साझा किया जिससे बहुत से लोगों को सीख मिलेगी.
जवाब देंहटाएंकिसी व्यक्ति के इरादों के बारे में निर्णय करना बहुत मुश्किल होता है. अगर उसकी सहायता नहीं करें तो बाद में अंतरात्मा कचोटती रहती है. बस यह सोच कर ही संतोष किया जा सकता है कि उसने किया वह उसका कर्म था और आपने जो किया वह आपका धर्म था.
जवाब देंहटाएंबसन्त पंचमी की हार्दिक शुभकामनायें !
सुदर्शन की कहानी हार की जीत याद हो आई...बाबा भारती का संदेश...और खड़क सिंह...
जवाब देंहटाएं.
हृदय में प्यार ही बोइए...नफरत नहीं!!!
आपकी भावना अच्छी रही ... आपने वो किया जो आपके मन ने कहा ...
जवाब देंहटाएंउसकी भावना और चोरी उसके साथ गई ... अब अपना मन क्या बदलना किसी एक चोर के लिए ..
अब आप प्यार बोयें या नफरत ये किसी के कहने से तो होने वाला नहीं ... हर इंसान की अपनी फितरत होती है .. ऐसी घटनाओं पर बाबा भारती और खड्ग सिंह की कहानी बरबस याद हो आती है ..
जवाब देंहटाएंउसका कहा मान लेते तो २५० रूपये में ही सीख मिल गयी होती .. यह बात पसंद आई कि---
“दिल से ज़्यादा उपजाऊ जगह और कोई नहीं है – क्योंकि यहां कुछ भी बोया जाए बढ़ता ज़रूर है --- फिर वो “प्यार” हो या “नफ़रत”।”
पछले सप्ताह फुर्सत को याद किया था ... बहुत बढ़िया पोस्ट
Behtarin rachna.
जवाब देंहटाएं... सर जी ,
जवाब देंहटाएंबताने की जरुरत नहीं ,जो बोंयेंगे , वही काटेंगे !
आपने ठीक ही किया !
न प्यार , न नफरत ।
जवाब देंहटाएंन दया , न शराफत ।
दिल्ली में चाहिए ,
जेब की हिफाज़त ।
उसे शायद उन रुपयों की आपसे ज्यादा ज़रूरत रही होगी...वर्ना आप इस तरह २५० के बदले ५०० ना दे देते...
जवाब देंहटाएंहर एक का अपना स्वाभाव होता है ...कुछ लोग चाह कर भी नफरत नहीं कर सकते ...कुछ लोग चाह कर भी प्यार नहीं कर सकते ....परमात्मा रक्षक है ...जिसने बुरा किया उसे उसी के हाल पे छोड़ दीजिये ...
जवाब देंहटाएंवैसे एक हादसा हमारे साथ भी हो चुका है तब से सजग ज़रूर हो गए हैं ...लेकिन बड़ी मुश्किल है ...याद कर कर के सजग रहना पड़ता है ...!!ज़िन्दगी इतनी आसन भी तो नहीं है ...
अनुपमा जी,
हटाएंआपकी बातों से सहमत होते हुए भी यह कह सकता हूं कि आज भी मेरी आदतों में कोई खास सुधार न हो पाया और मैं आज भी गा रहा हूं ---
सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशीयारी ...!
जो दिल बोले...वैसे नफरत तो नहीं ही बोनी चाहिए..सबके कर्म सबके साथ.पिछली करण की पोस्ट में एक भिखारी को धोखा देते देखा यहाँ एक साहब से लगने वाले को.मैं तो यह सोच रही हूँ कि आसान क्या है :).
जवाब देंहटाएंशिखा जी,
हटाएंमुझे लगता है आसान है -- धोखा खा लेना! :):)
भरोसा टूटता है तो चोट बहुत गहरी लगती है......यह अहसास भी होता है कि देखो एक बदमाश किस्म का मानुष कितना साहसी है कि हमें भी चूना लगा गया ....बाबा भारती और खडग सिंह वाली कहानी भी ऐसी ही किसी अनुभव के बाद लिखी गयी होगी .....बहरहाल दिल के खेत में उगी प्यार की फसल के बीच-बीच में उगी खरपतवार को निकाल कर फेकते रहना ज़रूरी है वरना फसल चौपट हो जायेगी और बचेगी केवल खरपतवार.
जवाब देंहटाएंसच है कौशलेन्द्र भाई!
हटाएंकम-से-कम यह तो कह ही सकता हूं, कि आपने मेरे इस अनुभव को शेयर करने के मकसद को समझा। और इन लफ़्ज़ों में आपने बहुत ही गहरी बात कह दी है -- “दिल के खेत में उगी प्यार की फसल के बीच-बीच में उगी खरपतवार को निकाल कर फेकते रहना ज़रूरी है वरना फसल चौपट हो जायेगी और बचेगी केवल खरपतवार!”
भाई मनोज जी,
जवाब देंहटाएंइस तरह की घटनाओं में सबसे दुखद बात ये होती है कि धोखा खाये हुए आदमी का दूसरे पर से भरोसा उठ जाता है.वह ज़रूरतमंद की मदद तो करना चाहता है मगर उसे लगता है अब needy और cheater में फर्क करना मुश्किल हो गया है.नतीजतन भले ही वह धोखा देने वालों से आगे बच जाये परन्तु ज़रूरतमंद भी उसकी मदद से वंचित रह जायेंगे.ऐसे में मांगने वाले की भाषा और भेष-भूषा से बिना प्रभावित हुए उसे body language के माध्यम से पढ़ना ज़रूरी है.मेरा मानना है की बॉडी लेंगुएज में ज़बरदस्त सम्प्रेषण होता है.ऐसे में आप needy की समय पर मदद भी कर सकेंगे और धोखेबाजों से बच भी सकेंगे.
और हाँ,मैं प्यार का पैरवकार हूँ लेकिन यह भी मानता हूँ कि धोखेबाजों से भले नफ़रत न करें मगर बचकर ज़रूर चलें.
कुंवर जी,
हटाएंबात आपकी बिल्कुल सही है। किंतु अति उत्साह और शायद अपरिपक्वता में मैं अच्छा भला में फ़र्क़ करने का इंतज़ार न कर सका, लेकिन इतने वर्षों बाद भी वह परिपक्वता न आ सकी और ठगा जा कर भी एक अद्भुत खुशी का अनुभव करता हूं।
जब श्रीमती जी मेरी उदारता पर सवाल खड़ी करती हैं तो यह कह कर ख़ुद को और उन्हें संत्वना दे देता हूं, “कुछ पैसे ही ले गया ना, मेरी क़िस्मत तो नहीं ले गया!”
आपकी उत्कृष्ट रचना आज चर्चा मंच पर देखी |
हटाएंकिसी एक व्यक्ति के धोखा दिए जाने के कारन सज्जन लोग अपना चरित्र नहीं बदलते ... वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामना
जवाब देंहटाएंघटनाक्रम का बखूबी चित्रण .....शुभ कामनाएं....पर क्या अब आप किसी की मदद नहीं करेगे.....?
जवाब देंहटाएंकई बार आप ऐसी ही परिस्थिति में लुट जाते हैं। जिन धूल-कणों से मन बना है वह परिवर्तन नहीं होता इसलिए हम चाहे प्रेम की बात करें या नफरत की, जो हमारे मन में हैं बस वही झलकता है। हम चाहकर भी किसी से प्रेम नहीं कर सकते और ना ही नफरत।
जवाब देंहटाएंआप नफ़रत तो बो नहीं सकते क्योंकि वो आपकी फ़ितरत नहीं ..तो आपका ये सवाल ही बेमानी है किसी ने कह भी दिया तो क्या करेंगे आप ?
जवाब देंहटाएंनफ़रत बोने की बात करूं तो कोई मेरा साथ नहीं देगा...
जवाब देंहटाएं“दिल से ज़्यादा उपजाऊ जगह और कोई नहीं है – क्योंकि यहां कुछ भी बोया जाए बढ़ता ज़रूर है --- फिर वो “प्यार” हो या “नफ़रत”।”
जवाब देंहटाएंआपके पूरे लेख से एक लाइन अपने लिए लिए जा रहा हूँ॥ ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आए
यह सज्जनता का दंड है,झेलना पड़ेगा ही .स्वभाव के विपरीत जा कर संवेदनाहीन बने रहेंगे तो अपना ही मन धिक्कारेगा .निर्णय आपका- जिसमें अधिक संतोष मिले वही करें !
जवाब देंहटाएं“किसी की मदद करते वक़्त उसके चेहरे की तरफ़ मत देखो, ... क्योंकि उसकी झुकी हुई आंखें आपके दिल में गुरूर न भर दे ...।” ekdam dil men utar gayee ye baat.kuch thagon ke karan
जवाब देंहटाएंsachche logon se bhi vishwas chala jata hai.....
कई बार ऐसी घटनाएँ विश्वास डगमगाती हैं मगर हम साधारण इंसान प्यार ही बोते हैं , नफरतों का काम तो विशेष लोगों का है !
जवाब देंहटाएंlo ji jab aap jaiso ka ye haal hai to bichare masoom unpadh logo ka kya haal hoga.....haye re ye dilli nagariya...tu dekh...babua....:-0
जवाब देंहटाएंपुरानी होते ही भी आज के सन्दर्भ में भी सार्थक हैं यह संस्मरण.
जवाब देंहटाएंअरे भाई, न प्यार न नफ़रत. बस तटस्थ भाव से मना कर दीजिये.
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