गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

आँच-101 काव्य की भाषा – 4


आँच-101
काव्य की भाषा – 4
हरीश प्रकाश गुप्त
2. शुचौ
पिछले अंक में कविता की भाषा के सन्दर्भ में अपवर्जितविप्लव अर्थात् भाषा को भाषिक-विप्लव से मुक्त रखनापर चर्चा की गई थी। महाकवि भारवि ने भाषा की दूसरी विशेषता पद-शुचिता पर बल दिया है। यहाँ शुचिता का अर्थ है - शुद्धता। आज इसी पर चर्चा की जाएगी।

जब हम भाषा में पद की शुचिता या शुद्धता की बात करते हैं, तो सर्वप्रथम समझना होगा कि पद क्या है? वास्तव में शब्द ही पद बनते हैं। पद और शब्द में अन्तर केवल इतना है कि जब कोई शब्द वाक्य विन्यास में रूप ग्रहण करता है तो वह पद बन जाता है, वाक्य में प्रयोग हो जाने पर ही शब्द पद कहलाता है। जब शब्द वाक्य में प्रयोग होता है, तो उसमें आवश्यकता के अनुसार अपने वर्ग के अनुरूप भाषा के व्याकरण सम्बन्धी नियमों के साथ परिवर्तन होता है। उदाहरण के लिए, हिन्दी भाषा के सम्पूर्ण शब्दों को पाँच भागों में विभक्त किया गया है - संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया और अव्यय। नियम है कि संज्ञा और सर्वनाम पद की आवश्यकता के अनुसार विभिन्न कारकों और वचनों में प्रयुक्त होंगे, विशेषण पद विशेष्य के पहले उसके लिंग का अनुसरण करेंगे, क्रियापद कर्तापद के वचन, लिंग और पुरुष का अनुसरण करते हुए अपेक्षित काल में प्रयुक्त होंगे और अव्यय पद बिना लिंग आदि का अनुसरण किए विशेषण की भाँति अपने सम्बन्धित पद के पहले आएँगे। इसके अतिरिक्त, अन्य भाषिक विधान पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है, जैसे- उपसर्ग, प्रत्यय, समास, संधि आदि। इसके साथ भाषा की प्रकृति या प्रवृत्ति की अनुकूलता का होना भी आवश्यक है। यद्यपि कि प्रकृति और प्रवृत्ति में भिन्नता भी है और समानता भी, पर, यहाँ दोनों को समान मान लेने में विशेष अन्तर नहीं पड़ने वाला है।

देखने में आता है कि कुछ लोग अनावश्यक पदों का प्रयोग कर देते हैं, जिससे कविता या रचना बोझिल होकर अर्थान्वयन में कठिनाई पैदा करती है। इसके लिए आचार्य परशुराम राय की कविता का एक अंश उदाहरण के रूप में लेते हैं-
विकल हो जाती
प्रजा की चेतना जब
भीष्म के भीषण भयानक बाण से,

यहाँकी आवृत्ति से अनुप्रास तो बड़ा ही स्वाभाविक और सुन्दर लग रहा है, पर भीषण और भयानक दोनों समानार्थी है। यदि एक विशेषण के बदले कोई दूसरा विशेषण पद की तीक्ष्णता व्यक्त करने के लिए प्रयोग किया गया होता तो अधिक अच्छा होता। लेकिन कवि ने भयोत्पादकता का अतिरेक दिखाने के लिए दो समानार्थी विशेषणों का प्रयोग एक साथ  कर दिया है। इसी प्रकार एक दोहे की अर्धाली - हे हर-हार-अहारसुत, विनय करउँ कर जोरि में मात्र पवनसुत कहने के लिए हर-हार-अहारसुत पद प्रयोग किये गए हैं, जो अर्थान्वयन में अनावश्यक अड़चन पैदा कर रहे हैं। अतएव, कहने का तात्पर्य यह है कि रचना में पद की शुद्धता के लिए अभीष्ट अर्थ के अनुकूल, विप्लव से अपवर्जित पद का प्रयोग शब्द संयम (economy of words) का ध्यान रखते हुए होना चाहिए। जिससे कि अर्थ स्वतः पदों से तरलता पूर्वक छलके। काव्यशास्त्रों में इस प्रकार के संकेत पददोष के रूप में गिनाए गए हैं।
पदगत शुद्धता के अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण है अर्थगत शुद्धता - अर्थात् पद अर्थदोष से मुक्त होना चाहिए। कविता या गद्य में प्रयुक्त पद अभीष्ट अर्थ व्यक्त करने में समर्थ हो, इसका ध्यान रखना आवश्यक है। कुछ लोग पद के प्रयोग में ऐसी भूल कर बैठते हैं कि उसे पढ़ने के बाद संशय उत्पन्न हो जाता है। प्रायः ‘अभिज्ञ शब्द को लोग न जाननेवाला या अनजान के अर्थ में प्रयोग कर बैठते हैं। जबकि इसका अर्थ जाननेवाला या जानकारी रखनेवाला होता है। ‘ज्ञ’ का प्रयोग शब्द के अन्त में करने पर इसका अर्थ जाननेवाला होता है, जैसे ‘सर्वज्ञ सब कुछ जानने वाला, इसी प्रकार ‘गणितज्ञ’ - गणित जानने वाला आदि। इसी ‘ज्ञ’ में ‘अभि’ उपसर्ग लगकर ‘अभिज्ञ’ शब्द निष्पन्न होता है। इसी प्रकार ‘अभिलाषा’, ‘अभिमान’ आदि शब्द बने हैं। लोग अभिज्ञ को भिज्ञ का विलोम समझने की भूल कर बैठते हैं, जबकि अभिज्ञ का विलोम अनभिज्ञ होता है और भिज्ञ जैसा कोई शब्द है ही नहीं। 
इसी प्रकार एक और शब्द है ‘गण्यमान्य’। इसके बदले लोग प्रायः ‘गणमान्य’ शब्द का प्रयोग कर बैठते हैं या एक ही अर्थ में दोनों का प्रयोग कर देते हैं। हालाँकि दोनों के अर्थ भिन्न हैं। ‘गण्यमान्य’ का अर्थ है गणनीय लोगों द्वारा मान्य या सम्मानित और ‘गणमान्य’ का अर्थ होगा समूह द्वारा मान्य या सम्मानित। इसी प्रकार कुछ लोग अनभिज्ञता के कारण भारी-भरकम शब्द के प्रयोग के लोभ में ‘सौजन्यता’, ‘दैन्यता’, ‘अज्ञानता’ आदि शब्दों का प्रयोग कर देते हैं, जबकि ‘सौजन्य’, ‘दैन्य’ और ‘अज्ञान’ स्वयं भाववाचक संज्ञाएँ हैं, उनमें पुनः ‘ता’ प्रत्यय जोड़कर भाववाचक बनाना हास्यास्पद लगता है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी  लिखते हैं कि 'ऐसा करना वैसे ही है जैसे किसी को दो टोपी पहना दी गयी हो।' काव्यशास्त्र में अर्थदोष के अन्तर्गत इस प्रकार की चर्चाएँ हुई हैं।
अतएव अपने लेखन में, चाहे कविता हो या गद्य, पद और पद के अर्थ की शुचिता के प्रति सजग रहना आवश्यक है।
 क्रमशः
      

21 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही उपयोगी जानकारी…………आभार्।

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  2. अति सुन्दर व उपयोगी जान कारी .....
    ---निश्चय ही आज नये नये शब्द , भारी भरकम लक्षणा-व्यन्जना प्रयोग के चाव में शब्द व अर्थ दोषों पर ध्यान नहीं दिया जारहा....

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  3. हरीश जी,
    इस आलेख के प्रथम भाग पर एक बात कहना चाहता हूँ. शब्द संयम, पुनरावृत्ति और अनावश्यक शब्दों का प्रयोग यह बात अवश्य ही ध्यान देने/रखने योग्य है और इनका पालन न होने पर, इन्हें दोष की ही श्रेणी में रखा जाना चाहिए. किन्तु जैसा की मैंने पहले भी कहा था, यहाँ हम कविता को एक शरीर के रूप में देख रहे होते हैं. यदि हम कविता के प्राण, उसकी काव्यात्मकता तथा उसके गेय पहलू पर विचार करें तो हमें इस तरह के शब्दों के प्रयोग की बाध्यता को स्वीकार करना पडेगा. इसका उदाहरण हम फ़िल्मी गीतों से ले सकते हैं, जहां कई साहित्यिक गीतकारों के गीतों में यह दोष दिखाई देते हैं, किन्तु उन्हें स्वीकार करना पडता है क्योंकि संगीत की मांग उन शब्दों के स्थानापन्न शब्दों की अनुमति नहीं देती.
    आलेख के दूसरे भाग में आपने जो बात कही वह शत प्रतिशत सही है. मुझे याद है आकाशवाणी में एक कार्यक्रम में कवि श्री आरसी प्रसाद सिंह पधारे थे. उद्घोषक ने उन्हें अत्यधिक सामान देने के क्रम में उद्घोषणा की कि कि आज हमारे बीच सर्वश्री आरसी प्रसाद सिंह जी उपस्थित हैं.. भावावेश में दो भूलें.. सर्वश्री कई लोगों के लिए एक साथ 'श्री' लगाने से बना बहुवचन शब्द है और 'श्री' के साथ 'जी' का प्रयोग उचित नहीं है. किन्तु यह एक प्रचलित दोष है, जो बोलने और लिखने में भी लोग करते हैं!!
    कुल मिलाकर लाभान्वित हुआ हरीश जी!आभार!!

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  4. बहुत अच्छी जानकारी के लिए साधुवाद !

    मैंने कहीं-कहीं लिखा देखा है "मंदिर निर्माणार्थ हेतु स्वेच्छा से दान दें"
    "ऐज्मा" को अस्थमा लिखते-बोलते उच्च शिक्षितों से भी सुना है. और लेडी को लेडीज़ बोलना तो सुप्रचलित हो चुका है.

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  5. बहुत ही महत्वपूर्ण और उपयोगी जानकारी.

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  6. बहुत ही बढ़िया एवं महत्वपूर्ण जानकारी... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.com/

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  7. सलिल भाई, दोष तो दोष है, चाहे वह अच्छे साहित्यकार के द्वारा हो, चाहे संगीतकार के द्वारा। जब कालिदास, भारवि आदि कवियों पर उँगली उठ सकती है, तो अन्य पर क्यों नहीं। यहाँ तक कि आचार्य पाणिनि तक पर वैय्याकरणों ने उँगली उठाई है। केवल आर्ष कवियों की रचनाओं में इस प्रकार का दोषान्वेषण वर्जित किया गया है।

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  8. बहुत ही उपयोगी और महत्वपूर्ण जानकारी दी आप ने..………आभार्।

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  9. ye lekh to diary karne yogy hai jisse aaj vyakran ki itni goodh baaton ka aur kaavy ki baarikiyon ka pata chala.

    Gupt ji bahut bahut aabhari hun ki itni upyogi aur mahatvpoorn jankari dekar aap ham sab ko kritaarth kar rahe hain.

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  10. Pallavi ने आपकी पोस्ट " आँच-101 काव्य की भाषा – 4 " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    बहुत ही बढ़िया एवं महत्वपूर्ण जानकारी... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है

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  11. काव्य में पद शुचिता और अंतिम भाग में शब्दों के सही अर्थ बता कर आपने ब्लॉग जगत के पाठकों का बहुत उपकार किया है।

    एक सुंदर आलेख !!!

    ,। देते समय कोई चूक हुई लगती है। लेख पढ़ते समय एक वाक्य-दूसरे पर आच्छादित हो तो समझने में कठिनाई होती है।

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  12. मेरी टिप्पणी गायब हो रहीं हैं आपके ब्लॉग से...स्पैम में देखिए जी!!!

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  13. @ मनोज भारती जी,
    आपकी टिप्पणी खोज कर लगा दी है -


    मनोज भारती ने आपकी पोस्ट " आँच-101 काव्य की भाषा – 4 " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    काव्य में पद शुचिता और अंतिम भाग में शब्दों के सही अर्थ बता कर आपने ब्लॉग जगत के पाठकों का बहुत उपकार किया है।

    एक सुंदर आलेख !!!

    ,। देते समय कोई चूक हुई लगती है। लेख पढ़ते समय एक वाक्य-दूसरे पर आच्छादित हो तो समझने में कठिनाई होती है।

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  14. @ सलिल भाई,

    जहाँ तक शास्त्र सम्मत तर्कों की बात है, तो यह दोष है। जिन्हें इसकी जानकारी है, वे इनसे बचते हैं। बहुतायत प्रयोग तो अनजाने में हुए होते हैं। दोष को जानते हुए स्वीकार करना बाध्यता नहीं, बल्कि हमारी सीमाएँ होतीं हैं। और, जहाँ तक आज के फिल्मी गीतों की बात है, तो वे प्रायः कभी तेज तो कभी मधुर संगीत के बीच घुसे शब्द मात्र होते हैं और संगीत के वजन पर ही चलते हैं, शास्त्रीय सन्दर्भ में उनकी चर्चा करना प्रासंगिक नहीं है। तथापि वहाँ भी अपवाद विद्यमान हैं।

    सार्थक चर्चा के लिए आभार,

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  15. hii.. Nice Post

    Thanks for sharing


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  16. अच्छा और रोचक आलेख उस पर स्वस्थ चर्चा, कुल मिला कर सार्थक पोस्ट।

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  17. बहुत ज्ञानवर्धक है आपका आलेख,हरीश जी.

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  18. काफी ज्ञानवर्धक श्रंखला है. "पद-शुचिता" अति महत्वपूर्ण है.

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