शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

शिवस्वरोदय – 70



शिवस्वरोदय – 70

आचार्य परशुराम राय

स्वीयाङ्गे वहते नाडी तन्नाडीरोधनं कुरु।

मुखबन्धममुञ्चन्वै पवनं जायते युवा।।381।।

भावार्थ – अपने शरीर में जो नाड़ी प्रवाहित हो रही हो, उससे साँस अन्दर भरकर और मुँह बन्दकर यथाशक्ति आन्तरिक कुम्भक करने से वृद्ध भी युवा हो जाता है।

English Translation –The breath should be taken through the nostril which is active and hold it inside as long as we can do easily. We should also take care that our mouth is closed, so that breathed air should not pass out through it. Practitioner of this technique becomes young.

मुखनासिकाकर्णान्तानङ्गुलीभिर्निरोधयेत्।

तत्त्वोदयमिति ज्ञेयं षण्मुखीकरणं प्रियम्।।382।।

भावार्थ – मुख, नासिका, कान और आँखों को दोनों हाथों की उँगलियों से बन्दकर स्वर में सक्रिय तत्त्व के प्रति सचेत होने का अभ्यास करना चाहिए। इस अभ्यास को षण्मुखी मुद्रा कहते हैं।

षण्मुखी मुद्रा के अभ्यास की पूरी विधि शिवस्वरोदय के 150वें श्लोक पर चर्चा के दौरान दी गयी थी। य़ह विधि महान स्वरयोगी परमहंस स्वामी सत्यानन्द जी ने अपनी पुस्तक स्वर-योग में जिस प्रकार दी है, उसे यथावत यहाँ पुनः उद्धृत किया जा रहा है-

श्रुत्योरङ्गुष्ठकौ मध्याङ्गुल्यौ नासापुटद्वये।

वदनप्रान्तके चान्याङ्गुलीयर्दद्याच्च नेत्रयोः।।150।।

1. सर्वप्रथम किसी भी ध्यानोपयोगी आसन में बैठें।

2. आँखें बन्द कर लें, काकीमुद्रा में मुँह से साँस लें, साँस लेते समय ऐसा अनुभव करें कि प्राण मूलाधार से आज्ञाचक्र की ओर ऊपर की ओर अग्रसर हो रहा है।

3. (थोड़ा सिर इस प्रकार झुकाना है कि ठोड़ी छाती को स्पर्श न करे) और चेतना को आज्ञाचक्र पर टिकाएँ। साँस को जितनी देर तक आराम से रोक सकते हैं, अन्दर रोकें। साथ ही जैसा श्लोक में आँख, नाक, कान आदि अंगुलियों से बन्द करने को कहा गया है, वैसा करें, खेचरी मुद्रा (जीभ को उल्टा करके तालु से लगाना) के साथ अर्ध जालन्धर बन्ध लगाएँ।

4. सिर को सीधा करें और नाक से सामान्य ढंग से साँस छोड़ें।

5. यह एक चक्र हुआ। ऐसे पाँच चक्र करने चाहिए। प्रत्येक चक्र के बाद कुछ क्षणों तक विश्राम करें, आँख बन्द रखें। अभ्यास के बाद थोड़ी देर तक शांत बैठें और चिदाकाश (आँख बन्द करने पर सामने दिखने वाला रिक्त स्थान) को देखें। इसमें दिखायी पड़ने वाले रंग से सक्रिय तत्त्व की पहिचान करते हैं, अर्थात् पीले रंग से पृथ्वी, सफेद रंग से जल, लाल रंग से अग्नि, नीले या भूरे रंग से वायु और बिल्कुल काले या विभिन्न रंगों के मिश्रण से आकाश तत्त्व समझना चाहिए।

English Translation – We should close our mouth, nostrils, eyes and ears with the help of ten fingers of our both the hands and keep us aware of the Tattva active in the breath during the practice. This is called Shanmukhi Mudra (a kind of posture).

Method of this Mudra has been explained while translating verse No. 150 of Shivaswrodaya. The method is given there as described by the great Swar Yogi Paramahansa Satyananda Saraswati in his book Swar Yoga. The same is reproduced hereunder:

1. At the outset, we should sit in any comfortable meditative posture.

2. Then we should close our eyes, shape our lips like crow-beak, breathe through mouth with feeling that vital energy is moving from Muladhara Chakra (the place in the spinal column at the level of anus) towards Ajna Chakra (place between eyebrows).

3. We should hold breath inside as long as we can hold comfortably, simultaneously close ears, nose, mouth etc as mentioned in the verse, touch palate with tongue by folding it back side (Khechari Mudra), bend head a little down but chin should not touch the upper chest and feel our consciousness between eyebrows.

4. After that we should breathe out keeping our head straight.

5. This one cycle of this practice. We should practise it at least five times daily. After every cycle we may relax for few seconds, but eyes should be kept closed. After completion of the practice, we should sit silently with closed eyes and observe colour appearing before the eyes. The colour, which appears at that time, indicates the appearance of Tattva in the breath, i.e. appearance of yellow colour indicates earth, white indicates water, red- the fire, blue or grey- air and appearance of black colour or combination of different colours indicates ether.

तस्य रूपं गतिः स्वादो मण्डलं लक्षणं त्विदम्।

स वेत्ति मानवो लोके संसर्गादपि मार्गवित्।।383।।

भावार्थ – जो योगी इस मुद्रा का प्रतिदिन अभ्यास करता है, वह तत्त्वों के आकार, गति, स्वाद, रंग और लक्षण को पहचानने में सक्षम हो जाता है। इससे उसके पास स्वस्थ और सफल सम्पर्क स्थापित करने की क्षमता आ जाती है।

English Translation – A person, who practices this technique daily, becomes capable to identify shape, motion, taste, and property of Tattvas. He acquires health and capacity to establish good relation.

निराशो निष्कलो योगी न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।

वासनामुन्मनां कृत्वा कालं जयति लीलया।।384।।

भावार्थ – आशा और कामनाओं से मुक्त योगी चिन्तारहित होकर संसार में रहते हुए भी उससे निर्लिप्त रहता है, जैसे रंगमंच पर अभिनय कर रहा हो। इस प्रकार वह कालजयी हो जाता है।

English Translation – A yogi, who is free of all expectations, desires and concerns, lives in the world as an actor and thus he surpasses the death.

विश्वस्य वेदिकाशक्तिर्नेत्राभ्यां परिदृश्यते।

तत्रस्थं तु मनो यस्य याममात्रं भवेदिह।।385।।

भावार्थ – विश्व को जाननेवाली आद्या शक्ति योगी को अपने नेत्रों से दिखाई देती है। अतएव योगी को अपने मन को उसी में स्थिर करना चाहिए।

English Translation – The cosmic power of this universe is seen by a Yogi with his eyes. He should therefore concentrate his mind on the same.

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7 टिप्‍पणियां:

  1. आद.आचार्य जी ,
    इस दुर्लभ ज्ञान के लिए आभार !

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  2. बहुत ज्ञानवर्धक और उपयोगी लेख...आभार..

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