फ़ुरसत में ...
एक दोपहरी साहित्य अकादेमी के प्रांगण में ..!
दिल्ली दौरे पर था। इसी सप्ताह। अपना काम निबट चुका था। जब काम दोपहर के भोजनावकाश के पूर्व निपट जाता है, तो मैं फ़ुरसत में होता हूं। वापसी की फ़्लाइट होती है शाम के पांच बजे। सो अपने पास दो-तीन घंटे फ़ुरसतियाने के होते हैं। अमूमन मैं उसी सड़क पर आगे बढ़ जाता हूं। उस कोपरनिकस मार्ग के अंतिम छोर पर स्थित है साहित्य अकादेमी। पहले तले पर के इसके ‘बुक शॉप’ में पुस्तकें देखते, काम की पुस्तकें चुनते एक-डेढ़ घंटे तो गुज़र ही जाते हैं। यह मेरा नियम-सा बन चुका है।
इसी क्रम में इस बार भी वहीं था कि अचानक ख़्याल आया क्यों न आसपास के ब्लॉगर मित्रों से मिलकर उनका कुछ हाल-चाल जाना जाए। अरुण को फोन किया। वह तो मानों तैयार ही बैठा था, उसने तुरत हामी भर दी। राधारमण जी को जैसे मेरे ही फोन का इंतज़ार हो, बोले आप को ही याद कर रहा था, बोलिए कहां मिलना है? मैंने कहा एक मिनट में कॉल बैक करता हूं। अब बारी थी सलिल भाई की। उनको जब फोन लगाया, तो उन्होंने पूछा, ‘कहां हो?’ मेरे यह बताने पर कि मैं तो साहित्य अकादेमी में हूं, उन्होंने कहा, दो मिनट में पहुंचता हूं। जब तक मैं ‘बुक शॉप’ में अपनी चुनी पुस्तकें उठाता, बिल आदि का भुगतान करता, सलिल भाई अपनी चिर-परिचित मुस्कुराहट के साथ हाज़िर थे। मैं तो चौंक ही गया। मेरे मुंह से अनायास निकला, यहीं थे क्या? वे हंसने लगे।
कंधे पर टंगे स्वेटर की बाजुओं को उन्होंने छाती पर बांधा और बोले चलिए नीचे चलते हैं, वहीं लॉन की घास पर बैठकर बातें करेंगे। नीचे उतर कर हम लॉन की तरफ़ बढ़ ही रहे थे कि अरुण भी पहुंच गया। पांच मिनट के भीतर राधारमण जी भी आ गए। हम सब साहित्य अकादमी के गार्डेन की लॉन की घास पर बैठकर दिल्ली की गुनगुनी धूप का डेढ़-दो घंटे तक मज़ा लेते रहे। सच मानिए, इन एक सौ बीस मिनट में न हमने ब्लॉग की चर्चा की, न ब्लॉगिंग की और न किसी ब्लॉगर की ही! यह पहली बार हो रहा था। इसके पहले भी जहां ये चार यार मिले ब्लॉग का बुख़ार सिर चढ़ कर बोला। उन बैठकियों के दौरान शायद ही कोई क्षण ऐसा गुज़रा हो जब हमने ब्लॉग जगत के इतर कोई बात की हो!!
जब हम उस दिन बात कर रहे थे, तो सिर्फ़ बात कर रहे थे। मुझे उस मुलाक़ात में कुछ खास अलग या विशेष हुआ हो, नज़र नहीं आया। पर जब आज फ़ुरसत में ... उस दिन को याद करने बैठा हूं, ... तो लगता है कहीं-न-कहीं हम सब इस आभासी दुनिया की चमक-दमक और उपयोगिता से ऊब-से ही गए हैं। सलिल भाई ने तो यहां तक कहा कि पहले तो सप्ताह में दो पोस्ट लगाने की धुन सवार रहती थी, अब महीने में भी दो हो जाए, तो बहुत है। अरुण का भी यही हाल है – कहता है बहुत सुस्ती-सी छा गई है। पोस्ट लगाने का मन ही नहीं करता। राधारमण जी तो ‘ऐज़ यूज़ुअल’ हाल-चाल और स्वास्थ्य के प्रति ही संवेदनशील दिखे।
ऐसा भी उस दिन नहीं हुआ कि हमने देश-दुनिया के प्रति अपनी-अपनी चिंता जताई हो। या देश की ही किसी समस्या पर विमर्श कर डाला हो। साहित्य अकादेमी के प्रांगण में बैठकर हमने साहित्य के ही गिरते-उठते स्तर पर चर्चा कर डाली हो .. न, ऐसा भी न हुआ। शायद समस्याओं के प्रति हमारी संवेदनशीलता में ही कमी आ गई हो। उनकी तो वो जानें, मुझे तो यही लगता है, जब इतने बड़े और विद्वान लोग हैं ही इस पर सोचने-विचारने के लिए, तो हम सोच कर ही कौन-सा तीर मार लेंगे।
हमने इन लमहों में आपस के दुख-सुख बांटे। हाल-चाल – सुने -- गुने। सलिल भाई का प्रोमोशन आ गया है। हम सब ख़ुश हुए। बधाई दी। मिठाई खाने-खिलाने का अनुरोध रखा। दूसरे ही पल यह जानकर कि इस पदोन्नति से सलिल भाई को कोई अर्थिक लाभ नहीं होने वाला है – तुरत ही हमने मिठाई खाने-खिलाने वाला अनुरोध वापस ले लिया और यह जानकर कि इसके (पदोन्नति के) कारण उनके ऊपर तबादले की तलवार भी लटकी हुई है – हमारा मिठाई खाने-खिलाने वाला अनुरोध सहानुभूति और संवेदना में बदल चुका था। ख़ासकर तब, जब बिटिया दसवीं की परीक्षा की तैयारी कर रही हो, और पिता का तबादला हो जाए, बड़ा ही खतरनाक मामला हो जाता है।
राधारमण जी की पदोन्नति अभी तक नहीं आई है, और सरकारी रफ़्तार तो फाइलों की रफ़्तार पर निर्भर करती है – जो अपनी ही रफ़्तार से चलती है। जो फाइल जितनी वजनी होती है, उसकी गति उतनी ही तेज़ होती है। जो फाइल रूखी-सूखी, दीन-हीन होती है, वह गति से भी सुस्त और धीमी हो जाती है। कभी-कभी तो वह अंधकार के गर्त में पड़ी धूल-मिट्टी फांकती रहती है। हां, उनकी (राधारमण जी की) पदोन्नति तो नहीं हुई, पर तबादला ज़रूर हो गया है। अब वे योजना आयोग की कुर्सी को शोभायमान करते हुए देश की ग़रीबी की रेखा को नए ढंग से परिभाषित करने में लगे हुए हैं।
हमने उनकी योजना आयोग की पदस्थापना पर ख़ुश होकर बधाई देने का अपना दायित्व निर्वाह किया ही था कि हमारे सामने उनकी समस्या सुरसा की तरह मुंह बाये खड़ी हो गई। अब तक राधारमण जी अपने पहले के विभाग के कोटे के सरकारी मकान में थे। वहां से तबादला हो गया, तो उस विभाग ने मकान ख़ाली करने का नोटिस दे दिया था। ... और इसी सप्ताह यानी आज के दिन वह अवधि पूरी हो रही है। कोई अनुशासनिक/प्रशासनिक कार्रवाई न हो इसलिए वे नए मकान की चिंता में घुले जा रहे थे। मकान उचित दर, उचित स्थल और दूरी पर हो, जहां से बाल-बच्चों की पढ़ाई बाधित न हो, मिल नहीं रहा था। मिठाई खाने-खिलाने का आग्रह छोड़ अरुण अपना फोन खड़काने लगता है – और अपने इष्ट-मित्रों से बात कर राधारमण जी को समस्या के यथाशीघ्र निदान का आश्वासन देता है।
अरुण की न तो पदोन्नति हुई है, और न ही तबादला। फिर भी वह किसी न किसी उधेड़-बुन में ही था। पदोन्नति आ जाए, तो वाह-वाह, न आए तो भी – वाली उसकी मुद्रा थी। हरदम कुछ-न-कुछ नया करने की उसकी धुन उस पर सवार रहती ही है। इस बार वह विश्व पुस्तक मेले में स्टॉल बुक करवा चुका है और बड़े उत्साह के साथ पुस्तक प्रकाशन के काम में जुटा हुआ है। अरुण से बहुत देर तक और विस्तार में हम पुस्तक प्रकाशन और छपाई के बारे में ज्ञान प्राप्त करते रहे।
इसी बीच अरुण के चिहुंकने की आवाज़ ने हमारी बातों का सिलसिला तोड़ा। हम कुछ पूछते उसके पहले ही वह खड़ा हो चुका था। जब वस्तुस्थिति का जायज़ा लिया तो मलूम हुआ कि लॉन की घास को पानी पटाने के लिए माली ने कहीं पानी का नल खोल कर रख छोड़ा था। पानी सरकते-सरकते अरुण तक पहुंच चुका था। इस आकस्मिक व्यवधान ने हमें तत्काल वहां से उठने को विवश किया। हमने सभा विसर्जित की और अगली बैठकी का एक-दूसरे को आश्वासन देते हुए अपने-अपने ठिकाने का रुख किया।
एयर पोर्ट के रास्ते में यह सोच रहा था, जाते ही इस बार की मुलाक़ात पर फ़ुरसत में लिखूंगा और यह शे’र मन में चल रहा था,
न जाने ये लम्हें कल हो ना हो।
हों भी ये लम्हें, तो क्या मालूम
शामिल उन पलों में हम हो ना हो।
अच्छा लगा यह जानकर की ब्लॉग्गिंग को छोड़ इतर विषयों की चर्चा दोस्तों में होती रही.
जवाब देंहटाएंभई अगर हमें भी फोनिया देते तो हम भी आ धमकते !
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा कि ब्लॉगर मित्रों से ब्लॉग के इतर भी चर्चा हो सकती है !
भाई संतोष जी,
जवाब देंहटाएंनम्बर तो दे ही दीजिए।
अगली दिल्ली यात्रा शीघ्र होने वाली है।
ब्लोगर मित्रों के बीच चर्चा अच्छी लगी!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर पोस्ट आभार !
मित्रों से गुफ्तगू share की.पढ़कर अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा जानकर.....
जवाब देंहटाएंसमेट लो इन नाजुक पलों को
न जाने ये लम्हें कल हो ना हो।
हों भी ये लम्हें, तो क्या मालूम
शामिल उन पलों में हम हो ना हो।.....सच है
आपने यह तो बताया ही नहीं कि पक्षियों पर आपकी एक पुस्तक हमारे प्रकाशन से प्रकाशित हो रही है... गाँधी जी पर आपका जो लेखन हो रहा है उस पर भी अरुण की नज़र है... और राधारमण जी क्रोस्वर्ड पर एक पुस्तक जो प्रायः हिंदी में पहली पुस्तक होगी उसके प्रकाशन पर भी विचार कर रहे हैं.... हमें तो कोई बुलाता ही नहीं है..नहीं तो हम चौबीस घंटे फ्री हैं....और हाँ.... साहित्य अकादमी के कैंटीन में राधारमण जी द्वारा प्रायोजित लंच की चर्चा भी होनी चाहिए थी आपके पोस्ट में....
जवाब देंहटाएंफुरसत में जो कुछ छूटा वो अरुण जी ने पूरा कर दिया ... यूँ ही सिलसिला चलता रहे मेल मुलाक़ात का ...
जवाब देंहटाएंस्मृति में सहेजने योग्य क्षण।
जवाब देंहटाएंजीवन को ऐसे ही पल मधुर बनाते हैं !
जवाब देंहटाएंअच्छा है कि अरूणजी प्रकाशन में उतर आए हैं जहां ब्लॉगर मित्र भी उनकी सेवाएं ले सकते हैं। मनोजजी भी गांधीजी की श्रृंखला को पुस्तकाकार देने की योजना बना रहे हैं। पाठकगण इन दोनों को शुभकामनाएं देना चाहेंगे।
जवाब देंहटाएंमनोजजी की भी पदोन्नति किसी भी क्षण हो सकती है। एडीजी बनने वाले हैं,मगर कोई संकोच नहीं हम जैसों के साथ घास पर बैठकर गपियाते हुए। यही वह बात है जो व्यक्तिगत मोर्चे पर भी उनके क़द को और ऊंचा करती है। अपनी पिछली पोस्ट में अपने जीवन की जिस सादगी की वे बात कर रहे थे,साहित्य अकादमी का प्रांगण उसका गवाह था।
bahut apne se pal
जवाब देंहटाएंसलिल भाई ने तो यहां तक कहा कि पहले तो सप्ताह में दो पोस्ट लगाने की धुन सवार रहती थी, अब महीने में भी दो हो जाए, तो बहुत है। अरुण का भी यही हाल है – कहता है बहुत सुस्ती-सी छा गई है।
जवाब देंहटाएंलगता है ये सुस्ती लगभग सभी पुराने ब्लोगर्स पर छाती जा रही है...अरुण जी की उर्जा को मैं नमन करता हूँ...इश्वर उन्हें सफलता दे.
नीरज
चलिए शुरू से ही शुरू करते हैं .:) हम भी जब किसी ब्लोगर मित्र से मिलते हैं तो बहुत कम ही ब्लॉग की बात होती है..क्या है न काम तो होता रहता है.कुछ पल मित्रता के भी जीने चाहिए.यही आपने किया और अच्छा किया.
जवाब देंहटाएंब्लॉग्गिंग का नशा वाकई थोडा मद्धम हो गया है.वजह कई हो सकती हैं.
अब सलिल जी को पद्दोनात्ति की ढेर सारी बधाई.और दुआ है कि तबादला न हो.
अरुण जी और राधारमण जी की मुस्कान बनी रहे. और आप सब की मित्रता भावना भी
आमीन.
समेट लो इन नाजुक पलों को
जवाब देंहटाएंन जाने ये लम्हें कल हो ना हो।
हों भी ये लम्हें, तो क्या मालूम
शामिल उन पलों में हम हो ना हो।..... सच कहा ..हर पल कीमती है...
बहुत रोचकता से मुलाकात का चित्रण किया है यूँ लगा जैसे हम भी वहीं थे…………कभी कभी कुछ पल अपने लिये जीना बहुत सुखद लगता है।
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंयह मुलाकात बहुत बढ़िया रही!
मनोज जी,
जवाब देंहटाएंबातें जब व्यक्तिगत हो चली हैं तो यह भी बता दूं कि विलंबित सुर में मेरे पदार्पण का कारण माताजी का ऑपरेशन आज होना और सब कुछ ठीक ढंग से संपन्न होना रहा.. सच है मनोज भाई, इसीलिये मैंने उस रोज साहित्य आकादमी का वेन्यू सजेस्ट किया था न कि हमारा पुराना अड्डा, मेरा ऑफिस.. मुझे बहुत अफसोस हुआ कि मुझे निकालना था इसलिए न तो लंच प्रायोजित कर पाया (जो मुझे करना था)और न ही सम्मिलित हो पाया... खैर वादा रहा! हमारी ये मंडली फिर जमेगी इससे पहले कि मेरा डेरा-डंडा यहाँ से उठे और निकल पड़े यह यायावर एक नए सफर पर..
ब्लॉग से परे भी बातचीत होती है यह हमने उसी दिन जाना.. "फुर्सत में" इन ट्रू सेन्स!!!!
चलिए आपकी इस पोस्ट से ऐसे कई समाचार मिले, जो वैसे शायद हम तक न पहुंचते। सभी को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंsalil ji & radharaman ji ko new promotion ki aur manoj ji ko bhavi promotion ki bahut bahut badhayi. dua karte hain salil ji ki samasya ko aasaan raah mile, radharaman ji bhi apni samasya se paar paa jaye. salil ji apki mataji swasth rahe yahi dua hai. han radharaman ji mera lunch due raha. arun ji aapko naye kshetr me kadam rakhne k liye badhayi....hamara bhi khyaal rakhna.
जवाब देंहटाएंsach kaha aap sab ne ki blog jagat me aajkal susti chhayi hui hai uska karam ham sab ki udaseenta hi hai. aisa bhi kabhi hona chahiye na ki kabhi niji mudde bhi shere kiye jaye...aise me apnatv bhawana pragaadh hoti hai.
kash koi din aisa ho ki me bhi aap sab se u hi milu.
manoj ji apka last ka sher bahut acchha raha.
अलग किस्म की ब्लागर मीट, पूरे मनोयोग से पढ़ा.
जवाब देंहटाएंब्लोगर का नेटवर्क सुकून देने वाला है...
जवाब देंहटाएंबड़ा अच्छा लगता होगा! आप लोग एक दूसरे से मिल तो लेते हैं .
जवाब देंहटाएंहम भी पढ लिए। अच्छा लगा पढना। पुस्तक आ रही है, यह भी पता चल गया।
जवाब देंहटाएंshaandar prastuti...ant ki chaar panktiyan mujhe behad bhaayeein..sadar pranam ke sath
जवाब देंहटाएंआपका लेखन बहुत सरल और सहज हो चला है। घटना तो जैसे अपने आसपास घटती सी लगती है।
जवाब देंहटाएंसलिल भाई, माता जी शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करें, यह ईश्वर से कामना है।
जवाब देंहटाएंइस बार फुरसत में' के द्वारा कुछ निजी सूचनाएं भी मिलीं और अपने बन्धुओं को समीप से जानने का अवसर भी मिला, यह हर्ष की बात है।
जवाब देंहटाएंसलिल भाई, आपकी पदोन्नति पर आपको हार्दिक बधाई। राधारमण जी,ईश्वर आपकी समस्या समुचित निदान करे। और अरुण जी, आपको प्रकाशन के क्षेत्र में भी सफल होने की असीम शुभकामनाएँ।
Rochak yaatra vrtaant .
जवाब देंहटाएंKhoob mulaakaat rahi.
Shubhkaamnaayen.
इस मुलाक़ात की बारे मे जानकार बहुत अच्छा लगा सर!
जवाब देंहटाएंसादर
संवेदनशीलता जिनकी जाति हो ....रचनाधर्मिता जिनका धर्म हो ...ऐसे चार बिरादर कहीं मिल जाएँ तो कुछ पलों के लिए एक नयी दुनिया की सृष्टि होना स्वाभाविक है. सशरीर न सही ....मन की आँखों से ही ...हमने भी दिल्ली के उस मैदान पर आपकी बगल में घास पर चुपचाप बैठ कर आप लोगों की बातें सुनीं ...मज़ा आया.
जवाब देंहटाएंलेखन की शिथिलता वाली बात से किंचित निराशा हुयी....किन्तु होता है ...तात्कालिक परिस्थितियाँ हो सकती हैं. मैं मानता हूँ कि रचनाधर्मिता किसी सुलगते हुए ज्वालामुखी से कम नहीं होती. कभी तो विस्फोट होगा ही. जल्दी-जल्दी हो ...यही कामना है.
माता जी का स्वास्थ्य, पदोन्नति, स्थानान्तरण, आर्थिक अलाभ, बिटिया की परीक्षा, मिठाई प्रस्ताव का स्थगन, अगली बार तक के लिए लंबित भोजन ....इतने सारे विषयों के बाद फुरसत ही कहाँ मिली होगी और कोई बात करने के लिए !
नवम्बर में देहरादून से वापस आते समय दिल्ली जाना हुआ था, कुछ घंटे रुका भी, बहुत मन था कि सलिल भाई और डॉक्टर गोपेश (राष्ट्रीय आयुर्वेद शोध संस्थान में शोध वैज्ञानिक ) से मिल पाता .....पर ऊपर वाले ने इस बार ऐसा कोई संयोग बनाया नहीं था.
एक निवेदन है, गूगल मुनि की स्वेच्छाचारिता के इस संकट काल में हमारे पास एक दूसरे के ई.मेल पते और दूरभाष क्रमांक होने ही चाहिए ताकि ऐसे किसी अवसर पर हम मिल सकें. मेरा चलित दूरभाष है -09424137109
जय श्री कृष्ण!!
जवाब देंहटाएंसमेट लो इन नाजुक पलों को
न जाने ये लम्हें कल हो ना हो।
हों भी ये लम्हें, तो क्या मालूम
शामिल उन पलों में हम हो ना हो।...
बहुत सुंदर भावाव्यक्ति!
दोस्ती जिंदगी का एक गजब का तोहफा होती है...आपने अपने कुछ पल शेयर किए आभार!
बदल जीने का ढंग गया, जो प्रेम के रंग में रंग गया...
साहित्य अकादमी पुस्तकालय, बुक शॉप, कैंटीन और प्रांगण...किसी समय मेरे जीवन के महत्त्वपूर्ण स्थल थे..पुरानी यादें आ गईं...
आपका ब्लॉग देख मन प्रसन्न हो गया!
बहुत-बहुत साधुवाद!!
सारिका मुकेश
हाय दइया ! गजब हुइ गवा....हमार कमेन्टवए बिला गइल...... देखीं न मनोज भइया जी! कहाँ हिरा गइल ?
जवाब देंहटाएंमनोज भाई ! देखिये, अभी हमने कहा था न कि गूगल मुनि कभी भी कुपित हो जाते हैं ...स्वेच्छाचारी हो गए हैं .....इसलिए हम लोगों को अपने-अपने ई.मेल पते और चलित दूरभाष एक दूसरे के सुपुर्द कर देना चाहिए....जब तक यह कार्यवाही होती तब तक गूगल मुनि हमारा प्रकाशित हुआ कमेन्ट निगल गए.
....अभी तो यहीं था कहाँ गया दिल की तर्ज पर "अभी तो यहीं तो कहाँ गया कमेन्ट ?" खोजीं हमार कमेन्टवा...हम तs कागज़ कलम धरि के पता लिखे खातिर अइलीं ..आ देखातानी के संदेसवये ना पहुंचल ...
सुकून भरी प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंसादर बधाई....
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसबेरे के टिप्पणी त गूगल मुनि जी खा गइलन ...अब फेर लिखतानी.....
जवाब देंहटाएंसंवेदनशीलता जिनकी जाति हो और रचनाधर्मिता जिनका धर्म ...ऐसे चार बिरादर कहीं मिल जाएँ तो आनंद की नवसृष्टि स्वाभाविक है. दिल्ली की शीत में मैदान की घास पर धूप सेंकते और चिनिया बादाम खाते हुए सशरीर न सही पर मन की आँखों से तो मैंने भी आपके बगल में एक ओर बैठकर उस वार्ता का और उन अपनत्व भरे क्षणों का आनंद लिया है. काश ! कभी सशरीर भी यह अवसर मिल पाता ! ! !
लेखन में शिथिलता की बात सुनकर उदास हुआ.......ऐसा भी होता है ...परिस्थितियाँ हमारे लेखन पर भी प्रभाव डालती हैं.
माँ की चिकित्सा, बिटिया की परीक्षा, स्थानान्तरण का भय, आर्थिक अलाभजन्य पदोन्नति, मिठाई के प्रस्ताव का निलंबन, भोजन के प्रस्ताव का अगली बार तक के लिए स्थगन......राधारमण जी की आवास समस्या........अरुण जी की तत्काल पहल ........ ये सारे नितांत अपने से पल .....धूप-छाँव की आँख मिचोली से भरे ....जिसमें कोई चिंतित है ....कोई निर्विकार तो कोई सदाबहार......
पुस्तक प्रेमी मनोज भइया की सरलता ...सदा सर्वदा स्वयं आश्वस्त होती....सामने वाले को भी आश्वस्त करती भाव भंगिमा........
अरुण जी ! देखिये आपकी पतलून भीगी जा रही है ....उठकर इधर आ जाइए ..मेरी तरफ ...नहीं तो फिर उलटे लेटकर वहीं सुखानी पड़ेगी ......सलिल जी ने चिनिया बादाम के सारे छिलके समेट कर कागज़ के ठोंगे में भर दिए हैं......जाते समय किसी कूड़े दान में डालना जो है ......उनके दिमाग के किसी कोने में वह नारा छप गया है - क्लीन दिल्ली ग्रीन दिल्ली ......
मेरा मानना है कि रचना धर्मिता और सुलगते हुए ज्वालामुखी का स्वभाव एक सा ही है. पहले लम्बे समय तक सुलगते हैं फिर विस्फोट होता है. विस्फोट अवश्यम्भावी है ....रचनाकार अधिक समय तक लेखन से बच नहीं सकता...ज्वालामुखी को कोई रोक सका है आज तक ?
नवम्बर में देहरादून से वापस आते समय कुछ घंटों के लिए दिल्ली रुका था. सलिल भैया और डॉक्टर गोपेश ( केन्द्रीय आयुर्वेद शोध संस्थान में शोध वैज्ञानिक ) से भेंट करने का मन था, किन्तु ऊपर वाले ने अभी यह संयोग निश्चित नहीं किया था. अफसोस यह भी था कि गोपेश के अतिरिक्त किसी का भी कोई संपर्क सूत्र मेरे पास नहीं था. तब लगा कि हमसे चूक हो गयी है.
मिलन के पलों का बहुत सुंदर चित्रण...आभार
जवाब देंहटाएंSAJEEV AUR AANAND SE BHARPOOR PRASTUTI .
जवाब देंहटाएंआइये हमहू दिल्ली में रहेंगे पुरे हप्ते . आप दिल्ली पधारे और फुरसत में हो तो फोनिया दीजियेगा . और हाँ एकदम सच्ची बोलते है हमहू ब्लॉग वाली कवनो बात नहीं करेंगे काहे की हमरा अब मोहभंग हो चला है . जल्दी से अतिरिक्त महानिदेशक बनिए तो हमहू सोंदेश खाने आ जाए .
जवाब देंहटाएंभाग दौड़ की ज़िन्दगी, जिसमें शरीर कहीं और मन कहीं रहता है के बीच नसीहत देने वाला शेर .
जवाब देंहटाएंआपकी प्रस्तुति पढकर बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंमिलन का संस्मरण रोचक है.
संगीता जी की हलचल पर आपकी प्रस्तुति देख बहुत खुशी मिली.
आभार.
post men ek apnapan tha.....bahot achcha laga padhkar.
जवाब देंहटाएंफुरसत के क्षण बहुत पसंद आए...यह अनौपचारिक क्षण ही आत्मीयता के क्षण हैं।
जवाब देंहटाएंसमेट लो इन नाजुक पलों को
जवाब देंहटाएंन जाने ये लम्हें कल हो ना हो।
हों भी ये लम्हें, तो क्या मालूम
शामिल उन पलों में हम हो ना हो।
vah bahut khoob yahan to sb kuchh rochak hi rochk
आपके साथ हम मुफ्त में ही साहित्य अकादमी की सैर कर लिए ! हम तो आपके उन पलों में शामिल हो ही गए ,आगे की समय जाने !
जवाब देंहटाएं