रविवार, 11 दिसंबर 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 94


भारतीय काव्यशास्त्र – 94
आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में अस्थानसमासता (अस्थानस्थ समास), सङ्कीर्ण, गर्भितत्व और प्रसिद्धिहत वाक्यदोषों पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में भग्नप्रक्रम वाक्य दोष के विभिन्न स्वरूपों- प्रकृति, प्रत्यय, सर्वनाम, पर्याय और उपसर्ग-जन्य दोषों की चर्चा की जाएगी।
जहाँ काव्य में क्रम भंग हो जाय, अर्थात् जिस तरीके से बात कही जा रही है उसका अन्त तक क्रम एक जैसा न रहे, वहाँ भग्नप्रक्रम दोष होता है। यह प्रकृति, प्रत्यय, सर्वनाम, पर्याय, उपसर्ग, वचन, कारक और क्रम-भंग के रूप मे देखा जाता है। सर्वप्रथम प्रकृतिगत (मूलशब्दगत) भग्नप्रक्रम का उदाहरण लेते हैं-
नाथे निशायां नियतेर्नियोगादस्तङ्गते हन्त निशाSपि याता।
कुलाङ्गनानां  हि  दशानुरूपं  नातः  परं  भद्रतरं समस्ति।।
अर्थात् दैववश निशापति (चन्द्रमा) के अस्त हो जाने पर रात भी चली गयी, यह दुखद है। कुलांगनाओं (पतिव्रता स्त्रियों) के लिए दशा के अनुरूप इससे अच्छी बात और कुछ नहीं हो सकती। मतलब पति के देहान्त के बाद पत्नी की भी तुरन्त मृत्यु होने से उसे वैधव्य की पीड़ा नहीं सहनी पड़ती।
यहाँ श्लोक के पूर्वार्द्ध में अस्तङ्गते (अस्त होते ही) पद में गम् (जाना) धातु का प्रयोग किया गया है, जबकि रात भी चली गयी के लिए निशाSपि याता में याता (या धातु) का प्रयोग किया है। अतएव यहाँ प्रकृति (मूल शब्द) में क्रम टूट गया है। यदि यहाँ याता के स्थान पर गता का प्रयोग करके गता निशाSपि किया गया होता तो ठीक रहता।
ऐसा कहने से एक सन्देह उत्पन्न होता है कि इससे शब्द की पुनरुक्ति होने से पुनरुक्त दोष हो जाता और इसे अच्छा नहीं माना जाता। फिर यहाँ उसी शब्द को दुबारा प्रयोग की बात कही जा रही है। वास्तव में जहाँ उद्देश्य-प्रतिनिर्देश्य भाव वाले स्थलों पर पुनरावृत्ति करना दोष नहीं होता। लेकिन जहाँ उद्देश्य-प्रतिनिर्देश्य भाव की स्थिति नहीं है, वहाँ शब्द की पुनरावृत्ति पुनरुक्त दोष पैदा करती है। जैसे निम्नलिखित श्लोक में ताम्र शब्द दो बार प्रयोग किया गया है। फिर भी इसमें पुनरुक्त दोष नहीं होगा-    
उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तमेति च।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।।
अर्थात् उदय काल में सूर्य ताम्र वर्ण का होता है और अस्त होते समय भी ताम्र वर्ण का होता है। सम्पत्ति और विपत्ति दोनों ही अवस्थाओं में महापुरुषों का एक ही रूप रहता है।
यहाँ ताम्र शब्द का दो बार प्रयोग होने पर भी पुनरुक्त दोष नहीं है। यदि दूसरे ताम्र शब्द के लिए रक्त शब्द प्रयोग होता तो भग्नप्रक्रम दोष की स्थिति बन जाती। क्योंकि यह स्थिति भी उद्देश्य-प्रतिनिर्देश्य भाव की ही है।
निम्नलिखित श्लोक में प्रत्यय के क्रम का भंग होने से भग्नप्रक्रम दोष है। यह श्लोक किरातार्जुनीयम् से लिया गया है और यह अर्जुन के प्रति द्रौपदी की उक्ति है- 
यशोSधिगन्तुं सुखलिप्सया वा मनुष्यसङ्ख्यामतिवर्तितुं वा।
निरुत्सुकानामभियोगभाजां  समुत्सुकेवाङ्कमुपैति   सिद्धिः।।
अर्थात् यश प्राप्त करने अथवा सुख प्राप्त करने अथवा सामान्य लोगों से आगे जाने के लिए प्रयत्नशील पुरुषों की इच्छा न रहने पर भी, सफलता उनकी गोद में जाने के लिए स्वयं उद्यत रहती है।
यहाँ अधिगन्तुम् और वर्तितुम् की तरह सुखलिप्सया के स्थान पर तुमुन् प्रत्यय के साथ सुखमिहितुम् क्रियापद का प्रयोग करना चाहिए था। ऐसा न कर सुखलिप्सया पद के कारण प्रत्यय जन्य भग्नप्रक्रम दोष है।
निम्नलिखित शलोक में सर्वनाम-गत भग्नप्रक्रम दोष की ओर संकेत किया गया है-
ते हिमालयमामन्त्र्य पुनः  प्रेक्ष्य  च शूलिनम्।
सिद्धं चास्मै निवेद्यार्थं तद्विसृष्टाः खमुद्ययुः।।
अर्थात् वे (सप्तर्षिगण) हिमालय से विदा लेकर और भगवान शिव से मिलकर उन्हें कार्य की सिद्धि (पार्वती के विवाह की स्वीकृति की सूचना) दिए और उनकी आज्ञा प्राप्त कर आकाश में चले गए।
इस श्लोक में तद्विसृष्टाः में तद् सर्वनाम के स्थान पर अनेन विसृष्टाः प्रयोग अच्छा रहता। क्योंकि बाद वाला पद भगवान शिव के अतिरिक्त किसी अन्य का संकेतक है।
निम्नलिखित श्लोक में पर्यायगत भग्नप्रक्रम दोष है-
महीभृतः पुत्रवतोSपि दृष्टिस्तस्मिन्नपत्ये न जगाम तृप्तिम्।
अनन्तपुष्पस्य  मधोर्हि  चूते  द्विरेफमाला  सविशेषसङ्गा।।
अर्थात् पुत्रवान होने पर भी पर्वतराज हिमालय अपनी (दूसरी) संतान पार्वती को देखकर उन्हें वैसे ही तृप्ति नहीं होती, जैसे वसन्त में अनेक पुष्प होने पर भी भौंरों की पंक्ति आम की मंजरी पर ही विशेष रूप से आकृष्ट होती है।
इसमें महीभृतः पुत्रवतः के स्थान पर महीभृतोSपत्यवतोSपि (हिमालय सन्तान के होने पर भी) का प्रयोग उत्तम होता। क्योंकि कुछ लोग इसका उद्दिष्ट अर्थ यह मान बैठते हैं कि पुत्र के होने पर भी कन्या में हिमालय का विशेष स्नेह था, जबकि कवि का अभीष्ट है कि सन्तान होने के बाद भी हिमालय को दूसरा अपत्य (सन्तान-पुत्र या पुत्री) अधिक प्रिय है। यहाँ पुत्रवतः पद के कारण पर्यायगत भग्नप्रक्रम दोष है।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में भग्नप्रक्रम दोष की शेष स्थितियों पर चर्चा होगी।   
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