नवगीत
पूस के जाड़े में
पूस के जाड़े में
ठिठुर रही धूप।
सुविधा के मद में
नैतिकता
होम हुई,
अनाचारों के अवर्त्त
आयाम
निगल गए,
झूठ हुए सब सच
चारो ओर मची
सत्ता की लूट।
आशाएं बोझ हुईं
अबला सा दर्द -
थकन,
आँचल की आस में
अस्मत
लिए शेष,
छुपी खड़ी कोने में
लुटी पिटी
बेचारी सी धूप।
****
धूप बेचारी ठिठुर रही है, सटीक बिम्ब चित्रित किया है।
जवाब देंहटाएंकहते हैं जहाँ न रवि पंहुचे ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर है जाड़े पर ये नवगीत.
जवाब देंहटाएंआ... हौ...!
जवाब देंहटाएंसुविधा के मद में
जवाब देंहटाएंनैतिकता
होम हुई,
बिलकुल सही सुंदर रचना ....
पूस की ठण्ड में धुप भले ठिठुरती रहे पर लोगो में उर्जा और उत्साह भी यही लाती है. सुविधा के मद में नैतिकता होम हुई एकदम सही.
जवाब देंहटाएंbehtarin prateek ke madhyam se behtrin rachna..mere blog per bhi aapka swagat hai
जवाब देंहटाएंइस जाड़े के मौसम में आपके इस नवगीत ने नई उर्जा भर दी !
जवाब देंहटाएंआभार !
मेरी नई रचना "तुम्हे भी याद सताती होगी"
सुंदर एवं सार्थक रचना समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है ....http://mhare-anubhav.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंवाह ... क्या चित्र खींच दिया आँखों के सामने ...
जवाब देंहटाएंनवीन बिम्बों से सजा यह नवगीत सच्च्मुच धुप की व्यथा को रेखांकित करता है!!
जवाब देंहटाएंबस ये धूप हर बाधा को पार कर अपनी छटा बिखेरे... .... सुंदर नवगीत.
जवाब देंहटाएंठिठुरती घूप..बहुत सुन्दर..
जवाब देंहटाएंठिठुरती धूप ...क्या बेहतरीन बिम्ब है.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब चित्रण किया है।
जवाब देंहटाएंइन दिनों धूप सचमुच बेचारी हो गई है।
जवाब देंहटाएंअनुपम नवगीत।
कभी तो ऊँट को भी पहाड़ के नीचे आना पड़ता है !
जवाब देंहटाएंपूस की सर्दी में ठिठुरती धूप एकदम बेबस और लाचार. सुंदर बिम्ब प्रयोग एक गंभीर भाव की कविता. सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई.
जवाब देंहटाएंकभी नाव नदी पर कभी नदी नाव पर,...ये तो प्रक्रति का नियम है..
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति अच्छी लगी,...
मेरी नई पोस्ट की चंद लाइनें पेश है....
आफिस में क्लर्क का, व्यापार में संपर्क का.
जीवन में वर्क का, रेखाओं में कर्क का,
कवि में बिहारी का, कथा में तिवारी का,
सभा में दरवारी का,भोजन में तरकारी का.
महत्व है,...
पूरी रचना पढ़ने के लिए काव्यान्जलि मे click करे
बहुत सुन्दर नवगीत। लेकिन लगता है कि शीर्षक "पूस के महीने में ठिठुरी यह धूप" अधिक अच्छा रहता और गीत में भी इस प्रकार का परिवर्तन अधिक उपयुक्त होता। ऐसा करने से जाड़ा व्यंजना से आता तो अच्छा होता। यह केवल सुझाव मात्र है। वैसे कविता काफी कसी हुई है। बिम्ब भी जोरदार है, जैसा कि अन्य पाठकों ने अपनी प्रतिक्रिया में लिखा है। साधुवाद।
जवाब देंहटाएं@ ऱाय जी,
जवाब देंहटाएंआपका सुझाव अच्छा ही नहीं उपयुक्त भी है। 'जाड़ा' पद का अर्थ व्यंजना से आता तो अधिक सुन्दर होता। मुझे इसमें बदलाव करना चाहिए था। दरअसल यह नवगीत नब्बे के दशक में लिखा था और तब यह कहीं प्रकाशित भी हुआ था। अभी यहाँ (ब्लाग पर) प्रकाशन के समय एक बार यह शब्द खटका था, लेकिन फिर सोचा कि इसे वैसा ही, मूल रूप में, आपके बीच प्रस्तुत किया जाए। यह मुझसे हुई त्रुटि है और मैं इसे सहर्ष स्वीकार करता हूँ।
--मेरे विचार से...
जवाब देंहटाएं’पूस के जाड़े में
ठिठुर रही धूप”----इस मुखडे से यह कमी पूरी होजाती है...