फ़ुरसत में ...
पिछले सप्ताह की फ़ुरसत में ... (पोस्ट) मेरी दिल्ली यात्रा पर केन्द्रित थी। अमूमन मेरी श्रीमतीजी को मेरे लिखे से कोई मतलब नहीं होता। पर, उस दिन ताका-झाँकी करते हुए उन्होंने एक निगाह इधर तब फिरा ली जब मैं एक मित्र के बताने पर रह गई अशुद्धियों को दूर कर रहा था। श्रीमतीजी की आँखों की चमक बता रही थी कि वे शीर्षक “एक दोपहरी साहित्य अकादेमी के प्रांगण में ..!” के बीच से कुछ विशेष ढूँढ़ने के फेर में थीं, पर उन्हें जिसकी तलाश थी उसकी जगह कुछ और ही मिल गया। पोस्ट की एक फोटो पर जब उनकी नज़र गई – तो प्रसन्नता का भाव उनके चेहरे पर आया और बोलीं, “अरे ! यह तो वही है न, जो हमको ‘आंटी’ बोलता है?”
मैंने कहा, “हाँ, है तो वही। पर भले ही आपको ‘आंटी’ बोलता हो, मुझे ‘अंकल’ नहीं बोलता!” (बेचारा ! इतना तो लिहाज करता है कि मुझे सर से ही संबोधित करता है ! )
श्रीमतीजी बिना किसी क्रोध या नाराज़गी के बोलीं, “ … मिलने दो इस बार … उससे तुम्हें ‘अंकल’ न बुलवाया तो …!”
उनके महिला-सुलभ चंचलता से कहे गए ये शब्द मुझे हतप्रभ कर गए। कारण यह था कि सामान्यतया तो महिलाएँ उस फोटो वाले ब्लॉगर की उम्र के व्यक्ति से आंटी कहलवाना पसंद नहीं करतीं, यहाँ मामला उल्टा हुआ जा रहा था। दिल्ली के बारहखम्भा रोड मेट्रो स्टेशन पर सिर्फ़ 5-10 मिनट की ‘हलो-हाय’ टाइप मुलाक़ात के दौरान अरुण का “आंटी” से मिलना हुआ था और उसी मुलाक़ात के दौरान श्रीमतीजी को यह रहस्योद्घाटन हो गया कि “यही वह शख्स है जो आपको आंटी बोलता है”, -- तो एक सकुचाहट भरा अपराधबोध अरुण के चेहरे पर हावी था, और श्रीमती जी के चेहरे पर पर मुस्कुराहट!!
आज उसी मुस्कुराहट को पुनः सहेजते हुए वह अरुण को याद कर रही थीं। उन्हें देखकर मुझे कहीं से भी उनके चेहरे पर शिकायत का भाव झलकता नहीं दिख रहा था। ... और इधर एक मैं था कि मुझे अंकल कहा जाना – सोचकर ही – अपनी उम्र से अधिक उम्र का बोध कराता प्रतीत हो रहा था। सोच में क्या ट्रांजिशन होता है?! तीस से पहले का जो शादी वाला दशक होता है, -- वह कल्पना और रोमांस में बीतता है, उस समय उम्र की फ़िकर ही कहाँ होती है! तीस से चालीस का दशक ठहराव वाला होता है, -- जिसमें बीतते दिनों की व्यस्तता इस ओर सोचने नहीं देती। पर, चालीस पार करते पहले घुटने, फिर जगह-जगह की चूलें (जोड़ें) जवाब देना शुरु करती हैं। सीढ़ियों पर चढ़ने की शुरुआत तो कूदते-फाँदते होती है, -- पर दो-चार सीढ़ियों के बाद ही हम अपनी औकात पर आ जाते हैं – रफ़्तार पंचम सुर से मध्यम सुर लगाने लगती है और क़दम-ताल विलम्बित लय को धारण कर लेती है।
बालों की सफेदी तो गार्नियर-लौरियाल के सौजन्य से बीस-तीस के दशक वाले रंग में रंग जाती हैं। बाज़ार में मिल रहे रिंकल-लिफ़्ट कराने वाले कई एंटी-एजिंग क्रीम पोत कर हम अपने चेहरे को ऐसी प्रसन्नता से देखते हैं, मानों हमारा अभी-अभी उम्र के दूसरे-तीसरे दशक में पदार्पण हुआ हो और होठों पर गीत होता है – अभी तो मैं जवान हूँ..!
उसी दूकान में, जहाँ से वे कॉस्मेटिक हम लेते हैं, -- जब दूकानदार छुट्टे देते वक़्त कहता है, “अंकल! ये लो .. अपने छुट्टे!” --- तो एक घूरती नज़र उस पर फेंकते हुए कहने का मन करता है – ‘ये छुट्टे तू ही रख ले, पर, अंकल तो मत कह बड़े भाई!’
ये चालीस से पचास का दशक भी बड़ा अजीब होता है। मन में उमंगें तीस से चालीस वाली लहरें मारती होती है और तब यदि कोई ‘अंकल’ कह देता है तो लगता है – ऐसा इसने जान-बूझकर मुझे उम्र-दराज़ साबित करने के लिए तो नहीं कहा, ...... या फिर ख़ुद को छोटा साबित करना चाहता है। उसकी बात सुन, उससे और उसके आसपास के लोगों से ख़ुद की तुलना शुरु होती है, और हर कसौटी पर ख़ुद को कसता हुआ मन अपने को कम उम्र का साबित करता है।
इंसानी फ़ितरत भी अजीब है। आज ‘अंकल ना कहो’ सुनाता यह मन कम उम्र का होना चाहता है। एक वो ज़माना था, जब ख़ुद को बड़ा, यानी अधिक उम्र का हो गया हुआ साबित करना चाहता था। बात उन दिनों की कर रहा हूँ, जब हम बच्चे से बड़े हो रहे थे – और हो गए थे। तब पिताजी हमारी सारी ज़रूरतें अपनी पसंद से, अपनी पसंद की पसंद करते थे। उनकी पसंद में हमारी शर्ट हमेशा रंगीन हुआ करती थी। लाल .. पीली ... हरी .. छींटदार .. चमकदार!!
हम स्कूल से कॉलेज आ गए, तब भी हम उन्हें बच्चे ही लगते थे। जब उनसे कहता – ये कैसी रंगीन शर्ट ले आए? – तो वे कहते – बच्चों पर ऐसा ही रंग अच्छा लगता है। इस सबके कारण मेरी दोस्तों में भद पिटती थी। दोस्त कहते – क्या बच्चों वाला रंग पहन लिए हो ? अरे ! हद तो तब हो गई जब एक ने कह ही दिया – लड़कियों वाला रंग!!
मेरी दाढ़ी-मूंछ के बढ़ने पर उनका वश नहीं था – वरना शायद उसे भी बढ़ने नहीं देते। वे तो बढ़-बढ़कर मेरे रंगीन तबियत का हो जाने की जुगाली कर रहे थे। कंठ भी ऐसा फूट रहा था कि आवाज़ मीठी से कर्कश होती जा रही थी। यह सब इशारा कर रहे थे कि कपड़ा अब रंगीन पहनने का वक़्त नहीं रह गया। अब तो रंगीन कपड़ों वाली को लाने का वक़्त होता जा रहा है!!
पिताजी के चुनाव और उनकी पसंद में फ़र्क़ नहीं आता देख एक बार तो कहना ही पड़ गया – अब आप हमें कपड़े तो कम-से-कम हमारी पसंद के लाने दीजिए। हाँ, वो ज़माना ऐसा था, जिसमें “रंगीन कपड़ों वाली” अगर अपनी पसंद की लाने का घर में ऐलान कर दिया जाता, तो सुनने को मिलता – बरात हमारी लाश पर से जाएगी!
ऐसी परिस्थिति में कपड़ों वाली अपनी पसंद की चुन नहीं सकते थे और अपने कपड़े भी रंगीन ही चल रहे थे, यानी हमें बच्चा ही माना जा रहा था। स्थिति सुधरती न देख हमने भी अल्टीमेटम दे ही दिया – अगर फ़रवरी तक आपने अपनी पसंद की नहीं चुनी तो हम अपनी पसंद की लाएंगे। अल्टीमेटम ने रंग दिखाया और हम छब्बीसवें बसंत के आगमन के साथ सात फेरे लेकर सात जनम के बंधन में बँध गए।
फेरे क्या लिए, तब से उम्र बेल सी बढ़ती ही गई। रुकने का नाम ही नहीं ले रही। आज तो हालात ऐसे हो गए हैं कि उसे रोकने के लिए किसी से अंकल कहलाना हमें पसंद नहीं। बावज़ूद इसके, आए दिन ब्लॉगर मित्र (हाँ, मैं तो उन्हें मित्र कहकर ही अपनी उम्र पर अंकुश लगाता हूँ) अंकल कहते रहते हैं। ... और ये मित्र जब अंकल कहते हैं तो लगता है – ज़िन्दगी कितनी बे-रंग हो गई है!!
बिलकुल सही फ़रमाया है हुज़ूर...हम भी इसी संक्रमण-काल से गुजर रहे हैं !
जवाब देंहटाएंआपकी यात्रा और श्रीमती जी का उसमें अपने तरीके से दखल बड़ा रोमांचक है.आपने बचपन की रंगीनी के बारे में भी सही खुलासा किया है. तब हमें लगता था कि हम बच्चे क्यों हैं और आज लगता है कि हम बड़े क्यों हुए ?
'अंकल' और 'आंटी' को गार्नियर और लोरेल से पोतकर सजाया तो जा सकता है पर उनके मन में उमंग तभी आएगी जब बीस साल छोटे उन्हें भइया, भाभी या सर,मैडम कहें !
ये मुए घुटने सारा राज खोल देते हैं !
नाहक ही महिलाएं बदनाम हैं :)
जवाब देंहटाएंबढती उम्र के साथ बदलते संबोधनों को गरिमा से स्वीकार करना चाहिए , महिलाओं में यह खूबी है !
बालों के रंग से कोई छेड़छाड़ नहीं, संभावनाओं को भावनाओं से दबा कर रखना है।
जवाब देंहटाएंलगता है अधिकांश लोग इसी तरह की अपेक्षाएँ और आकांक्षाएं रखते हैं, लेकिन इसे खुलकर व्यक्त कम ही कर पाते हैं। देखा, संतोष भाई भी बचते-बचाते अपना दर्द व्यक्त कर ही गए। अरे संतोष जी, आजकल तो घुटने का भी सफल आपरेशन होने लगा है। आजमाकर देख लीजिए। काहे को कोई पीड़ा शेष रह जाए।
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति | बचपन के संस्मरणों का भूबी खुलासा किया | उम्र के साथ ये संबोधन चोली-दामन की तरह चलता है | इसे बखूबी स्वीकार कर लेना चाहिए |
जवाब देंहटाएंटिप्स हिंदी में
सत्य को स्वीकारना ही होगा....
जवाब देंहटाएंमनोज भाई ! और तो जो है सो है पर ई बताइये की हई एतना जान मार फुटवा कहाँ से मार दिए ? फागुन आये मं ढेर दिन बाटे पर राऊर के रंगीन मिजाज़ देख के आज त हमरो मन करता के गायीं ...चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया .........
जवाब देंहटाएंhttp://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2010/12/blog-post_08.html
जवाब देंहटाएंहिंदी ब्लॉग जगत मे ५०- ५५ साल के पुरुष ब्लोगर को एक ५० - ५५ साल कि महिला ब्लॉगर मे "माँ" दिख जाती हैं लेकिन अभी तक किसी भी ५०-५५ साल कि महिला ब्लॉगर मे ५०- ५५ साल के पुरुष मे "पिता " नहीं दिखा हैं । ना जाने कितनी ५०-५५ साल कि महिला ब्लोगर कि छवि मे दादी और नानी भी ५०- ५५ साल के पुरुष ब्लोगर को दिख रही हैं वही किसी भी महिला ब्लोगर को अपने हम उम्र पुरुष ब्लोगर मे ये छवि नहीं दिखती यानी दादा और नाना की ।
महिला ब्लोगर ये क्या हैं , क्यूँ आप सब इतना निरादर कर रही हैं अपने हम उम्र ब्लॉगर पुरुषो का । क्यूँ नहीं आप भी उनको पिता श्री , दादा श्री और नाना श्री कह कर संबोधित करती हैं ?? अपना पक्ष रखिये तो प्लीज़
i wrote this post on December 08, 2010
see it and see the comments
मुझे पूर्वाभास हुआ कि रचना के नीचे जारी लिखा मिलेगा ...बहरहाल ....
जवाब देंहटाएंयह मनुष्य की जैवीय काम भावना है जिसमें वह जीवन की आखिरी सांस तक प्रजनन क्षमता युक्त रहता है तब वह अंकल क्यों हो? क्यों चंद्रमुखी मृग लोचनी बाबा कह जाएँ ?
आपकी तो तब भी खैरियत है ..मैं तो जब २५ साल का था एक लडके ने अंकल कह दिया था -उसी क्षण लगा कि उसकी हत्या कर दूं -याद है शायद की नहीं थी:)
और आज जब अमिताभ अभिनय करते हुए कहते हैं कि बुद्ध होगा तेरा बाप तो वे कहीं से भी अभिनय करते नहीं दिखते....
न जाने क्यों उम्र इतना हौवा बना के रख दी गयी है ...... जब हर हर उम्र की एक गरिमा है ......
जवाब देंहटाएंरोचक आलेख ...संगीत के शब्दों के साथ और रोचक लग रहा है ...
जवाब देंहटाएंबहुत आभार ...!
हर उम्र की अपनी गरिमा होती है अपना तकाजा होता है बढ़ती उम्र के साथ-साथ रिश्ता भी तो बढ़ता है..रोचक आलेख....
जवाब देंहटाएंbahut manoranjak post.....
जवाब देंहटाएंYou have written a very informative article with great quality content and well laid out points. I agree with you on many of your views and you’ve got me thinking.
जवाब देंहटाएंFrom Great talent
मनोज जी अंकल कहूँ या न कहू भाव तो वो हैं ही.... आपका जो स्नेह मिला है उसके लिए कोई संबोधन नहीं है मेरे शब्दकोष में... आभासी दुनिया से निकल कर मूर्त दुनिया में आपसे मिलना मेरे लिए सुखद है.. जिस तरह आपने मेरी कविताओं या कहिये पूरे लेखन को नई दिशा दी है... वह इस आभासी दुनिया में कम ही होता है.. मैं तो बहुत आभारी हूं आपका.... जो संस्कार लेकर माँ भेजी थी दिल्ली वो अब भी मार्गदर्शन करती है.. इसलिए श्री मती मनोज जी के लिए माँ, मौसी, चाची आदि के अतिरिक्त कोई अन्य संबोधन हो भी नहीं सकता है... गुरुकुल मे रहता हो गुरुमाँ कहता... छोटी सी बात है लेकिन पद्य लिखने की हिम्मत आपने ही दी है... और पिछले साल से अब तक करीब दस आलेख इदह्र उधर अख़बारों में छपे हैं... सब आपके हौसले के कारण ही हुआ है... और अब प्रकाशन.... टिप्पणी आंटी जी को अवश्य पढ़वाइयेगा "अंकल जी " ....मेरी ओर से...
जवाब देंहटाएंउफ़ ………बडा दुख दीन्हा बढती उम्र ने …………देखा यहाँ भी महिलायें बाजी मार ले गयीं……हा हा हा………जस्ट किडिंग ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक और बेबाक संस्मरण है...भाषा भाव के अनुरूप प्रवाहमान है...एक-एक किस्सा चुटीला और मनोरंजन से भरपूर।
जवाब देंहटाएंkitni buri baat hai na jise rokna chaahte ho vo rukti hi nahi........:)
जवाब देंहटाएंrochak sansmaran.
मैंने तो देखा है कि अमूमन ladies ख़ुद को किसी से आंटी कहलवाना पसंद नहीं करतीं मगर अपनी हमउम्र की दूसरी lady को आंटी कहने में सुख का अनुभव करती हैं.भला ये कहाँ का न्याय है कि "कृष्ण करें तो लीला, आप करें तो पाप". वैसे सच बताऊँ आपको,हर उम्र का अपना मज़ा होता है.
जवाब देंहटाएंइतनी रंगीन पोस्ट तो भला ज़िंदगी कैसे बे रंग हो सकती है ... गाल और बाल का क्या है दिल तो ..... रोचक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमुझे भी रिश्ते सूचक संबोधनों से मित्रता ही ज्यादा प्रिय है.
जवाब देंहटाएंरोचक अंदाज में कई अन्य महत्वपूर्ण बिंदुओं को भी छु गई पोस्ट.
पोस्ट छूट गई थी पटना की यात्रा के कारण.. अब प्रतिक्रया:
जवाब देंहटाएं१. उस दिन का गवाह मैं भी था जब अरुण जी पहली बार अपनी आंटी से मिले थे.. शायद मैंने ही परिचय करवाया था आंटी कहकर..
२. आपने उस केमिस्ट को ही नहीं, जब मैंने आपको छोटा भाई बताया, तो आपने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया था और मैं तो पैदा ही बूढा हुआ था इस ब्लॉग जगत में.. इसलिए खुशी हुई.
३. रचना जी के जवाब में - मैंने सारे ब्लॉग जगत का भार वहन कर रखा है.. मुझे बड़े भाई, दाऊ, चाचा, पा, बाबूजी, दादू कहने वाले कई लोग हैं... और हाँ इसमें महिलायें भी शामिल हैं...
४. एक पुरानी कहावत है कि मर्द की उम्र वो होती है जिसका वो लगता है - महिलाओं की उम्र वह होती है जो वह बताती हैं!!!
खैर, पोस्ट मजेदार है.. 'फुर्सत में' को सार्थक करती!!!
बेचारे केशव कवि! अगर खिजाब लगाते तो पनघट पर छोरियाँ बाबा कह कर तो न जातीं!
जवाब देंहटाएंखैर आप तो युवा लगते हैं, कौन आपको अंकलीय बना रहा है? :-)