आँच-99
कविता की संरचना – मेरी
दृष्टि में - अंक - 2
कविता की संरचना में
सही और उचित शब्दों का बड़ा योगदान है. जैसे ‘दिन’ का विलोम शब्द ‘रात्रि’ नहीं हो सकता, ‘रात’ होता है; ‘भोर’ का ‘शाम’ नहीं, ‘सांझ’ होता है; ‘प्रातः’ का ‘सांझ’ नहीं, ‘संध्या’ होता है, वैसे ही समानार्थक शब्दों में
हर शब्द का अपना महत्व है और कई बार कोई भी शब्द पिरोकर कविता नहीं रची जा सकती.
पिछले दिनों कुछ कवितायें ऐसी भी पढ़ने को मिलीं जिनमें शब्दों को ‘पिरोया’ नहीं, ‘ठूँसा’ गया था और उन कवियों की कविताओं में ऐसा
लगातार दिख रहा था, अतः इसे कवि का दोष कहा जाएगा, एक दुर्घटना नहीं. उदाहरण के
तौर पर उस कविता के प्रयोग को बताने की चेष्टा करता हूँ -
रात्रि की नीरवता में
सम्पूर्ण जगत
निद्रा-निमग्न था
मेरी निद्रा भंग हुई
एक भयानक ख्वाब से!
इन पंक्तियों में
पाठक की भाव-यात्रा भंग होती है “ख्वाब” शब्द से. यहाँ भयानक ख्वाब के स्थान पर
“दुःस्वप्न” भी कहा जा सकता था, ख्वाब का
अर्थ स्वप्न ही होता है, किन्तु यहाँ कविता की पृष्ठभूमि और हिन्दी शब्दों की मालिका
के मध्य उर्दू शब्द का प्रयोग आघात की तरह प्रतीत होता है. यही बात दूसरी ओर से भी
लागू होती है जब कविता के अधिकाँश शब्द उर्दू के हों और एक हिन्दी का तत्सम शब्द
टपक पड़े तो अवरोध तो उत्पन्न होगा ही.
प्रत्येक कवि का अपना
एक शब्दकोष होता है. किसी एक कवि का सम्पूर्ण रचना संसार देखने के बाद हम आसानी से
कह पाते हैं कि यह कविता अमुक कवि की है. यही नहीं, यह अभ्यास इतना सटीक होता है
कि यदि अन्य कवि उसी शब्दावलि में काव्य-सृजन करे तो हम कहते हैं कि उसकी कविताओं
पर अमुक कवि का प्रभाव दिखाई देता है. यह शब्दकोष एक अवधि तक जाकर परिपक्व हो जाता
है. इसमें और कोई बढोतरी नहीं की जा सकती है. चूँकि हर व्यक्ति का शब्दकोष
व्यक्तिगत होता है, अतः प्रत्येक व्यक्ति की कविता उसकी व्यक्तिगत पहचान लिए होती
है.
हमारे हिन्दी के
प्राध्यापक कहा करते थे कि –
प्रत्येक शब्द की एक
गरिमा होती है, जो उसके समुचित प्रयोग से वह प्राप्त करता है. यदि उसका प्रयोग
त्रुटिपूर्ण या अनुचित हुआ तो वह शब्द शोर मचाने लगता है. ऐसे में वह आपसे अपने
अपमान का बदला लेता है और आप सर झुकाए सब-कुछ सहने को बाध्य होते हैं.
इसलिए ऐसे शब्द जो
कहीं से कवि के शब्दकोष का हिस्सा न रहे हों, उसकी कविता में अनामंत्रित अतिथि की
तरह होते हैं और पकड़े जाते हैं. हाँ, इसके विपरीत, कभी-कभी कोई कवि किसी नए शब्द
का ऐसा प्रयोग करता है जो चमत्कृत करने वाला प्रभाव उत्पन्न करता है. यदि ऐसा होता
है तो वह शब्द भी उसे आशीर्वाद देता है, पाठक तो प्रशंसा करते ही हैं. एक बात याद
रखने की है कि हीरों में चमक तो होती है और वे मूल्यवान भी होते हैं, किन्तु हीरों
के हार की सुंदरता और मोल तभी है जब उन्हें सुन्दरता से सजाकर चंद्रहार के रूप में
प्रस्तुत किया गया हो.
एक पाठक की अभीप्सा
कहाँ शांत होती है, उसकी अपेक्षाएँ भी अनंत हैं. अतः, अंत में एक बहुत ही
महत्वपूर्ण बात कहना चाहूँगा - हर कलाकार अपने जीवन में किसी न किसी कलाकार से
प्रभावित होता है और अपनी कला में अपने आदर्श को उतार देना चाहता है. कविता भी
इससे अछूती नहीं है. लेकिन कब वह कवि अपने आदर्श की कार्बन कापी बनने लगता
है या बना दिया जाता है, उसे पता भी नहीं चलता. यहाँ कार्बन कापी कहा है
मैंने, प्रतिलिपि या अनुलिपि नहीं कहा. कार्बन कापी अर्थात काली छाया. उसे यह भी
ध्यान नहीं होता कि उसकी कवितायें एक ही भाव का सम्प्रेषण कर रही हैं और एकरसता का
शिकार हो रही हैं. जबकि उसके आदर्श कवि का वह अन्य भावों में से ही एक भाव रहा
होगा. विषाद का भाव इस श्रेणी के कवि/कविताओं में बहुत पॉपुलर (लोकप्रिय) है.
किसी कवि के लिए यह
गौरव की बात नहीं कि कोई उसे गुलज़ार कहे, महादेवी कहे या अमृता प्रीतम, जबकि
अधिकतर कवि इसे गर्व का विषय मानकर उन्हीं की कार्बन कापी बनते चले जाते
हैं. उन्हें बशीर बदर साहब का यह शेर हमेशा याद रखना चाहिए कि
ये जाफरानी पुलोवर,
उसी का हिस्सा है,
कोई जो दूसरा ओढ़े, तो
दूसरा ही लगे!
***
रत्येक शब्द की एक गरिमा होती है, जो उसके समुचित प्रयोग से वह प्राप्त करता है. यदि उसका प्रयोग त्रुटिपूर्ण या अनुचित हुआ तो वह शब्द शोर मचाने लगता है. ऐसे में वह आपसे अपने अपमान का बदला लेता है और आप सर झुकाए सब-कुछ सहने को बाध्य होते हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक बात । मेरे नए पोस्ट "आरसी प्रसाद सिंह" जी पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
शुक्रवारीय चर्चा-मंच पर है यह उत्तम रचना ||
जवाब देंहटाएंधन्यवाद दाऊ ! इतनी महत्वपूर्ण बात को रेखांकित करने के लिए। हालांकि हिन्दी-उर्दू की घालमेल करने में आपका अनुज भी कम दुर्दांत नहीं है :P पर ऐसा अक्सर 'गैर-इरादतन' होता है। :)
जवाब देंहटाएंकोशिश होगी आगे से इस से बचने की।
नमन !
बहुत सुन्दर प्रविष्टि...बधाई
जवाब देंहटाएं@रवि शंकर:
जवाब देंहटाएंअनुज!तुम्हारी नज्में और कवितायें पढ़ी हैं मैंने.. ऐसा कुछ भी नहीं है जैसा तुमने कहा है.. हिन्दी-उर्दू का "मेल" बहुत सुन्दर दिखता है.. हाँ, "घाल-मेल" खटकता है!!
बहुत सटीक जानकारी। लेकिन आज तो यह स्थिति है कि यदि किसी शब्द के लिए किसी को टोक दिया तो बवाल मच जाता है।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्द्धक बातें .. आपकी दृष्टि में कविता की संरचना को पढ़ काफी कुछ समझने का अवसर मिला ..आभार ..
जवाब देंहटाएंकविता पर इतनी सार्थक बातचीत अन्यत्र कहाँ.. बहुत सुन्दर..
जवाब देंहटाएंबहुत सहजता और सरलता से कविता की सही संरचना और शब्दों का ताल मेल पर अच्छी जानकारी दी । सही कहा आप ने 'प्रत्येक शब्द की एक गरिमा होती है 'बहुत सुन्दर..आभार..
जवाब देंहटाएंशब्द का समानार्थक होना एक बात है, लेकिन सभी समानार्थी समतुल्य नहीं होते। और फिर, कविता में शब्द के समानार्थी होने या समान वजन वाला होने भर से भी बात नहीं बनती, वहाँ तो उसे भाव के अनुरूप भी होना चाहिए और प्रयुक्त शब्दावली के समानवर्गीय भी होना चाहिए।
जवाब देंहटाएंसार्थक चर्चा। आभार।
मैं एकाध ऐसे कवियों को भी जानता हूं जो कविता के पन्नों पर पैनी नज़र रखते हैं और उन कतरनों से ही नई कविता लिखकर पुरस्कार भी पाते रहे हैं!
जवाब देंहटाएंआदर्श रखने वाले लोग अपने आदर्श से आगे बिरले ही निकल पाते हैं।
किसी कवि के लिए यह गौरव की बात नहीं कि कोई उसे गुलज़ार कहे, महादेवी कहे या अमृता प्रीतम, जबकि अधिकतर कवि इसे गर्व का विषय मानकर उन्हीं की कार्बन कापी बनते चले जाते हैं. उन्हें बशीर बदर साहब का यह शेर हमेशा याद रखना चाहिए कि
जवाब देंहटाएंये जाफरानी पुलोवर, उसी का हिस्सा है,
कोई जो दूसरा ओढ़े, तो दूसरा ही लगे!
पूरी तरह सहमत हूँ और मेरा भी यही दृष्टिकोण है………अपनी पह्चान खुद बनाना जो सिर्फ़ अपनी हो ओढी हुई नही।
bahut prabhaav pad raha hai is kavita ki sahi saranchna lekh ka. bahut hi sahzta se aatmsaat kar pa rahe hain sahi aur galat ko. aabhaar.
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर श्रृंखला शुरू हुई है... अर्थ खुल रहे हैं... आपका आभार!
जवाब देंहटाएंजब शब्द ब्रह्म स्वयं आशीर्वाद दें तभी अभिव्यक्ति सफल होती है! इस श्रृंखला को यह आशीर्वाद सहज ही प्राप्त जान पड़ता है... एक एक शब्द अर्थ सहित संप्रेषित जो हो रहे हैं!
आपकी नजरों से कविता को समझना ..अच्छा लग रहा है.
जवाब देंहटाएंबड़ी अच्छी एवं आवश्यक जानकारी दे रहे हो सलिल ...
जवाब देंहटाएंआभार !
आप सभी सुधिजन का धन्यवाद व्यक्त करते हुए निवेदन है कि दो पोस्टों की यह श्रृंखला यहीं समाप्त हो रही है... यहाँ कही गयी बातें अंतिम नहीं हैं.. हो भी नहीं सकतीं.
जवाब देंहटाएंआदरणीय मनोज जी, आचार्य परशुराम जी, हरीश जी व करण जी ने फिर कभी आदेश दिया, तो किसी अन्य विषय पर अपने विचार लेकर अवश्य उपस्थित होउंगा!!
"मनोज" के सभी सदस्यों का ह्रदय से धन्यवाद!!
आप भी कमाल करते हैं बड़े भाई!
जवाब देंहटाएंआदेश देने की गुस्ताख़ी हम कर सकते है, यह आपने सोच भी कैसे लिया?
आग्रह और निवेदन भर कर सकते हैं, कर रहे हैं, यह श्रॄंखला चलती रहनी चाहिए।
अभी-अभी राय जी फोन पर थे और इस पोस्ट की खोज-खबर ले रहे थे। अभी वे जहां हैं वहां उन्हें नेट की सुविधा उपलब्ध नहीं है।
प्रत्येक शब्द की एक गरिमा होती है, जो उसके समुचित प्रयोग से वह प्राप्त करता है. यदि उसका प्रयोग त्रुटिपूर्ण या अनुचित हुआ तो वह शब्द शोर मचाने लगता है. ऐसे में वह आपसे अपने अपमान का बदला लेता है और आप सर झुकाए सब-कुछ सहने को बाध्य होते हैं.
जवाब देंहटाएंकवि कर्म और कविता पर सटीक टिपण्णी .
कविता की भाषा पर एक विचारणीय वक्तव्य है यह आलेख!!!
जवाब देंहटाएंvery nice.
जवाब देंहटाएंjitni taareef kee jaaye kam hai..aaj aapne sochne ke liye naye aayam de diye..bhehatar hai apni maulikta ke sath likha jaaye..sadar badhayee..mere
जवाब देंहटाएंblog per aa kar mera bhi margdarshan karein..mujhe behad khushi
प्रत्येक शब्द की एक गरिमा होती है, ekdam.....solah aane sach baat hai......bahut achchi jankari ......
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