देसिल बयना – 108
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सुरुज महराज की लेट-लतीफ़ी शुरु हो गयी थी मगर ई साल अभी तक गैर-हाजरी नहीं मारे थे। रेवाखंड के किसान तो वैसे भी उनसे अगारिये उठकर हल-बैल जोत देते थे। आजकल तो चार-बजिया पसिंजर गुजरते ही जर-जनानी भी धमा-धम धान कूटने लग जाती थी।
बाल-बुतरु भी भोरे उठकर मुँह से धुआं निकालने लगता था। भले सुरुज महराज को धुंधला आवरण चीर कर आने में एक पहल लग जाए। हाँ, आजकल उन पर लाली ज्यादे चढ़ गयी थी। चढ़ेगी भी काहे नहीं। अगहन्नी तोड़कर उपजा था। ई महीना में नवका चावल-चिउरा खाकर सुखंडिस का मरीजो लला जाता है...।
खेती का जितना चिंता जमींदार-किसान को होता था उतना ही रैय्यत-बटीदार को। कौनो द्वेष नहीं। खेत फ़लां बाबू की ही सही। उपजेगा तब तभी हमरा पत्तल भी जूमेगा। जन-मजदूर भी देह तोड़कर धरती मैय्या की सेवा करते थे। जब तक अकास में किरिण मौजूद है क्या मजाल कि कौनो माई का लाल द्वार पर भेंटा जाए आपको। सब खेत-पथार, वन-बाद। हाँ, खुरचन महतो मिल सकते हैं। खुरचन महतो बुझिये कि फनीस्सर बाबा के सिरचन। अबहु नहीं पहिचाने तो उ याद है न... परेमचन कक्का का कफ़्फ़न वाला घिसुआ और मधवा...! वैसा ही अकरमल (अकर्मण्य)।
साथी मजदूर, किसान, जमींदार सब समझ गए थे। किसी को कौनो शिकायत नहीं थी खुरचन महतो से। सभी मजदूर अपने-अपने हिस्से का थोड़ा-थोड़ा रोटी-अंचार निकाल देते थे खुरचन महतो के नाम पर। अगर नहीं बचा तो मालिक का चूड़ा-गुड़ तो मिल ही जाएगा। फिर चार हाथ खुरपी ठेल के मंगनिया बीड़ी धूंकने मेड़ पर बैठ जाते थे। वैसे इमरजेंसी के लिये मुट्ठा भर लालसूता बीड़ी महतो जी डांर में जरूर खोंसे रहते थे।
लेकिन पुराने लोग गजब का मिज़ाज रखते थे। ठक्कन मियाँ अबहु बाबू हरिनंदन लाल का खेत जोतता था। झिंगुरदास दीवानजी का मनेजरी करता था। खुरचन महतो की बेगारी भी रुकी नहीं थी। अलबत्ता उन के प्रतिनिधि संघों ने उन्हे बागी करार दे रखा था और उनके समाज में उन्हे कायर-गद्दार और कई उपाधियाँ मिलने लगी थी। खेती-गिरहस्ती तो अब पुराने खून के भरोसे ही रह गया था। नई नस्ल इंक्लाबी जो हुई थी।
देश में इंकलाब आ रहा था। समाज बदल रहा था। शासन बदल रहा था। व्यवस्था बदल रही थी। आस्था और विश्वास भी बदल रहे थे। अगर कुछ नहीं बदला था तो खुरचन महतो का रवैय्या...। न किसी संघ से मतलब... न हाजिरी न टाइम...। सांझ में टरेक्टर-छाप पँचटकिया मिले न मिले, पनपियाई, कलेउ, चाह और बीड़ी जरूर होना चाहिये। रुपैय्या मिला फिर भी भला, नहीं मिला फिर भी भला। खुरचन कुछ बोलता नहीं था मगर मजदूरों के बीच भेद-भाव उसे शुरु से ही पसंद नहीं था।
खुरचन महतो कुछ नहीं बोले मगर बाबा कहे, “अरे जाने दो न...! ई पाँच रुपैय्या से क्या घट-बढ़ जाएगा? आखिर उ भी तो खेत कमाने आया न...। रोज (दिहारी) तो उसे भी मिलना चाहिये... है कि नहीं?”
और तो और जौन एहि खुरचन-मानिकचंद जैसे जनता के नाम पर जीत कर संसद जाते हैं वही क्या करते हैं? एक तो साल में गिनकर मोस्किल से चार महीना तो संसद चलती है और उ में भी खाली हल्ला-गुल्ला। काम रोको। संसद स्थगित। फ़लाना-ढिमाका। उनसे काहे नहीं पूछते हो कि संसद आये नहीं आये। आये तो काम न काज सिरिफ़ शोर-सराबा करके वेतन तो छोड़ो इसपेसल भत्ता चाहिये। और इहां खुरचनमा को सूखे भात पर भी आफ़त।
खुरपी छुआ, रोज हुआ..
करण समस्तीपुरी
उ गाँव-घर में लोग कहते हैं कि खुशहाली की उमर लंबी नहीं होती। सो जौन खुश रहना चाहो तो खुशहाली को रिनुवल करते रहो। किसनमा भैय्या सब अगहन्नी धान का गमक फ़ीका होने से पहिलहि रवी की तैय्यारी शुरु कर देते हैं। पहिल बारी आती है सरसों, आलू और मकई की। अभी मेहनत कर दिये तो चावल खतम होते-होते मकई की रोटी और आलू का भुर्ता तो आ जाएगा थाली में। फ़िर गेहुँ उपज जाए तो नरम फ़ुलका भी सेकेगी धनिया। खेत-खलिहान में मरद जात और घर-द्वार में औरत। सबहि जी-जान से जुटे रहते थे।
और जगह का तो पता नहीं मगर रेवाखंड में बड़ा समाजिक सद्भाव था उ जमाना में। न नरेगा न मरेगा... फिर भी सब मिल-जुल कर कमाते खाते थे। जमींदार, रैय्यत, बटीदार, किसान, मजदूर....! वर्गीकरण था मगर सब धरती मैय्या की गोदी में खेलते-लोटते पोसा जाते थे।
अवस्था कौनो जादे नहीं, मोस्किल से चालिसवां चढ़ा होगा। शरीर भी गठा हुआ... गठा रहेगा काहे नहीं... कौन खटाते-घिसाते थे। खिचरिया-दाढ़ी और मिचमिची आँखें। घर-संसार से भी विरागी-ब्रह्मचारी। न माय-बाप न लुगाई। जौन सब मजदूर दोपहर में खेत के मेंड़ पर पन-पिआई कर रहे हों और उधर से कोई हाथों में खुरपी डुलाते हुए गज-गज भर के पैर से बित्ता-बित्ता भर का कदम चलता हुआ आ रहा हो तो बेशक समझ जाइए कि बाबू खुरचन महतो आ रहे हैं खेत कमाने।
धीरे-धीरे पता नहीं कौन जमाना आ गया। गंधी बाबा की आजादी जुआन भी नहीं हुई थी कि बर्बादी शुरु हो गया। पहिले तो एगो संघ था, देखते-देखते कुकुरमुत्ता। मजदूर संघ, किसान संघ, जमींदार संघ, पुजेरी संघ, गजेरी संघ, दिहारी संघ, बेगारी संघ। इन संघो में प्यार का साइड-इफ़ेक्ट ई हुआ कि जमींदार-किसान-मजदूरों में खाई बढ़ती गयी। उ काल बाबा कहे थे न ‘बरग-संघर्ष’... वही शुरु हो गया। ‘खेत जोतने वाले की’। मजदूर कहे हम आएंगे नहीं। किसान कहे हम बुलाएंगे नहीं। नेतागिरी और पोल्टिस का ऐसा-ऐसा फ़सिल उगा कि हौ बाबू....! धरती की कोख बांझ होने लगी।
मजदूरों ने काम नहीं किया। फ़सल मारी गयी। जमींदार की जमा-पूँजी के सहारे चली तो किसानों की खेत गिरवी रखकर। मजदूर बेचारे क्या करें। उनकी तो एक ही पूँजी है- श्रम। अब नहीं किया तो भूखे मरें। संघ-समाज से बाहर तो जा सकते नहीं। और गए भी तो कौन मालिक-मोख्तार पेट भरेंगे...? आखिर उनके खलिहान भी तो खाली ढन-ढन बोल रहे हैं इन्ही के करम से।
पेट की आग जो न करा दे। संघों में समझौता हो गया। मजदूर काम करेंगे लेकिन उन्हें उनका पूरा हक़ मिलना चाहिये। मालिकों की खैरात नहीं। पूरे पांच रुपये रोज दिहारी, पनपियाई, कलेउ, दो बार चाह (चाय) और बीड़ी फ़्री। आखिर मालिकों के द्वार पर अन्नपूर्णा देवी भी तो इन्हीं के मेहनत से झूलती है। शर्त मंजूर। लेकिन मजदूर भी समय पर आयेंगे। घड़ी देख कर पूरे आठ घंटा।
अब वो अपनापन नहीं रहा था। अब वो हंसी चुटकी नहीं चलती थी। काम बड़ा निरस हो गया था। खेत जैसे अनाज-फ़ेकटरी हो गये थे। मालिक हाजरी बाबू। मजदूर मशीन। आठ गंठा से कम चला तो दिहारी कटेगी। उपर हुआ तो ओवर-टेम। ई अनुशासन में ससुर सब हास-परिहास गायब। सुक्खा मेहनत से उपज तो बढ़ा लेकिन अनाज का रस सुखता रहा। नयी व्यवस्था पुराने अपनेपन को लीलती रही।
खुरचन अब बहुत कम किसानों के खेत में जाता है। या यूं कहें कि अधिकांश किसान खुरचन को मजदूरी पर लगाते ही नहीं। मगर हमारे खेतों में वह बिना किसी हुकुम के काम करता है। आधा बेला या उससे भी कम। बाबा को इससे कोई फ़रक नहीं। सांझ में उसे भी पांच रुपैय्या मिलता है।
हम भी अपने वर्ग के इंकलाबी दस्ते में थे। उस सांझ बाबा का हाथ पकड़ ही लिये। खुरचन को धिक्कारते हुए बोले, “वाह महतो जी...! एक तरफ़ तो आपके पाटी वाले ओवर टाइम मांगते हैं और एक तरफ़ आप पार्ट-टाइम करके फ़ुल-टाइम का पेमेंट लेते हैं... उ भी सिरिफ़ खेत में खुरपी पकड़े बैठकर।”
हमने भी अधकचरा अर्थशास्त्र पढ़ रखा था, “ई का कमाता है? बारह बजे दिन में खुरपी डुलाते हुए आता है। दो बार पेट-भरन, दो बार चाह और भर दिन बीड़ी... और सांझ चारे बजे हाथ धोकर पंचटकिया चाहिये...।”
बाबा का हिरदय बड़ा कोमल था। बोले, “अरे जाने दो न... का बड़े बुजुर्ग के काम का हिसाब लगा रहे हो... बेचारा भर दिन खेत में रहा न.. तो रोज तो चाहिये।”
हम भी रुकने वाले नहीं थे, “उ कैसे? काम करेगा है नहीं और रोज चाहिये। खेत में आने से क्या होता है? पैसा मिल जाएगा ? मतलब कि ‘खुरपी छुआ और रोज (दिहारी) हुआ।”
बाबा एकदम शांतचित्त। हमें समझाते हुए बोले, “ए बबुआ! ई नियम-कानून, अर्थ-शास्त्र, हिसाब-किताब तोहरे जमाने का है। खूब पढ़े हो और इहां झार रहे हो। मगर तुम्हरा निशाना खाली खुरचनमे काहे है? ई का तो जीवने एहि तरह बीत गया। मगर आज तो सबहि जगह वही बात है। ‘खुरपी छुआ रोज (दिहारी) हुआ।’ देखो मिडिल इस्कुल में...। देवी जी और मास्टर साहेब कब आते हैं और कब जाते हैं... और पढ़ाते क्या हैं उ तो दैवे जानें मगर पगार चाहिये पूरा। दफ़्तर में हाकिम-हुक्काम की तो बाते जुदा बड़ा बाबू, छोटा बाबू के मुँह से चाह-पान छुटता है तो बस उ साहेब की शिकायत और ई साहेब की खुशामद। उनसे तो नहीं पूछने जाते हो महीना के अंत में फ़ुल तनख्वाह काहे लेते हैं? सरकारी अस्पताल में डाक्टर-नर्स तो छोड़ो... जौन बेंच कुर्सी भी मिल जाए तो हरि-गंगा...। उ तो बिना आला-छुरी उठाए भी महीना के महीना तनख्वाह, और पिल्सिंग उठाते रहते हैं।
किस-किस को गिनाएं। सब तो इहां वही काम करते हैं। ‘खुरपी छुआ, रोज हुआ।’ श्रम करें या न करें बस हाजिरी (औपचारिकता) पूरा किये और रोज (पारिश्रमिक) लिये। इसे बदलने के लिये नियम नहीं नीयत की जरूरत है, बेटा।”
बाबा हमें समझाते हुए खुरचन की सूखी हथेली पर धीरे से मुड़ा-तुड़ा पाँच रुपये का नोट रख दिये थे। वह अचरज से एक आँख से बूढ़ा मालिक को और एक आँख से मुझे देखता रहा। आज पँचटकिया मिलने के बाद उसे जाने की कोई जल्दी नहीं थी।
आज बुझाता है हमरा फस्ट होने का साईत पक्का हो गया है... करण बाबू, ई आनंद के खातिर हमको हफ्ता भर इंतज़ार करने पड़ता है, मगर खुसी के लिए इंतज़ार करने में हरजा भी नहीं है.. "उ गाँव-घर में लोग कहते हैं कि खुशहाली की उमर लंबी नहीं होती। सो जौन खुश रहना चाहो तो खुशहाली को रिनुवल करते रहो." बस ओही से हमहूँ रिनुअल करते रहते हैं..
जवाब देंहटाएंकमाल का देसिल बयना है आज का.. हमको त लगबे नहीं करता है कि ई कहियो पुराना होगा... देस त भरले है सिरचन महतो से.. सब्भे अदमिया खाली खुरपी छूने में लगा है... एकदम सचाई!!
आज त धन्नबाद देने का एगो अऊर कारण हो गया सिरचन का इयाद, अरे फनेसर काका वाला.. ओही जिसके बारे में ऊ कहते थे कि सिरचन मुंहजोर था मगर कामचोर नहीं (?.. दुर् भुलैयो गए!!
किस-किस को गिनाएं। सब तो इहां वही काम करते हैं। ‘खुरपी छुआ, रोज हुआ।’ .....
जवाब देंहटाएंसही कहते हैं, करण जी। विशेष रूप से सरकारी सेवाओं में अधिकतर यही देखने को मिलता है और यहाँ इस तरह के तमाम और जुमले भी ईजाद हो चुके हैं।
सुन्दर प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबधाई महोदय ||
शहर के कंक्रीट जंगल में रहने वालों के लिए देसिल बयना हवा का वह ताज़ा झोका है जिसमें गाँव की माटी की सोंधी गंध के साथ साथ अनगिनत अनकहे सपनों की खुशबू भी शामिल होती है जिसकी मिठास पढ़ने के बाद कई दिनों तक यूँ ही बनी रहती है ! इस श्रृंखला के लिए करन जी की जितनी भी तारीफ़ की जाय कम है !
जवाब देंहटाएंआभार !
किस-किस को गिनाएं। सब तो इहां वही काम करते हैं। ‘खुरपी छुआ, रोज हुआ।’ श्रम करें या न करें बस हाजिरी (औपचारिकता) पूरा किये और रोज (पारिश्रमिक) लिये। इसे बदलने के लिये नियम नहीं नीयत की जरूरत है, बेटा।”
जवाब देंहटाएंआज के देसिल बयना में सटीक सन्देश दिया है ... बढ़िया प्रस्तुति
करण जी की ये तस्वीर तो बहुत अच्छी है.लेखन तो उनका बढ़िया रहता ही है.
जवाब देंहटाएंटीमटाम बढ़ गया, लोग सज गये।
जवाब देंहटाएंदेश खतम हो गया, खुरचन बच गये।
सटीक सन्देश .. बढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंaapke is behtarin lekh ke ek ek shabd ka bharpoor aanand uthaya..hansaaate hansaate badi gahri baat ..sadar badhayee aaur amantran ke sath
जवाब देंहटाएंGYANDUTT PANDEY ने आपकी पोस्ट " देसिल बयना – 108 : खुरपी छुआ, रोज हुआ.. " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंटीमटाम बढ़ गया, लोग सज गये।
देश खतम हो गया, खुरचन बच गये।