फ़ुरसत में ...(अंक-86)
कुछ भी तरतीब से नहीं हो रहा!
मनोज कुमार
आज सुबह से मूड खराब है। कुछ अच्छा नहीं सूझ रहा। ऑफिस में जाते ही एक मेरा प्रिय स्टाफ़ रुआंसे स्वर में कहने लगा साहब आप नहीं आए .. मुझ पर इतनी बड़ी मुसीबत आ पड़ी थी। मैंने पूछा क्या बात हुई ..? बताया उसके छोटे बेटे ने, जो लगभग बीस साल का था पंखे से झूल कर खुदकुशी कर ली।
मैं सन्न! ऑफिस की छत की तरफ़ देखता हूं। सोचता हूं, इस सीलिंग फैन का ईज़ाद किसने किया? उसे गाली देता हूं।
उसने रोते-रोते जो बताया इसका सार यह था कि दिन भर नेट, चैटिंग फ़ेसबुक करता रहता था। किसी से ब्रेकअप हुआ था। फोन पर रात के ग्यारह बजे उससे बात कर रहा था और रो रहा था। मां ने डांट लगाई कि कल सेमेस्टर का एक्ज़ाम है। पढ़ाई करो। ये फ़ेसबुक और मोबाइल काम नहीं आएगा। मां से लड़ा। सुबह पंखे से झूलता पाया गया। जाने वाला तो गया। ऊपर से मां-बाप को पुलिस का चक्कर अलग। अब ऐसे मामलों में कुछ दे-दा कर मामला बन्द होता है, किया जाता है। उसने भी किया।
क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है?
संसद में सुना है एक बिल आया है जिसके पास होने से ही भ्रष्टाचार बिला जाएगा।
मन ही मन सोचता हूं सरकार अच्छा ही कर रही है इन सोशल साइट को बन्द करने का प्रयास करके।
आज कुछ भी तरतीब से नहीं हो रहा। विचार भी बड़े बेतरतीब आ रहे हैं।
जब मैं डिस्टर्ब होता हूं, सलिल भाई को फोन लगाता हूं। उनसे बात कर सुकून मिलता है। आज भी फोन लगाया। इंगेज आ रहा था। बार-बार लगाया। बार-बार इंगेज। क्या बात है? कुछ गड़बड़ तो नहीं। इस बार री-डायल करते वक़्त नम्बर को ग़ौर से देखता हूं। अरे ... यह तो मेरा ही नम्बर है। तब से अपना ही नम्बर मिलाए जा रहा हूं। आपने कभी ख़ुद को फोन लगाके देखा है। मतलब औरों के नम्बर तो हम फटाफट डायल करते हैं, हा-ही करके घंटों बातें करते रहते हैं। कभी खुद का नम्बर डायल कीजिए और अपनी आवाज़ सुनिए।
किया डायल ... इंगेज टोन आया और यह मैसेज आया कि अभी यह लाइन व्यस्त है।
दुनिया से मिलने में सब मस्त हैं
पर ख़ुद से मिलने की सभी लाइने व्यस्त हैं।
ऐसी ही हालत संसद में दिखी। कोई दिखा रहा था कि उनका जन्म 1948 में हुआ। यानी उनके जहान में आने की ख़बर सुन 1947 में ही अंग्रेज़ भाग खड़े हुए देश छोड़कर। हमारे सारे चुने हुए प्रतिनिधि क़रीब तीन मिनट तक ठहाके लगाते हैं। इस वर्ष का सबसे बड़ा चुटकुला। वे भी खुद से मिलना नहीं चाहते ... हजार कड़ोर का चारा घोटाला अब किसे याद करने की ज़रूरत है? कोई क्यों याद रखे।
याद तो 1948 रहेगा। उस वर्ष उनका जन्म हुआ था। यह शायद ही कोई याद रखना चाहे कि उस वर्ष हमने हमारे राष्ट्रपिता को भी खोया था। अंग्रेज़ ने जाते-जाते जो बीज बोया उसका फल था उनका जाना? पता नहीं। किन्तु इन्हीं विद्वजन का कहना है, रोपे पेड़ बबूल का आम कहां से होए! फिर ठहाका। क्या यह भी चुटकुला ही है। पता नहीं कौन किस पर हंस रहा है।
जो 1948 में हमसे दूर गए उनकी तस्वीर देखता हूं। वे मुस्कुरा रहे हैं। उनकी तस्वीर के नीचे लिखा है – मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। उनके पदचिह्नों पर कोई चले, तो वह देश के कई लोगों की आंखों की किरकिरी बन जाता है।
एक और आवाज़ संसद में गूंजती है --- देयर कैन बी ओनली वन फ़ादर ऑफ नेशन! मेजे थपथपा कर स्वागत किया जाता है। मानों कोई नई बात कह दी गई हो। अनोखी!
आज की सबसे बड़ी बुराई है कि आप भ्रष्ट नहीं हैं। उससे भी बुरा है कि आप भ्रष्टाचार हटाने की मांग रखते हैं। कौन अपने पैर में कुल्हाड़ी मारेगा। मैं अतीत में खो जाता हूं। रिसर्च करने के साथ राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद में नौकरी करता था। फ़ैक्टरी के सैम्पल लाता था और उसकी रिपोर्ट पेश करता। फ़ैक्टरी को मुसीबत। जब तक ईफ़्लुएंट सही नहीं आएगा उत्पादन बन्द। ऐसे ही एक फ़ैक्टरी के सैम्पल की जांच कर निबटा और नीचे पान की दुकान पर पान खाने जाता हूं। चार गुंडों ने घेर लिया। छाती पर पिस्तौल तान कर बोला सैम्प्ल बदल, रिपोर्ट ठीक कर और यह बैग रुपयों से भरा है ले जा, वरना .... ठोक देंगे। जवानी का जोश था, सीना तान कर चिल्लाया, है हिम्मत तो चला गोली। मेरे चिल्लाने से वे भाग खड़े हुए। ऑफिस के मेरे सारे मित्र मेरे दुश्मन हो गए – साला न खुद खाता है, न हमें खाने देता है।
सड़ चुकी व्यवस्था ... एक ऐसे बिल को आने देगी जो न खुद खाए न खाने दे। हुंह!
मेरे श्वसुर के डेथ सर्टिफ़िकेट निकलवाने में मुझे डेथ और बर्थ रजिस्ट्रार ऑफिस के बीसियों चक्कर लगाने पड़े। नहीं निकला। मेरा साला बोला आपसे कुछ नहीं होगा। आज मैं जाता हूं। वह बारह बजे तक वापस आया। हाथ में मृत्यु-प्रमाण पत्र था। उसने दौ सौ रुपए खर्चे।
मरने का प्रमाण पत्र पाने के लिए भी घूस देना पड़े जिस व्यवस्था में वहां यह बिल आ जाएगा, ... आने दिया जाएगा?
आह! आज कल कलकत्ते में सबसे ठंडा दिन था! दिल्ली में? दिल्ली वाले ही जाने। वहां कुछ ज़्यादा ही होगी। इसीलिए तो बहुत कुछ वहां ठंडे बस्ते में चला जाता है। महिला आरक्षण के नाम से एक बिल होता था। आजकल कोल्ड स्टोरेज में है। कल लोकपाल भी होगा। और नहीं तो क्या?
थोड़ी धूप निकली है। धूप ही सेंक लूं। पहले हर अच्छी बात का मज़ाक बनता है, फिर उसका विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार कर लिया जाता है। टीवी बन्द कर देता हूं। श्रीमती जी चिल्लाती हैं क्यों बन्द किया ... कितना अच्छा बोल रहा था। मैं बोलता हूं --- अच्छा वक्ता तो कोई भी बन सकता है, परन्तु दूसरों के लिए अनुकरणीय श्रेष्ठ जीवन कितने लोग जीते हैं। चलो धूप में बैठें। इनको सुन कर क्या होगा?
क्या मैं निराशावादी होता जा रहा हूं?
RIP....इस व्यवस्था के लिए भी,जिसकी लाश को हम ढोए जा रहे हैं !
जवाब देंहटाएंखुद से गुफ्तु -गू करती माहौल (वातावरण प्रधान )से संवाद करती अच्छी पोस्ट .
जवाब देंहटाएंनिराश मत हुआ जाये। सलिल जी को अब फ़िर से फ़ोन लगाया जाये। :)
जवाब देंहटाएंकहाँ जा रहा देश,
जवाब देंहटाएंसम्हाले युवकों का आवेश,
उसे अब जीना होगा।
haalat nirash karte hain ... per aap nirash hote to likhte nahi
जवाब देंहटाएंoh !!!
जवाब देंहटाएं"अच्छा वक्ता तो कोई भी बन सकता है, परन्तु दूसरों के लिए अनुकरणीय श्रेष्ठ जीवन कितने लोग जीते हैं"........well said.
जवाब देंहटाएंये सही है कि फेसबुक/चैटिंग यहाँ तक कि TV ने पढ़ने वाले बच्चों का नुकसान ज़ियादा फायदा कम किया है.
सड़ी गली व्यवस्था , निराशा के गर्त में ही धकेल रही है .
जवाब देंहटाएंसार्थक, सामयिक पोस्ट, बधाई.
जवाब देंहटाएंकभी खुद का नम्बर डायल कीजिए और अपनी आवाज़ सुनिए।
जवाब देंहटाएंबाहर से अंदर की यात्रा और उससे मिलने की चेष्टा... मेरे अंदर बोल रहा है मुझ जैसा ही जाने कौन... कोई सुनना ही नहीं चाहता.. खुद को लगाया फोन किसी रोज फोन मिल भी गया तो घबरा के लाइन काट देंगे कि कौन कमबख्त बोल रहा है!!
एक और आवाज़ संसद में गूंजती है --- देयर कैन बी ओनली वन फ़ादर ऑफ नेशन! मेजे थपथपा कर स्वागत किया जाता है। मानों कोई नई बात कह दी गई हो। अनोखी!
अब इतने भोले भी मत बनिए मनोज जी, आचार संहिता को दरकिनार रखिये.. उन सांसदों के लिए तो अनोखी बात ही है यह... जिनके कई बाप होते हों, उन्हें नेशन का एक बाप होना आश्चर्यजनक तो लगेगा ही!!
भ्रष्टाचार पर कुछ नहीं कहूँगा.. नहीं तो लोग मेरे भ्रष्टाचार गिनाने लगेंगे... फुरसत में यही सब सोचते हैं आप?? अरे वो सब सोचने के लिए संसद है ना!! आप धूप सेंकिए!!
खुद से बात करती चिंतन करती यह पोस्ट. फुर्सत में दुखी न हों इस रात की भी सुबह तो होगी ही.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया! बेहतरीन पोस्ट!
जवाब देंहटाएंक्रिसमस की हार्दिक शुभकामनायें !
दिन के बाद रात .. सुख के बाद दुख .. जीवन इसी का तो नाम है !!
जवाब देंहटाएंfursat me bahut si baato ko lekha jokha ho gaya. vichaarneey prasang.
जवाब देंहटाएंजाने कब भला होगा..
जवाब देंहटाएंमगर दिल दुखाने से क्या होगा ..!
बहुत सुंदर सार्थक पोस्ट !
आभार !!
बहुत दिन बाद कुछ ऐसा पढ़ रहा हूं जिसमें व्यक्ति सिर्फ व्यवस्था को ही नहीं कोस रहा,स्वयं से भी सवाल पूछ रहा है। इसी से जवाब भी निकलेगा और समाधान भी।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया! बेहतरीन पोस्ट!
जवाब देंहटाएंप्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में लड़ा गया था और लगभग 90 वर्ष बाद स्वतन्त्रता मिली। लगता है 2037 तक शायद हम अन्ना के आन्दोलन का परिणाम देख सकें। क्योंकि अभीतक लोग उन भ्रष्ट लोगों के संगीत पर नृत्य करने से नहीं अघा रहे। सुन्दर पोस्ट। आभार।
जवाब देंहटाएंपर ख़ुद से मिलने की सभी लाइने व्यस्त हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर .....
आत्ममंथन का एक ये रूप भी है .....
जवाब देंहटाएंस्वयं से मिलने के लिए सारी लाईंस व्यस्त हैं ... गहन कटाक्ष ..
जवाब देंहटाएं१९४८ में जन्म से पहले ही अँगरेज़ भारत छोड़ चले गए ... साल का सबसे बड़ा चुटकुला .. सही कहा .. आज की फुरसत में सोशल साईट्स से ले कर संसद तक ..भ्रष्टाचार से ले कर आत्म मंथन तक सब पिरो दिया है ... विचारणीय और सार्थक पोस्ट
सार्थक गुफ्तगू ... ऐसे आत्न्विवेचन से ब्कभी कभी बहुत कुछ नया सामने आ जाता है ...
जवाब देंहटाएंचिन्तन मन्थन को विवश करती पोस्ट। यही नहीं, इसके व्यंग्य बाण भी बहुत ही लुभावने हैं।
जवाब देंहटाएंक्या मैं निराशावादी होता जा रहा हूं?
जवाब देंहटाएंआपका चिंतन निराशावादी नहीं बल्कि यथार्थवादी है आदरणीय मनोज भईया...
यह निराशावाद ही आज का यथार्थ है, जहाँ आम आदमी को भ्रष्टाचार पर मुह खोलने के पहले उस संसद में चुन कर पहुंचना जरुरी है जहाँ चुने हुये लोग बस बोलते भर हैं... करने के नाम पर रोज नया शिगूफा, रोज नए टंटे, नए नए तरीके कि लोग आपस में बंटे और उनकी मुसीबत घटे और वे देश को चटें...
लेकिन हम और आप कुछ न बोलें क्योंकि हम आम आदमी हैं... उस संसद का हिस्सा नहीं हैं जो बोलने के बनी है... बोलना है तो पहले चुनाव लड़िए... अरबों खरबों रूपये खर्चिये, जीतिए तब न बोलने का अधिकार मिलेगा...
इतनी औकात नहीं तो मन्दिर में बैठिये, घंटा हिलाईये और राम नाम गाईये देश को भूल जाईये...
सादर नमन आपकी बेचैनी को और दुआ कि यह बेचैनी हर देशवासी के दिल को बेचैन करे....
फ़ुरसत में आप गहन चिंतन कर लेते हैं। इसमें देश की व्यवस्था पर गहरा कटाक्ष किया गया है।
जवाब देंहटाएंमनोज जी आपको डेढ़ वर्षों से पढ़ रहा हूं और एक वर्ष से जानता हूं...अब तक की आपका सर्वश्रेस्ट रचना मानता हूं मैं... बढ़िया प्रवाह है आलेख में मानो सामने खड़े हो बतिया रहे हो आप.... भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हैं कि जब तक एक एक व्यक्ति का हृदय और चरित्र परिवर्तन नहीं हो जाता इसका मिटना मुश्किल है...
जवाब देंहटाएं..उच्च स्तर पर हो रहे भ्रस्ताचार को देख नीचे इस हक़ समझा जाने लगा है... कल मेरी बाइक स्टार्ट नहीं हो रही थी... बेटे के स्कूल में पी टी एम में जाना था.. जल्दी थी.. सो कार निकल के चला गया.... रास्ते में बाइक रिपेयर करने वाले को चाबी देकर कहता गया कि बाइक को ठीक कर दे.... हम नियमित उसी से बाइक ठीक करते हैं... वापिस आया तो बाइक ठीक थी.... उसने कहा कि प्लग ख़राब हो गया था.. उसने बदल दिया है...शाम को बाइक फिर से स्टार्ट नहीं हो रही थी... मैं बाहर कहीं था... वहां किसी मेकेनिक को दिखाया तो कहा कि प्लग बदलना होगा... पता चला कि मेरे भरोसेमंद मैकेनिक ने पुराने प्लग को घिस कर जुगाड़ बिठा दिया था..आज आप कहीं भरोसा नहीं कर सके... डेढ़ अरब हाथ वाला भ्रष्टाचार इतनी जल्दी तो नहीं मरेगा...
...चिंतन के बाद गुनगुनी धूप कैसी लगी... अगले फुर्सत में कहियेगा....
मनोज भइया ! आपने दर्द की गहरी परतों को कितने हंसते-हंसते खोला है ........अभ्यस्त हैं .......इसलिए चाहे-अनचाहे हंसने को भी विवशता मान लिया है..भले ही आंसू टपकते रहें .....इसी बेइन्तेहा दर्द ने बुद्धि को भी दार्शनिक बना दिया है ......सादर प्रणाम ! और एक खामोशी .........
जवाब देंहटाएंयह आलेख इस ब्लाग के अध्याय में एक मील का पत्थड़ होगा। लगा जैसे एक डाक्यूमेंट्री चल रही हो आँखों के आगे...! आपबीती को वर्तमान काल के वाक्यों में व्यक्त करने से नाटकीय प्रभाव सी जीवंतता आ गयी है। व्यंग्य की धार की बात नहीं करूँगा... क्योंकि वह हमेशा की तरह है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
ह्म्म्म... अंग्रेजों ने सोचा होगा कि इस देश का बंटाधार तो देशवासी ही कर देंगे ,हम क्यों पाप का बोझ और ढोयें और खिसक लिए !
जवाब देंहटाएंनई पीढ़ी को हर चीज इतनी सुलभता से उपलब्ध 'कराई' भी जा रही है कि वो संघर्ष भूल चुकी है.
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने - हालत निराशावादी ही हैं, और छल तथा छद्म के इस चक्रव्यूह में उम्मीद किसी से नहीं दिखती.