आंच–98
अंक - 1
आचार्य परशुराम राय जी ने जब यह आलेख मुझे लिखने का उत्तरदायित्व सौंपा तो एक गर्व की अनुभूति के साथ-साथ निर्वाह का बोझ भी कंधे पर महसूस हुआ. एक लंबे अंतराल के पश्चात जब लिखने का साहस जुटा पाया तो सबसे पहले स्मरण हो आया पिछले साल हुई एक घटना का. वाराणसी के एक महात्मा जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया तुलसीकृत रामचरित मानस की वर्तनी के सुधार में. उनके अनुसार उसमें कई दोष थे जिनका सुधार उन्होंने किया है. यह समाचार हास्यास्पद भी है और विचारोत्तेजक भी. मेरे हिन्दी के प्राध्यापक श्री जगदीश नारायण चौबे कहा करते थे कि आप सभी विज्ञान के विद्यार्थी हैं, किन्तु साहित्य के साथ वैज्ञानिक बुद्धि का मिश्रण मत कीजियेगा, क्योंकि इसके भयंकर परिणाम देखे हैं मैंने. और, उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि किसी छात्र को प्रेमचंद नाम अटपटा लगा तो उसने सुधार कर “प्रेम चंद्र” बना दिया और राहुल सांकृत्यायन को “राहुल सांस्कृतायन”.
कविता की पैदावार पिछले कुछ वर्षों में बहुत बढ़ी है. इसके लिए उत्प्रेरक का काम कविता के शिल्प ने ही किया है. स्पष्ट करूँ तो कविता यदि ‘तुकान्त’ हो तो लयात्मक होगी, ऐसी मान्यता रही है. इसका परिणाम यह हुआ कि तुकांत कविता का स्थान तुकबंदी ने ले लिया, जिससे कविता की बड़ी क्षति हुई. जिसने भी तुक मिलाकर शब्दों को जोड़ लिया वही कवि बन गया.
यदि ‘प्रसाद’ की निम्नलिखित रचना कविता की श्रेणी में आती है -
हिमाद्रि तुंग शृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतन्त्रता पुकारती!
तो इस रचना ने भी कविता की दावेदारी दाखिल कर दी -
आप यहाँ आये - किसलिए, आपने बुलाया - इसलिए,
आए हैं तो काम भी बताइये, पहले ज़रा आप मुस्कुराइये.
नई कविता के नए मानदण्ड में तुकांतता और छन्द का प्रचलन समाप्त होने से भी अराजकता बढ़ी. छन्दमुक्त स्वतंत्र कविता की इस अबाध कलकल धारा ने निराला, बच्चन से लेकर अज्ञेय, कन्हैया लाल नंदन, धूमिल और अनेकानेक कवि हमें दिये, जिनसे हिन्दी साहित्य का मान बढ़ा. किन्तु इसी स्वतन्त्रता ने सबसे बड़ी क्षति भी पहुचाई. कई ऐसे कवि भी रातों-रात उग आए जिन्होंने छन्द-मुक्त कविता की इस विधा को ‘फोटोजेनिक’ रूप में आत्मसात किया. इसे इस तरह स्पष्ट करना चाहिए - इस रूप में कविता (छन्दमुक्त) शब्दों का वह भण्डार है जिसे इस प्रकार की सज्जा प्रदान की गयी है कि वह ‘देखने’ में ‘कविता-सी’ लगे.
“मैं सड़क पर जा रहा था. एक केले का छिलका वहीं पड़ा था. मैं फिसल गया. मेरे विचारों के सिलसिले टूट गए.”
इस वक्तव्य को शब्दक्रम बदलकर सुसज्जित करने पर जो बना वह प्रस्तुत है. शायद इसे कविता कहा जा सके, क्योंकि देखने में कविता जैसी है -
मैं सड़क पर जा रहा था
एक छिलका
केले का
वहीं पड़ा था.
फिसल गया मैं
और टूट गए
मेरे विचारों के सिलसिले!!
इस तरह के समस्त प्रयास कविता के स्वरूप की अनभिज्ञता के कारण ही होते रहे. इसमें थोड़ा सा कल्पना का पुट दे दिया जाय, तो इन्हीं शब्दों के माध्यम से कविता लिखी जा सकती है-
उन्हें देखकर कुछ ऐसा हुआ,
केले के छिलके पर
पड़ते ही पैर होता जो
विचारों के सिलसिले का.
पहली वाली कविता में 23 शब्द हैं और चमत्कार का अभाव भी है. जबकि दूसरी में 18 शब्द हैं और थोड़ा सा कल्पना तत्व के आ जाने से कुछ चमत्कार भी आ गया है.
यह तो थी कविता की संरचनात्मक विधि से जुड़ी बात. अब बात आती है भाषा की. हम जितने भी प्राचीन अथवा आधुनिक कवियों की रचनाएँ पढ़ते हैं, उनमें सबसे आवश्यक तत्व विचारों को व्यक्त करनेवाली उनकी भाषा है. वे कवि, जिनकी भाषा सरल, सुबोध और सुग्राह्य रही है, वे अधिक लोकप्रिय रहे हैं. ग़ज़लों में जब फारसी और अरबी शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग होने लगा, तो उसमें क्लिष्टता आ गयी और आम हिन्दुस्तानी भाषा में गज़ल कहने वाले दुष्यंत कुमार की कविताओं से अधिक उनकी गज़लें लोगों की जुबान पर चढ़ गयीं. उनकी सहज भाषा में जहाँ “यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है” का घोष है; वहीं “कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए” की गूँज भी सुनायी देती है.
वास्तव में, कविता की रचना के पूर्व ही यह निर्धारित करना आवश्यक होता है कि इस कविता का प्रतिपाद्य क्या है और किसके लिए है. कविता जिसको संबोधित की जाय, उसकी शब्दावलि भी उसी तरह की होनी चाहिए. कविता की भाषा और शब्दावली अपना पाठक स्वयं ढूँढ लेती है. अज्ञेय या मुक्तिबोध की कवितायें, उनके भाव, उनका शब्दकोष एक सुसंकृत वर्ग-विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं, तभी उनकी कवितायें जन-सामान्य की कवितायें नहीं कही जा सकतीं. जबकि ट्रक के पीछे लिखी कविता या एस.एम.एस. के द्वारा भेजी जाने वाली कविताएँ, अकविता होकर भी लोकप्रिय हैं.
(अगले अंक में जानेंगे कि एक कविता में पाठक कैसी शब्दावली की अपेक्षा रखता है और शब्दों की मर्यादा का ध्यान कैसे रखा जाए)
***
रोचक और उपयोगी श्रृंखला ...
जवाब देंहटाएंgood presentation n criticism.
जवाब देंहटाएंमैं समझता हूँ जो विचार सायास बनते चले जाते हैं वही कविता है.इसमें ज़बरियापन नहीं होना चाहिए.मुक्तछंद की कवितायेँ तुकांत से भी कई बार भारी पड़ती हैं !
जवाब देंहटाएंकाव्य प्रेमियों के लिए उपयोगी श्रृंखला !
जवाब देंहटाएंसमय और परिवेश के साथ कविता के बदलते स्वरुप पर सुन्दर विवेचना !
आभार !
सलिल भाई आपको इस रूप में देखकर अच्छा लगा। कविता में छंदमुक्त कविता की बात करते हुए आपने शुरूआत तो बहुत अच्छी तरह की है। पर केले के छिलके वाली कविता में आप फिसल गए हैं। बात कुछ बनी नहीं।
जवाब देंहटाएंआगे आप क्या कहने वाले हैं,इसकी प्रतीक्षा रहेगी।
बहुत ही बेहतरीन जानकारी दी सलिल जी ने... एक बहुत ही महत्वपूर्ण लेख!
जवाब देंहटाएंवाह...! स्वागत, धन्यवाद औत प्रतीक्षा... !!!
जवाब देंहटाएंसलिल जी कविता पर आपकी बातों को सुनकर अच्छा लगा... कविता लिखना आसान हो गया है... इसलिए हम भी लिख पा रहे हैं.. एस एम एस से लेकर अज्ञेय तक की बात अच्छी लग रही है.. आशा है अगले अंक की... आंच पर कविता की कार्यशाला कहेंगे इसे....
जवाब देंहटाएंसलिल भाई, आपका विश्लेषण सर्वथा उपयुक्त है -
जवाब देंहटाएं"किन्तु इसी स्वतन्त्रता ने सबसे बड़ी क्षति भी पहुचाई. कई ऐसे कवि भी रातों-रात उग आए जिन्होंने छन्द-मुक्त कविता की इस विधा को ‘फोटोजेनिक’ रूप में आत्मसात किया. इसे इस तरह स्पष्ट करना चाहिए - इस रूप में कविता (छन्दमुक्त) शब्दों का वह भण्डार है जिसे इस प्रकार की सज्जा प्रदान की गयी है कि वह ‘देखने’ में ‘कविता-सी’ लगे.
“मैं सड़क पर जा रहा था
एक केले का
छिलका
वहीं पड़ा था.
फिसल गया मैं
और टूट गए
मेरे विचारों के सिलसिले.”
यह कविता का दुर्भाग्य है कि विषयगत अध्ययन और निष्ठा के अभाव के साथ आजकल इसी तरह की कविताएँ लिखकर कवि बनने का फैशन चल गया है। मंचीय कविता ने यह चलन बढ़ाया है या तो जहाँ सपाटबयानी की जाती है, चुटकुलों को कविता का रूप देकर प्रस्तुत किया जाता है या फिर अपनी सुर-प्रतिभा द्वारा आकर्षक रूप से प्रस्तुति देकर वाहवाही लूटी जाती है। मेरे एक मित्र हैं, वह अधिकतर कवि सम्मेलनों में जाते रहते हैं और अपने सुर से समाँ बाँध देते हैं। निजी बातचीत में वह " जो बिकता है वह चलता है" के तर्क से आज की कविता और गीतों को स्वीकार्य बनाते हैं कि कविता गंभीर होती है तो लोग उठकर जाने लगते हैं और आयोजकगण उन्हें श्रोता भगाने के लिए थोड़े ही आमंत्रित करते हैं।
अरुण जी से सहमत हूँ कि सलिल भाई की यह शृंखला कविता की कार्यशाला की तरह है, विशेष रूप से उनके लिए जो काव्य लेखन में प्रवेश कर रहे हैं।
आभार,
सलिल चचा,
जवाब देंहटाएंआपका केला के छिलका पर फ़िसलकर काका हाथरसी का एगो पद्यांश याद आ गया,
"कविता लिखने की इच्छा हो,
तो यह कला बड़ी मामूली।
नुस्खा बतलाता हूँ, लिख लो,
कविता क्या है गाजर मूली॥
कोष खोलकर आगे रख लो,
कठिन शब्द उनमें से चुन लो,
उन शब्दों का जाल बिछाकर,
चाहे जैसी कविता बुन लो।
श्रोता जिसका अर्थ लगा ले,
वह तो तुकबंदी है भाई!
स्वयं कवि जिसे समझ न पाए,
वह कविता है सबसे हाई।
इसी युक्ति से बनो महाकवि,
इसे नई कविता बतलाओ।
कुछ तो स्टैंडर्ड बढ़ाओ।
कुछ तो स्टैंडर्ड बढ़ाओ॥
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ... आभार ।
जवाब देंहटाएंसलिल जी ! बहुत ही सहज रूप में काफी सार्थक बात कहीं हैं आपने ..पढ़ रहे हैं और आत्मसात करने की कोशिश कर रहे हैं.
जवाब देंहटाएंसुंदर बेहतरीन जानकारी,बढ़िया...
जवाब देंहटाएंमेरे नये पोस्ट -प्रतिस्पर्धा-में आपका इंतजार है...
@ सलिल वर्मा,
जवाब देंहटाएंआपकी यह पोस्ट मेरे लिए सुखद आश्चर्य जैसा है !
इस क्लिष्ट विषय को इतना आसान बनाने के लिए आभारी हूँ निस्संदेह इससे हम जैसे कवित्त शिल्प से नितांत अज्ञानियों का मार्ग दर्शन होगा !
आदरणीय राकेश खंडेलवाल ने इस विषय पर एक क्षुब्द्ध होकर एक हास्य रचना पोस्ट की थी , उसका लिंक दे रहा हूँ ...
http://geetkarkeekalam.blogspot.com/2008/05/blog-post_23.html
कविता पर चिरंतन बहस में एक नई सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति इक सुन्दर दिखी, ले आया इस मंच |
जवाब देंहटाएंबाँच टिप्पणी कीजिये, प्यारे पाठक पञ्च ||
cahrchamanch.blogspot.com
On 12/1/11, shikha varshney wrote:
जवाब देंहटाएंshikha varshney ने आपकी पोस्ट " आंच–98 : कविता की संरचना – मेरी दृष्टि
में " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
सलिल जी ! बहुत ही सहज रूप में काफी सार्थक बात कहीं हैं आपने ..पढ़ रहे हैं और आत्मसात करने की कोशिश कर रहे हैं.
shikha varshney द्वारा मनोज के लिए Thursday, 01 December, 2011 को पोस्ट किया गया
कविताएँ बहुत लिखी जा रही हैं। विशेषकर ब्लॉगोद्भव के बाद तो काफी रचानकार मैदान में हैं। इस विषय पर कुछ सशक्त लेखन की आवश्यकता काफी दिनों महसूस कर रहा था। आँच पर समीक्षा पढ़ते समय ऐसा लगा कि कविता की भाषा पर कुछ काम किया जाय। हरीश जी से अनुरोध किया। पर समयाभाव के कारण तैयार नहीं हुए। मेरी भी वही गति है। एक दो और मित्रों से अनुरोध किया। लेकिन कोई आगे नहीं आया। एक दिन सलिल भाई से बात हो रही थी इसी विषय पर। उनसे अनुरोध किया कि भाई, कविता की भाषा पर लिखें। क्योंकि इनकी रचनाओं को पढ़ते समय लगा कि ये जैसा दिखते हैं वैसे हैं नहीं और इसपर ये अच्छा काम कर सकते हैं।
जवाब देंहटाएंइन्होंने नाहीं-नुकुर करते-करते अंत में सहमत हुए, चाहे संकोच में ही सही। काफी दिन बीत गया तो लगा कि शायद भूल तो नहीं गए। एक दिन मेल करके याद दिलाया। पता नहीं उन्होंने पढ़ा या नही। लेकिन आज आँच पर इनकी यह रचना देखकर मन को बहुत ही आन्तरिक सन्तुष्टि मिली।
इसे पढ़कर ऐसा लगा कि इस विषय पर इन्होंने इतने आयाम दे रखे हैं कि दो-चार महीने लगातार लिखा जा सकता है।
इस लेख के लिए मैं सलिल जी का हृदय से आभारी हूँ और आभार व्यक्त करता हूँ। धन्यवाद सहित।
salil ji aaj apki is vishay par shuruaat dekh kar dil gad-gad ho gaya. dilli icchha thi ki is vishay par sadharan bhaasha me ham agyaniyon k liye koi pathshaala shuru ki jaye jo aapki is shrinkhla se ghar baithe baithe mil gayi aur bina fees ke dakhila bhi. :).
जवाब देंहटाएंsir ji main koshish karungi ki apni haaziri har period me deti rahun. :)
bahut bahut shukriya.
सच कहूं, तो आपका यह आलेख पढ़कर काव्य संरचना पर एक अंतर्दृष्टि मिली है। निश्चय ही इसे कार्यशाला की संज्ञा दिया जाना चाहिए। इससे और किसी का हो न हो मेरे काव्य लेखन को तो भला होने ही वाला है।
जवाब देंहटाएंआज हिंदी कविता न रस की प्यासी है, न अलंकार की इच्छुक और न संगीत की तुकांत पदावली की भूखी है। अब वह चाहती है किसान की वाणी, मजदूर की वाणी और जन-जन की वाणी। पश्चात्य काव्य चिंतकों जैसै अरस्तू एवं प्लेटो ने इसे साहित्य के सभी बंधनों से मुक्त करने पर बल दिया परिणामस्वरूप हिंदी कविता भी प्रभावित हुई । आज लोग दोहा ,सोरठा, चौपाई, छप्पय, रोला, एवं हरिगीतिका को प्रायः विस्मृत करते जा रहे हैं । प्रस्तुति अच्छी लगी । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंआदरणीय मनोज जी, आचार्य परशुराम राय जी, हरीश गुप्त जी और करण जी!
जवाब देंहटाएं"मनोज" परिवार ने यदि मुझे यह स्थान न दिया होता, तो इस रचना का जन्म संभव न था... एक विषय, जो दूर-दूर तक मेरा विषय नहीं है, पर लिखना, वो भी ऐसे मनीषियों के मध्य जिनके नस-नस में साहित्य-सरिता बहती है, बड़ा ही मुश्किल कार्य था... जिन्होंने इसे सराहा उनका हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहता हूँ...
@राजेश उत्साही जी,
आपकी बात शिरोधार्य है, किन्तु इस आलेख के परिप्रेक्ष्य में इसे मात्र उदाहरण के तौर पर देखा जाना चाहिए... किसी अन्य रचना का उदाहरण कोई साहित्य का विद्यार्थी ही दे सकता था अतः इसे मात्र उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया है.. किन्तु मान गए आपकी पारखी नज़र को!! तभी तो आ बाबा भारती है मेरे लिए!!
प्रवाह ही मेरे लिये कविता का आधार है, बड़ी रोचक श्रंखला है।
जवाब देंहटाएंइस श्रृंखला पर विवाद ज़रूर होगा। कई ऐसे लोग भी उदाहरणों को नए सिरे से पेश करने की कोशिश करेंगे जिन्होंने पहले कहीं और कविता में हाथ आजमाया नहीं है। इससे अप्रभावित रहते हुए ही इस श्रृंखला को वहां तक पहुंचाना संभव होगा जहां कोई कविता रचने की ओर प्रवृत्त हो सकेगा तो कोई शिल्प में सुधार के प्रति।
जवाब देंहटाएंउत्तर-आधुनिक युग की कविता पर पारखी नजर से किया गया विश्लेषण- उम्मीद है इस शृंखला से कविता के नए प्रतिमान बनेंगे।
जवाब देंहटाएंशर्मा जी सार्थक, चिन्तनशील ,वैज्ञानिक आलेख पढ़ा मन प्रभावित हुआ / परन्तु काव्य, चिंतन की वह धारा है जो सामान प्रवृत्तियों से एकसमान नहीं गुजरती,प्रयोगधर्मी जब मात्रा,बंदहनों में बंधता है तो चिंतन ,भाव ,अभिव्यक्ति की तीव्रता की आत्मा को खो देता है / विश्व की मुख्य तमाम भाषाओँ में विचार की मुख्य भूमिका ही मूल में होती है ,कलात्मकता तो जन-मानस का स्वतन्त्र भाव होता है ,जीतनी दुरुहता होगी ,काव्य और भाषा उतना ही दूर होती है , ..../ शुक्रिया जी
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी है लेकिन पढ़ना प्रारम्भ ही किया था और आलेख समाप्त हो गया।
जवाब देंहटाएंयह तो बहुत ही सुन्दर, रोचक और तथ्यपरक आलेख है...
जवाब देंहटाएंसादर आभार...
अच्छी श्रृंखला की शुरुआत ... आज की कविता सौंदर्य से ज्यादा यथार्थ को लेकर रची जाती है ..इसमें भाव अधिक महत्त्वपूर्ण होता है ..और यह सही है कि सीधी सपाट बात को इस तरह से लिखना जिससे चमत्कार हो और कविता लगे ..
जवाब देंहटाएंकाफी कुछ सीखने को मिलेगा .. और आत्मविश्लेषण भी होगा ..आभार
bahot hi prabhawshali post.......
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