रविवार, 25 दिसंबर 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 96


 भारतीय काव्यशास्त्र – 96
आचार्य परशुराम राय

पिछले कुछ अंकों में लगातार वाक्यदोषों पर चर्चा हो रही है। आज शेष बचे दो वाक्यदोषों- अक्रमता तथा अमतपरार्थता पर चर्चा की जाएगी। इसके अतिरिक्त अर्थदोषों पर परिचयात्मक चर्चा भी इस अंक का अभीष्ट है।
पहले भग्नप्रक्रमता दोष पर चर्चा की जा चुकी है। अक्रमता दोष की व्याख्या करते समय आचार्य मम्मट लिखते हैं- अविद्यमानः क्रमो यत्र, अर्थात् जहाँ क्रम विद्यमान न हो, वहाँ अक्रम या अक्रमता दोष होता है। भग्नप्रक्रमता दोष में देखा गया कि जिस शैली में रचना प्रारम्भ हुई, उस क्रम को छोड़कर बीच में क्रम टूट जाता है। पर जहाँ क्रम का अभाव होता है, वहाँ अक्रमता दोष होता है-   
द्वयं  गतं  सम्प्रति  शोचनीयतां  समागमप्रार्थनया  कपालिनः।
कला च सा कान्तिमती कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी।।
अर्थात् कपाल धारण करनेवाले भगवान शिव को पाने की आपकी प्रार्थना के कारण दोनों की दशा चिन्तनीय हो गयी है- एक तो चन्द्रमा की चाँदनी और दूसरी तुम, जो इस संसार के  नेत्रों की कौमुदी हो।
यहाँ कला च की तरह त्वम् के बाद का प्रयोग उचित होता। क्योंकि दो अन्योन्याश्रित उपवाक्य में समानता होनी चाहिए।
जहाँ दूसरा अर्थ प्रकृत अर्थ (यहाँ अभीष्ट अर्थ) के विरुद्ध हो, वहाँ अमतपरार्थता दोष होता है-
राममन्मथशरेण  ताडिता  दुःसहेन हृदये निशाचरी।
गन्धवद्रुधिरचन्दनोक्षिता जीवितेशवसतिं जगाम सा।।
अर्थात् कामदेव रूपी राम के बाण से आहत हृदय होने के कारण वह राक्षसी (ताडका) जिसके घायल हृदय से निकले दुर्गन्धयुक्त रक्तरूपी चन्दन से लिप्त होकर यमपुरी (दूसरे पक्ष में अपने प्राणनाथ के लोक में अभिसारिका के रूप में) चली गयी।  
प्रकृत (अभीष्ट) वीभत्स रस के वर्णन में विपरीतार्थक शृंगार रस को व्यंजित करनेवाला अभिसारिकापरक दूसरा अर्थ यहाँ कविता को दूषित कर गया है, जिसे अमतपरार्थता दोष कहा जाता है।
यहाँ वाक्यदोष समाप्त होते हैं। अब अर्थदोषों पर चर्चा प्रारम्भ हो रही है। कुल तेइस अर्थदोष हैं-
अर्थोSपुष्टः कष्टो व्याहतपुनरुक्तदुष्क्रमग्राम्याः।।
सन्दिग्धो निर्हेतुः प्रसिद्धविद्याविरुद्धश्च।
अनवीकृतः सनियमानियमविशेषाविशेषपरिवृत्ताः।।
साकाङ्क्षोSपदयुक्तः सहचरभिन्नः प्रकाशितविरुद्धः।
विध्यनुवादायुक्तस्त्यक्तपुनःस्वीकृतोSश्लीलः।। (काव्यप्रकाश, सप्तम उल्लास)
अर्थात् अपुष्ट, कष्ट, व्याहत, पुरुक्त, दुष्क्रम, ग्राम्य, सन्दिग्ध, निर्हेतु, प्रसिद्धविरुद्ध, विद्याविरुद्ध, अनवीकृत, सनियम-परिवृत्त, अनियम-परिवृत्त, विशेष-परिवृत्त, अविशेषपरिवृत्त, साकांक्ष, अपदयुक्त, सहचरभिन्न, प्रकाशितविरुद्ध, विध्ययुक्त, अनुवादायुक्त, त्यक्तपुनःस्वीकृत और अश्लील अर्थदोष हैं।
इन अर्थदोषों पर चर्चा अगले अंक से प्रारम्भ की जाएगी। इस अंक में बस इतना ही।
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