बुधवार, 28 मार्च 2012

स्मृति शिखर से... 11: वे लोग, भाग – 3

स्मृति शिखर से... 11
वे लोग, भाग – 3
- करण समस्तीपुरी

गाँव में समरसता अधिक होती है। सरलता भी अधिक होती है। अपने पराये का भेद थोड़ा कम होता है। सुविधा और संसाधनों पर अधिकार व्यक्ति या परिवार विशेष तक सीमित नहीं रहता। हाँ, किसी के खेत की फ़सल कोई और नहीं काट सकता। किसी के गाछी-बगीचे से कोई पेड़ या पेड़ की डालियाँ नहीं काट सकता। किसी के केला-बगान से केले का घौंद कोई और नहीं काट सकता। किन्तु किसी के बीजू आम, अमरुद, जामुन के पेड़ों से फ़ल तोड़कर कोई भी खा सकता है। खेत में फ़सल नहीं है तो कोई भी माल-मवेशी चरा सकता है। अगर धान झाड़ लिए गए हों तो झड़ुआ कोई भी ले जा सकता है। गेहूँ की दौनी हो गई है तो भूसा कोई भी ले जा सकता है। हलाँकि अब भी परिस्थितियाँ ऐसी ही है कहना मुश्किल होगा। इनमें से तो बहुत कुछ मेरे बड़े होने तक बदल चुका था।

कुछ चीजें कभी नहीं बदलती। कुछ लोग भी कभी नहीं बदलते। परस्थितियाँ बदल रही थी। खेतों में मेड़ और आँगन में दीवारें खड़ी हो रही थी। बगीचों में कंटीले तारों का घेरा डाला जा रहा था। कुँए-तालाब अपना अस्तित्व खो रहे थे। चूल्हे जलाने के लिए दूसरे घरों से आग नहीं ली जाती। लोग अपने आग-पानी से निर्वाह करते हैं। करें...! मगर रामबल्लभ झा पंडीजी को इन परिवर्तनों से क्या लेना। संक्रमण काल में भी वे इन परिवर्तनों से उसी प्रकार निस्पृह बने रहे जैसे जल में कमल-पत्र। कुछ पुश्तैनी जमीन थी मगर झाजी खेती का श्रमसाध्य एवं अनिश्चित कार्य पसंद नहीं करते थे। बंटाईदारों से इतना मिल जाता था जो निःसंतान दंपति के लिए पर्याप्त था। थोड़ी यजमानी भी थी। और सबसे बड़ी पूँजी थी एक भैंस। खेत किसी की हो यदि फ़सल नहीं है तो पंडी जी साधिकार अपनी भैस चरा सकते हैं। बगीचों में बाड़ लगे हों, मगर झाजी इच्छानुकूल फ़ल-सब्जियाँ तोड़ ही लेंगे। 

यही क्यों उनका अधिकार तो गाँव के हरेक व्यक्ति पर था। छोटे बच्चों से लेकर बड़े-बुजुर्गों तक। जो भी मिला... उसका स्वागत पंडीजी अवस्थानुसार नानी, मामी और मौसी के अभिवादन से करते थे। अजब कवित्त गढ़ लेते थे। अभय भैय्या को देखते ही बोलते थे, “अभे हो अभे... तोरा नानी के होवे शुभे हो शुभे।” कारी नजर आए तो, “कारी... रे कारी.... तेरी नानी है सरकारी।” मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा रहती ही थी। मुझे भी उनका आशीष बहुत अच्छा लगता था। यदि कभी वो भूल जाते तो मैं अवश्य याद दिला देता था।

पंडी जी को थोड़ी अँगरेजी भी आती थी। अपना नाम बोलते थे, “माई इज दी नेम रामबल्लभ झा...लिव इन दी रेवाड़ी।’’ गाँव के बच्चे जिनके लिए अँगरेजी का काला अक्षर भैंस बराबर था उन्हे पंडीजी अँगरेजी के शब्द और वाक्य पूछ आधुनिक शिक्षा व्यवस्था को खूब कोसते थे। “टू बुइल्ड अ कैसल इन दी एयर”। उनकी प्रिय कहावत थी। एक बार मैंने उनसे पूछा था “आई डोंट नो” की हिन्दी। पंडीजी बार-बार जवाब देते थे और मैं दुहराकर पूछता “क्यों नहीं जानते?” पंडीजी चिढ़ गए थे। मेरी नानी का तो उन्होंने उद्धार ही कर दिया था। वैसे मुझसे अत्यंत स्नेह भी रखते थे। सड़क से आते-जाते मेरे घर के पास एक बार मेरा नाम अवश्य पुकार लेते थे। दृष्टि पड़ गई तो नानी को नमस्कार निश्चित था।

पदुम लाल गुरुजी के स्कूल से सटे था पंडी जी का घर। पंडी जी के घर से सटे अमरूद के दो बड़े-बड़े पेड़ थे। उन पेड़ों से अमरूद कोई भी तोड़ सकता था। पंडिताइन के मना करने पर भी...। पंडी जी के तरफ़ से खुली छूट थी। लेकिन भैंस का दूध उधार में भी नहीं देते थे। सिर्फ़ नकद और अन्य से एक रुपया प्रति लीटर अधिक। उनका कहना था वे दूध में पानी नहीं मिलाते। सच में। ग्राहक के सामने दूह कर देते थे। जब भैंस बकैन हो जाती थी तो वे ग्राहक को ही कहते थे, थोड़ा पानी मिला लीजिएगा नहीं तो दूध फ़ट जाएगा।

पंडी जी का एक और सिद्धांत था। वे खरीदते कुछ भी नहीं थे। बँटाई-दारों से मिला अन्न यदि खत्म हो जाए तो यजमानी का आसरा...। यदि वो भी नहीं तो अमरूद या भैंस का दूध...। यदि वो भी नहीं तो फ़ाँके...। कहते थे ब्रह्मन हैं कोई व्यपारी नहीं।

रामजी बाबू उनके यजमान थे। प्रायः कुछ दे दिया करते थे। दोनों समव्यस्क भी थे। देह-राशि भी लगभग समान ही थी। साल में एक बार नये कपड़े और आवश्यकतानुसार अपने कपड़े पंडी जी को देते रहते थे। वैसे उनके घर में कोई आता था तो पंडीजी के लिए कपड़े अवश्य लाता था। रामजी बाबू का जीवन भी उतार-चढ़ाव का पर्याय रहा।

इसी शृंखला में सरकार जी की चर्चा हुई थी। रामजी बाबू उनके पुत्र थे। वैष्णव परिवार। साधु संस्कारों और आर्थिक संपन्नता में लालन-पालन हुआ। दुर्व्यसन तो कुछ नहीं व्यसन के नाम पर बीड़ी बहुत पीते थे। एक समय समस्तीपुर कचहरी में उनकी तूती बोलती थी। गाँव से आने-जाने वाला कोई रामजी बाबू के नाम पर कचहरी-प्रांगण के किसी दुकान से कुछ भी ले सकता था। पैसे की कोई जरूरत नहीं थी। रामजी बाबू का खाता चलता था। दिन, सप्ताह या मासांत में सबका हिसाब हो जाता था। गाँव या संबंधियों में किसी का विवाह, उपनयन, श्राद्ध, यज्ञ, अनुष्ठान कुछ भी हो, उन्हे निमंत्रण की चिंता नहीं थी। सिर्फ़ सूचना होनी चाहिए। रामजी बाबू पहुँच जाते थे। 

उनकी एक और विशेषता थी। वे किसी भी काम में हाथ नहीं लगाते किन्तु उनके पहुँचते ही सारे काम बिजली की गति से हो जाते थे। जब तक सारा कार्य संपन्न न हो जाए सब को विशेषतः कार्यकर्ताओं को ललकारे रहते थे। गाँव में कार्तिक देवोत्थान एकादशी को होने वाले अष्टयाम में तो उनका उत्साह और ऊर्जा देखते ही बनता था। कहते हैं कि किशुनदेव गुरुजी के साथ उन्होंने भी गंगा में खड़े होकर तुलसी और ताँबा लेकर शपथ लिया था कि याज्जीवन रेवाखंड में इस वार्षिक अष्टयाम का निर्वाह करेंगे।

व्यवस्था और अवस्था दोनों तेजी से बदल रहे थे। धीरे-धीरे पता नहीं चला... आय कम होती गई... व्यय अधिक और विभाजन के बाद मिली पैतृक संपत्ति भी उसी अनुपात में घटती चली गई। मेरे कालेज के दिनों में सिर्फ़ “पांडेजी” के होटल में रामजी बाबू का खाता रह गया था। यदि दीख जाते थे तो मैं चरण-स्पर्श करता था और वे बिना भोजन करवाए नहीं आने देते थे।

शरीर जीर्ण हो गया था। आय शीर्ण। कुछ संचित तो किया नहीं था बस प्रशंसा अर्जित करते रहे थे। एक विधवा बहू के भरण-पोषण की जिम्मेदारी थी। सो कचहरी भी नहीं छोड़ सकते थे। बुढ़ापे में प्रतिदिन गाँव से आना-जाना भी मुश्किल था। अर्थाभाव में समस्तीपुर में किराए पर अलग घर लेकर रहना दुष्कर। कुछ सगे-संबंधी रहते थे उसी शहर में। उनके साथ रहने लगे। हमारे समाज में अर्थहीन व्यक्ति वैसे ही भार समझा जाता है। उपर से बुढ़ापा... मतलब कोढ़ में खाज। बेचारे रामजी बाबू आजीवन शान से जीए थे। बुढ़ापे में अपने सगे-संतानों से अनादर वर्दाश्त नहीं कर सके।

समस्तीपुर स्टेशन पर रहने लगे। वहीं पंचम राय के भूजा और सत्तु की दुकान थी। थोड़े से पैसे में रायजी दो जून का भोजन दे देते थे। सोने के लिए स्टेशन का चबूतरा। एक छोटी सी झोली दिन भर रायजी के दूकान पर पड़ी रहती थी। लोग फिर बुलाने आए... किन्तु रामजी बाबू दुबारा नहीं गए। जीवन के अंतिम क्षण तक स्टेशन पर ही रहे। हालत बिगड़ते देख पंचम राय ने ही रिक्शा पर घर पहुँचवा दिया था। अगली सुबह विधवा बहू का करुण-क्रंदन...! देहरी पर रामजी बाबू का पार्थिव शरीर पड़ा था। बाहर यशगान चल रहा था। लोग कह रहे थे... आज तक इन्होंने जो भी निश्चय किया उसका निर्वाह करते रहे किन्तु मुझे उनके निर्जीव मुख पर तभी भी शायद कुछ क्षोभ की रेखाएँ नजर आ रही थी। उनकी अर्थी को अगला कंधा देते हुए मेरी भी आँखे भर आई थी मगर एक संतुष्टी भी हुई...।

19 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ चीज़ें साथ ही चली जाती हैं और अपनी कहानियाँ छोड़ जाती है..

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  2. इन चरित्रों में से कई से मैं भी मिल चुकी हूं। आपके रोचक वर्णन ने उन चित्रों को सजीव कर दिया है।
    राम जी बाबू का अंत इतना दुखदाई था, यह नहीं मालूम था।
    अब तो गांव में अष्टयाम होता ही नहीं, शायद इन लोगों के न रहने के कारण।

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  3. marmsparshi, behad prakritik ghatnao ka katha rupantaran... pata hi nahi chala kab pura padh gaya.. apki lekhani ko namaskar

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  4. पंडी जी से शुरू करके रामजी बाबू की कथा तक सब उस आत्मीयता से ओट-प्रोत, जो सिर्फ माटी से उपजती है.. रामजी बाबू का जीवन चरित किसी संत-महात्मा से कम नहीं.. ऐसे लोग या तो आपके स्मृति शिखर से दिखाई देते हैं (शिखर से तो वैसे भी दर्शन बड़ा सूक्ष्म और लगभग नगण्य सा होता है)या फिर इतिहास की कहानियों में!!
    करण बाबू आपकी शैली मुग्ध करती है हमेशा!! कथा प्रवाह चकित करता है हमेशा!! और शब्दों का चयन चमत्कृत करता है हमेशा!!

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  5. चूल्हे जलाने के लिए दूसरे घरों से आग नहीं ली जाती। लोग अपने आग-पानी से निर्वाह करते हैं।

    देहरी पर रामजी बाबू का पार्थिव शरीर पड़ा था। बाहर यशगान चल रहा था। लोग कह रहे थे... आज तक इन्होंने जो भी निश्चय किया उसका निर्वाह करते रहे किन्तु मुझे उनके निर्जीव मुख पर तभी भी शायद कुछ क्षोभ की रेखाएँ नजर आ रही थी।

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  6. आपके नायक हमारे अपने से लगते हैं... ग्रामीण समाज में व्यवस्था और अवस्था के बदलाव कुछ सकारात्मक नहीं है इन दिनों... संक्रमित हो रहे हैं...

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  7. आपका लेखन पकड़ लेता है... भावनाएं और समवेदनाए शिद्दत से गूँथी हुई हैं... प्रभावी लेखन.... सादर बधाई...

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  8. गाँव के परिवेश में आत्मसम्मान से जुड़ी ढेरों कहानियाँ जुड़ी हैं, सबके अनुभव में कुछ न कुछ समानता दे जाती हैं ये घटनायें।

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  9. आपकी यह रचना जितनी कारुणिक है उतनी ही प्रेरक है कि जीवन में हमेशा बदलती परिस्थितियों के साथ सामंजस्य और जीवन में सन्तुलन बनाए रखना चाहिए। ताकि हम सदा दूसरों की सहायता कर सकें।

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  10. अभी भी गावों में आत्मीयता की ठंडी बयार बहती है !
    करन जी, आपकी लेखनी का रंग अलग होता है जो पाठको की सांसों को रंगते हुए चलता है !
    आभार !

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  11. ऐसा कुशल चित्रांकन करते हैं आप कि चरित्र अपने परिवेश सहित जीवंत हो उठता है !

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