रविवार, 26 अगस्त 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 123

भारतीय काव्यशास्त्र – 123

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में काव्य-गुणों पर अंतिम चर्चा की गई थी। इस अंक से अलंकारों पर चर्चा प्रारंभ की जा रही है। गुणों की चर्चा के समय काव्य में अलंकार की स्थिति पर भी चर्चा की गयी थी। काव्य में रस को काव्य की आत्मा, रस के धर्म को गुण और अलंकार आभूषणों की तरह रस और गुण की शोभा बढ़ाकर उनमें उत्कर्ष लानेवाले तत्त्व हैं।

आचार्य मम्मट अलंकारों का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि काव्य में विद्यमान अङ्गी रस का शब्द तथा अर्थ से उसका कभी-कभी हार आदि आभूषणों की भाँति उत्कर्ष बढ़ानेवाले अनुप्रास, उपमा आदि अलंकार कहलाते हैं-

उपकुर्वन्ति तं सन्तं ये अङ्गद्वारेण जातुचित्।

हारादिवदलङ्कारास्तेSनुप्रासोपमादयः।।

साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने भी लगभग इसी से मिलता-जुलता लक्षण किया है। वे कहते हैं कि शोभा को बढ़ानेवाले; रस, भाव आदि में उत्कर्ष उत्पन्न करनेवाले शब्द और अर्थ के अस्थिर धर्म बाजूबन्द आदि की तरह अलंकार कहलाते हैं-

शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः।

रसादीनुपकुर्वन्तोSलङ्कारास्तेSङ्गदादिवत्।।

यहाँ अस्थिर धर्म का भाव यह है कि हम कोई भी आभूषण पहनते हैं और उतार भी देते हैं। उन्हें शौर्य, क्षमा आदि गुणों की तरह सदा धारण नहीं करते। उन लोगों में भी शौर्य आदि गुण मिलते हैं, जिनके पास आभूषण पहनने की क्षमता नहीं है। इसलिए काव्य में अलंकारों को आचार्य विश्वनाथ ने काव्य का अस्थिर धर्म कहा है। अर्थात् ये हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते।

उक्त मत ध्वनिवादी आचार्यों के हैं। अलंकारवादी आचार्य ध्वनिवादियों से सहमत नहीं हैं। वे अलंकारों को भी काव्य का स्थिर धर्म मानते हैं। गीतगोविन्दकार महाकवि एवं आचार्य जयदेव अपनी चन्द्रालोक नामक पुस्तक में ध्वनिवादियों, विशेषकर आचार्य मम्मट की चुटकी लेते हुए लिखते हैं कि जो अलंकार विहीन शब्द और अर्थ को काव्य मानता है, वह यह क्यों नहीं मानता कि आग भी शीतल होती है-

अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलङ्कृती।

असौ न मन्यते कस्मात् अनुष्णमनलङ्कृती।।

क्योंकि आचार्य मम्मट ने काव्य की परिभाषा देते हुए कहा है कि अदोष और गुण सहित, कहीं अलंकार के न होते हुए भी, शब्द और अर्थ काव्य होते हैं। अर्थात् दोषरहित गुण के साथ शब्द और अर्थ काव्य हैं, यदि कहीं अलंकार न हो तो भी। उक्त श्लोक इसी के उत्तर में कहा गया है। वैसे आचार्य मम्मट ने भी अलंकारों की उपस्थिति को आवश्यक रूप से स्वीकार किया है। लेकिन उनका कहना है कि यदि कहीं अलंकार न हो और शब्द तथा अर्थ दोष रहित और गुण के साथ हैं, तो भी काव्यत्व की हानि नहीं होती।

वैसे यह तो आचार्यों का मतभेद है। कुल मिलाकर यथार्थ यह हैं कि चाहे काव्य हो या हमारी दिनचर्या की भाषा हो, हम भाषा का व्यवहार करते समय उसमें उत्कर्ष, चमत्कार और नवीनता लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग करते ही हैं।

आचार्यों ने अलंकारों के सर्वप्रथम तीन भेद किए हैं- शब्दालंकार, अर्थालंकार और उभयालंकार (शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों के गुण से युक्त)। शब्द विशेष की उपस्थित के कारण जिन अलंकारों का अस्तित्व होता है, वे शब्दालंकार कहलाते हैं, अर्थात् शब्द विशेष के स्थान पर दूसरा समानार्थी शब्द रखने पर अलंकार का अस्तित्व समाप्त हो जाए तो समझना चाहिए कि वह शब्दालंकार है। समानार्थी शब्द परिवर्तन के प्रति ये सहिष्णु नहीं होते, जैसे-

कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।

वा खाए बौरात नर, वा पाए बौराय।।

यहाँ यदि कनक के स्थान पर सोना और धतूरा कर दिया जाय, जो कवि का अभीष्ट है, तो यमक अलंकार का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

अर्थालंकार समानार्थी शब्दों के परिवर्तन के प्रति सहिष्णु होते हैं, अर्थात् अर्थालंकारों का अस्तित्व अर्थगत होता है। समानार्थी शब्दों के प्रयोग के बाद भी उनकी स्थिति यथावत बनी रहती है, जैसे-

एकहि संग निवास तें, उपजे एकहि संग।

कालकूट की कालिमा, लगी मनौं बिधु अंग।।

कवि कहना चाहता है कि एक साथ रहने और एक साथ पैदा होने के कारण मानो विष की कालिमा चन्द्रमा को लग गयी।

यहाँ उत्प्रेक्षालंकार है। यदि इस दोहे में कालकूट, चन्द्रमा, संग आदि शब्दों के स्थान पर उनके अन्य समानार्थी शब्द रख दिए जाएँ, तो भी उत्प्रेक्षालंकार के अस्तित्व पर कोई आँच नहीं आएगी।

यह अंक यहीं समाप्त करते हैं। अगले अंक में अलंकारों के भेद सम्बन्धी मत-मतान्तर पर चर्चा की जाएगी।

*****

10 टिप्‍पणियां:

  1. एकहि संग निवास तें, उपजे एकहि संग।

    कालकूट की कालिमा, लगी मनौं बिधु अंग।।

    सुन्दर व्याख्या सदर नमन

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  2. आचार्य जी, अमीन पिछली पोस्ट पर कहा था कि अलंकार एक ऐसा विषय है जिसे मैं शास्त्रीय रूप से समझना चाहता था लेकिन आपका विद्यार्थी बनकर, न कि व्याकरण की पुस्तकों को पढकर.. सफल हुई मेरी प्रतीक्षा. आचार्यगण भले ही आपस में उलजहते रहें, किन्तु मुझे लगता है कि अलंकार वास्तव में साहित्य का गहना है, एक विशेष संख्या/मात्रा में इनका प्रयोग सुंदरता में चार चाँद लगा देते हैं!
    बहुत कुछ सीखने को मिलेगा इस श्रृंखला में!!

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  3. आचार्य परशुराम को सादर नमन !

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    1. डॉ. दिव्या जी को हार्दिक धन्यवाद और सादर नमस्कार। बहुत दिनों बाद आपके दर्शन हुए। आपने अपने प्रोफाइल फोटो बदल दिया है। पर बहुत सुन्दर है भारतमाता का चित्र।

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  4. बहुत ख़ूब!
    आपकी यह सुन्दर प्रविष्टि कल दिनांक 27-08-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-984 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  5. सुन्दर व्याख्या..आचार्य परशुराम जी को नमन !

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  6. अलंकार मेरा प्रिय विषय रहा है। इससे काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है। इस कक्षा विशेष से शायद अपने काव्य के लक्षणों में सुधार ला सकूं।

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  7. अलंकार काव्य की शोभा है जिसे आपने सुन्दरता से समझाया है..

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