गांधी और गांधीवाद
1909
गांधीजी पहली बार 1908 में जेल गए थे। वहां उन्हें चाय या कॉफी नहीं दी जाती
थी। नमक तो भोज्य पदार्थ में होता नहीं था और अगर खाना हो तो अलग से लेना होता था।
मसाले आदि होते नहीं थे, इसलिए कुछ खाया ही नहीं सा
सकता था। उन्होंने जेल के डॉक्टर से ‘करी पाउडर’ मांगा, तो उसने जवाब दिया, “यहां आप लोग स्वाद का आनन्द लूटने के लिए नहीं आए हैं।
आरोग्य की दृष्टि से ‘करी पाउडर’ की कोई आवश्यकता नहीं है। आरोग्य के विचार से नमक
ऊपर से लें या पकाते समय रसोई में डालें, दोनों एक ही बात है।”
इस घटना पर गांधीजी लिखते हैं, “केवल संयम की दृष्टि से देखें, तो दोनों प्रतिबंध अच्छे ही थे। लेकिन ऐसा प्रतिबंध जब जबरदस्ती लगाया जाता है, तो वह सफल नहीं होता। हां, स्वेच्छा से पालन करने पर यह प्रतिबंध बहुत उपयोगी सिद्ध होता है।”
जेल से छूटने के बाद उन्होंने चाय पीनी बंद कर दी।
फिर 1909 में एक ऐसी घटना हुई कि उन्होंने नमक खाना ही छोड़ दिया। यह लगभग दस वर्षों तक क़ायम रहा। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, बा का रक्त-स्राव रुक नहीं रहा था, इसलिए उनका ऑपरेशन कराना पड़ा। ऑपरेशन के बाद हालांकि कस्तूरबाई का रक्त-स्राव कुछ समय के लिए बंद हो गया था, फिर भी बाद में वह ज़ारी हो गया था। इस बार वह तो रुक ही नहीं रहा था। पानी का इलाज भी बेकार साबित हुआ। गांधीजी के इन उपचारों पर बा को बहुत श्रद्धा नहीं थी, लेकिन तिरस्कार भी नहीं था। किसी दूसरे उपचार का उन्होंने आग्रह भी नहीं किया। जब गांधीजी को इन उपचारों से कोई सफलता मिलती नहीं दिखी, तो उन्होंने समझाया कि दाल और नमक छोड़ दें। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने कुछ साहित्य भी पढ़कर सुनाया। पर बा ने बात नहीं मानी। अंत में झुंझलाकर गांधीजी से बा ने कहा, “दाल और नमक छोड़ने के लिए तो आपसे भी कोई कहे तो आप भी न छोड़ेंगे।”
यह जवाब सुनकर जहां एक ओर गांधीजी को दुख हुआ, वहीं दूसरी ओर हर्ष भी हुआ। इसे उन्होंने बा के अपने प्रेम का परिचय देने का तरीक़ा माना। उस हर्ष से उन्होंने तुरंत कहा, “तुम्हारा ख़्याल ग़लत है। मैं यदि बीमार होऊँ और मुझे यदि वैद्य इन चीज़ों को छोड़ने के लिए कहे तो ज़रूर छोड़ दूँ। पर ऐसा क्यों? लो, तुम्हारे लिए मैं आज ही से दाल और नमक एक साल तक छोड़ देता हूँ। तुम छोड़ो या न छोड़ो, मैंने तो छोड़ दिया।”
यह सुनकर बा को बहुत पश्चाताप हुआ। वे बोलीं, “माफ़ कीजिए, आपका मिजाज जानते हुए भी यह बात मेरे मुंह से निकल गई। अब मैं तो दाल और नमक न खाऊँगी। पर आप अपना वचन वापस ले लीजिए। यह तो मुझे भारी सज़ा दे दी।”
गांधीजी ने कहा, “तुम दाल और नमक छोड़ दो तो बहुत ही अच्छा होगा। मुझे विश्वास है कि उससे तुम्हें लाभ ही होगा, परन्तु मैं जो प्रतिज्ञा कर चुका हूँ वह नहीं टूट सकती। मुझे भी उससे लाभ ही होगा। हर किसी निमित्त से मनुष्य यदि संयम का पालन करता है तो इससे उसे लाभ ही होता है। इसलिए तुम इस बात पर ज़ोर न दो; क्योंकि इससे मुझे भी अपनी आजमाइश कर लेने का मौक़ा मिलेगा और तुमने जो इसको छोड़ने का निश्चय किया है, उस पर दृढ़ रहने में भी तुम्हें मदद मिलेगी।”
इसके बाद तो गांधीजी को मनाने की बा को आवश्यकता रह ही नहीं गई थी। बोलीं, “आप तो बड़े हठी हैं, किसी का कहा मानना आपने सीखा ही नहीं!”
उनकी आंखों से आँसू गिर रहे थे।
गांधीजी
के लिए यह भी एक सत्याग्रह ही था। इसके बाद कस्तूरबाई का स्वास्थ्य संभलने लगा। यह
नमक और दाल के त्याग का फल था, या उस त्याग से हुए भोजन
के छोटे-मोटे परिवर्तनों का फल था, या उसके बाद दूसरे नियमों का पालन कराने की गांधीजी की
जागरूकता का फल था, या इस घटना के कारण जो
मानसिक उल्लास उन्हें हुआ उसका फल था, यह तो नहीं कहा जा सकता परन्तु यह बात ज़रूर हुई कि
कस्तूरबाई का सूखा शरीर फिर पनपने लगा। रक्त-स्राव बंद हो गया और ‘वैद्यराज’ के
रूप में गांधीजी की साख कुछ और बढ़ गई।
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मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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