मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

186. लन्दन में क्रांतिकारी नेताओं से मिले

 गांधी और गांधीवाद

186. लन्दन में क्रांतिकारी नेताओं से मिले

क्रन्तिकारी मदनलाल ढींगरा

1909

10 जुलाई, 1909 को जब गांधी लंदन पहुंचे, तब भी अखबारों में आठ दिन पहले सर कर्जन वायली की हत्या की चर्चा चल रही थी। कुछ ही दिनों पहले (1 जुलाई को) एक भारतीय विद्यार्थी ढींगड़ा द्वारा सर कर्ज़न वायली (Sir Curzon Wyllie) को गोली मार दी गई थी। जब गांधीजी लंदन पहुंचे तो लोगों का ध्यान अब भी उसी दुखद हादसे से जुड़ा था। गांधीजी इस तथ्य से अवगत थे कि इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने इंग्लैंड में कई लोगों को पूर्वाग्रहित कर दिया था, जो अन्यथा दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के मुद्दे के प्रति अधिक सहानुभूति रखते। लन्दन के प्रतिष्ठित अखबार द टाइम्स ने सरकार के विचारों को व्यक्त करते हुए कहा कि मदनलाल ढींगरा ने श्री कृष्णवर्मा और अन्य लोगों की शिक्षाओं को विनाशकारी प्रभाव के साथ आत्मसात किया है, जो कमोबेश सीधे तौर पर राजनीतिक हत्या का समर्थन और प्रशंसा करते हैं। श्यामजी कृष्णवर्मा ने इंडियन सोशियोलॉजिस्ट के जुलाई अंक में लिखा था, “राजनीतिक हत्या हत्या नहीं है।  इस हत्या को विशेष रूप से चौंकाने वाला माना जा रहा था क्योंकि यह लेडी वायली की मौजूदगी में हुई थी, जो एक सीढ़ी के शीर्ष पर खड़ी थी जब उसने अपने पति को गोली मारते हुए देखा। वह सीढ़ियों से नीचे भागी और अपने पति के शरीर पर खुद को फेंक दिया। वह उसे होश में लाने की कोशिश कर रही थी। वह तुरंत मर गया था।

वाइली एक ब्रिटिश अधिकारी था जो भारत में काम कर चुका था। उस समय एडीसी (एस-डि-कैंप) की हैसियत से भारत सचिव लॉर्ड मॉर्ले के साथ जुड़ा था। सर कर्ज़न वायली भारतीयों के किसी सामाजिक समारोह में आमंत्रित था जब उसकी हत्या की गई थी। सर कर्ज़न वायली को बचाने का प्रयास करने वाला एक भारतीय पारसी चिकित्सक डॉ. लालकाका भी मारा गया था। ढींगरा को मौके पर ही गिरफ्तार कर लिया गया। ढींगरा को अपने काम का कोई पछतावा नहीं था। 18 सितम्बर 1883 को अमृतसर में जन्मे मदन लाल ढींगरा ने बचपन से ही त्याग-समर्पण और विदेशी सत्ता से जूझने की राह पकड़ ली थी। पुलिस कोर्ट में ढींगरा ने दावा किया कि देशभक्त होने के नाते यह उनका अधिकार है कि वह यह काम करें। अदालत में उन्होंने गर्व के साथ अपने काम को शुद्धतम देशभक्ति और धर्म-सम्मत बताकर उसे उचित ठहराया। ओल्ड बेली में उन्होंने लॉर्ड चीफ जस्टिस को उन पर सजा सुनाने के अधिकार से इनकार कर दिया। ढींगरा ने कटघरे से साहसपूर्वक कहा: "मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने उस दिन देशभक्त भारतीय युवकों की अमानवीय फांसी और निर्वासन के लिए एक विनम्र प्रतिशोध के रूप में अंग्रेजी खून बहाने का प्रयास किया था। इस प्रयास में मैंने अपने विवेक के अलावा किसी से परामर्श नहीं किया है। मैंने अपने कर्तव्य के अलावा किसी और के साथ षड्यंत्र नहीं किया है। मेरा मानना ​​है कि विदेशी संगीनों द्वारा दबाए गए राष्ट्र में निरंतर युद्ध की स्थिति बनी रहती है। मैंने अचानक हमला किया; चूँकि मुझे बंदूकें नहीं दी गईं, इसलिए मैंने अपनी पिस्तौल निकाली और गोली चला दी। एक हिंदू के रूप में मुझे लगा कि मेरे देश के साथ अन्याय भगवान का अपमान है। उसका कारण श्री राम का कारण है, उसकी सेवा श्री कृष्ण की सेवा है। धन और बुद्धि में गरीब, मेरे जैसे बेटे के पास माँ को देने के लिए अपने खून के अलावा कुछ नहीं है, और इसलिए मैंने उसकी वेदी पर वही बलिदान कर दिया है। वर्तमान में भारत में जो सबक चाहिए वह है मरना, और इसे सिखाने का एकमात्र तरीका है खुद मरना। इसलिए, मैं मरता हूँ, और अपने देश पर गर्व करता हूँ। शहादत।" उन्होंने यह कहते हुए अपना भाषण समाप्त किया: "भगवान से मेरी एकमात्र प्रार्थना है कि मैं उसी माँ से पुनर्जन्म लूँ, और उसी पवित्र कार्य के लिए फिर से मरूँ जब तक कि वह कार्य सफल न हो जाए और वह मानवता की भलाई और भगवान की महिमा के लिए स्वतंत्र न हो जाए।" उनके अंतिम शब्द थे "बंदे मातरम"। ढींगरा की निर्भीक पैरवी और अंत में भाव-विह्वल होकर ईश्वर और माता के जाप ने उनके अनेक देशवासियों को गहराई तक हिला दिया था। ढींगरा के भाषण ने गहरी छाप छोड़ी। यहां तक कि उस समय के अवर उपनिवेश सचिव विंस्टन चर्चिल ने भी अदालत में ढींगरा के भाषण को देशभक्ति के नाम पर अभी तक का सबसे सुंदर भाषण’ कहा था।

कुछ लोगों ने ढींगरा के इस साहसिक काम की प्रशंसा करते हुए कहाउन्होंने जान बूझ कर अपने जीवन को ऐसे ध्येय के लिए जोखिम में डाला था जिससे उन्हें निजी तौर पर कुछ मिलने वाला नहीं था। फांसी के दिन 17 अगस्त 1909 को पेंटनविले जेल के सामने भारी भीड़ जमा थी। फांसी के लिए ले जाते समय ढींगरा की मस्ती ने अंग्रेजों को विचलित कर दिया। द टाइम्स में क्रन्तिकारियों से हमदर्दी रखने वाली मिस अजेंस ने लिखा ,”मातृभूमि से इतना गहरा प्यार! वन्देमातरम की गूंज सुनाई देती है!! माँ! भारतमाता!! आपके चरणों में शीश झुकाता हूँ। और उसने फांसी के फंदे को चूम लिया। फंदा पहनते समय भी वह गर्व से अपना माथा ऊंचा किये हुए थे। पूरी ताकत से अपने आखिरी शब्द कहे, वन्देमातरम! लन्दन के अखबार न्यू ऐज ने लिखा,  आने वाले दिनों में भारत उसे अपने नायक के तौर पर पूरी जिम्मेदारी के साथ याद करेगा। 

इस प्रवास के दौरान गांधीजी लंदन में जाने-माने भारतीय क्रांतिकारियों के संपर्क में आए। उन्होंने गांधीजी को अहिंसा छोड़ने के लिए मनाने की कोशिश की। गांधीजी ने मना कर दिया और उन्हें अहिंसा और सत्याग्रह में बदलने की कोशिश की। इन क्रांतिकारियों की बहादुरी ने उन्हें प्रभावित किया, लेकिन उन्हें लगा कि उनका उत्साह गलत दिशा में था। ढींगरा के कृत्य का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा: "जो लोग मानते हैं कि ढींगरा के कृत्य और भारत में इसी तरह के अन्य कृत्यों से भारत को लाभ हुआ है, वे गंभीर गलती कर रहे हैं। ढींगरा एक देशभक्त थे, लेकिन उनका प्यार अंधा था।"

भारत में दमन का ऐसा बोलबाला था कि शरण की खोज, प्रेस क़ानूनों से मुक्त रहकर क्रांतिकारी साहित्य छापने की संभावना और शस्त्रास्त्रों की खोज में भारतीय क्रांतिकारी देश के बाहर जाने लगे थे। गांधीजी पहले से ही भारतीय क्रांतिकारियों के बारे में काफी कुछ जानते थे। 1906 में जब गांधीजी लंदन आए थे, तो उनका संपर्क श्यामजी कृष्णवर्मा से हुआ था। वे पहले भारतीय थे, जिन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि ग्रहण की थी। उदयपुर प्रिन्सली स्टेट के वे मुख्यमंत्री भी रह चुके थे। बाद में वे इंग्लैंड चले आए और वहां पर वे क्रांतिकारियों के आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। वह एक पूर्ण विद्वान और एक पूर्ण क्रांतिकारी दोनों थे। हालांकि वे धनी थे, लेकिन वे एक तपस्वी की तरह रहते थे। उन्होंने विद्वत्तापूर्ण मोनोग्राफ लिखे, प्राच्यविदों के समक्ष व्याख्यान दिए और हर्बर्ट स्पेंसर के सिद्धांतों के प्रति समर्पित थे। पूर्ण-स्वराज के लिए वे हिंसा का सहारा लेते थे। 1905 में उन्होंने अपने ख़र्चे से भारतीय विद्यार्थियों के लिए एक केन्द्र, ‘इंडिया हाउस’ की स्थापना की थी। गांधीजी इंडिया हाउस को अच्छी तरह जानते थे, क्योंकि उन्होंने 1906 में कई मौकों पर इसका दौरा किया था। लगभग तीस भारतीय छात्र वहां श्यामजी कृष्णवर्मा के सौजन्य से रह रहे थे। एक छात्रवृत्ति योजना के तहत भारतीय विद्यार्थियों को विदेश लाने की व्यवस्था भी की गई। उन्होंने बड़ी संख्या में भारत के लिए पूर्ण स्वराज के उद्देश्य से जुड़े, भारतीय छात्रों को सहायता प्रदान की, जिनके दिलों में अपने देश को आज़ाद करने की इच्छा थी। उन्होंने इंडियन होमरूल सोसायटी की भी स्थापना की। मासिक पत्र ‘द इंडियन सोशिओलोजिस्ट’ का प्रकाशन भी करते थे। गांधीजी नियमित रूप से यह पत्रिका पढ़ते थे और इंडियन ओपिनियन के पन्नों में दूसरों को इसे पढ़ने की सलाह देते थे। धनी होने के बावजूद श्यामजी कृष्णवर्मा एक तपस्वी की तरह रहते थे, अपना पैसा छात्रवृत्ति पर खर्च करते थे, अपनी क्रांतिकारी पत्रिका का समर्थन करते थे और आतंकवादियों के लिए हथियार खरीदते थे। उनकी छात्रवृत्ति की एक शर्त यह थी कि छात्र को कम से कम दो साल किसी यूरोपीय विश्वविद्यालय में बिताना चाहिए और वादा करना चाहिए कि भारत लौटने पर वह कभी भी सरकारी नौकरी नहीं करेगा। हालांकि उनके बीच वैचारिक मतभेद था, फिर भी गांधीजी की उनसे लंबी बातचीत भी हुई थी। दोनों व्यक्तियों के दृष्टिकोण में अपने देश के प्रति प्रेम के अलावा कुछ भी समान नहीं था। अपनी लंबी बातचीत में दोनों अपनी बात पर दृढ़ता से अड़े रहे और उनके बीच सहमति का कोई सवाल ही नहीं था।

इस बार (1909 में) जब गांधीजी लंदन पहुंचे तो श्यामजी ने पेरिस में शरण लिया हुआ था। ब्रिटिश ख़ुफ़िया पुलिस उनकी गतिविधियों पर कड़ी नज़र रखे हुए थी। गांधीजी वास्तव में उन्हें पसंद करते थे और उनकी प्रशंसा करते थे, और मदनलाल ढींगरा के प्रति उनकी काफी सहानुभूति थी। इंडियन ओपिनियन के लिए लिखे गए एक लेख में उन्होंने यह विचार व्यक्त किया कि ढींगरा ने एक विचार के अत्यधिक दबाव में काम किया था। उन्होंने लिखा: मेरे विचार से, श्री ढींगरा खुद निर्दोष हैं। हत्या नशे की हालत में की गई थी। केवल शराब या भांग ही किसी को नशे में नहीं डालती; एक पागल विचार भी ऐसा कर सकता है। श्री ढींगरा के साथ भी ऐसा ही हुआ। . . . यह कहा जा सकता है कि श्री ढींगरा ने जो किया, वह सार्वजनिक रूप से और यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि उन्हें खुद मरना होगा, उनकी ओर से किसी भी तरह के साहस का सबूत है। लेकिन जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, नशे की हालत में लोग ये काम कर सकते हैं और मौत के डर को भी दूर कर सकते हैं। इसमें जो भी साहस है वह नशे का नतीजा है, न कि खुद आदमी का गुण। एक आदमी का अपना साहस गहराई से और लंबे समय तक पीड़ा सहने में निहित है। केवल यही एक बहादुरी भरा काम है जो सावधानीपूर्वक चिंतन से पहले किया जाता है।

ढींगरा को गिरफ्तार कर ब्रिक्सटन जेल भेजा गया। उन्हें मृत्यु दंड की सज़ा दी गई। मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदलने के लिए एक आंदोलन चला। वह शहीद की मौत मरना चाहते थे। कटघरे से अपने भाषण में उन्होंने कहा: "भारत के लिए वर्तमान में एकमात्र सबक यह सीखना है कि कैसे मरना है, और इसे सिखाने का एकमात्र तरीका खुद मरना है। इसलिए मैं मरता हूँ, और अपनी शहादत पर गर्व करता हूँ।" उन्हें मौत की सजा सुनाई गई और 17 अगस्त को ब्रिक्सटन जेल में फांसी दे दी गई। गांधीजी को लगा कि ढींगरा का उत्साह गलत दिशा में था। उन्होंने लिखा, "जो लोग मानते हैं कि ढींगरा के कृत्य और भारत में इसी तरह के अन्य कृत्यों से भारत को लाभ हुआ है, वे गंभीर गलती कर रहे हैं।"

इंडिया हाउस और उसकी गतिविधियों की जिम्मेदारी विनायक सावरकर के हाथों में थी। वह एक समर्पित क्रांतिकारी थे और लंदन के उत्तरी उपनगरों में हाईगेट में भारतीय छात्रों के लिए एक निजी छात्रावास का प्रबंधन करते थे। वह उस समय छब्बीस वर्ष के थे, ग्रेज़ इन में छात्र थे, उनके पास अपने आस-पास आदर्शवादी युवाओं को इकट्ठा करने और उन्हें अपनी आज्ञा का पालन करने के लिए असाधारण प्रतिभा थी। हाईगेट में छात्रावास को इंडिया हाउस कहा जाता था, और वहाँ रहने वाले अधिकांश छात्र उनके अधीन थे। सर कर्ज़न वायली की हत्या का संदेह उन पर भी था। कुछ महीनों के बाद उन्हें नासिक के जिलाधीश जैक्सन की हत्या में शामिल होने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया था। उनपर मुकदमा चला और उन्हें आण्डमान की जेल में भेज दिया गया। उन्हें अंडमान द्वीप समूह में आजीवन कारावास की सज़ा हुई।

जब लंदन में रहने वाले युवा क्रातिकारियों से गांधीजी का संपर्क हुआ, तो इसने उनके मन पर सबसे अधिक चुनौती भरा प्रभाव डाला। गांधीजी ने उन्हें अपने दृष्टिकोण से अवगत कराया। क्रांतिकारी नेता गांधीजी की अहिंसावादी नीति की आलोचना करते थे, और यह मानने को कतई तैयार नहीं थे कि बिना हिंसा का सहारा लिए भारत कभी स्वतंत्र हो सकता है। रविवार 24 अक्टूबर 1909 को लंदन में भारतीयों ने इंडिया हाउस में विजयादशमी (दशहरा) मनाया। दशहरा का पर्व दुष्ट राजा रावण पर वीर-देव राम की विजय का उत्सव है। बेज़वाटर स्थित नजीमुद्दीन भारतीय रेस्तरां में एक सदस्यता रात्रिभोज का आयोजन किया गया। उस वर्ष, पहली बार, लंदन में भारतीयों ने इस अवसर को एक भोज के साथ मनाने का फैसला किया गया था, और उन्होंने गांधीजी को इसकी अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने इस शर्त पर स्वीकार किया कि भाषणों में कोई राजनीतिक संकेत नहीं होना चाहिए। वीर सावरकर को भी बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था। लगभग सत्तर अतिथि उपस्थित थे, जिनमें कुछ अंग्रेज मित्र भी थे। राजनीतिक भाषण न देने के वादे के बावजूद, गांधीजी और सावरकर दोनों अपने श्रोताओं तक अपने राजनीतिक विचार पहुँचाने में सफल रहे। राम के महत्व पर गांधीजी ने एक जोशीला भाषण दिया, जिनके प्रति उनकी विशेष श्रद्धा थी। भाषण में उनका जोर उन नैतिक मूल्यों पर था, जिन पर राम, लक्ष्मण और सीता का आचरण आधारित था। वीर विजेता राम को भगवान माना जाता है। उन्हें विष्णु का अवतार माना जाता है। एक बार फिर भारतीयों को राम के बैनर तले दुष्ट राजा रावण को हराने के लिए बुलाया गया है। उन्हें भावी विजेता कहां मिलेंगे? केवल वे ही जो राम के साथियों की तरह ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हों और पूर्ण सदाचार का जीवन जीते हों। गांधीजी ने कहा कि ब्रिटिश राज का विरोध करने के लिए खुद को राम के जैसा बनाना और उनके शांतिपूर्ण साहस और कर्तव्य के प्रति समर्पण, उनकी शिष्टता और शांतचित्त का अनुकरण करना आवश्यक है। उनके आदर्शों को अपनाकर ही भारतीय अपने देश को स्वतंत्र कर सकते थे। यही एकमात्र तरीका था जिससे सत्य की असत्य पर विजय हो सकती थी। बैठक में उपस्थित वी.डी. सावरकर का परिचय देते हुए उन्होंने कहा, "मुझे सावरकर के बगल में बैठने का सम्मान पाकर बहुत गर्व है।" उन्होंने आशा व्यक्त की कि "भारत सावरकर के बलिदान और देशभक्ति का फल प्राप्त करेगा" और कहा "श्री सावरकर, शाम के मुख्य वक्ता, अब अपना वक्तव्य देंगे और मैं आपके और उनके बीच और समय नहीं लेना चाहता।" सावरकर ने गांधीजी के साथ इस विश्वास को साझा किया कि मुसलमानों और हिंदुओं के लिए शांतिपूर्वक एक साथ रहना पूरी तरह से संभव है। उन्होंने घोषणा की, "हिंदू हिंदुस्तान का दिल हैं, फिर भी, जिस तरह इंद्रधनुष की सुंदरता उसके विभिन्न रंगों से खराब नहीं होती बल्कि बढ़ती है, उसी तरह हिंदुस्तान भी मुस्लिम, पारसी, यहूदी और अन्य सभ्यताओं की सभी बेहतरीन चीजों को आत्मसात करके भविष्य के आसमान में और भी खूबसूरत दिखाई देगा।" सावरकर के भाषण का मुख्य बिंदु देवी दुर्गा द्वारा प्रदर्शित शक्ति की प्रधानता थी। सावरकर ने दस भुजाओं वाली देवी दुर्गा पर ध्यान आकर्षित करते हुए अपने श्रोताओं को याद दिलाया कि वे जो उत्सव मना रहे थे उस में यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्सव से पहले के नौ दिन दुर्गा के लिए पवित्र थे। उन दिनों हिंदू उपवास करते थे और दस भुजाओं वाली देवी से प्रार्थना करते थे। उनके अनुसार, राम, अत्याचार और अन्याय के प्रतीक रावण का नाश करने के बाद ही अपना आदर्श राज्य स्थापित कर सके थे।

गांधीजी ने इन क्रान्तिकारी नेताओं से मिलने का महत्वपूर्ण काम किया। उन दिनों विनायक सावरकर, श्यामकृष्ण वर्मा, लाला हरदयाल आदि क्रांतिकारी लंदन में ही थे। उन लोगों के साथ गांधीजी ने खुले दिल से भारत के भविष्य के लिए चर्चा की। स्वराज की लड़ाई चल रही थी, स्वराज की रूपरेखा कैसी होनी चाहिए इस विषय पर गहरी चर्चा हुई। हालांकि क्रांतिकारियों की विचारधारा गांधीजी की विचारधारा से मेल नहीं खाती थी, लेकिन दोनों ही मातृभूमि भारत के भक्त थे। जहां क्रांतिकारियों को स्वराज के लिए हिंसा से कोई परहेज नहीं था, वहीं गांधीजी का मानना था कि हिंसा से कोई सफलता हासिल नहीं हो सकती। उन्हें लगता था कि भारत जैसे विशाल  और प्राचीन संस्कृति वाले देश के लिए अहिंसा ही श्रेष्ठ मार्ग है। लंदन से ‘इंडियन ओपिनियन’ को भेजे गए साप्ताहिक डिस्पैच में उन्होंने लिखा थामैं कहूंगा कि जो लोग मानते हैं या तर्क करते हैं कि ऐसी हत्याओं से भारत का भला होगा वे सचमुच अज्ञानी हैं। धोखाधड़ी (हिंसा) का कोई काम कभी किसी राष्ट्र का लाभ नहीं पहुंचा सकता।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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