मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

164. गांधीजी की पहली जेल यात्रा

 गांधी और गांधीवाद

164. गांधीजी की पहली जेल यात्रा


हरिलाल, उनकी पत्नी और बच्चे (शान्ति, कांति, रसिक और रामी)

1907

हरिलाल का आगमन

शादी के तीन महीने बाद, अपने चचेरे चाचा खुशाल चंद से 10 पौंड उधार लेकर समुद्रयान पर डेक का टिकट कटवाया और भारत में गुलाब बहन को अकेली छोड़कर हरिलाल गांधी दक्षिण अफ़्रीका आ गए। वे जोहान्सबर्ग में गांधीजी के साथ उनके दफ़्तर के काम में जुट गए। बाद में हरिलाल फीनिक्स आश्रम चले गए। वहां के ‘इंडियन ओपिनियन’ अख़बार के दफ़्तर में काम करने लगे। इस तरह उनका जोहान्सबर्ग और फीनिक्स का चक्कर लगता रहता। अकसर वे गुलाब बहन को याद कर बेचैन हो उठते। शादी हाल में ही हुई थी। पत्नी को भारत में छोड़ आए थे। उम्र मात्र अठारह साल की थी। गुलाब बहन के पत्र आते तो उसमें भी उनके मन की अकुलाहट का वर्णन होता। गांधीजी की सहमति से वे भारत गए और गुलाब बहन को लेकर दक्षिण अफ़्रीका आ गए। बहू के साथ कस्तूरबा का भी उस आश्रम के एकांत में मन लगने लगा। उन्हें लग रहा था कि उनके घर उनकी बेटी आई है। हरिलाल के ससुर हरिदास वखतचंद वोरा भी अपने खराब स्वास्थ्य का गांधीजी की देखरेख में कुदरती उपचार के लिए सितंबर 1907 में फीनिक्स आश्रम आ गए।

कारावास का दण्ड

उन्हीं दिनों काले क़ानून (एशियाटिक रजिस्ट्रेशन एक्ट) के ख़िलाफ़ सत्याग्रह तीव्र होता जा रहा था। दक्षिण अफ़्रीका में सत्याग्रह की वास्तविक शुरुआत 11 सितम्बर 1906 को मानी जा सकती है। विधान सभा ने क़ानून पारित किया था कि भारतीय लोग अनिवार्य रूप से अपने नाम दर्ज़ करवायें। इसके विरोध में नाम दर्ज़ न करवाने के स्वरूप में सत्याग्रह का आरंभ हुआ था। इस सत्याग्रह के परिणामस्वरूप गांधीजी ने अपने जीवन में आने वाले अनेक कारावासों के सिलसिले का पहला कारावास का दण्ड पाया। अधिकारियों ने अधिकांश नेताओं को नोटिस जारी किया जिसमें उन्हें अमुक तारीख तक परवाना नहीं बनवाने के लिए ट्रांसवाल से बाहर निकलने की चेतावनी थी। गांधीजी भी इन लोगों में शामिल थे। भारतीयों के पंजीकरण से इंकार करते देख झुंझलाकर जनरल स्मट्स ने गांधीजी और उनके कुछ प्रमुख सहयोगियों को गिरफ़्तार करने का आदेश दे दिया। गांधीजी समेत तीन भारतीयों को गिरफ़्तार कर लिया गया।

कस्तूरबा का प्रण

जब यह ख़बर फीनिक्स आश्रम पहुंची तब आश्रम में गुलाब बहन के श्रीमंत (महिलाओं के पहली बार गर्भवती होने की स्थिति में गर्भ के सातवें महीने की शुरुआत पर) का उत्सव मनाया जा रहा था। इस अवसर पर घर में छगनलाल की पत्नी काशीबेन और मगनलाल की पत्नी सन्तोकबेन भी उपस्थित थीं। मां कस्तूरबा की ख़ुशी का तो ठिकाना ही नहीं था। दादी बनने की कल्पना मात्र से वे आह्लादित थीं और सभी को मेवे-मिठाइयां बांट रही थीं। तभी जोहान्सबर्ग से एक तार आया कि गांधीजी गिरफ़्तार कर लिए गए हैं। कस्तूरबा की ख़ुशी को ग्रहण लग चुका था। उनकी आंखों के सामने डरबन की वो रात आ गई जब उनके (गांधीजी) ऊपर जानलेवा हमला हुआ था। खाने की प्लेट को उन्होंने परे कर दिया। उपस्थित महिलाओं को उन्होंने इस बाबत सूचना दी। उन्होंने प्रण लिया कि जब तक उनके पति जेल से रिहा नहीं होते वे बिना नमक-चीनी के सादा भोजन ग्रहण करेंगी। ठीक वैसा ही जैसा जेल में गांधीजी को दिया जाता होगा। यह उनका व्यक्तिगत सत्याग्रह था।

ट्रांसवाल से देशनिकाला का आदेश

क्रिसमस सप्ताह में, शुक्रवार की सुबह, 27 दिसम्बर 1907 को गांधीजी को श्री एच.डी.एफ.डी.पापेनफस, ट्रांसवाल के कार्यवाहक पुलिस आयुक्त, से एक टेलीफोन संदेश मिला जिसमें उन्हें मार्लबोरो हाउस में आने के लिए कहा गया था। वहां पहुंचने पर, उन्हें बताया गया कि उन्हें और चौबीस अन्य लोगों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया गया है, जिनमें से एक चीनी नेता श्री क्विन भी थे। गांधीजी ने वादा किया कि सभी अगली सुबह दस बजे संबंधित मजिस्ट्रेट के सामने पेश होंगे और आयुक्त ने उनकी बात मान ली।

शुक्रवार की शाम को संघर्ष के नए चरण पर चर्चा करने के लिए भारतीयों की एक खचाखच भरी बैठक व्रेडेडॉर्प में हमीदिया इस्लामिक सोसायटी में हुई। इसमें करीब 1,000 लोग मौजूद थे। ट्रांसवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष ईसोप मियां ने अध्यक्षता की, और बैठक में भाग लेने वालों में गांधीजी और पैरोल पर रिहा उनके साथी कैदी भी शामिल थे। गांधीजी ने कहा कि उन्होंने जो सलाह दी थी, उसके लिए उन्हें कभी खेद नहीं होगा और उन्होंने पंद्रह महीने की लड़ाई के संदर्भ में यह भी कहा कि यह अच्छी तरह से किया गया था। यह एक ऐसा कानून था जिसे कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति स्वीकार नहीं कर सकता था।

वे 28 दिसम्बर 1907 को दस बजे सभी अदालत में हाज़िर हुए। श्री एच.एच. जॉर्डन न्यायाधीश के रूप में बैठे थे उसी अदालत में मुकदमा चलाया गया जहां गांधीजी को सभी एक बैरिस्टर और अटॉर्नी के रूप में जानते थे। अदालत ठसाठस भरी थी। गांधीजी का परिचय 16 साल से रह रहे एशियाटिकके रूप में दिया गया और जिसने मांगे जाने पर अपना पहचान पत्र नहीं दिखायाआरोप लगाया गया।

गांधीजी से पूछा गया कि क्या उनके पास विधिवत जारी पंजीकरण प्रमाण पत्र है और नकारात्मक उत्तर मिलने पर, उन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर आरोप लगाया गया कि वे अधिनियम के तहत जारी पंजीकरण प्रमाण पत्र के बिना ट्रांसवाल में थे। गांधीजी ने अपनी पैरवी ख़ुद करने की पेशकश की। जब अभियोजन पक्ष को कोई सवाल करना शेष नहीं था, तो उन्होंने बॉक्स में जाकर अपना स्पष्टीकरण देने के लिए अदालत से अनुमति मांगी। इस पर जज श्री जॉर्डन (मजिस्ट्रेट) नाराज़ हुआ और बोला, “मैं नहीं समझता कि इसकी कोई ज़रूरत है। तुमने यहां का एक क़ानून तोड़ा है। मैं नहीं चाहता कि अदालत में कोई राजनीतिक भाषण दिया जाए।गांधीजी ने कहा, “मैं कोई राजनीतिक भाषण नहीं देना चाहता।

इस पर जज जॉर्डन कुछ नरम हुआ और बोला,: सवाल यह है कि आपने पंजीकरण कराया है या नहीं? अगर आपने पंजीकरण नहीं कराया है, तो मामला खत्म हो जाएगा। अगर आपके पास मेरे द्वारा दिए जाने वाले आदेश के बारे में कोई स्पष्टीकरण है, तो वह एक अलग कहानी है। यह कानून है, जिसे ट्रांसवाल विधानमंडल ने पारित किया है और शाही सरकार ने मंजूरी दी है। मुझे बस इतना करना है और मैं जो कर सकता हूं, वह यह है कि उस कानून को उसी तरह लागू करूं, जैसा वह है।

 गांधीजी ने कहा, मैं कोई भी सबूत पेश नहीं करना चाहता और मैं जानता हूं कि कानूनी तौर पर मैं कोई सबूत पेश नहीं कर सकता।

जॉर्डन: मुझे सिर्फ़ कानूनी सबूतों से निपटना है। मेरा मानना ​​है कि आप यह कहना चाहते हैं कि आप कानून को स्वीकार नहीं करते और आप पूरी ईमानदारी से इसका विरोध करते हैं।

गांधी: यह बिल्कुल सच है।

जॉर्डन: मैं सबूत ले लूंगा, अगर आप कहते हैं कि आप ईमानदारी से कानून पर आपत्ति करते हैं। तुमने क़ानून तोड़ा है। तुम्हें कोई ढील नहीं दी जा सकती।

इसके बाद गांधीजी ने ज़ुर्म क़बूल किया और मुकदमा सुननेवाले मजिस्ट्रेट से क़ानून के तहत सख़्त से सख़्त सज़ा देने की मांग की। मजिस्ट्रेट ने अपना फैसला सुनाया। इस उपनिवेश के एशियाई लोगों ने क़ानून के साथ खिलवाड़ किया है। इन्होंने सरकार का विरोध भी किया। अदालत किसी से सख़्ती नहीं बरतना चाहती। हम चाहते तो 48 घंटों में मोहनदास गांधी को देश छोड़ने का आदेश दे सकते थे, लेकिन हम उसे ज़्यादा समय दे रहे हैं। ...इस पर गांधीजी ने जज को टोका, “आप जितने कम समय का आदेश निकाल सकते हैं निकालें।नाराज़ मजिस्ट्रेट ने कहा, “अगर ऐसा हैतो मैं तुम्हें निराश नहीं करूंगा। 48 घंटे में देश के बाहर चले जाओ।

गांधीजी ने सभा को संबोधित किया

अदालती कार्यवाही के समापन पर, गांधीजी ने सरकारी चौक के खुले मैदान में भारतीयों, चीनी और यूरोपीय लोगों की एक बड़ी सभा को संबोधित किया: "हम संघर्ष जारी रखेंगे, चाहे मुझे या किसी और को कुछ भी हो। अगर भगवान का संदेश मेरे पास आता है कि मैंने गलती की है, तो मैं सबसे पहले अपनी गलती स्वीकार करूंगा और आपसे माफ़ी मांगूंगा। लेकिन मुझे नहीं लगता कि मुझे वह संदेश कभी मिलेगा। अपना आत्म-सम्मान और सम्मान खोने से बेहतर है कि हम कॉलोनी छोड़ दें। यह एक धार्मिक संघर्ष है और हम अंत तक लड़ेंगे।" 30 दिसंबर को, ग्रिमिस्टन, प्रिटोरिया और कई अन्य स्थानों पर बैठकें आयोजित की गईं और गांधीजी ने सरकार को गिरफ्तारियों के लिए बधाई दी: "मुझे लगता है कि हम अलग होने के कगार पर आ गए हैं। इंग्लैंड को भारत और उपनिवेशों के बीच चयन करना पड़ सकता है। ईश्वर हमारे साथ है और जब तक हमारा उद्देश्य अच्छा है, मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार को क्या शक्तियाँ दी जाती हैं या उन शक्तियों का कितनी क्रूरता से उपयोग किया जाता है।"

गांधीजी की पहली जेल यात्रा

न गांधीजी को उस देश से जाना था, न वे गए। 10 जनवरी 1908 को उसी अदालत में गांधीजी को पेश किया गया। बारिश होने के बावज़ूद अदालत में भीड़ इकट्ठी हो गई थी। भीड़ को देख अदालत परिसर में सुरक्षा के व्यापक इंतज़ाम किए गए थे। घुड़सवार पुलिस का भी सहयोग लिया गया था। अदालत के क्लर्क (मुहर्रिर) ने घोषणा की, “मि. गांधी को अदालत ने आदेश दिया था कि वे 48 घंटे में देश छोड़ दें, लेकिन गांधी ने उस आदेश का पालन नहीं किया।

जज ने गांधीजी को सफ़ाई देने के लिए कहा। गांधीजी ने जज से कहा, “मेरे अन्य देशवासियों को प्रिटोरिया में तीन महीने का सश्रम कारावास दिया गया है। मैं अपना ज़ुर्म क़बूल करता हूं और चूंकि मैं आंदोलनकारियों का नेता हूं, इसलिए मुझे उनसे भी सख़्त सज़ा होनी चाहिए।

अदालत में मौज़ूद भारतीयों का चेहरा हर्ष से खिल उठा, पर जूरी के सदस्यों की भौंहें तन गईं। एक ने कहा, “तुम्हें मालूम होना चाहिए कि यह एक राजनैतिक अपराध है और हम तुम्हारी ये मांग नहीं मान सकते। अगर यह अपराध देश के क़ानून के ख़िलाफ़ न हुआ होता, तो हम तुम्हें कम से कम सज़ा देते। लेकिन वर्तमान हालात में, अपराध को देखते हुए उपयुक्त सज़ा होगी  दो महीने का कारावास (बिना श्रम के)।इस तरह, 10 जनवरी, 1908 को गांधी को कई कारावास की सजाओं में से पहली सजा मिली। यह गांधीजी की पहली जेल यात्रा थी।  इसके बाद के अगले आठ सालों में उन्होंने 249 दिन जेल में बिताए। समय के साथ वह जेल में रहने का आदी हो गए, जबरन एकांतवास का आनंद लेते रहे

जेल में

इस प्रकार उन्हें दो महीने की सादी जेल की सज़ा दी गई। उन्हें पुलिस वैन में जोहान्सबर्ग जेल ले जाया गया। उन्हें जोहानिस्बर्ग के फ़ोर्ट जेल में रखा गया। जब क़ैदी जेल में पहुंचे तो पहले उनका वजन लिया गया, फिर अंगुलियों के छाप। उसके बाद उन्हें सारे कपड़े उतार देने के लिए कहा गया। उनसे मुंह खुलवाया गयाटांगें फैला कर पीछे झुकने को कहा गयाशरीर के हर हिस्से की जांच पड़ताल की गई कि कहीं कुछ, हथियार आदि, छुपाकर तो किसी ने नहीं लाया है। परीक्षण पूरा होने के बाद ही उन्हें जेल का पजामाकमीजटोपीमोज़े और चप्पल दिए गए। उनकी जेल को नाम दिया गया ‘काले ऋणी’। उन्हें राजनैतिक क़ैदी का दर्ज़ा न देकर सामान्य अपराधियों की श्रेणी में रखा गया। यहां भी काले-गोरों का भेद-भाव था। गांधीजी और उनके साथियों को काले क़ैदियों के साथ रखा गया। उसमें तीन इंच के पायों पर लकड़ी की मेज़ थीउनके सोने के लिए। शाम के छह बजे ही सेल का ताला बंद कर दिया जाता था। कोठरी में दुर्गंध फैली रहती थी। कोठरी के दरवाज़े पर कोई छड़ नहीं थी। बहुत ऊंचाई पर दीवार में एक छोटा झरोखा था, हवा आने-जाने के लिए। एक पीली सी मद्धिम रोशनी के जलते बल्ब से अपर्याप्त प्रकाश आता था। लिखने के लिए कोई टेबुल नहीं था। शाम को बत्ती आठ बजे बंद कर दी जाती थी, और जब सोने का समय होता उसे जला दिया जाता था, ताकि क़ैदियों पर नज़र रखी जा सके। हब्शी क़ैदियों के साथ रहते हुए उन्होंने जेल में मैला भी साफ़ किया। लेकिन स्वेच्छा से कष्ट और असुविधा भोगते हुए भी वे धैर्यवान और प्रसन्नचित्त दिखते रहे।

भोजन में सवेरे मकई की लपसी मिलती थी। जो दलिया दिया जाता थाउसमें न चीनी होती थीन दूधन नमक। खाना इतना कम होता था कि किसी का पेट नहीं भरता था। जब जेल के डॉक्टर से कुछ मसाले मांगे गए तो उसने कहायह भारत नहीं है। यहां मसाले क़ैदियों को नहीं दिए जाते। दोपहर को बारह बजे पाव भर भात, थोड़ा नमक और आधी छटांक घी और पाव भर डबल रोटी दी जाती थी। शाम को फिर मकई के आटे की लपसी और साथ में थोड़ी तरकारी, मुख्यतः एक या दो आलू दिया जाता था। शनिवार और रविवार को मिश्रित सब्जियाँ मिलती थीं। जो लोग मांस खाते थे, उन्हें रविवार को सब्जियों के साथ मांस दिया जाता था। बाद में अधीक्षक ने उन्हें अपना खाना खुद पकाने की अनुमति दी। उन्होंने थम्बी नायडू को अपना रसोइया चुना। अगर दिया गया सब्जी का राशन वजन में कम होता, तो वे पूरा वजन लेने पर जोर देते। सब्जी वाले दिन जो सप्ताह में दो होते थे, वे दो बार खाना बनाते थे और अन्य दिनों में केवल एक बार, क्योंकि उन्हें दोपहर के भोजन के लिए अन्य चीजें पकाने की अनुमति थी। अपना खाना खुद पकाने के बाद वे कुछ हद तक बेहतर हो गए। जेल की कुछ पाबंदियाँ गांधीजी को अच्छी लगीं और रिहा होने के बाद भी उन्होंने उनका पालन किया। रिहा होने के बाद उन्होंने चाय पीना बंद कर दिया और सूर्यास्त से पहले अपना आखिरी भोजन समाप्त कर लिया।

जेल में गांधीजी को ज़्यादा समय तक अकेला नहीं छोड़ा गया। जल्द ही उनके साथ 14 जनवरी को मुख्य धरना देने वाले और एक बहादुर सत्याग्रही मॉरीशस द्वीप के एक तमिल थंबी नायडू और चीनी एसोसिएशन के अध्यक्ष श्री क्विन और कुछ अन्य सत्याग्रही भी शामिल हो गए। उन सभी के कपड़े उतार दिए गए और उन्हें जेल के कपड़े पहना दिए गए: एक ढीला मोटा जैकेट जिस पर चौड़े तीर का निशान था, छोटी पतलून - एक पैर गहरा और दूसरा हल्का - जिस पर भी चौड़े तीर का निशान था, मोटे भूरे ऊनी मोज़े, चमड़े की सैंडल और एक छोटी टोपी जो बाद में मशहूर हुई गांधी टोपी से मिलती-जुलती थी। कोठरी, जिसमें तेरह कैदी रह सकते थे, पर स्पष्ट रूप से काले ऋणी के लिए लिखा हुआ था। उन्हें जेल के गंदे कपड़े पहनने के लिए मजबूर किया जाता था। पहले तो वे इस आदेश से घबरा गए कि सभी कैदियों के बाल छोटे-छोटे कटे होने चाहिए और उनकी मूंछें मुंडवा दी जानी चाहिए, लेकिन जल्दी ही उन्हें बाल कटवाने के स्वास्थ्य संबंधी लाभों का एहसास हुआ और जल्द ही वे अन्य कैदियों के बाल और मूंछें काटने में व्यस्त हो गए। इतने सारे भारतीयों को जेल भेजा जा रहा था कि उनके हिसाब से वे शौकिया नाई के रूप में दिन में दो घंटे काम कर रहे थे। केवल श्वेत अपराधियों को ही बिस्तर, टूथब्रश, तौलिया और रूमाल मिलता था, भारतीयों को नहीं।

कुल मिलाकर उन्होंने जेल जीवन का आनंद लिया, क्योंकि वहाँ बहुत कम व्यवधान थे और पढ़ने के लिए उनके पास पर्याप्त अवकाश था। वे सुबह भगवद गीता पढ़ते थे, दोपहर में कुरान पढ़ते थे और शाम को कुछ समय एक चीनी ईसाई को बाइबल पढ़कर सुनाते थे जो अपनी अंग्रेजी सुधारना चाहता था। इसके अलावा उन्होंने थॉमस हेनरी हक्सले के व्याख्यान, बेकन के निबंध, प्लेटो के संवाद और कार्लाइल के कुछ निबंध पढ़े। वे रस्किन के अनटू दिस लास्ट का गुजराती में अनुवाद कर रहे थे और सुकरात पर निबंधों की श्रृंखला की योजना बना रहे थे और शायद लिख भी रहे थे जो बाद में इंडियन ओपिनियन में छपी। इसके अलावा थोरयो की रचना “सिविल डिसओबीडिएन्स” पढ़ी, जिसने गांधीजी पर गहरा प्रभाव डाला। थोरयो ने कहा था कि न्याय रहित अध्यादेशों को न मानने का व्यक्ति को अधिकार है। यदि अन्याय असह्य हो तो व्यक्ति को उसका विरोध करना चाहिए।

सत्याग्रह आंदोलन ने और ज़ोर पकड़ा

सरकार ने सोचा था कि आंदोलन के नेता को गिरफ़्तार कर लेने से लोगों का मनोबल टूट जाएगा और वे घुटने टेक देंगे, लेकिन यह उसकी भूल साबित हुई। सत्याग्रह आंदोलन ने और ज़ोर पकड़ा। गांधीजी की गिरफ़्तारी और जेल ने दूसरों में साहस का संचार किया। अनेक लोग उनके पद-चिह्नों पर चलने लगे। ‘कुली’ जिन्हें कायर और गिड़गिड़ानेवाला कहकर अपमानित किया जाता था, बहादुरी से सत्ता का उल्लंघन कर रहे थे। आंदोलनकारियों की गिरफ़्तारी का चारों ओर विरोध हुआ। भारत और इंग्लैण्ड, दोनों जगह सार्वजनिक विरोध हुए। गांधीजी के जेल जाते ही भारतीयों में जेल जाने की होड़ मच गई। जेल और सज़ा का डर किसी को नहीं रहा। आंदोलनकारियों ने जेल का नाम ही रख दिया थाबादशाह एडवर्ड का होटल। जिस जेल में मुश्किल से पचास क़ैदियों को रखने की जगह थी29 जनवरी तक वहां गिरफ़्तार सत्याग्रहियों की संख्या 155 हो गई। सारे बंदी ज़मीन पर सोते। जो खाना उन्हें दिया जाता उसका स्तर ऐसा था कि कुत्ते भी उसे सूंघ कर छोड़ देते। इन सब कष्टों के बावज़ूद आंदोलनकारियों के उत्साह में कोई कमी नहीं आई।

उपसंहार

कोई भी इस बात पर संदेह नहीं कर सकता कि गांधीजी का व्यक्तित्व ही उनकी सर्वोच्च शक्ति रही है। जेल में उनका जाना उनकी आत्म-बलिदान की सारी शक्तियों को जगाने के लिए पर्याप्त है। वह पुलिस अधिकारियों को भी गिरफ्तार होने के अपने प्रयासों में शर्मिंदा करते थे। यहां तक ​​कि जब वे हफ्तों तक अनुपस्थित रहते थे, तब भी गांधीजी का प्रभाव उनके समर्थकों को अद्भुत शक्ति के साथ प्रभावित करता था। वह क्या करेंगे, या क्या चाहेंगे, या क्या कहेंगे, यह वह धुरी है जिस पर उनमें से कई लोगों का जीवन निर्भर करता था।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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