गांधी और गांधीवाद
198. टॉल्सटॉय फार्म की स्थापना
1910
प्रवेश
लंदन से गांधीजी 1909 के अंत तक शिष्टमंडल का काम कर वापस आ गए। जब गांधीजी केपटाउन में जहाज से उतरे,
तो उन्हें
अच्छी तरह पता था कि लंदन का उनका अभियान निष्फल हो चुका है और उनके पास दक्षिण
अफ्रीकी सत्याग्रहियों को देने के लिए हताशा भरी उम्मीदों के अलावा कुछ नहीं है। लंदन
में अंग्रेज अधिकारियों से गांधी जी की मुलाक़ात का कोई खास नतीज़ा नहीं निकला। वहां का उनका राजनीतिक उद्देश्य
पूरा नहीं हुआ था। ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण अफ़्रीका उपनिवेश की नीति को रोकने में
अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी। 17 नवंबर, 1909 को हाउस ऑफ लॉर्ड्स में एक
प्रश्न का उत्तर देते हुए भारत के सचिव लॉर्ड क्रू ने टिप्पणी की: "भारतीयों
के प्रवक्ताओं ने कुशलता और निष्पक्षता के साथ अपना मामला रखा है। ट्रांसवाल के
मंत्री अधिकांश कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार थे। हालांकि, सैद्धांतिक शिकायत बनी हुई है कि ट्रांसवाल एशियाई
लोगों को बाहर कर रहा था। हम स्वशासित उपनिवेशों की नीति को विफल नहीं कर
सकते।"
परीक्षा की घड़ी
दक्षिण अफ़्रिका वापस आने पर एक
परीक्षा की घड़ी उनके सामने थी। भविष्य निराशाजनक था। सविनय
अवज्ञा की गति धीमी हो चुकी थी। सत्याग्रहियों का मनोबल गिरता जा रहा था। संघर्ष में घर टूट गए और परिवार बर्बाद हो गए।
कभी-कभी पिता और बेटे एक साथ जेल चले जाते थे, जिससे गरीब माताओं और पत्नियों
को फल और सब्ज़ियाँ बेचकर अपना पेट पालना पड़ता था। व्यापारी,
जिन्होंने
कभी शारीरिक श्रम नहीं किया था, वे ट्रांसवाल की जेलों में पत्थर
तोड़ रहे थे या सफाई का काम कर रहे थे, उन्हें बहुत कम खाना मिलता था और
ठंड में वे बहुत कम कपड़े पहनते थे। उन्हें अब लगने लगा था कि धीमे पड़ चुके सत्याग्रह को तेज़ करना होगा। इसके
लिए स्वैच्छिक त्याग करने वाले सत्याग्रहियों को उन्हें एकजुट रखना था। सत्याग्रही
को बलिदान देने योग्य होने के लिए सादगी, शुद्धि, संयम और अनुशासन अपनाने के लिए
संघर्ष करना पड़ता था। इसके साथ ही सत्याग्रही के जेल जाने पर उसके परिवार व
आश्रितों की देखभाल का प्रश्न भी महत्वपूर्ण था। हालांकि एक तरफ़ सत्याग्रह आंदोलन
पूरे उत्साह और जोश से चल रहा था, वहीं दूसरी तरफ़ जेल, देश-निकाला और भारी-भारी ज़ुर्मानों से सत्याग्रह आंदोलन को सरकार द्वारा
कुचलने का भरपूर प्रयास किया जा रहा था।
वित्तीय मामलों की चिंता
गांधीजी वित्तीय मामलों में चिंता-मुक्त नहीं हो पाए। बिना
धन के लंबे समय तक चलने वाले संघर्ष को आगे बढ़ाना वास्तव में कठिन था। सत्याग्रहियों
के परिवारों के भरण-पोषण के लिए इकट्ठा किया गया कोष धीरे-धीरे खाली होता जा रहा
था। उनके पास कोई स्थायी घर नहीं था और आय का कोई स्रोत नहीं था। ऊपर से 1906 के बाद
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी की वकालत भी लगभग बंद ही हो चुकी थी। ‘इन्डियन
ओपिनियन’ को चलाते रहने के लिए मुश्किल
से कुछ धन रह गया था। लेकिन जोश हमेशा तो बना नहीं रह
सकता था। धीरे-धीरे आंदोलन संकट के दौर में पहुंचा। प्रतिबद्ध सत्याग्रही तो जेल
आते-जाते रहे, लेकिन बहुसंख्यक आंदोलनकारी थक गये थे। सरकार का
अड़ियल रवैया बरकरार था, अतः आंदोलन लंबा खिंचनेवाला था।
आंदोलन संकट के दौर में
इधर अफ़्रीका में 1910 तक आते-आते आंदोलन संकट के दौर
में पहुंच चुका था। आंदोलन जब
लंबा खिंचने लगा तो लोगों का उत्साह धीरे-धीरे कम होने लगा। सविनय अवज्ञा की गति काफी धीमी
हो गई थी। भारतीयों
ने कानून तोड़े और सरकार ने दमन-चक्र चलाया। भारतीय जनता पर सरकार के दमन का
असर होने लगा था। एक बार तो
यह हालत हो गई कि केवल प्रमुख सत्याग्रही ही बचे। प्रतिबद्ध सत्याग्रही तो जेल
आते-जाते रहे, लेकिन बहुसंख्यक आंदोलनकारी थक गये थे। चूंकि व्यापारियों को भारी
नुकसान उठाना पड़ रहा था, इसलिए वे आंदोलन से निकल चुके थे। तब तक भारतीय समुदाय ने आंदोलन पर
लगभग 10,000 पाउंड खर्च कर दिए थे। लेकिन खर्च की भी एक सीमा थी।
गांधी जी को हर माह 165 पाउंड की ज़रूरत थी,
जिससे वे
लंदन और जोहान्सबर्ग में ऑफिस चला पाते, ज़रूरतमंद परिवारों की मदद कर पाते,
और ‘इंडियन
ओपिनियन’ को चला पाते। ‘इंडियन ओपिनियन’ को चलाने के
लिए भी पैसों की ज़रूरत थी। लड़ाई लंबे अरसे तक चलानी थी, इसके लिए पैसे की चिंता गांधी जी को तो थी ही। गांधी
जी जनसेवा पर ही लगभग पूरा समय और शक्ति लगा रहे थे। इसलिए वकालत के पेशे के लिए
उनके पास कम समय ही बचा था और रुचि भी काफ़ी कम ही थी। इसलिए पहले की तरह इस पेशे
से हो रही आय को जनसेवा के काम लगा पाने का साधन उनके पास नहीं था।
सर रतनजी जमशेदजी टाटा से सहायता
इस संकट के समय,
केपटाउन में
जहाज से
उतरने के कुछ ही मिनट बाद गांधी को एक अप्रत्याशित टेलीग्राम मिला। यह गोपाल कृष्ण गोखले से आया था और इसमें कहा गया था
कि उद्योगपति और परोपकारी सर रतनजी जमशेदजी टाटा ने ट्रांसवाल में सत्याग्रह आंदोलन के लिए सत्याग्रह कोष में पच्चीस हजार रुपये की राशि
निर्धारित की है। यह उस समय आया था जब इसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी,
क्योंकि
सत्याग्रह अभियान अभी भी जारी था और एक ऐसे स्थान की आवश्यकता थी जहां कैद
सत्याग्रहियों की पत्नियां और बच्चे शरण ले सकें। 3,000 से अधिक भारतीयों की कैद, 200 से अधिक निष्क्रिय प्रतिरोधियों का निर्वासन और
सैकड़ों परिवारों पर अकल्पनीय पीड़ा का भारत में बहुत गहरा असर हुआ। बिना मांगे
मिले यह सहायता राशि उस समय के उनके संघर्ष के लिए इतना रुपया काफ़ी था। इस सहायता से
गांधी जी का काम चल निकला। दूसरे शुभचिंतकों से भी उपहार मिले। फौरी संकट टल गया। गांधीजी ने गोखले को तत्काल एक
विजयी तार भेजा: "श्री टाटा को समय पर उदारतापूर्वक मदद करने के लिए धन्यवाद,
संकट बहुत
बड़ा है, कैदियों की स्थिति कठिन है,
धार्मिक
संकोचों की अनदेखी की जाती है, राशन कम है,
कैदियों को
कूड़े की बाल्टी ले जाना पड़ता है, अतिरिक्त भोजन देने से इनकार कर
दिया जाता है, एकांत कारावास के दिन भोगने पड़ते हैं,
प्रमुख
मुसलमान, हिंदू, पारसी जेल में हैं।" गोखले
ने सत्याग्रह आंदोलन को अपनी क्षमता के अनुसार पूरी सहायता देने का वादा किया था
और वे अपने वचन के अनुसार ही थे। इसके बाद और भी योगदान आए। बीकानेर के महाराजा से
एक हजार रुपए, मैसूर के महाराजा से दो हजार रुपए और हैदराबाद के
निजाम से दो हजार पांच सौ रुपए आए। चूंकि गोखले वाइसरायल काउंसिल के सदस्य थे,
इसलिए उन्हें
इन गणमान्य व्यक्तियों तक आसानी से पहुंच थी और उनसे अनुरोध करना आदेश के बराबर
था। गांधीजी को महाराजाओं से उतनी ही कम सहानुभूति थी जितनी करोड़पति उद्योगपतियों
से, लेकिन उन्होंने उनके उपहारों को कृतज्ञतापूर्वक
स्वीकार किया। दिसंबर 1909 के अंत में लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का
आयोजन हुआ। गोखले ने दक्षिण अफ़्रीकी स्थिति पर एक प्रस्ताव पेश किया। दर्शकों ने
उत्साहपूर्वक प्रतिक्रिया व्यक्त की और नोटों और सोने की वर्षा की। महिलाओं ने
अपनी अंगूठियाँ और चूड़ियाँ उतार दीं और मौके पर ही 18,000 रुपये जमा कर दिए गए। दिल्ली
में आयोजित अखिल भारतीय मुस्लिम लीग ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की शहादत का
जिक्र किया। आगा खान ने निष्क्रिय सहायता कोष के लिए मौके पर ही 3,000 रुपये एकत्र किए।
यह तो सही था कि किसी भी धनराशि से
सत्याग्रह की, आत्मशुद्धि
की, आत्मबल की लड़ाई नहीं चल सकती थी। इस आंदोलन के लिए चारित्र्य की पूंजी ही सबसे बड़ी पूंजी थी। एक तरफ़ तो यह
हाथी और चींटी की लड़ाई थी, वहीं दूसरी तरफ़ कितनी देर चलेगी
कोई कह नहीं सकता था।
सत्याग्रहियों का मरते दम तक जूझने का संकल्प
सर्वशक्तिमान राज्य
सत्याग्रहियों की एक समर्पित टीम के खिलाफ खड़ा था, जो इस विश्वास से उत्साहित थे कि
सत्य और न्याय उनके पक्ष में हैं। एक तरफ़ जनरल बोथा और जनरल स्मट्स
ने एक इंच भी न हटने की प्रतिज्ञा ले रखी थी तो दूसरी तरफ़ सत्याग्रहियों ने भी
मरते दम तक जूझने की क़सम उठा रखी थी। सत्याग्रहियों के लिए समय सीमा कोई मानी
नहीं रख रहा था, एक वर्ष लगे या अनेक वर्ष! उनके लिये लड़ाई ज़ारी रखना
ही प्रमुख बात थी। लड़ाई का मतलब था जेल जाना, देशनिकाला होना, सरकारी दमन का बढ़ना। प्रवासी भारतीयों पर सरकारी दमन का
असर होने लगा। कई व्यापारियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। कई लोग आजीविकाविहीन हो
गये। आजीविका के बिना सत्याग्रही उद्विग्न होते जा रहे थे। भूखों रहकर और अपनों को
भूखों मारकर भी लड़ाई में जुटे रहने वालों की संख्या कम होती गई। कई आंदोलन से अलग
हो गए। जेल जाने वाले सत्याग्रहियों की संख्या कम होती गई।
थोड़े से चुने हुए पक्के लोग ही गिरफ़्तार हो रहे थे। जेल गए सत्याग्रहियों के
परिवार के सदस्य काफ़ी मुसीबत में थे। गांधी जी को अच्छा नहीं लगता था कि जेल जाने
वाले सत्याग्रहियों को अपने परिवार की सुरक्षा के बारे में इस प्रकार से चिंतित
होना पड़े। कौम की ख़ातिर वे नौकरी, धंधा, आमदनी, सबकुछ छोड़कर जेल गए थे। उनके बाल-बच्चे, बूढ़े, मां-बाप आदि बड़ी कठिनाई में थे।
गांधीजी को लगता था कि कौम का फ़र्ज़ है कि वे इन बेसहारा परिवारों की परवरिश
करें।
परिवारों को सहकारी खेत पर बसाने का निश्चय
गांधीजी जनसेवा पर अपना पूरा समय
और शक्ति लगा रहे थे। स्वावलंबन उनकी बुनियादी रणनीति
थी। इसके लिए संगठन को आत्मनिर्भर
बनाना ज़रूरी था। अब तक सत्याग्रह-मंडल ऐसे जेल जाने वाले सत्याग्रहियों के
परिवारों को भरण-पोषण के लिए हर महीने पैसे देता था। लेकिन अब सत्याग्रहियों के परिवारों के
भरण-पोषण के लिए इकट्ठा किया गया कोष धीरे-धीरे खाली होता जा रहा था। सत्याग्रह संघ के फंड खत्म हो
रहे थे और यह अकल्पनीय था कि भारतीय तब तक जेल जाना जारी रखेंगे जब तक कि उनके
परिवारों को भूख से मरने से बचाने के लिए कुछ पैसे उपलब्ध न हों। गांधीजी की वकालत तो लगभग बंद-सी
ही थी। जो कुछ भी उनकी जमा-पूंजी थी, वह भी सत्याग्रह की भेंट चढ़ चुकी
थी। ‘इंडियन ओपिनियन’ को चलाने के लिए भी पैसों की ज़रूरत थी। खर्च को काफ़ी हद तक कम किए बिना
सत्याग्रह की लड़ाई को लंबे समय तक चला पाना लगभग असंभव था। गांधी जी को लगा कि यह
मुश्किल एक ही तरह से हल हो सकती है कि सारे कुटुंबों को एक जगह रखा जाए और सब साथ
रहकर काम करें। इससे सार्वजनिक धन की काफी बचत होगी और सत्याग्रहियों के परिवारों को एक
दूसरे के साथ सद्भाव में एक नया और सरल जीवन जीने के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा।
विभिन्न प्रांतों से संबंधित और विभिन्न धर्मों को मानने वाले भारतीयों को एक साथ
रहने का अवसर मिलेगा। इसलिए गांधी जी ने सत्याग्रही क़ैदियों के परिवारों को किसी सहकारी खेत पर
बसाने का निश्चय किया। लेकिन गांधीजी के सामने सबसे बड़ा प्रश्न था कि
सत्याग्रहियों के परिवार के सौ दो सौ लोगों को कहां रखा जाए। ऐसी जगह कहां मिलेगी? शहर में इतना लंबा-चौड़ा स्थान मिल
भी नहीं सकता था जहां बहुत से परिवार घर बैठे कोई उपयोगी धंधा कर सकें। यह तो
स्पष्ट था कि उन्हें ऐसा स्थान पसंद करना था जो शहर से न बहुत दूर हो और न बहुत नजदीक।
गांधीजी से जुड़े अधिकांश सत्याग्रही ट्रांसवाल में बसे हुए थे। आश्रम
की स्थापना फीनिक्स में हुई थी। इस काम के डरबन के फीनिक्स बस्ती का उपयोग किया जा सकता था, जहां
से ‘इंडियन ओपिनियन’ निकलता था और गांधीजी की पत्नी
और बच्चे रहते थे, लेकिन आंदोलन का केन्द्र जोहान्सबर्ग था और गांधीजी से जुड़े अधिकांश
सत्याग्रही ट्रांसवाल में बसे हुए थे। थोड़ी खेती भी वहां (फीनिक्स) होती थी। और भी कई सुविधाएं वहां थीं। पर यह स्थान
ट्रांसवाल से चार सौ मील दूर था। आन्दोलन का केन्द्र जोहान्सबर्ग था
और फीनिक्स वहां से इतनी दूर था कि रेल द्वारा वहां जाने में पूरे तीस घंटे लगते
थे। इतनी दूर कुटुंबों को लाना बहुत ही टेढ़ा और महंगा काम था। परिवार इतनी दूर जाने के लिए
अपने घर छोड़ने को तैयार नहीं थे, और अगर वे तैयार भी होते तो
उन्हें और सत्याग्रही कैदियों को रिहा होने पर भेजना असंभव लगता था। इसलिए फीनिक्स
का विचार छोड़ देना पड़ा। ट्रांसवाल के लोगों की व्यवस्था
स्थानीय तौर पर ही करना उन्हें श्रेयस्कर लगा। गांधीजी ने निश्चय किया कि एक
आश्रम ट्रांसवाल में भी स्थापित किया जाए जहां सत्याग्रहियों को उनके परिवार के
साथ बसाया जाए। कई सत्याग्रही जेल में थे। उनके बच्चे अनाथ हो गए थे। यदि आश्रम बन
जाता तो इन बेसहारा परिवारों को एक सहारा मिल जाता। इसलिए गांधीजी ने सत्याग्रही
क़ैदियों के परिवार को किसी सहकारी खेत पर बसाने का निर्णय किया।
जर्मन शिल्पकार मित्र हरमन कालेनबाख ने मदद की
नया आश्रम बनाना आसान काम नहीं था। गांधीजी के पास इतना धन नहीं था। ऐसे समय में एक जर्मन शिल्पकार
और ताल्सतायवादी दोस्त कालेनबाख ने मदद की। इस विषय पर
उन्होंने अपने मित्र हरमन कालेनबाख से चर्चा की। उन्होंने मदद का आश्वासन दिया। गांधीजी के जर्मन शिल्पकार मित्र हरमन कालेनबाख ने उनकी इस परियोजना को मूर्त रूप
देने के लिए जोहान्सबर्ग से 21 मील दूर लॉले स्टेशन के पास जंगल में 1100 एकड़ सस्ती जमीन खरीदी और 30 मई 1910 को सत्याग्रहियों को बिना किसी
भाड़े लगान के काम में लाने का अधिकार दे दिया। निकटतम रेलवे स्टेशन,
लॉली,
फार्म से
लगभग एक मील दूर था। यहीं पर आश्रम की रूपरेखा तैयार हुई। गांधी जी ने इस जगह पर रूस के संत की आज्ञा और आशीर्वाद से “टालस्टाय फार्म” (1910-1915) के नाम से एक छोटी-सी बस्ती बसाई।
टॉल्सटॉय फार्म लगभग दो मील लंबा
और तीन-चौथाई मील चौड़ा था। यहां की ज़मीन उबड़-खाबड़ थी।
संतरों, खुबानी और आलू-बुखारों के पेड़ों वाले इस एक हज़ार एकड़ ज़मीन में लगभग एक हज़ार फलवाले पेड़ थे।
सिंचाई की भी यहां अच्छी व्यवस्था थी। पानी के लिए एक झरना और दो कुंए थे। जहां
रहना था उस जगह से वह झरना कोई 500 गज दूर था। इसलिए पानी कांवर पर
भरकर लाने की मेहनत तो थी ही। पहाड़ी की तलहटी में पांच-सात आदमियों के रहने लायक़
एक छोटा-सा मकान भी बना हुआ था। चूंकि कालेनबाख पेशे से एक वास्तुकार थे,
इसलिए वहाँ
शरण लेने वाले भारतीयों के लिए और अधिक घर बनाने में कोई कठिनाई नहीं हुई।
4 जून, 1910 को कुछ सत्याग्रही काम करने और फार्म पर रहने के
लिए आए। ये लोग गुजरात,
तमिलनाडु,
आंध्र और
उत्तर भारत से आये थे। इनमें हिंदू, मुसलमान,
पारसी और
ईसाई लोग शामिल थे। इनमें से लगभग चालीस युवा पुरुष, दो या तीन बूढ़े,
पाँच महिलाएँ
और तीस बच्चे थे, जिनमें पाँच लड़कियाँ थीं। इस तरह गांधीजी ने सत्याग्रहियों के परिवार की
पुनर्वास की समस्या सुलझाई और उनकी रोजी रोटी का इंतजाम किया। बाद में यही फार्म गांधी आश्रम बना। यह जोहान्सबर्ग के इतना करीब था कि एक आदमी एक दिन में वहां से चलकर
वापस आ सकता था, और साथ ही यह आधुनिक सभ्यता से अछूता होने का आभास
देता था। लोग वहां लगभग बिना किसी पैसे के संतुष्ट होकर रह सकते थे,
क्योंकि धरती
उपजाऊ थी, बागों में वे सभी फल उपलब्ध थे जो वे चाहते थे और
फिर भी अधिशेष छोड़ देते थे, और हर आदमी के कौशल का उपयोग
किया जा सकता था।
उपसंहार
फार्म की खूबसूरती इसकी सादगी
में थी। बनावटीपन से जितना संभव हो सके उतना दूर। यहाँ बिताए दिन गांधीजी के लिए
सबसे फलदायक और सुखकर दिन थे। उन्हें कठिनाइयों में सुख मिलता था। अपने ह्रदय की
प्रसन्नता के लिए वह एक किसान और मज़दूर की तरह अपने हाथों से काम करते थे। गांधीजी
के लिए लोगों के एक छोटे से समुदाय पर शासन करने में सक्षम होने का अतिरिक्त आनंद
था जो उनके लिए जो भी योजनाएँ बनाते थे, उनके लिए खुद को निस्वार्थ रूप
से समर्पित करने के लिए तैयार थे।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और
गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ
पर
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