गांधी और गांधीवाद
1907
1906 तक ट्रांसवाल शाही उपनिवेश था। ऐसे उपनिवेश में उपनिवेश सचिव लंदन में रहा करते थे। 1 जनवरी, 1907 से ट्रांसवाल को स्वायत्त शासन मिल गया था। लॉर्ड सेलबॉर्न (Lord Selborne) को ट्रांसवाल का गवर्नर नियुक्त किया गया। 20 फरवरी, 1907 को आम चुनाव की घोषणा कर दी गई। जल्द ही पूरा उपनिवेश एक उग्र चुनाव अभियान की चपेट में आ गया। दो प्रमुख पार्टियाँ, प्रोग्रेसिव (खदान मालिक), जिसका नेतृत्व सर पर्सी फिट्ज़पैट्रिक और सर जॉर्ज फ़रार कर रहे थे और हेट वोल्क (डच), जिसका नेतृत्व लुइस बोथा और जान स्मट्स कर रहे थे, असली दावेदार थे। सर रिचर्ड सोलोमन की अध्यक्षता वाली राष्ट्रवादी पार्टी का गठन उन यूरोपीय लोगों को एक साथ रखने के लिए किया गया था जो मध्यम मार्ग पर चलने के लिए इच्छुक थे। जनरल बोथा, प्रधानमंत्री की दौड़ में सबसे आगे था। उसने अपने चुनावी भाषणों में कहना शुरू किया, “अगले चार सालों में कुली लोगों को दक्षिण अफ़्रीका से निकाल बाहर किया जाएगा।” ट्रांसवाल की ब्रिटिश प्रोग्रेसिव पार्टी ने बोथा के विचारों का समर्थन किया। इसके नेताओं ने कहा, “जिस दिन ट्रांसवाल से एक-एक एशियावासी को निकाल बाहर कर दिया जाएगा, वह दिन अभिनंदन योग्य कहलाएगा।” जनरल स्मट्स तो बोथा का समर्थक था ही, उसने कहा, “दक्षिण अफ़्रीका में एशिया के लोग कैंसर की तरह फैल गए हैं। इस घातक बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा।”
हेट वोल्क पार्टी का लुई बोथा चुनाव जीत गया और प्रधानमंत्री बना। उसने जे.सी. स्मट्स को उपनिवेश मंत्री बनाया। जनरल स्मट्स एशियावासियों के प्रश्न को देखने वाला था, इसलिए यह तो ज़ाहिर था ही कि अब एशियावासियों के ऊपर दुर्भाग्य के बादल मंडराएंगे ही। जैसे ही अंतरिम सरकार ने संवैधानिक सरकार का स्थान लिया, वही अधिनियम, जिसने एशियाई समुदाय को इतना उत्तेजित कर दिया था, संसद द्वारा एक ही बैठक में 21 मार्च, 1907 को पारित कर दिया गया और पुनः राजा के समक्ष प्रस्तुत किया गया। लंदन की ब्रिटिश सरकार ने हस्तक्षेप करने से असमर्थता दिखाई। यह विधेयक इतनी जल्दी में पारित किया गया कि इसके प्रावधानों पर चर्चा नहीं की गई और यहां तक कि औपनिवेशिक सचिव भी उनसे परिचित नहीं थे। एक दिन में तीन बार पढ़ने के बाद मामला समाप्त हो गया और कुछ ही समय में शाही स्वीकृति दे दी गई। प्रवासी भारतीयों की तरफ से ट्रांसवाल की सरकार से अनुरोध किया गया कि क़ानून को लागू न किया जाए, सरकार ने अनुरोध ठुकरा दिया। सरकार की नज़र में ट्रांसवाल में रहने वाले भारतीयों का कोई ख़ास महत्व नहीं था। उनकी संख्या बहुत कम थी, क्योंकि उनकी संख्या सिर्फ़ 13,000 थी, उनमें से ज़्यादातर जोहान्सबर्ग और प्रिटोरिया में व्यापारी और फेरीवाले के तौर पर रहते थे। तब गांधीजी को यह विश्वास हो गया कि गत चौदह वर्षों में वह विरोध प्रकट करने, याचिकाएं देने और प्रार्थना की जिस कार्य-विधि का दृढ़ता से अनुसरण करते रहे थे, वह असफल रही।
“सत्याग्रह-मंडल” की स्थापना
जुलाई, 1907 में "निष्क्रिय
प्रतिरोध आंदोलन" के नाम से जाना जाने वाला आंदोलन व्यावहारिक रूप ले
चुका था। जो ‘इंडियन
ओपिनियन’ बरसों से घाटे में चला आ
रहा था, प्रवासी भारतीयों को
राजनीतिक शिक्षा देने में बड़ा काम आया और सत्याग्रह का मुख्य पत्र बन गया। इस
समाचार पत्र को गांधीजी के सहकर्मी और साथी ही नहीं उनके विरोधी भी पढ़ते थे, क्योंकि इसमें सत्याग्रह की नीति और व्यवहार की बातें
विस्तार से कही जाती थीं, क्योंकि सत्याग्रह की
लड़ाई में गुप्त और गोपनीय कुछ न था। सत्याग्रह षडयंत्र नहीं धर्मयुद्ध था। उस समय
इसकी प्रसार संख्या 3000 थी। जब पंजीकरण का समय आया, तो गांधीजी पूरी तरह तैयार थे। सत्याग्रह वह
हथियार था जिसे भारतीय सरकार के खिलाफ इस्तेमाल करेंगे। गांधीजी के सामने यह
प्रश्न था कि सत्याग्रह का काम किस मंडल के तहत किया जाए? यह निश्चय किया गया कि सत्याग्रह की लड़ाई किसी
वर्तमान संस्था के ज़रिए न चलाई जाए। चुनौती का सामना करने के लिए शांतिपूर्ण प्रतिरोध समिति “पैसिव रेजिस्टेंस एसोसिएशन” या “सत्याग्रह-मंडल” नाम की नई संस्था सत्याग्रहियों ने स्थापित की। बहुत
से लोग इस संस्था के सदस्य हुए और जनता ने पैसे भी खुले हाथों से दिया। इस आंदोलन को अंजाम देने के लिए धरने देने वाले लोग
भरती किए गए थे। उन्हें प्रशिक्षण दिया गया था। घर-घर जाकर लोगों को इस अध्यादेश (कुत्ते के पट्टे)
का अर्थ समझाया गया था। उसी समय,
लगभग एक हज़ार की संख्या में
चीनी निवासी भारतीयों में शामिल हो गए। अधिकांश चीनी ब्रिटिश नागरिक नहीं थे, लेकिन चूँकि वे एशियाई थे और नए कानून में शामिल थे, इसलिए उन्होंने इसके प्रावधानों का दबाव महसूस किया।
एक जुलाई 1907 से नए क़ानून के ज़ारी होने की घोषणा कर दी गई। यह आदेश भी ज़ारी किया गया था कि 31 जुलाई 1907 तक ट्रांसवाल में रहने वाले सभी भारतीय को परमिट ले लेना चाहिए, नहीं तो क़ानून के अनुसार कार्रवाई कर कड़ी सज़ा दी जाएगी। नए अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए एम. चैमनी को एशियाई लोगों का रजिस्ट्रार नियुक्त किया गया था। उनकी योजना का एक हिस्सा था कि पूरे कॉलोनी में एक साथ पंजीकरण करने के बजाय हर जिले में पंजीकरण किया जाए। प्रिटोरिया में 1 जुलाई, 1907 को पहला परमिट कार्यालय खोला गया था। गांधीजी ने चुनौती का स्वागत करते हुए कहा: "हमें ट्रांसवाल सरकार को उनके दृढ़ विश्वास के लिए बधाई देनी चाहिए। अगर हम इस अधिनियम के कारण हम पर पड़ने वाले गुलामी के निशान के प्रति सचेत हैं, तो हम उसका सामना करेंगे और उसके आगे झुकने से इनकार कर देंगे। बहादुर शासक, जो किसी भाषण के बजाय कार्रवाई का मूल्य जानते हैं, केवल बहादुरी और व्यावहारिक कार्रवाई का जवाब दे सकते हैं।"
ट्रांसवाल सरकार भारतीयों के गले में कुत्ते का पट्टा डालने
की तैयारी कर रही थी, जबकि भारतीय इसका विरोध करने के लिए तैयार हो रहे थे। सरकार ने खास-खास शहरों
में परवाना दफ़्तर खोल दिए। पैसिव रेजिस्टेंस संघ के प्रदर्शनकारियों ने भारतीयों
से परवाना दफ़्तर का बहिष्कार करने की अपील की। रजिस्ट्रेशन ऑफिस के सामने
शांतिपूर्ण धरना दिया। हर एक स्वयं सेवकों को एक खास बिल्ला दिया गया था। सभी को
यह समझा दिया गया था कि परवाना लेने वाले किसी भी भारतीय के साथ विनय-विरुद्ध
व्यवहार न किया जाए। उनका नाम पूछें, वह न बताएं तो ज़ोर-जबरदस्ती न करें। उन्हें यह भी समझा
दिया गया था कि यदि कोई परवाना लेने पर अड़ जाए तो उसके साथ तो भूलकर भी बुरा
व्यवहार न किया जाए। क़ानून को मान लेने से होने वाली हानियों की सूची छाप कर रख
ली गई थी। उसे रजिस्ट्रेशन ऑफिस में जाने वाले हर भारतीय को दे दिया जाता था।
पुलिस के साथ शिष्ट व्यवहार करने की हिदायत दे दी गई थी। यह भी कह दिया गया कि यदि
वह गाली दे, या पिटाई करे तो शांति से
सह लें। मार यदि बर्दाश्त से बाहर हो जाए तो शांतिपूर्वक वहां से हट जाएं। पुलिस
यदि पकड़े तो ख़ुशी से गिरफ़्तार हो जाएं। भारतीय लोगों के लिए इस प्रकार का यह
पहला ही अनुभव था।
परवाना-दफ़्तरों पर पिकेटिंग
शहर भर में पोस्टर लगाए गए
जिस पर लिखा था – “सम्राट के प्रति निष्ठा से
भी बड़ी होती है सम्राटों के सम्राट (ईश्वर) के प्रति निष्ठा ! भारतीयों, आज़ाद हो जाओ!” (Loyalty to the King demands loyalty to the King of Kings! Indians BE FREE!) गांधीजी ने सभी परवाना-दफ़्तरों पर बड़ी सावधानी से
पिकेटिंग की योजना बनाई थी। इस काम के लिए स्वयंसेवक के रूप में काफ़ी नौजवानों को
भर्ती किया गया था, जिनमें 12 से 18 बरस की उम्र के नौजवान
काफ़ी संख्या में थे। उन्हें परवाना दफ़्तर के बाहर तैनात कर दिया गया था। वे
परवाना लेने के लिए जाने वाले लोगों को विनम्रता पूर्वक समझा-बुझा कर लौटा देते।
किसी के साथ न कोई ज़ोर-जबरदस्ती की गई न बुरा व्यवहार। इस अभियान का नतीजा हुआ कि
दिन भर कोई अंदर नहीं गया। देर रात में कुछ लोग चोरी छिपे अंदर गए। पूरे प्रिटोरिया में पोस्टर लगे हुए थे: "परमिट
कार्यालय का बहिष्कार करें - जेल जाकर हम प्रतिरोध नहीं करते बल्कि अपने सामान्य
हित और आत्म-सम्मान के लिए कष्ट सहते हैं - राजा के प्रति वफादारी के लिए राजाओं
के राजा के प्रति वफादारी की आवश्यकता होती है - भारतीयों,
स्वतंत्र हो
जाओ!” बहिष्कार पूरा हो गया और 1,500 की आबादी में से केवल 100 लोगों ने ही अपना पंजीकरण
कराया। मुश्किल से पांच प्रतिशत भारतीयों ने पंजीकरण करवाया। एक दक्षिण भारतीय पोस्टमास्टर ने नया परमिट मांगने के बजाय
इस्तीफा देना बेहतर समझा। रजिस्ट्रार के अपने पंजाबी अटेंडेंट ने पंजीकरण के लिए
जाने से साफ इनकार कर दिया। एक अन्य व्यक्ति जो परमिट कार्यालय तक पहुंचने में
कामयाब रहा, उसने अपनी उंगलियों के निशान देने के लिए कहे जाने पर अपना आवेदन फेंक दिया। फिर
भी, कुछ लोग ऐसे भी थे जो पंजीकरण कराने गए लोगों को धमकाते थे और कुछ घिनौनी
घटनाएँ भी हुईं। गांधीजी ने दुख के साथ कहा, "जिन लोगों को धमकाया गया, उन्होंने तुरंत सरकारी संरक्षण की मांग की और उन्हें
संरक्षण मिला। इस तरह समुदाय में ज़हर भर दिया गया और जो लोग पहले से कमज़ोर थे, वे और भी कमज़ोर हो गए।" गांधी जी का मूड खराब था और इस दौरान उनके लेख कभी-कभी
उग्र होते थे। लॉर्ड एल्गिन पर भारतीय प्रतिनिधिमंडल को धोखा देने का आरोप लगाया गया, उन्होंने उनसे कुछ और कहा और सर रिचर्ड सोलोमन से कुछ और।
एक के बाद एक परमिट कार्यालय सभी भारतीय इलाकों में खोले गए
- जर्मिस्टन, पीटर्सबर्ग, क्रुगर्सडॉर्प, वोक्सरस्ट, जोहान्सबर्ग और अन्य जगहों पर। लेकिन परिणाम निराशाजनक थे। भारतीय समुदाय ने
खुले तौर पर प्रत्येक परमिट कार्यालय पर धरना देने का फैसला किया था। स्वयंसेवकों
को सड़कों पर तैनात किया गया था और उन्होंने कमजोर भारतीयों को उनके लिए छिपे हुए
जाल से आगाह किया।
सत्याग्रह संघर्ष बाहरी मदद पर बहुत कम निर्भर करता है और
केवल आंतरिक उपाय ही प्रभावी होते हैं। इसलिए नेताओं का समय मुख्य रूप से समुदाय
के सभी तत्वों को मानक पर बनाए रखने के प्रयासों में लगा। रणनीति सावधानी से तैयार
की गई थी। यह पता चला कि 31 जुलाई के बाद बिना परमिट के पाए जाने वाले किसी भी
भारतीय को अड़तालीस घंटे के भीतर ट्रांसवाल छोड़ने का आदेश दिया जाएगा। गांधीजी ने
इंडियन ओपिनियन के कॉलम में स्पष्ट किया कि सरकार की अवहेलना करना हर भारतीय का
कर्तव्य है। किसी भी कीमत पर निष्कासन आदेश का विरोध किया जाना चाहिए। सरकार विरोध
करने वाले व्यक्ति को शारीरिक रूप से निर्वासित नहीं कर सकती थी;
वह उसे केवल एक महीने की कैद की
सजा दे सकती थी। रणनीति यह थी कि जेलों को भरकर कानून को अप्रभावी बना दिया जाए।
भारतीयों के एकजुट होने के साथ, उम्मीद थी कि सरकार पीछे हट जाएगी। कुल मिलाकर इस पहले
सत्याग्रह आंदोलन के तहत किए जाने वाला बहिष्कार पूरा और असरकारक रहा। स्वयंसेवक हर जगह असीम उत्साह के साथ काम करते थे और अपने
कर्तव्यों के पालन में हमेशा सतर्क और सजग रहते थे। पुलिस द्वारा ज्यादा छेड़छाड़
नहीं की जाती थी। जब कभी ऐसी छेड़छाड़ होती थी, तो स्वयंसेवक चुपचाप उसे सहन कर लेते थे। स्वयंसेवक इतने सतर्क थे कि समाज को
हर क्षण होने वाली घटना की जानकारी मिलती रहती थी। सरकार ने पंजियन की
तिथि भी बढा दी। 30 नवंबर 1907 तक केवल 511 भारतीयों ने पंजीकरण करवाया था। यह साफ बताता है कि
आंदोलन को भारी सफलता मिली। आन्दोलनकारियों के शानदार
साहस, दृढ़ संकल्प और आत्म-संयम
ने सभी की प्रशंसा जीत ली। सब्जी और फल बेचने वाले, 'फेरीवाले', अभियान की भावना में उतने
ही महान आत्म-बलिदान और भक्ति के साथ शामिल हुए हैं, जितना कि धनी लोग। वे खुशी-खुशी जेल जाने को तैयार थे। कुछ
लोगों को बार-बार कष्ट सहने के लिए तैयार थे। जनरल स्मट्स ने आन्दोलनकारियों को 'ईमानदार विरोधी' (“conscientious objectors") कहा था। जनरल बोथा और स्मट्स ने निश्चय किया कि अधिक सख़्त कार्रवाई
का वक़्त आ गया है। 21 सितंबर, 1907 को 4,522 लोगों के हस्ताक्षरों वाली एक याचिका औपनिवेशिक सचिव को
भेजी गई, जिसमें अधिनियम को पूरी तरह से निरस्त करने की मांग की गई।
एच.एस.एल.
पोलाक का आन्दोलन में योगदान
इस आन्दोलन के निरंतर तनाव के दौरान गांधीजी का दाहिना हाथ
उनके प्रतिभाशाली अंग्रेज साथी श्री एच.एस.एल.
पोलाक रहे, जो गांधीजी की तरह ही ट्रांसवाल के सर्वोच्च न्यायालय के वकील थे। कई हफ़्तों
तक, जब नेता जेल में रहे, संघर्ष का भार पोलाक पर पड़ा, जिन्होंने इसे अडिग साहस के साथ सहन किया।
समुदाय ने उन्हें ट्रांसवाल
ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के सहायक सचिव के रूप में चुना। सभी पेचीदगियों और कानूनी
बिंदुओं को अच्छी तरह से जानते हुए, उन्होंने परेशान निष्क्रिय प्रतिरोधियों को अमूल्य सहायता
प्रदान की है। अदालत में वे उनके वकील रहे, कार्यालय में उनके सलाहकार, हमेशा उनके मित्र, साथ ही साथ उन्होंने पूरे दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश
भारतीयों के सामान्य हितों के लिए, कलम और भाषण द्वारा, अद्भुत दृढ़ता के साथ खुद को समर्पित किया। 9 मई 1907 को
श्री पोलाक ने घोषणा की कि क्लार्क्सडॉर्प, क्रुगर्सडॉर्प, जर्मिस्टन और हेडेलबर्ग के भारतीय समुदायों ने संकल्प लिया
है कि वे नए कानून को स्वीकार करने के बजाय जेल जाएंगे।
पंजीकरण का
अंतिम दिन
31 जुलाई 1907 को, पंजीकरण के अंतिम दिन, ट्रांसवाल की राजधानी प्रिटोरिया के मस्जिद के मैदान में एक सामूहिक बैठक आयोजित की गई थी। इस सभा के सभापति ब्रिटिश
इंडियन एसोसिएशन के कार्यकारी अध्यक्ष युसुफ़ इस्माइल मियां थे। दो हज़ार प्रतिरोधियों ने ज़मीन पर बैठकर एक छोटे से मंच
पर बैठे वक्ताओं को सुना। जनरल बोथा ने मि. हॉस्किन, जो एक खदान के मालिक थे, और भारतीयों से सहानुभूति रखते थे, को प्रदर्शनकारियों से मिलने भेजा। विलियम होस्केन ने गांधीजी और सरकार के बीच कई बार मध्यस्थ
की भूमिका निभाई थी। होस्केन को पता था कि सरकार कानून लागू करने के लिए पूरी तरह
से दृढ़ थी, और उन्होंने उनसे अनावश्यक पीड़ा से बचने की विनती की। उन्होंने लोगों को समझाने
की गरज से कहा कि वे जनरल बोथा के कहने से वहां आए हैं। उनके मन में
प्रदर्शनकारियों के प्रति आदर है। वे उनकी भावनाएं समझते हैं। लेकिन वे असहाय हैं।
ट्रांसवाल के यूरोपियन एक मत से इस बिल की मांग कर रहे थे। इस बिल के ख़िलाफ़
भारतीय जितना विरोध कर सकते थे, कर चुके। संख्या के हिसाब से वे बहुत कम हैं। वे कमजोर हैं और उनके
पास कोई हथियार नहीं है। अब उन्हें सरकार की बात मान लेनी चाहिए। सरकार की
असीम ताक़त है। उन्होंने
कहा, "कानून का विरोध करना दीवार से अपना सिर टकराने जैसा
होगा।" गांधीजी ने होस्केन
से पूछा भारतीयों को वोट देने की अनुमति नहीं थी, देश में उनकी कोई आवाज नहीं थी, उनकी याचिकाएँ रद्दी की टोकरी में फेंक दी गईं, संसद में उनके लिए कोई नहीं बोला, यहाँ तक कि होस्केन ने भी सहानुभूति का एक शब्द नहीं कहा। अगर ईश्वर की इच्छा
है कि ट्रांसवाल में हर एक भारतीय अपमानजनक कानून का पालन करने के बजाय भिखारी बन
जाए,
तो ऐसा ही हो! अगर लंदन में ऐसा
कानून पारित हो जाए जिसमें सभी को टोपी पहनने का आदेश दिया जाए तो वह क्या सोचेंगे? बेशक, सभी
लंदनवासी कानून के प्रति अपनी अवमानना दिखाने के लिए टोपी के बिना घूमेंगे। यहाँ
ट्रांसवाल में यह टोपी पहनने का सवाल नहीं था - यह गुलामी का बिल्ला पहनने का सवाल
था! गांधीजी ने दर्शकों को अपनी ओर से सावधान रहने के लिए कहा: "अगर हम
कानून को स्वीकार करते हैं तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि यह कानून अंतिम
होगा। ऐसे कानून के स्वाभाविक परिणाम होंगे स्थानों में अलगाव और अंततः देश से
निष्कासन।"
अहमद
मुहम्मद काछलिया
भीड़ में से एक लड़का उठ खड़ा हुआ। उसका नाम अहमद मुहम्मद काछलिया था। दक्षिण अफ़्रीका के सत्याग्रह के वास्तविक नायक के रूप में अहमद मुहम्मद काछलिया का नाम सबसे पहले आता है। वे सूरत के रहने वाले मेमन थे। ट्रांसवाल में उन्होंने एक हॉकर के रूप में अपने व्यवसायी जीवन की शुरुआत की थी। कुछ ही दिनों में उनका नाम ट्रांसवाल के प्रमुख व्यापारियों में गिना जाने लगा था। हालांकि उनकी औपचारिक शिक्षा-दीक्षा नहीं हुई थी, फिर भी उनका अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान बहुत अच्छा था। वह बहुत पढ़ा-लिखा नहीं था, लेकिन उसका दिमाग बहुत तेज़ था। साहस और दृढ़ता में दक्षिण अफ्रीका में या भारत में, शायद ही कोई था जो कछलिया से आगे निकल सके। उन्होंने समुदाय के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। वे हमेशा अपने वचन के पक्के थे। वे एक कट्टर रूढ़िवादी मुसलमान थे, जो सूरती मेमन मस्जिद के ट्रस्टियों में से एक थे। लेकिन साथ ही वे हिंदुओं और मुसलमानों को समान दृष्टि से देखते थे। उन्होंने पहले रुक-रुक कर बोलना शुरू किया, लेकिन कुछ ही समय बाद वह इतना जोश से भर गया कि उसकी झिझक और घबराहट दूर हो गई। वह बेहिचक बोलते गए, “हमें पता है कि ट्रांसवाल सरकार कितनी ताकतवर है। वो हमें जेल में डाल देगी, हमारी जायदाद ज़ब्त कर लेगी, हमें भारत वापस भेज देगी, या हमें फांसी पर लटका देगी।” गुस्से से उनका चेहरा लाल हो गया। वह बोलते गए, “मैं ईश्वर की क़सम खाता हूं कि मुझे फांसी पर भी लटका दिया गया तो भी मैं इस क़ानून को नहीं मानूंगा। मुझे पूरा भरोसा है कि यहां पर मौज़ूद हर आदमी यही करेगा।” इतना बोलकर वह बैठ गए। उनकी बातें लोगों को बेहद पसंद आई। आने वालों दिनों में काछलिया बिल का विरोध करने वालों का प्रमुख प्रवक्ता बन गए। जोहान्सबर्ग के गोरों को काछलिया सेठ का व्यवहार नागवार गुज़रा और उन्होंने उनपर तरह-तरह की व्यावसायिक पाबंदियां लगानी शुरू कर दी जिस कारण से काछलिया सेठ की दिवालिया वाली स्थिति हो गई। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और सत्याग्रह आंदोलन से जुड़े रहे। दुर्भाग्य से अल्पायु में ही उनकी मृत्यु 1918 में हो गई।
कानून के
पालन की समय सीमा बढ़ा दी गई
जनरल स्मट्स ने कहा कि "यदि भारतीयों के प्रतिरोध
के कारण अप्रिय परिणाम सामने आते हैं, तो इसके लिए वे स्वयं और उनके नेता ही दोषी होंगे। पंजीकरण
की तिथि समाप्त होने के बाद भी पंजीकरण न कराने वाले किसी भी भारतीय को सीमा पार
भेज दिया जाएगा। पंजीकरण होने तक कोई भी व्यापार लाइसेंस जारी नहीं किया जाएगा और
इसका परिणाम यह होगा कि सभी भारतीय दुकानें बंद हो जाएंगी। सरकार ने इस देश को
गोरों का देश बनाने का मन बना लिया है और इस दिशा में हमारे सामने चाहे कितना भी
कठिन कार्य क्यों न हो, हमने अपना
पैर जमा लिया है और हम इसे वहीं रखेंगे।" कोई भी धमकी भारतीयों और चीनियों को खुद को पंजीकृत करने
के लिए प्रेरित नहीं कर सकी। सरकार भारतीयों को कानून का पालन करवाने के लिए दृढ़
थी, लेकिन वह तब तक इंतजार करने के लिए तैयार थी जब तक कि कड़वाहट शांत न हो जाए।
समय सीमा एक महीने के लिए बढ़ा दी गई, फिर एक और महीने के लिए। अंत में यह तय हुआ कि 30 नवंबर
पंजीकरण के लिए आखिरी दिन होगा। उस दिन पता चला कि केवल 511 लोगों ने पंजीकरण
कराया था, और इस बात की बहुत कम संभावना थी कि कोई और पंजीकरण कराएगा। इसलिए सरकार को
कार्रवाई करने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि कोई भी सरकार तब तक सत्ता में नहीं रह सकती जब तक
उसके कानूनों का उल्लंघन न हो।
रामसुंदर
पंडित सत्याग्रह के इतिहास का पहला सत्याग्रही क़ैदी
जर्मिस्टन नगर में
रामसुंदर नाम का एक आदमी था। वह सुंदर, जोशीला, विद्वान, और एक शानदार वक्ता था। वह मंदिर में पुजारी था। वह तीस साल का था, उसने दक्षिण अफ्रीका में शादी की थी और उसके दो बच्चे थे। वह बहादुर था। सत्याग्रह आंदोलन
से जुड़कर उसने जगह-जगह भाषण दिए और काफ़ी जोश से काम किया। वहां के कुछ
विघ्नसंतोषी भारतीयों ने एशियाटिक दफ़्तर को सुझाया कि रामसुंदर पंडित यदि
गिरफ़्तार कर लिया जाए तो बहुत से भारतीय परवाना ले लेंगे। पंजीकरण की अंतिम तिथि से तीन सप्ताह पहले 8 नवंबर को,
जोहान्सबर्ग के उपनगर जर्मिस्टन
में रामसुंदर
पंडित को गिरफ़्तार कर लिया गया। इस प्रकार वह सत्याग्रह के इतिहास में पहला
सत्याग्रही क़ैदी बना। उस पर अपने
अस्थायी परमिट की समाप्ति के बाद अवैध रूप से ट्रांसवाल में प्रवेश करने और रहने
का आरोप लगाया गया था, लेकिन उसकी गिरफ्तारी का असली कारण मुकदमे के दौरान स्पष्ट हो गया - वह
जर्मिस्टन में भारतीय पिकेट का कप्तान था और उसने भारतीयों से कानून का उल्लंघन
करने का आह्वान करते हुए कई भाषण और उपदेश दिए थे। उसकी गिरफ़्तारी से काफ़ी
हलचल मची। रातों-रात वह सारे दक्षिण अफ़्रीका में प्रसिद्ध हो गया। उस पर मुकदमा
चला। अदालत में भी राम सुंदर को एक साधारण कैदी के रूप में नहीं,
बल्कि अपने समुदाय के प्रतिनिधि
के रूप में उचित सम्मान दिया गया। गांधीजी ने अदालत में उनका बचाव किया। गांधीजी के अनुसार, राम सुंदर पंडित ने एक स्वर्गीय कानून का पालन करते हुए
सांसारिक कानून की अवहेलना की थी; एक पुजारी के रूप में वह इससे कम कुछ नहीं कर सकता था। मजिस्ट्रेट ने उसे एक महीने की कैद की सजा सुनाई। उसे जोहान्सबर्ग जेल के यूरोपियन वार्ड में अलग कमरे
में रखा गया। जब गांधीजी
उनसे उनकी कोठरी में साक्षात्कार करने आए, तो उन्होंने कहा कि उनका एकमात्र दुख यह है कि उन्हें कठोर
श्रम की सजा नहीं दी गई।
दिसंबर में, जब उन्हें जेल से रिहा किया गया, तो राम सुंदर पंडित को सभी भारतीय समुदायों में जुलूस के रूप में ले जाया गया और फूलों की माला पहनाई गई। स्वयंसेवकों ने उनके सम्मान में
एक भोज का आयोजन किया और सैकड़ों भारतीयों ने राम सुंदर के भाग्य पर ईर्ष्या की और
उन्हें इस बात का अफसोस था कि उन्हें कारावास की सजा नहीं भुगतनी पड़ी। वह उस समय
के नायक थे। जब राम सुंदर पंडित अपने मंदिर में लौटे, तो उन्होंने इसे उजाड़ अवस्था में पाया। मंदिर के एकमात्र
मालिक और एकमात्र पुजारी के रूप में, उन्होंने सरकार को विरोध का एक लंबा नोट, जिसमें उन्होंने उनसे उनके मामले पर पुनर्विचार करने और उन्हें अपने धार्मिक
कार्यों को बिना किसी बाधा के करने की अनुमति देने का आग्रह किया। सरकार ने
निष्कासन आदेश जारी किया: उन्हें सात दिनों के भीतर ट्रांसवाल छोड़ना होगा या अधिक
कारावास का सामना करना होगा। गांधीजी क्रोधित थे, क्योंकि वे एक नायक से वंचित हो गए थे। भारतीय प्रतिरोध का प्रतीक रहे व्यक्ति
ने अचानक धर्मत्याग कर दिया। आखिरकार सरकार के दबाव के आगे वह झुक गया। राम सुंदर
पंडित को सजा दी गई। वह जेल जीवन से घबरा गया और माफ़ी मांग कर जेल से छूट गया
और फिर अफ़्रीका छोड़कर चला गया।
उपसंहार
अपने आदेश का अनादर सरकार
सह नहीं सकी। गोरों की तरफ़ से भी कार्रवाई हुई। ज़ुर्माने लगाए गए। व्यापार के
लाइसेंस ज़ब्त कर लिए गए। कई लोगों को देशनिकाला का आदेश दिया गया। फिर भी गांधीजी
के नेतृत्व में भारतीय पंजीकरण का विरोध करते रहे। इस अहिंसात्मक युद्ध से न सिर्फ़ दक्षिण अफ़्रीका बल्कि
भारत के लोग भी चकित रह गए। भारतवासियों को यह जानकर काफ़ी हर्ष और गौरव का अनुभव
हुआ कि दक्षिण अफ़्रीका में प्रवासी भारतीय हज़ारों की संख्या में हंसते-हंसते जेल जा रहे हैं। सारे भारत में राजनैतिक चेतना जाग
उठी। भारत से प्रचुर मात्रा में आर्थिक सहयोग दक्षिण अफ़्रीका पहुंचने लगा। यह
संघर्ष तब तक बंद नहीं हुआ जब तक कि गांधीजी और दक्षिण अफ़्रीका की सरकार में समझौता नहीं हो गया।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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