गांधी और गांधीवाद
1909
संवैधानिक मोर्चे पर लड़ने
के लिए शिष्टमंडल के प्रतिनिधि के रूप में गांधीजी और सेठ हाजी हबीब 10 जुलाई 1909 को लंदन पहुंचे। लंदन
पहुंचते ही बिना समय गंवाए गांधीजी अपने काम में जुट गए। उन्होंने वेस्टमिन्सटर
पैलेस होटल में रूम लिया और रहने लगे। उनके सूइट में एक प्राइवेट सिटिंग रूम था, जिसमे वे आगन्तुकों से मिलते। जब वे 1906 में इंग्लैंड आए थे, तब के कई लोग जिन्होंने उनकी मदद की थी, या तो वहां नहीं थे, या यह निर्णय ले रखा था कि इस मसले में ख़ुद को शामिल नहीं
करेंगे। दादा भाई नौरोजी भी भारत चले गए थे। प्रतिनिधिमंडल ने सबसे
पहले सर
मनचुरजी भावनगरी से मुलाकात की, उसके बाद ट्रांसवाल के लेफ़्टिनेन्ट गवर्नर, सर रिचर्ड सोलोमन जो उन दिनों वहीं थे, से मिले। उन्होंने शांतिपूर्वक सारी बातें सुनी और
बोले कि जनरल स्मट्स से वे बात करेंगे।
वहां पर उन्होंने भारत से प्रेम रखने वालों को दक्षिण अफ़्रीका की हक़ीक़त से परिचय कराया। गांधीजी ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए दिन-रात एक कर दिया था। रात के दो बजे तक वे अकेले काम करते। समाज के ग़रीबों की गाढ़ी कमाई के पैसों से यह डेलिगेशन इंग्लैंड गया था। धन का दुरुपयोग न हो इसकी उन्हें काफ़ी चिंता रहती थी। किफ़ायत और कष्ट झेल कर भी वे निरंतर काम करते रहते थे।
लॉर्ड एम्पथिल ने मध्यस्थ
की भूमिक निभाई और लॉड कर्ज़न, जनरल स्मट्स, लॉर्ड सेलबॉर्न, मोर्ले, क्रू आदि के बीच दक्षिण
अफ़्रीका के प्रवासी भारतीयों की समस्या के प्रति उनके मन में सहानुभूति जगाने का
प्रयास किया। लेकिन जो वातावरण लंदन में उन दिनों था, उसने लॉर्ड एम्पथिल के प्रयासों पर ग्रहण लगाया और यह आरोप मढ़
दिए गए कि दक्षिण अफ़्रीका के सत्याग्रह आंदोलन को भारत के कट्टरवादी तत्वों
द्वारा संचालित किया जा रहा है। लॉर्ड एम्पथिल ने गांधीजी से इस आरोप पर
स्पष्टीकरण मांगा, तो गांधीजी ने कहा, कि उनके द्वारा चलाए जा रहे सत्याग्रह आंदोलन का किसी
भी तरह से भारत के उग्रवादी आंदोलन से संबंध नहीं है।
बहुत सी
चर्चाएँ हुईं और प्रतिनिधिमंडल ने बहुत से लोगों से बातचीत की। शायद ही कोई
पत्रकार या सदन का कोई सदस्य था जिससे मिलना संभव था लेकिन जिससे वे न मिले हों। भारत
से सेवानिवृत्त हो चुके आर्थर ओलिवर रसेल ने विदेश मंत्रालय और औपनिवेशिक मंत्रालय
में बैठे शक्तिशाली लोगों के साथ गांधीजी के मध्यस्थ के रूप में काम किया। वह
गांधीजी की मदद करने के लिए बहुत दूर तक जाने के लिए तैयार थे। लंदन में गांधी के
दाहिने हाथ, दक्षिण अफ्रीका ब्रिटिश भारतीय समिति (एसएबीआईसी) के
सचिव लुइस रिच ने बहुत जोश और कुशलता से काम किया। इस समिति के अध्यक्ष लॉर्ड
एम्पथिल गांधी के मुख्य सलाहकार थे। जोसेफ डोक की गांधीजी की जीवनी की
प्रस्तावना लॉर्ड एम्पथिल ने ही लिखी है। जिसमें उन्होंने लिखा है, “श्री गांधी, को इस देश में, यहां तक कि जिम्मेदार व्यक्तियों द्वारा भी, एक साधारण आंदोलनकारी के
रूप में निंदा की गई है; उनके कृत्यों को कानून की केवल अशिष्ट अवहेलना के रूप में गलत तरीके से
प्रस्तुत किया गया है; यहाँ तक कि इस बात के भी संकेत मिले हैं कि उनके इरादे स्वार्थ और आर्थिक लाभ
के हैं। इन पन्नों को पढ़ने से किसी भी ईमानदार व्यक्ति के मन से ऐसी धारणाएँ दूर
हो जाएंगी, जो गुमराह होकर इनसे प्रभावित हो गया हो। और व्यक्ति के बारे में बेहतर
जानकारी होने पर मामले की बेहतर जानकारी भी मिल जाएगी।”
15
जुलाई को लॉर्ड एम्पथिल के साथ बैठक में इस बात पर चर्चा की गई कि प्रतिनिधिमंडल
को आगे कैसे बढ़ना चाहिए। लॉर्ड एम्पथिल ने गांधीजी को सावधानी बरतने की सलाह दी थी, कोई भी घोषणा न करें, कोई भी अखबारी लेख न लिखें, कोई भी सार्वजनिक चर्चा न
करें। इसके बजाय, उन्होंने सुझाव दिया कि जनरल बोथा और जनरल स्मट्स के साथ एक निजी समझौता होना
चाहिए।
गांधीजी हर चीज़ को
सकारात्मक लेते थे और दृष्टि ऊंची रखते थे। इस बार उन्होंने मद्रास के भूतपूर्व
गवर्नर और 1904 में भारत के कार्यवाहक
वाइसराय लॉर्ड एम्पथिल का क्रियात्मक सहयोग प्राप्त कर लिया। हाउस ऑफ लॉर्ड्स के
सदस्य लॉर्ड एम्पथिल से मिलकर उन्होंने सारी बातें कही। लॉर्ड मॉर्ले ने बहुत देर किए बिना प्रतिनिधिमंडल को निजी साक्षात्कार देने की
अनुमति दे दी। नियत समय पर उनसे मिलने शिष्टमंडल पहुंचा। लॉर्ड एम्पथिल की
सलाह मान कर, हाजी हबीब और गांधीजी ने भारत के राज्य सचिव जॉन मोरले से मुलाकात की,
जो पूरी
तरह से निजी बैठक थी। लॉर्ड एम्पथिल ने तर्क दिया कि पूरी गोपनीयता में आयोजित की
गई ऐसी बैठकें कूटनीति के लिए अधिक गुंजाइश देती हैं,
लेकिन
गांधीजी की नज़र में उनमें एक बड़ी खामी थी, उनसे कभी कोई ठोस नतीजा नहीं निकलता था। उन्होंने जॉन
मोरले के साथ आधा घंटा बिताया। उन्होंने काफी सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हुए कहा
कि वे इस मामले में औपनिवेशिक कार्यालय को पत्र लिखेंगे। उन्होंने जनरल स्मट्स के
साथ इस प्रश्न पर चर्चा करने का भी वचन दिया।
लॉर्ड
क्रू के साथ साक्षात्कार में दो सप्ताह और लग गए। जब गांधी और हाजी हबीब उनसे
मिले, तो उन्होंने उनका स्वागत किया। जाहिर है कि वे हर
संभव मदद देने के लिए तैयार थे। इस बीच, लॉर्ड एम्पथिल एक ईमानदार
मध्यस्थ की भूमिका निभाने में व्यस्त थे। लॉर्ड कर्जन के समर्थन से,
उन्होंने
जनरल स्मट्स, लॉर्ड्स सेलबोर्न, मॉर्ले और क्रू तथा अन्य
लोगों से संपर्क स्थापित किया, जो उन पर कुछ प्रभाव डाल
सकते थे। उस समय प्रचलित सामान्य वातावरण में, महत्वपूर्ण व्यक्तियों
द्वारा यह संदेह व्यक्त करना स्वाभाविक था कि ट्रांसवाल में निष्क्रिय प्रतिरोध
आंदोलन को संभवतः भारत में कुछ कट्टरपंथी तत्वों द्वारा भड़काया और वित्तपोषित
किया जा रहा था। जब लॉर्ड एम्पथिल ने इन आरोपों के बारे में स्पष्टीकरण मांगा, तो गांधी ने उन्हें जोरदार आश्वासन दिया कि उनके नेतृत्व
वाले संघर्ष का भारत में किसी भी चरमपंथी आंदोलन से कोई संबंध नहीं है।
जनरल
स्मट्स लंदन में थे, और लॉर्ड एम्पथिल ने बताया कि उन्होंने जनरल से
मुलाकात की थी, जिन्हें समस्या पर विचार करने के लिए और समय चाहिए। लॉर्ड
एम्पथिल जनरल का संदेश लेकर आए, उन्होंने कहा: 'जनरल बोथा इस मामले में
आपकी भावनाओं की सराहना करते हैं और आपकी छोटी-मोटी मांगों को पूरा करने के लिए
तैयार हैं। लेकिन वे एशियाई अधिनियम को निरस्त करने या अप्रवासी प्रतिबंध अधिनियम
में संशोधन करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे देश के कानून में स्थापित रंग भेद को
हटाने से भी इनकार करते हैं। नस्लीय भेद को बनाए रखना जनरल के लिए सिद्धांत का मामला
है और भले ही उन्हें इसे खत्म करने का मन हो, लेकिन दक्षिण अफ्रीकी
यूरोपीय कभी उनकी बात नहीं सुनेंगे। जनरल स्मट्स भी जनरल बोथा की तरह ही सोचते हैं
और यह उनका अंतिम निर्णय और अंतिम प्रस्ताव है। अगर आप इससे ज़्यादा मांगेंगे तो
आप अपने और अपने लोगों के लिए मुसीबतें ही बुलाएंगे। इसलिए आप जो भी करें,
बोअर
नेताओं के इस रवैये पर विचार करने के बाद ही करें।
संदेश
देने के बाद लॉर्ड एम्पथिल ने कहा, 'आप देख रहे हैं कि जनरल
बोथा आपकी सभी व्यावहारिक माँगों को स्वीकार करते हैं,
और इस
कामकाजी दुनिया में हमें हमेशा देना और लेना चाहिए। हम वह सब कुछ नहीं पा सकते जो
हम चाहते हैं। इसलिए मैं आपको दृढ़ता से सलाह देता हूँ कि आप इस प्रस्ताव को
समाप्त करें। यदि आप सिद्धांत के लिए लड़ना चाहते हैं,
तो आप
बाद में ऐसा कर सकते हैं। आप और शेठ इस पर विचार करें,
और मुझे
अपनी सुविधानुसार अपना उत्तर दें।'
यह
सुनकर गांधीजी ने शेठ हाजी हबीब की ओर देखा, जिन्होंने कहा,
'उनसे
मेरी ओर से कहिए कि मैं सुलह करने वाले पक्ष की ओर से जनरल बोथा की पेशकश स्वीकार
करता हूँ। अगर वे ये स्वीकारोक्ति कर दें, तो हम फिलहाल संतुष्ट हो
जाएँगे और बाद में सिद्धांतों के लिए संघर्ष करेंगे। मैं नहीं चाहता कि समुदाय को
और अधिक कष्ट सहना पड़े। मैं जिस पार्टी का प्रतिनिधित्व करता हूँ,
वह
समुदाय का बहुमत है और समुदाय की संपत्ति का बड़ा हिस्सा भी उसी के पास है।'
गांधीजी
ने कहा: 'आपने जो कष्ट उठाया है, उसके लिए हम दोनों आपके
बहुत आभारी हैं। मेरे सहयोगी का कहना सही है कि वह संख्या और आर्थिक दृष्टि से एक
मजबूत वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिन भारतीयों की मैं बात कर रहा हूँ,
वे
तुलनात्मक रूप से गरीब और संख्या में हीन हैं, लेकिन वे मरते दम तक दृढ़
हैं। वे न केवल व्यावहारिक राहत के लिए लड़ रहे हैं, बल्कि सिद्धांत के लिए भी
लड़ रहे हैं। यदि उन्हें दोनों में से किसी एक को छोड़ना पड़े,
तो वे
पहले वाले को त्याग देंगे और दूसरे वाले के लिए लड़ेंगे। हमें जनरल बोथा की ताकत
का अंदाजा है, लेकिन हम अपनी प्रतिज्ञा को और भी अधिक महत्व देते
हैं, और इसलिए हम इसका पालन करने के लिए सबसे बुरे से बुरे
का सामना करने के लिए तैयार हैं। हम इस विश्वास के साथ धैर्य रखेंगे कि यदि हम
अपने गंभीर संकल्प पर कायम रहेंगे, तो जिस ईश्वर के नाम पर
हमने यह संकल्प लिया है, वह इसे पूरा करेगा।
'मैं आपकी स्थिति को पूरी
तरह समझ सकता हूँ। आपने हमारे लिए बहुत कुछ किया है। यदि आप मुट्ठी भर
सत्याग्रहियों को अपना समर्थन देना बंद कर देते हैं, तो हम बुरा नहीं मानेंगे। न ही हम आपके द्वारा हमें दिए गए
ऋण को भूलेंगे। लेकिन हमें विश्वास है कि आप हमें आपकी सलाह स्वीकार न करने के लिए
क्षमा करेंगे। आप जनरल बोथा को अवश्य बताएँ कि शेठ और मैंने उनके प्रस्ताव को कैसे
स्वीकार किया है और उन्हें सूचित करें कि यद्यपि सत्याग्रही अल्पमत में हैं, फिर भी वे अपनी प्रतिज्ञा का पालन करेंगे और आशा करते
हैं कि अंत में वे अपने आत्म-पीड़ा से उनका दिल पिघलाएँगे और उन्हें एशियाई
अधिनियम को निरस्त करने के लिए प्रेरित करेंगे।'
लॉर्ड
एम्पथिल ने उत्तर दिया: 'आपको यह नहीं सोचना चाहिए कि मैं आपको छोड़ दूंगा।
मुझे भी सज्जन की भूमिका निभानी होगी। अंग्रेज लोग अपने द्वारा किए गए किसी भी
कार्य को तुरंत त्यागने के लिए तैयार रहते हैं। आपका संघर्ष एक न्यायपूर्ण संघर्ष
है, और आप स्वच्छ हथियारों से लड़ रहे हैं। मैं आपको कैसे
छोड़ सकता हूँ? लेकिन आप मेरी नाजुक स्थिति को समझ सकते हैं। यदि कोई
कष्ट है, तो उसे आपको ही सहना होगा,
और
इसलिए यह मेरा कर्तव्य है कि मैं आपको परिस्थितियों में किसी भी संभव समझौते को
स्वीकार करने की सलाह दूँ। लेकिन यदि आप, जिन्हें कष्ट सहना है,
सिद्धांत
के लिए किसी भी मात्रा में कष्ट सहने के लिए तैयार हैं,
तो मुझे
न केवल आपके रास्ते में आना चाहिए, बल्कि आपको बधाई भी देनी
चाहिए। इसलिए मैं आपकी समिति का अध्यक्ष बना रहूँगा और अपनी पूरी क्षमता से आपकी
मदद करूँगा। लेकिन आपको याद रखना चाहिए कि मैं हाउस ऑफ लॉर्ड्स का एक कनिष्ठ सदस्य
हूँ, और मेरा बहुत अधिक प्रभाव नहीं है। हालाँकि,
आप
निश्चिंत रहें कि मेरे पास जो थोड़ा बहुत प्रभाव है, वह आपकी ओर से निरंतर
उपयोग किया जाएगा।'
ठोस
मुद्दों पर पहुंचने का हर प्रयास विफल रहा, और गांधी को यह महसूस हुआ
कि वे एक बेकार की खोज में आ गए हैं। दो महीने बीत गए, और लंदन में उनकी निरंतर
उपस्थिति के बारे में कुछ भी नहीं दिखा। निराशा और अपमान में गांधीजी ने लिखा,
यह
जानते हुए कि अंततः सब कुछ जनरल स्मट्स की इच्छा पर निर्भर करता है और निजी
कूटनीति शायद ही कभी फायदेमंद होती है।
ब्रिटिश
दवाब के बावज़ूद स्मट्स ज़्यादा कुछ करने को राज़ी नहीं हुआ। हालांकि एक वातावरण
तो तैयार तो हुआ ही था। लंदन में कई लोगों ने भारतीय विरोधी क़ानून की निंदा भी की
थी। कुछ इसे नैतिक आधार पर ग़लत ठहरा रहे थे। कुछ इसे न्याय की भावना के विपरीत
बता रहे थे। कुछ का यह भी मानना था कि इससे भारत में ब्रिटिश नागरिकों को अपने
पक्ष में करने में गांधीजी सफल रहे। बड़े बेमन से, आपत्तिजनक एशियाई क़ानून को रद्द करने और चुने हुए भारतीयों
को ही ट्रांसवाल में आकर बसने देने पर स्मट्स सहमत हुआ। लेकिन उसने यह शर्त भी लगा
दी कि इन चुनिंदा लोगों की संख्या सीमित होगी। सभी शिक्षित, अंग्रेज़ी बोलने वाले किसी न किसी तरह के व्यावसायिक
लोग होंगे। लेकिन किसी प्रकार की वैधानिक या सैद्धान्तिक समानता जैसी छूट देने के
लिए तो वह बिल्कुल भी तैयार नहीं था। यानी जैसा कि गांधीजी ने कहा था, “हीनता का बिल्ला” ज़ारी ही रहना था। 3
नवंबर को औपनिवेशिक कार्यालय ने गांधी को एक पत्र भेजा जिसमें यह स्पष्ट किया गया
कि स्मट्स द्वारा किए गए प्रस्ताव ही ट्रांसवाल में ब्रिटिश भारतीय विवाद के संबंध
में कानून बनाने का एकमात्र संभावित आधार होंगे। गांधीजी मानसिक रूप से इस तरह के
उत्तर को प्राप्त करने के लिए तैयार थे, लेकिन लॉर्ड एम्पथिल के लिए यह एक बड़ा झटका था।
गांधीजी लन्दन में क़रीब
चार महीने रुके। लंदन में वह दिन-रात काम करते। भारतीयों को न्याय दिलाने के लिए
राजनीतिज्ञों और प्रेस से मिलते। लेकिन नतीज़ा कुछ नहीं निकला। ब्रिटिश अफ़सरशाहों
पर प्रवासी भारतवासियों के प्रतिनिधिमंडल का विशेष प्रभाव न पड़ा। सरकार अपने
अनिश्चय पर टिकी रही। वह औचित्य के नाम पर न्याय से मुकरती रही। लोकतंत्र के नाम
पर समानता का निषेध करती रही। अँगरेज़ सरकार अपने ही द्वारा शासित डोमिनियन के
मामले में भला क्या हस्तक्षेप करती? गोरे अपनी ‘सभ्यता’ की रक्षा के लिए एकजुट हो
चुके थे। साम्राज्य के ‘अछूतों’ की उसे फ़िक्र कहां थी। बोअर के शत्रुओं से सुलह
हो चुका था। गांधीजी के लिए यह सबक था। उन्होंने माना, “विशिष्ट समझे जाने वाले इन लोगों से मैं जितना मिलता हूं, उतना ही स्पष्ट होता जाता है कि इस तरह मिलने-जुलने
से कुछ होना जाना नहीं। जिनके हाथ में शक्ति सत्ता है, वह शुद्ध न्याय को देख न नहीं पाते। उन्हें तो अपनी
शक्ति और सत्ता को बनाए रखने और बढ़ाने की ही धुन लगी रहती है।”
किसी भारतीय समस्या को
लेकर लंदन में बातचीत के लिए यह अवसर बहुत खराब था। गांधीजी का लंदन आगमन उस समय
हुआ जब ब्रिटिश सरकार भारत की समस्याओं को लेकर बहुत चिंतित थी। भारतीय
राष्ट्रवादियों की एक नई पीढ़ी उभरी थी, स्वराज या स्वशासन की
मांगें अधिक बार सुनी जा रही थीं और इन मांगों को लागू करने के लिए क्रांतिकारियों
के सुव्यवस्थित समूह काम कर रहे थे। लंदन में रहने वाले युवा भारतीय छात्रों में क्रान्तिकारी
भी थे।
राजनीतिक
उद्देश्य तो पूरा नहीं हुआ, फिर भी गांधीजी को इस लंदन प्रवास के दौरान कुछ
बौद्धिक और नैतिक उत्साह प्राप्त हुआ। मताधिकार के लिए लड़ रही ब्रिटिश नारियों का
बहादुराना संघर्ष देखा। इंग्लैंड की इस यात्रा के दौरान गांधी ने समानता और मताधिकार
अभियान के नेताओं से मुलाकात की। उन्होंने उनके सभी कार्यों में गहरी दिलचस्पी ली
और यह लड़ाई देखकर गांधीजी ब्रिटिश बहनों के न सिर्फ़ प्रशंसक बन गए बल्कि
शांतिपूर्ण निष्क्रिय प्रतिरोध के मूल्य और तरीकों के बारे में बहुत कुछ सीखा।
विशेष रूप से, वह श्रीमती पैंखर्स्ट और श्रीमती डेस्पर्ड के बारे
में बहुत सोचते थे।
अपने इस खास मिशन से गांधीजी
को न तो कोई खास आशा थी, न ही उन्होंने कोई उम्मीद
बांध रखी थी। फिर भी उन्हें अभी भी अंग्रेजों
की न्याय भावना पर भरोसा था। उन्हें यह आशा थी कि सम्राज्ञी सरकार को दक्षिण
अफ़्रीका की भारतीय प्रजा के साथ न्याय देने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। ‘लेकिन
राजनीतिक साधुता और दूर दृष्टि के लिए सुख्यात होने के बावज़ूद अंग्रेज़ इतने नीच
निकले कि उन्होंने साम्राज्य के इस सच्चे मित्र और समर्थक को पक्का शत्रु बना लिया
जिसने साम्राज्य को सुधारने में असफल रहकर उसे समाप्त ही कर दिया।’ गांधीजी ने
स्पष्ट रूप से स्वीकार किया: "जितना अधिक मैं उन्हें देखता हूँ,
उतना ही
मैं महान माने जाने वाले लोगों को बुलाने से थक जाता हूँ। यह सब एक कृतघ्न और
निरर्थक कार्य है। ऐसा लगता है कि हर कोई अपने विचारों में उलझा हुआ है। सत्ता में
बैठे लोगों में न्याय की भावना बहुत कम है। वे अपनी स्थिति को बनाए रखने और उसे
बढ़ाने की परवाह करते हैं। यदि यह न्याय का प्रश्न होता,
तो यह
बहुत पहले ही तय हो चुका होता। इस तरह से मेहनत करना,
एक या
दो लोगों से मिलने की कोशिश में एक पूरा कीमती दिन बर्बाद करना,
इन सब
पर पैसा खर्च करना, सत्याग्रही के स्वभाव के विरुद्ध है। जेल जाना और
कष्ट सहना कहीं बेहतर है। यदि हमारी मांग मान ली जाती है,
तो यह प्रतिनिधिमंडल
के अत्याचारों के परिणामस्वरूप नहीं बल्कि जेल गए लोगों द्वारा सहन की गई
कठिनाइयों के कारण अधिक होगा; और यदि हम असफल होते हैं,
तो इसका
कारण स्पष्ट रूप से यह होगा कि हमने पर्याप्त कष्ट नहीं सहे हैं।"
पहली बार इस लंदन दौरे के
दर्मियान वे ख़ुद को भारत की स्वाधीनता की समस्या से जोड़ना शुरू किया। इंग्लैंड
में वे विभिन्न राजनैतिक विचारों वाले नेताओं – राष्ट्रवादी, होमरूलवादी, क्रांतिकारियों और हिसा का समर्थन करने वाले, सभी नेताओं से मिले। जहां एक ओर इनसे विचार-विमर्श का
दौर चल रहा था, वहीं दूसरी ओर उनके ख़ुद
के विचार और दर्शन भी रूप ग्रहण कर रहे थे। 9 अक्तूबर 1909 को उन्होंने वेस्ट मिन्स्टर पैलेस होटल से लॉर्ड एम्पथिल
के नाम पत्र भेजा था जिसमें पहली बार उनके वे विचार व्यक्त हुए जो बाद में उनके
सिद्धांत के तंतु बने। इस पत्र में यह संकेत था कि
अपने-आपको भारत को आज़ाद करानेवाला निमित्त या नेता समझने का कोई दावा करने से
बहुत दिन पहले गांधीजी जानते थे कि उनका लक्ष्य केवल यह नहीं था कि ब्रिटिश शासन
के स्थान पर भारतीय शासन हो जाए। उनकी दिलचस्पी सरकारों में नहीं बल्कि साधनों और
साध्यों में थी, इसमें नहीं थी कि अधिकार
की गद्दी पर कोई विलियम बैठता है या चंद्र, बल्कि इसमें थी कि किसके-किसके क्रिया-कलाप अधिक
सभ्यतापूर्ण हैं।
उन्हीं
दिनों हेनरी पोलाक की पत्नी मिली ग्राहम पोलाक भी अपने परिवार से मिलने लंदन गई
थी। गांधीजी उसे आत्मीयता से बहन कहते थे। मिली वेस्टक्लिफ़ में रहती थी। होटल में
वह गांधीजी से अकर मिली। उसके आग्रह पर लंदन में गांधीजी को मिली का आतिथ्य
स्वीकार करना पड़ा। उन्हीं दिनों मताधिकार के लिए लड़ रही ब्रिटिश नारियों के
बहादुराना संघर्ष को गांधीजी ने देखा था। उन्होंने श्रीमती पोलाक से कहा था, “मैं देख रहा हूं कि स्त्रियां दुनिया के मामलों में
अधिकाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रही हैं। वे किसी भी आंदोलन की एक भारी
पूंजी होंगीं, ... मैंने शक्ति के
अस्त्र के रूप में शांतिपूर्ण प्रतिरोध करना किसी और की अपेक्षा भारतीय
स्त्रियों से अधिक सीखा है। बा तक ने मुझे सिखाया है कि अगर वे किसी काम को पूरी
तरह और दृढ़ता से करने से इनकार कर दें तो मैं उन्हें वह काम करने के लिए मज़बूर
नहीं कर सकता। वे सिर्फ़ मेरा शांतिपूर्ण प्रतिरोध करती हैं और मैं असहाय हो जाता
हूं।” मिली ने गांधीजी की जीवन
शैली के कुछ रोचक हिस्सों को अपने संस्मरण में लिखा है। गांधीजी चाय पीकर आनंद
अनुभव करते थे। मक्खन लगे टोस्ट भी खा लेते थे। भद्र अंग्रेज़ परंपरागत ड्रेस में
रहते थे। रेशमी हैट, कोट, जूते और मोजे धारण करते थे।
गांधीजी
से हेनरी की बहन मॉड भी आकर मिली। गांधीजी उसे पुत्री की तरह मानते थे। बाद में
मॉड दक्षिण अफ़्रीका आ गई और गांधीजी की प्राइवेट सेक्रेटरी के तौर पर काम शुरु कर
दिया। गांधीजी ने उसे दक्षिण अफ़्रीका ब्रिटिश भारतीय समिति की अवैतनिक सहायक
मंत्री बना दिया। क़रीब चार साल वह वहां रही। लेकिन मॉड धूर्त निकली। उसका भेद भी
खुल गया।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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