159. श्यामजी कृष्णवर्मा
श्यामजी
कृष्णवर्मा क्रान्तिकारी गतिविधियों के माध्यम से भारत को आजादी दिलाना चाहते थे। वह कई
अन्य क्रान्तिकारियों के प्रेरणास्रोत थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा आर्य समाज के
संस्थापक महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती और आर्य समाज से काफी प्रभावित थे। वे
महर्षि दयानंद द्वारा स्थापित परोपकारिणी सभा के भी सदस्य थे। वीर क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर भी वर्माजी से प्रेरित
होकर क्रांतिकारी कार्यों में सम्मिलित हुए।
श्यामजी कृष्ण
वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर 1857 को गुजरात प्रान्त के माण्डवी कस्बे में हुआ था। उनके पिता
का नाम श्रीकृष्ण वर्मा था।[1883 ई. में उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से बी.ए. किया। मात्र बीस वर्ष की
आयु से ही वे क्रान्तिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे। वह लोकमान्य बाल
गंगाधर तिलक
से प्रेरित थे। 1890 में उन्होंने लोकमान्य तिलक के साथ ‘आयु विधेयक की सहमति’ का विरोध किया था। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने
क्रांतिकारियों को संगठित किया, अंग्रेजी राज्य को हटाने के लिए विदेशों में भारतीय युवाओं को प्रेरित किया।
1897 में उन्होंने चापेकर भाइयों का समर्थन किया, जिन्होंने पुणे में ब्रिटिश प्लेग कमिश्नर डब्ल्यू सी. रैंड की हत्या की थी। लेकिन उसके बाद ब्रिटिश सरकार
के अत्याचारों से त्रस्त होकर 1897 में भारत से इंग्लैण्ड चले गये। श्यामजी
कृष्ण वर्मा ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपनी इस लड़ाई को ब्रिटिश धरती पर ले
जाने का फैसला किया और लंदन को अपना ठिकाना बनाया।
जब एक
प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के तौर पर गांधीजी 20 अक्टूबर, 1906 में लन्दन पहुंचे तो दूसरे
ही दिन रविवार, 21 अक्टूबर, 1906 की सुबह गांधीजी ने श्यामजी कृष्णवर्मा से मुलाकात की, जो प्रसिद्ध क्रांतिकारी, विद्वान और इंडिया हाउस तथा भारतीय होम
रूल सोसायटी के संस्थापक थे, और उनसे लंबी बातचीत की। श्यामजी
कृष्णवर्मा (1857-1930) ऑक्सफोर्ड में भारतीय भाषाओं के बैरिस्टर और पूर्व रीडर थे। वे ऑक्सफोर्ड से
एम.ए. की डिग्री प्राप्त करने वाले पहले भारतीय थे। पुणे में दिये गये उनके संस्कृत के भाषण से प्रभावित
होकर मोनियर विलियम्स ने वर्माजी को
ऑक्सफोर्ड में संस्कृत का सहायक प्रोफेसर बना
दिया था। उन्होंने ऑक्सफोर्ड के बैलिओल कॉलेज में संस्कृत, मराठी और गुजराती पढ़ाया। बाद में, उन्होंने कुछ समय के लिए राजस्थान
के उदयपुर राज्य में दीवान के रूप में कार्य किया। वे परोपकारी कार्य करने और
भारतीय राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के लिए इंग्लैंड वापस चले गए। 1904 में, उन्होंने ऑक्सफोर्ड में हर्बर्ट स्पेंसर लेक्चररशिप स्थापित करने के लिए £1000, जो उन दिनों बहुत बड़ी राशि थी, दिए। उन्होंने इंग्लैंड में अध्ययन
करने के लिए युवा भारतीयों को छात्रवृत्ति भी दी, इस शर्त पर कि उनमें
से कोई भी ब्रिटिश सरकार के अधीन कोई पद स्वीकार नहीं करेगा। उन्होंने 1905 में इंग्लैण्ड से मासिक
समाचार-पत्र "द इण्डियन सोशियोलोजिस्ट" निकाला, जिसे आगे चलकर जिनेवा से भी प्रकाशित किया
गया। अपने इस मासिक पत्र के जरिए उन्होंने युवाओं में आजादी के विचार को भरा था, भारत को विश्व गुरु बनाने के सपनों को प्रसारित किया था। श्यामजी कृष्णवर्मा द्वारा
प्रकाशित मासिक पत्रिका इंडियन सोशियोलॉजिस्ट ने अपने पहले पन्ने पर हर्बर्ट
स्पेंसर का एक उद्धरण छापा,
जिसमें कहा गया था, "आक्रामकता का प्रतिरोध
न केवल उचित है, बल्कि अनिवार्य भी है। गैर-प्रतिरोध परोपकारिता और अहंकार दोनों को नुकसान
पहुँचाता है।" भारतीयों के लिए भारतीयों के
द्वारा भारतीयों की सरकार स्थापित करने के उद्देश्य से 18 फ़रवरी, 1905 को श्यामजी
कृष्णवर्मा ने इंडियन होम रूल सोसाइटी की स्थापना की और 65 क्रॉमवेल एवेन्यू, हाईगेट में एक विशाल घर खरीदा। उन्होंने इसे एक छात्रावास में बदल दिया, जिसमें 25 युवा भारतीय राष्ट्रवादियों को समायोजित किया जा सकता था। यह इंडिया हाउस
बन गया। यह इंग्लैण्ड में भारतीय राजनीतिक गतिविधियों तथा कार्यकलापों का सबसे
बड़ा केंद्र रहा। क्रान्तिकारी शहीद मदनलाल ढींगरा उनके प्रिय शिष्यों में थे। उनकी शहादत पर उन्होंने छात्रवृत्ति भी शुरू की
थी। इंग्लैंड के अंदर भारतीयों को नस्लवाद का सामना करना पड़ता था। इसके लिए उन्होंने भारतीय छात्रों के लिए इंडियन हाउस की स्थापना की थी।
1905 में श्यामजी कृष्ण वर्मा को औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ लेख लिखने का दंड भुगतना पड़ा। उन पर देशद्रोह के आरोप लगाए गए और इनर टेंपल द्वारा उनकी वकालत पर रोक लगा दी थी। ऑनरेबल सॉसाइटी ऑफ इनर टेंपल, लंदन बैरिस्टर और जजों के लिए चार पेशेवर संघों में से एक है। इसने आगे चलकर 1909 में श्यामजी को संस्था से भी हटा दिया था।
श्यामजी
कृष्णवर्मा ने ज़ुलु विद्रोह में दक्षिण अफ़्रीका की सरकार को स्वेच्छा से मदद
देने के लिए गांधीजी की आलोचना की थी। उनके भारतीय समाजशास्त्री ने जुलाई के अंक
में ज़ुलु को दबाने में गांधीजी के स्वैच्छिक कार्य की आलोचना की थी। दूसरी ओर, गांधीजी ने श्यामजी कृष्णवर्मा के अच्छे काम की प्रशंसा की और इंडियन ओपिनियन
में इसका उल्लेख किया था।
श्यामजी
कृष्णवर्मा लंदन में भारतीय छात्रों को राष्ट्रवादी उद्देश्यों के लिए प्रशिक्षित
करने में गहरी रुचि रखते थे। गांधीजी भी लंदन में कुछ दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों को
प्रशिक्षित करने में रुचि रखते थे। उन्होंने विचारों का आदान-प्रदान किया और तीन
रविवार शाम को लंबी बातचीत की और बाद में एक-दूसरे के साथ पत्र-व्यवहार किया।
गांधीजी ने श्यामजी कृष्णवर्मा की दूरदर्शिता और देशभक्ति की प्रशंसा की।
उसी शाम गांधीजी
की मुलाक़ात 81 वर्षीय दादाभाई नौरोजी से हुई, जिन्हें प्यार से “भारत के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति” के नाम से जाना जाता था। दादाभाई 1886 और 1895 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे। 1906 में उन्हें फिर से उस पद के लिए मनोनीत किया गया था। भारत में उग्र राष्ट्रवादी
उनके मनोनयन से खुश नहीं थे, क्योंकि वे बाल गंगाधर तिलक से बहुत
आकर्षित थे और चाहते थे कि वे कांग्रेस की कमान संभालें। दादाभाई का नाम ही
एकमात्र ऐसा नाम था जो तिलक की लोकप्रियता के सामने खड़ा हो सकता था और इसलिए
उदारवादियों ने उनकी उम्र के बावजूद उन्हें फिर से मनोनीत किया। श्यामजी कृष्णवर्मा
ने नौरोजी को वापस लेने के लिए मनाने के लिए गांधीजी की मदद मांगी और ऐसा न करने
पर नौरोजी के खिलाफ़ लिखने की धमकी दी। गांधीजी ने श्यामजी कृष्णवर्मा को समझाया
कि नौरोजी जैसे प्रख्यात राष्ट्रीय नेता और पुराने देशभक्त के खिलाफ लिखना पाप और
अपराध होगा, लेकिन श्यामजी कृष्णवर्मा पर इसका कोई असर नहीं हुआ। उन्होंने इंडियन
सोशियोलॉजिस्ट एंड जस्टिस में नौरोजी पर दो अप्रिय लेख लिखे। हालांकि दादाभाई 1906 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए।
31 अक्टूबर तक गांधीजी ने लन्दन में अंग्रेजी सरकार से मिलाने
के लिए प्रतिनिधिमंडल को पूरी तरह संगठित कर लिया था। सर लेपेल ग्रिफिन को
प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने के लिए चुना गया। श्यामजी कृष्णवर्मा ने गांधीजी
द्वारा प्रतिनिधिमंडल के प्रवक्ता के रूप में एक एंग्लो-इंडियन का चयन करने की
कड़ी आलोचना की।
भारत की स्वतंत्रता पाने का
प्रमुख साधन वह सरकार से असहयोग करना समझते थे। उनकी मान्यता रही कि यदि भारतीय
अंग्रेज़ों को सहयोग देना बंद कर दें तो अंग्रेज़ी शासन एक ही रात में धराशायी हो
सकता है। उनका मानना था कि जब
सरकार प्रेस और भाषण की स्वतंत्रता पर पाबंदियां लगाती है, भीषण दमन के उपायों का
प्रयोग करती है तो भारतीय देशभक्तों को अधिकार है कि वे स्वतंत्रता पाने के लिए
सभी प्रकार के सभी आवश्यक साधनों का प्रयोग करें। उनका कहना था, “आक्रमकता का प्रतिरोध केवल न्यायोचित नहीं, बल्कि अनिवार्य है”। आजादी की अलख जगाना अंग्रेजी मीडिया को नागवार गुजरा और उन्होंने श्यामजी के खिलाफ कई लेख प्रकाशित किए। इसी वजह से 1907 में श्यामजी कृष्ण वर्मा ने संस्था का मुख्यालय पेरिस में स्थानांतरित किया था। यहीं से उन्होंने यूरोपियन देशों से समर्थन जुटाना प्रारंभ किया था। हालाँकि, बाद मे यहाँ से भी उन्होंने मुख्यालय को स्विट्जरलैंज के जिनेवा में स्थानांतरित कर लिया था।
प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) छिड़ने के बाद वे स्विट्जरलैंड के जिनेवा चले गए
और अपना शेष जीवन वहीं बिताया। 1918 के बर्लिन और इंग्लैण्ड में हुए विद्या सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व
किया था।
31 मार्च
1930 को जिनेवा के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांसें ली।
उनका शव अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के कारण भारत नहीं लाया जा सका और वहीं उनकी अन्त्येष्टि कर दी गयी। उनकी अस्थियों को जिनेवा की सेण्ट जॉर्ज सीमेट्री में सुरक्षित रख
दिया गया। बाद में
गुजरात सरकार ने काफी प्रयत्न करके जिनेवा से उनकी अस्थियाँ भारत मँगवायीं। 22 अगस्त 2003 को भारत की स्वतन्त्रता के 55 वर्ष बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने स्विस सरकार से अनुरोध करके जिनेवा से श्यामजी कृष्ण वर्मा और उनकी पत्नी भानुमती
की अस्थियों को भारत मँगाया। बम्बई से लेकर माण्डवी तक पूरे राजकीय सम्मान के साथ भव्य जुलूस की
शक्ल में उनके अस्थि-कलशों को गुजरात लाया
गया। वर्मा के जन्म स्थान में दर्शनीय क्रान्ति-तीर्थ बनाकर उसके परिसर स्थित श्यामजीकृष्ण वर्मा स्मृति कक्ष में उनकी अस्थियों को संरक्षण प्रदान किया।
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मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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