गांधी और गांधीवाद
177. गिरफ़्तारी
और दो महीने का सश्रम कारावास
1908
सत्याग्रहियों का उत्साह
बढ़ता जा रहा था। सरकार ने गिरफ़्तारियां, ज़ुर्माने और सामानों की ज़ब्ती के रूप में
जवाबी कार्रवाई की। गिरफ़्तार कर एक सप्ताह के रिमांड पर
पन्द्रह लोगों के साथ गांधीजी को हिरासत में भेजा गया। 13 अक्तूबर को उन्हें दो महीने का सश्रम कारावास का दण्ड मिला। उन्हें वॉक्सरस्ट जेल में भेजा गया। वहाँ पहले से ही नेटाल इंडियन कांग्रेस
के कई नेता मौजूद थे। पहले भी वे इस जेल में सज़ा काट चुके थे। यह रमज़ान का महीना
था, और जेल में भी मुसलमान
सत्याग्रही नियम से नमाज़ और रोज़े का पालन कर रहे थे। गांधीजी भी उपवास रखते थे।
जेल के अधिकारियों ने रोज़े के कारण बाहर से खाना मंगवाने की इज़ाजत दे रखी थी।
इसलिए कुछ दिनों के लिए उन्हें जेल के दलिए से छुटकारा मिल गया था।
जेल में उन्हें बड़े ही
पाशविक और अपमानजनक दशा में रखा गया। अन्य भारतीयों की तरह
उन्हें भी तरह-तरह की
यातनाएं दी गईं। ग़ुलामों की तरह उनसे व्यवहार किया गया। जुलू क़ैदियों द्वारा
उन्हें गालियां दी जाती थीं, पीटा जाता था। शौचालय सुविधाएं निकृष्टतम प्रकार की
थीं। एक दिन शौच पर बैठे थे कि एक जुलू क़ैदी आया और थप्पड़ मार कर गांधीजी को गिरा
दिया। सौभाग्य से सिर नहीं फूटा। उनका कमरा मुश्किल से तीन फुट चौड़ा और छह फुट
लंबा था। रोशनी या हवा के लिए कोई खिड़की
नहीं थी। एक से एक ख़ूंख्वार क़ैदियों के साथ उन्हें रखा गया था। कई तो ऐसे थे जो
तीस-तीस बार सज़ा काट चुके थे। अदालत में गवाही के लिए हथकड़ियां पहनाकर क़ैदियों के
लिबास में उन्हें ले जाया जाता।
सश्रम कारावास के नियम
बहुत कठिन थे। सत्याग्रहियों के जोश को कुचलने के लिए जेल वासियों पर तरह-तरह के
जुल्म ढाए जाते। उनसे पत्थर तुड़वाया जाता था, पाखाने साफ़ करवाए जाते थे, तालाब खुदवाए जाते थे। गाड़ियों में भर कर क़ैदियों को उन
जगहों पर ले जाया जाता जहां सड़क बन रही होती थी। जेल के वार्डर अपशब्द का
इस्तेमाल करते थे। बात-बात पर क़ैदियों की पिटाई कर देते थे। सत्याग्रहियों की
मुसीबतों का ठिकाना नहीं था। दिन-भर कुदाली से पथरीली ज़मीन की खुदाई करते-करते गांधीजी
के हाथों में छाले पड़ चुके थे। झीना भाई तो बेहोश होकर गिर पड़े थे, पर गांधीजी डटे रहे और साथियों को बराबर हिम्मत
बंधाते रहे। नागप्पा नाम का अट्ठारह वर्ष का एक नौजवान तो सर्दियों में बड़े सवेरे
काम पर लगाए जाने के कारण निमोनिया का शिकार हो गया और जेल में ही मर गया। किंतु
सरकार के दमनचक्र से सत्याग्रही पीछे नहीं हटे।
वयोवृद्ध सेठ कछालिया अपना पूरा कारोवार ठप्प कर सत्याग्रह में डट गए। गोरों ने उनका व्यापार बरबाद कर दिया। लेकिन उनकी निष्ठा में कमी नहीं आई। गोरे व्यापारियों ने उन्हें चेतावनी दी कि सत्याग्रह आंदोलन से अलग हो जाओ या तुरंत उधार का भुगतान करो। सेठ मोहम्मद अहमद कछालिया ने साफ़-साफ़ कह दिया, “चाहे जो करो, मैं सत्याग्रह से मुंह नहीं मोड़ सकता मेरे लिए यह धर्म, कौम की आन और अपनी इज़्ज़त का सवाल है।” सेठ कछालिया लुट गए लेकिन झुके नहीं। उनकी संपत्ति की नीलामी से क़र्ज़ा पूरा हुआ। सेठ कछालिया को एक बार नंगा करके आधे घंटे तक ठण्डे पानी के टैंक में खड़ा कर दिया गया था। उन्हें तेज़ निमोनिया बुखार हो गया। सरकार सोचती थी कि आतंक के खुले अत्याचारों से सत्याग्रह का जोश घटेगा लेकिन वह तो और भी भभक उठा।
25 अक्तूबर को गांधीजी को वॉक्सरस्ट जेल से जोहान्सबर्ग दया लाला केस में गवाही देने के लिए ले जाया गया। उन्हें जेल के ही कपड़ों में, हाथों में हथकड़ी समेत वॉक्सरस्ट की सड़कों पर घुमाते हुए जेल से स्टेशन ले जाया गया। उनकी इस हालत को देख कर कई लोग रो पड़े। कई जगह विरोध प्रदर्शन भी किया गया। उन्हें जोहान्सबर्ग की फ़ोर्ट जेल में बहुत ही खूंख्वार क़ैदियों के साथ रखा गया। ये क़ैदी देखने से ही डरावने, हत्यारे, दुष्ट और लंपट मालूम पड़ते थे। गांधीजी ने इस परिस्थिति से निपटने और मन की शांति के लिए लगातार गीता पढ़ना ही उचित समझा। जो क़ैदी उनसे बात करने आते उनकी भाषा गांधीजी की समझ से परे थी। जब उन क़ैदियों को कोई जवाब न मिला तो वे उन्हें भद्दी भाषा में कुछ सुनाते रहे। गांधीजी जब सोने के लिए बिस्तर पर गए तो देखा कि दोनों क़ैदी एक दूसरे के गुप्तांगों से खेल रहे थे। दोनों क़ैदी हत्या के आरोप में जेल की सज़ा भुगत रहे थे। उस रात गांधीजी सो न सके। दूसरे दिन जब उनकी कोठरी बदल दी गई तो उन्हें थोड़ी राहत महसूस हुई।
फ़ोर्ट
जेल में भी शौचालयों में दरवाज़े नहीं थे। सुबह जब गांधीजी शौच के लिए गए तो एक लम्बा-चौड़ा क़ैदी आया और उनसे फ़ौरन बाहर निकल
आने के लिए कहने लगा। गांधीजी ने कहा कि वे थोड़ी देर में निकल जाएंगे। लेकिन उसने
उनकी बात नहीं सुनी। उसने गांधीजी को थप्पड़ मारा और जबर्दस्ती उठाकर लगभग पटक ही
दिया। अगर समय रहते उन्होंने दरवाज़े की चौखट न पकड़ ली होती तो उनका सिर ही फट
जाता। अगले दिन उन्हें हथकड़ी में ही अदालत ले जाया गया। उन्हें एक किताब दी गई
जिसमें, उन्हें कहा गया कि उससे
हाथ की हथकड़ी को छिपा लें। किताब का नाम देख कर गांधीजी के चेहरे पर मुस्कान छा
गई। गुजराती में लिखी उस किताब का नाम था – “खुदा नो दरबार तारा अन्तर माँ छे” – ईश्वर का दरबार तुम्हारे
हृदय में है। जिस तरह से उन्हें अदालत में लाया गया था उसका चारों तरफ़ विरोध हुआ।
गांधीजी को फ़ोर्ट जेल में
कई हफ़्ते बिताने पड़े। वे अन्य क़ैदियों के साथ हैट और टोपी की सिलाई करते थे।
कुछ हफ़्तों के बाद उन्हें फिर से वॉक्सरस्ट जेल भेज दिया गया। इस बार भी उन्हें
हथकड़ी और जेल के कपड़ों में ही जाना पड़ा। इस बार जब वे जेल पहुंचे तो पाया कि
क़ैदियों की संख्या लगभग दोगुनी हो चुकी है। रोज़ अनेकों सत्याग्रही गिरफ़्तार
होकर आ रहे थे। उन्हें रखने के लिए टेन्ट लगाए गए थे। शौच-स्नान के लिए उन्हें नदी
पर जाना पड़ता था। जेल में गांधीजी ने उपनिषद पढ़ना शुरू कर दिया था। इससे उनके मन
को शांति मिलती थी।
इस जेल यात्रा में उन्होंने थॉरो के रूप में एक और युगांतरकारी साहित्यिक खोज की। उन्होंने थॉरो का निबंध (मूलतः एक व्याख्यान) ‘सविनय अवज्ञा’ (सिविल डिसओबिडिएंस) पढ़ा जो दासता और मैक्सिकन युद्ध के कारण अमरीकी सरकार को अपना समर्थन देने (1849) से इंकार करने से संबंधित था। हेनरी डेविड थॉरो का जन्म 1817 में हुआ और था, और पैंतालीस साल की उम्र में उनका यक्ष्मा रोग से देहावसान हो गया। निग्रो की दास प्रथा से उन्हें नफ़रत थी। अपने हाथों से उन्होंने कॉन्कॉर्ड, के बाहरी इलाके में वाल्डेन पौंड में एक झोंपड़ी बनाई थी, और उसी में अकेले रहते थे। प्रकृति के सान्निध्य में रहकर वे अपने जीवन यापन का सारा काम ख़ुद किया करते थे। दो वर्षों के इस जीवन से उन्हें काफ़ी संतुष्टि मिली और उन्होंने पाया कि वे अनीति का प्रतिकार कर सकते हैं। उन्होंने कर देने से मना कर दिया। इसके लिए उन्हें जेल की सज़ा हुई। किसी मित्र द्वारा कर अदा कर देने के कारण चौबीस घंटों में ही उनकी रिहाई हो गई, लेकिन इस अनुभव ने उनको सबसे महत्वपूर्ण लेख लिखने की प्रेरणा दे गई – ‘Civil Disobedience’। इसमें उन्होंने लिखा था जो मैं सही और उचित समझता हूं उसे करने का मुझे अधिकार है।
यह निबंध एक जोशीला व्याख्यान है और इसमें ऐसे कई विचारों का समावेश है जिन पर गांधीजी वास्तव में अमल कर रहे थे। लेकिन जिनके बारे में उन्हें यह ज्ञान नहीं था कि कहीं दूसरी जगह भी ये विचार मौज़ूद थे। अक्सर यह कहा जाता है कि सत्याग्रह की कल्पना गांधीजी ने थॉरो से ली, लेकिन 10 सितंबर 1935 को भारत सेवक समिति के श्री कोदंड राव को लिखे गए पत्र में गांधीजी ने इससे इंकार किया है। उन्होंने लिखा है,
“यह कथन कि मैंने सविनय
अवज्ञा की अपनी कल्पना थॉरो की पुस्तकों से प्राप्त की है, ग़लत है। सविनय अवज्ञा पर थॉरो का निबंध मेरे हाथ में
पड़ने से पहले दक्षिण अफ़्रीका में सत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध काफ़ी आगे बढ़ गया
था। लेकिन उस समय यह आंदोलन ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ के नाम से प्रसिद्ध था। चूंकि वह
शब्द अपूर्ण था, इसलिए गुजराती पाठकों के
लिए मैंने ‘सत्याग्रह’ शब्द गढ़ा। जब मैंने थॉरो के महान निबंध का शीर्षक देखा, तो अंग्रेज़ी पाठकों को अपने संघर्ष की व्याख्या करने
के लिए मैंने उसका प्रयोग किया। लेकिन मुझे लगा कि ‘सविनय अवज्ञा’ से भी संघर्ष का
पूरा अर्थ व्यक्त नहीं होता है। अतः मैंने ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ शब्द प्रयुक्त
किया।”
जेल के कड़े प्रतिबंध गांधीजी को आत्मविकास और जन-सेवा के लिए अपनाए गए संयमपूर्ण जीवन और ब्रह्मचर्य के अनुकूल प्रतीत होते थे। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि उनके भावी जीवन की प्रबल शक्ति का स्रोत, उनके व्यक्तित्व और चरित्र की इस्पाती दृढता इन जेलख़ानों में ही पैदा हुई थी। मिली पोलाक ने अपनी पुस्तक ‘गांधी : दि मैन’ में लिखा है, “उनके जेल से लौटने पर हर बार हमें उनमें एक अद्भुत विकास और चारित्रिक प्रगति देखने को मिलती थी, जो निश्चय ही जेल-जीवन का परिणाम हुआ करती थी।”
जब वे अपनी आधी सज़ा काट चुके थे, तो 9 नवंबर, 1908 में उन्हें बा के गिरते स्वास्थ्य के बारे में वेस्ट का तार मिला। तार में लिखा था कि कस्तूरबाई की तबीयत काफ़ी ख़राब हो गई है। यह भी लिखा था कि तबीयत इतनी ख़राब है कि उनकी मृत्यु भी हो सकती है। उस समय बा रक्तस्राव से पीड़ित थी।
जब अधिकारियों को यह बताया गया कि गांधीजी की पत्नी की तबियत काफ़ी ख़राब है उन्हें घर जाने दिया जाए, तो अधिकारियों ने बताया कि गांधीजी ज़ुर्माना भर दें और घर चले जाएं। गांधीजी कस्तूरबा के पास जाना चाहते थे, लेकिन वे एक सत्याग्रही थे, जिसके जीवन का ध्येय था – सत्य के लिए कष्ट झेलना। कस्तूर की बीमारी भी इसी कष्ट का हिस्सा थी। एक सत्याग्रही के लिए यह स्वीकार किए गए नियम के ख़िलाफ़ होता, गांधी जी ने जुर्माना देने से इंकार कर दिया। उन्होंने अपनी पत्नी को गुजराती में पत्र लिखा लेकिन जेल के अधिकारियों ने उसे भेजने से मना कर दिया। गांधीजी ने हरिलाल को तार के द्वारा कहा कि वह अपनी मां के पास चले जाएं और उनकी सेवा करें। दो महीने जेल में गुज़ारने के बाद 12 दिसम्बर को जेल से आज़ादी मिली।
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मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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