गांधी और गांधीवाद
185. इंगलैण्ड
के लिए शिष्टमंडल
1909
सत्याग्रहियों को कैद किया जा रहा था या निर्वासित किया जा
रहा था। कभी शांति होती थी तो कभी तूफान, लेकिन दोनों ही पक्ष कुछ हद तक कमजोर पड़ गए थे। सरकार ने देखा कि जेल भेजकर
वे सत्याग्रही दिग्गजों को वश में नहीं कर सकते थे और निर्वासन की नीति ने उन्हें
केवल गलत स्थिति में डाल दिया था। भारतीय मजबूत लड़ाई लड़ने की स्थिति में नहीं
थे। इस उद्देश्य के लिए सत्याग्रहियों की पर्याप्त संख्या नहीं थी। उस समय कोई भी पक्ष आगे
बढ़ने या पीछे हटने की स्थिति में नहीं था। जून 1909 में हाजी हबीब की अध्यक्षता में एक समझौता समिति गठित
की गई, ताकि सरकार से बातचीत का
रास्ता खोला जाए और संघर्ष को समाप्त किया जाए। इस समिति की बैठक में गांधीजी की
आलोचना करते हुए अध्यक्ष ने कहा कि सरकार से समझौता करने में गांधीजी ने जल्दबाज़ी
दिखाई। उसी का परिणाम हुआ कि कौम को इतना कुछ सहना पड़ा। गांधीजी ने बहुत ही
शालीनता और संक्षिप्तता से अपना पक्ष रखा और जब जनरल स्मट्स ने भारतीयों की मांगों
पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं दिया, तो समिति की आंखें खुलीं।
मई 1909 के आखिरी सप्ताह में गांधीजी जेल से छूटकर बाहर आए। सत्याग्रहियों के जेल जाने, बाहर आने और देशनिकाला दिए जाने का चक्र चल रहा था। कुछ लोग हिम्मत हार रहे थे, तो कुछ पक्के सत्याग्रही निश्चय पर अटल थे कि अंत में तो सत्य की ही जीत होगी। इसी तरह दक्षिण अफ़्रीका की राजनीति भी सदैव गतिशील थी। इसी समय एक घटनाक्रम ने सभी का ध्यान दूसरी ओर मोड़ दिया। दक्षिण अफ़्रीका संघ बनने जा रहा था। वहां के बोअर और अंग्रेज़ दोनों चाहते थे कि दक्षिण अफ़्रीका के सब उपनिवेशों को इकट्ठा करके और अधिक स्वतंत्रता प्राप्त करें। जनरल हर्टजोग चाहता था कि ब्रिटेन से बिल्कुल नाता टूट जाए। दूसरे लोग ब्रिटेन से नाम का संबंध बनाए रखना चाहते थे। अंग्रेज़ संबंध का पूरी तरह से टूट जाना तो सहन न ही कर सकते थे। दक्षिण अफ़्रीका को जो कुछ भी मिलना था वह तो ब्रिटिश पार्लियामेंट के ज़रिए ही मिल सकता था। यूनियन ऑफ साउथ अफ़्रीका के संविधान के मसौदे वाले बिल को संसद में पेश किया जाना था। इसलिए बोअरों और अंग्रेज़ों ने यह तय किया कि दक्षिण अफ़्रीका की ओर से एक शिष्टमंडल ब्रिटेन जाए और उसका मामला ब्रिटिश मंत्रिमंडल के सामने रखे।
इसी सिलसिले में जनरल
स्मट्स और जनरल बोथा ने कुछ राजनयिकों के साथ लंदन जाने का कार्यक्रम निर्धारित
किया। भारतीयों ने देखा कि यदि चारों उपनिवेश एक हो गए, उनका ‘यूनियन’ बन गया तो हमारी जैसी दशा है उससे भी
बुरी हो जाएगी। सभी उपनिवेश भारतीयों को अधिक से अधिक दबाए रखना चाहते थे। ख़तरा
यह था कि नया संघ ही ट्रांसवाल का क़ानून पूरे देश पर लागू न कर दे और भारतीयों पर
हमेशा के लिए ठप्पा लग जाए। ट्रांसवाल के भारतीयों ने महसूस किया कि इस अवसर पर
किसी भी प्रयास से चूकना नहीं चाहिए। गांधीजी इस समय आव्रजन के संबंध में क़ानूनी
या सैद्धान्तिक समानता का एक प्रकार का आश्वासन चाहते थे। निर्णय यह लिया गया कि
दो अलग-अलग चार सदस्यों वाला प्रतिनिधिमंडल भेजा जाए – एक भारत और दूसरा इंग्लैंड। 13 जून 1909 को विशेष समिति की बैठक
हुई जिसमें आठ सदस्यों को चुना गया। सरकार ने उन आठ में से चार सदस्यों को
गिरफ़्तार कर लिया और यहां तक कि उन्हें प्रतिनिधि के रूप में जाने देने के लिए
पैरोल पर भी रिहा करने से इंकार कर दिया। इधर समिति के पास इतना पैसा भी नहीं था
कि सभी सदस्यों को भेज सके।
दक्षिण अफ़्रीका की
समस्याओं को लेकर गांधीजी के साथी पोरबंदर के मेमन सेठ हाजी हबीब चुने गए। इनका
ट्रांसवाल का कारोबार बहुत पुराने ज़माने से था। उन्होंने अंग्रेज़ी पढ़ी नहीं थी, फिर भी अंग्रेज़ी, डच, जूलु आदि भाषाएं आसानी से
समझ लेते थे। हाजी हबीब के साथ गांधीजी 23 जून 1909 को केनिलवर्थ कासिल जहाज
से लंदन के लिए रवाना हुए। उन्हें इस बात पर गंभीर संदेह था कि इंग्लैंड में उनके द्वारा किए जा रहे काम
से कोई खास फायदा होगा। उनके हिसाब से यह प्रतिनिधिमंडल भारतीय समुदाय की कमजोरी
का प्रतीक था। वह यह नहीं भूल सकते थे कि उनके लोगों ने इस मिशन पर अपनी उम्मीदें
टिका रखी थीं: अगर यह विफल हो गया तो उनके समर्थकों की निराशा का कोई अंत नहीं
होगा। वह ऐसे विचारों से इतने परेशान थे कि उनकी आंतरिक शांति चली गई थी: यहां तक
कि उनकी प्रार्थनाओं में भी वह गहराई और शांति नहीं थी जो जेल में रहने के दौरान
थी। इंग्लैंड की अपनी यात्रा पर उन्होंने लिखा: "सच कहूँ तो,
मैं इस स्टीमर में प्रथम श्रेणी
के केबिन की तुलना में जेल जीवन को अधिक पसंद करता हूँ। यहाँ हम पर बच्चों से भी
अधिक ध्यान दिया जाता है। हमें खाने-पीने में बहुत लाड़-प्यार किया जाता है।
असंख्य नौकर हमें शारीरिक परिश्रम के लिए कोई जगह नहीं देते। मैं अपने हाथों को
बार-बार धोते-धोते और उन्हें साफ रखते-रखते लगभग थक गया हूँ। प्रिटोरिया जेल में
वे कहीं बेहतर थे। अफसोस! मैं यहाँ उसी गहराई, ईमानदारी और भक्ति के साथ प्रार्थना नहीं कर सकता। यह
शाब्दिक सत्य है। जहाँ धूमधाम है, जहाँ चमक-दमक है, आराम और आनंद है, वहाँ आप ईश्वर के विनम्र और वफादार सेवक नहीं रह
सकते।"
तीन दिनों के बाद हेनरी
एस.एल. पोलाक के नेतृत्व में एक सदस्यीय शिष्टमंडल भारत गया। जुलाई 1909 में इंग्लैंड पहुँचने वाले शिष्टमंडल का नेतृत्व गांधीजी
ने किया था। उन्हें
उम्मीद थी कि वहाँ कम से कम "ब्रिटिश लोग साम्राज्यवादी प्रश्न को संकीर्ण
दृष्टिकोण के बजाय साम्राज्यवादी दृष्टिकोण से देखेंगे।" वहां ब्रिटिश सरकार दक्षिण
अफ़्रीकी उपनिवेशों के भावी संघ पर विचार कर रही थी। आशा थी कि जनरल बोथा और जनरल
स्मट्स दोनों वहां मिल जाएंगे। गांधीजी की अनुपस्थिति में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन
के काम की देखभाल की जिम्मेदारी हरमन कालेनबाख के ऊपर थी। पादरी जोसेफ डोक ने उनके
सलाहकार की भूमिका निभाई। गांधीजी की सचिव सोंजा श्लेसिन तो थी ही। भारत में गोखले
जी के सहयोग से पोलाक ने कई शहरों में भाषण देकर दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों के
प्रश्न को भारतवासियों के सामने रखा। इसका बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा।
आर.एम.एस. केनिलवर्थ कैसल
जहाज पर दो सप्ताह की यात्रा के दौरान उन्हें जेल में बंद सत्याग्रहियों की चिंता
ही सताए जा रही थी। उसी जहाज से सरकारी प्रतिनिधिमंडल के कई सदस्य, जैसे डॉ. अब्दुर्रहमान, अश्वेतों के प्रतिनिधि, जॉन ज़ेवियर मेरिमैन, केप कॉलोनी के प्रधान मंत्री, जे.डब्ल्यू, सौएर, कैबिनेट के सदस्य भी थे।
उन सब से गांधीजी ने प्रवासी भारतीयों की समस्या की चर्चा की। केप कलर्ड्स के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे डॉ.
अब्दुर्रहमान ने गांधीजी को बताया कि उदार केप सीनेटर डब्ल्यू.पी. श्रेनर अश्वेतों
के पक्ष में समर्थन के लिए कितनी मेहनत कर रहे थे। वह उनके मामले की पैरवी करने के
लिए पहले ही इंग्लैंड जा चुके थे, और वह भी अपने खर्च पर। 10 जुलाई 1909 को शिष्टमंडल साउथंप्टन
पहुंचा और कुछ घंटों के सफ़र के बाद लंदन पहुंच गया। उस वक़्त लॉर्ड क्रू उपनिवेश मंत्री थे और लॉर्ड
मॉरले भारत मंत्री।
वेस्टमिंस्टर
एब्बे के सामने स्थित वेस्टमिंस्टर पैलेस होटल विक्टोरियन युग में निर्मित लंदन के
होटलों में सबसे शानदार था, क्योंकि यह संसद भवन, व्हाइटहॉल और कानून अदालतों के करीब था, इसलिए यह सरकार और कानून से जुड़े किसी भी व्यक्ति के लिए
उपयुक्त था। इसी होटल में गांधीजी ठहरे, यह एक अच्छा होटल था, और एक अच्छे
मध्यम वर्ग के ग्राहकों के लिए, और विदेशों से आने वाले राजनेताओं के लिए तैयार किया गया था।
होटल ने
उनके मामले को गरिमा प्रदान की और प्रभावशाली लेटरहेड ने उनके पत्रों का शीघ्र
उत्तर सुनिश्चित किया। सरकार में अपने मित्रों के साथ वे शालीनता से पेश आते थे;
भारतीय
मित्रों के साथ वे नरमी से पेश आते थे, उन्हें शाकाहारी दोपहर के भोजन
के लिए आमंत्रित करते थे। होटल का किराया बहुत ज़्यादा था,
लेकिन गांधीजी
के विचार में, अगर वे अपने प्रयासों को संतोषजनक निष्कर्ष पर पहुंचा सकते हैं,
तो कमरे
कीमत के लायक थे। बाद में उन्हें इस लागत पर पछतावा हुआ क्योंकि यह उनके समर्थकों
पर बहुत ज़्यादा बोझ था, उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि कोई भी राजनीतिक गतिविधि तब तक
सार्थक नहीं है जब तक कि इसे बिना धन के नहीं चलाया जा सकता। उन्होंने लिखा,
"पैसा अक्सर
एक न्यायपूर्ण लड़ाई को बिगाड़ देता है, और भगवान कभी भी सत्याग्रही को
उसकी सख्त ज़रूरतों से ज़्यादा कुछ नहीं देते।"
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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