शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

181. परिवार के साथ सामंजस्य और सत्याग्रह

 गांधी और गांधीवाद

181. परिवार के साथ सामंजस्य और सत्याग्रह



प्रवेश

अपने आदर्श और सिद्धान्त के प्रति जिस तरह से गांधी जी वचनबद्ध थे, उस सनक से तालमेल बिठाना, उनकी पत्नी, बच्चों और यहां तक कि नजदीकी संबंधियों के लिए संभव नहीं था। सत्याग्रह, ब्रह्मचर्य और निर्धनता उनके लिये न सिर्फ़ राजनीतिक अस्त्र थे, बल्कि जीवन के अंग भी थे। अपने प्रयोगों के लिये वे किसी हद तक जाने के लिये तैयार थे, सत्य को वे ईश्वर मानते थे, और अपने सिद्धान्तों को प्रमाणित करने के लिये उनके अपने तर्क होते थे, जिसका खंडन करना मुश्किल ही नहीं असंभव होता था। इसलिये उनके निश्चय को शायद ही कभी परिवर्तित करना पड़ा हो।



पत्नी कस्तूरबा 

इस असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी के साथ सामंजस्य बिठाये रखने के लिए पत्नी कस्तूरबा को काफी मशक्कत करनी पड़ी। उन्होंने तो किसी तरह इसे निभाना शुरू कर दिया था, लेकिन परिवार के अन्य सदस्यों को काफ़ी दिक्क़तें आ रही थीं। 1905 के शुरुआती दिनों से ही हेनरी पोलाक उनके साथ परिवार के सदस्य की तरह रह रहे थे। दिसम्बर के आखिरी सप्ताह में पोलाक की मंगेतर मिली भी साथ रहने आ गई। 18 वर्षीय हरिलाल भारत में ही थे। 14 वर्ष के मणिलाल, 9 वर्ष के रामदास और 6 वर्ष के देवदास साथ में थे। गांधी जी नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे आरंभिक दिनों से ही अंग्रेज़ी में सोचें और बोलें। उन्हें स्वयं गुजराती भाषा में शिक्षा देते थे।

बड़े भाई लक्ष्मीदास के साथ

बड़े भाई लक्ष्मीदास

1906 का वर्ष कई मायनों में गांधी जी के लिए युगांतरकारी साबित हुआ। वकालत से काफी आमदनी होने लगी थी। जोहान्सबर्ग में वे एक आराम की ज़िन्दगी जी रहे थे। जब उनकी इच्छा होती फीनिक्स आश्रम चले जाते। अपने सार्वजनिक क्रिया-कलापों से नेटाल और ट्रांसवाल के लोगों के बीच वे काफ़ी प्रसिद्ध हो चुके थे। 37 वर्ष की उम्र में उन्होंने ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण कर लिया था। जब वे इंगलैंड में पढ़ाई कर रहे थे, तो बड़े भाई लक्ष्मीदास गांधी ने उनकी ज़रूरतों को पूरा करने के इए हर संभव मदद की थी। अब वक़्त आ गया था कि वे अपने बड़े भाई की सहायता करें। अपनी नैतिक सीमाओं में रहते हुए वे इतना कमा लेना चाहते थे कि उनकी मदद की जा सके। नेटाल में रहते हुए उन्होंने अपनी सारी जमा-पूंजी भाई को भेज दी थी। इंग्लैंड में पढ़ाई के समय लिए गए 13,000 रुपयों का क़र्ज़ चुकता किया था। इसके अलावे लगभग 60,000 रुपये संयुक्त परिवार के खाते में जमा करवा दिया था। हालांकि लक्ष्मीदास की वकालत अच्छी चल रही थी लेकिन अपनी आराम तलब ज़िन्दगी जीने की उनकी आदतों के कारण उनका खर्च काफ़ी बढ़ गया था। यह बात गांधी जी को अखरती थी। 1907 के अप्रैल माह में लिखे गए अपने पत्र में उन्होंने लक्ष्मी दास के इस विलासिता पूर्ण रहन-सहन की आलोचना की थी। लक्ष्मी दास ने अपने खर्चे की भरपाई के लिए गांधीजी से 100 रुपये प्रतिमास भेजने की मांग की थी जिसे गांधीजी ने देने से मना कर दिया था। उनका कहना था कि वे स्वयं एक बहुत ही सादगी का जीवन जीते हैं और अपने परिवार के ऊपर बहुत ही कम खर्च करते। जो बचता है वह वे सार्वजनिक कामों में लगा देते हैं। इसके कारण दोनों भाइयों के बीच खटास पैदा हुई।

दूसरे भाई करसनदास 

दूसरे भाई करसनदास गांधी जी से तीन साल बड़े थे। दोनों भाइयों के बीच काफ़ी घनिष्ठता थी। शेख़ मेहताब दोनों के दोस्त थे। उससे दोस्ती के कारण कई ऐसे काम उन्होंने किए जिसे अवसर-प्रतिकूल कहा जा सकता है। समय के साथ दोनों भाई दो अलग दिशाओं में चले गए। दक्षिण अफ़्रीका में मोहनदास गांधी, जहां उनकी वकालत काफ़ी अच्छी चल रही रही थी, और भारत में करसनदास एक पुलिस कर्मचारी के रूप में साधारण जीवन जी रहे थे। उनका मोहनदास के प्रति प्रेम अब भी बना हुआ था।


बहन रालियात

बहन रालियात

परिवार में सबसे बड़ीबहन रालियात विधवा थी और उसने करसनदास के साथ रहना मंजूर किया था। उनके रहन-सहन के लिए गांधी जी नियमित रूप से मदद कर रहे थे। जब गांधीजी की अवस्था में परिवर्तन आया तो उन्होंने बहन से 20-25 रुपये मासिक में गुजारा करने की गुजारिश की।


गोकुलदास गांधी

बहन का बेटा गोकुलदास

बहन का एकमात्र बेटा गोकुलदास पांच वर्षों तक गांधीजी के साथ दक्षिण अफ़्रीका में रहा। भारत लौटने के बाद उसने भी आराम-तलबी की ज़िन्दगी जीनी शुरू कर दी। 1907 में उनकी शादी हो गई, लेकिन दुर्भाग्यवश अगले ही साल, 1908 में, उनकी मृत्यु हो गई। उस समय वे मात्र 20 वर्ष के थे।


बड़े लड़के हरिलाल

बड़े लड़के हरिलाल

बड़े लड़के हरिलाल सन 1907 में दक्षिण अफ़्रीका आए। आते ही वे पिता के काम में उत्साह से जुट गए। जुलाई 1908 में ट्रांसवाल की लड़ाई के समय बीस साल की छोटी उम्र में सत्याग्रही की तरह जेल गए। एक सप्ताह की क़ैद से जब आज़ाद हुए तो सत्याग्रह की लड़ाई उन्होंने ज़ारी रखी। अगस्त के मध्य में एक महीने के लिए जेल गए। फिर फरवरी, 1909 में छह महीने के लिए उन्हें जेल जाना पड़ा। नवम्बर, 1909 में उन्हें फिर से छह महीने के लिए जेल जाना पड़ा। बार-बार जेल जाने और जेल की सज़ा को हंसते-हंसते सह लेने के कारण लोग इन्हें छोटे गांधी’ कहकर बुलाने लगे। लेकिन इस सब के बावजूद हरिलाल उचित शिक्षा न मिल पाने के कारण असंतुष्ट रहने लगे। फीनिक्स की व्यवस्था से भी उन्हें खासी शिकायत रहती थी। पिता से जब उन्होंने इसकी चर्चा की तो पिता ने जवाब दिया, अगर तुम्हें लगता है कि फीनिक्स में दुर्गंध है तो तुम्हें ऐसे कार्य वहां करने चाहिए जिससे चारों ओर सुगंध फैल जाए। पिता द्वारा बार-बार दिए जाने वाले उपदेश हरिलाल को बहुत अच्छा नहीं लगता। वे आगे की पढ़ाई के लिए मई, 1911 में भारत आ गए। अहमदाबाद के एक स्कूल में उन्होंने दाखिला लिया। अपने से कम उम्र के बच्चों के साथ तालमेल बिठाने में उन्हें बहुत दिक्क़त आ रही थी। उन्होंने संस्कृत में पढ़ाई की लेकिन कुछ ही दिनों में उनकी रुचि बदल गई और फ़्रेंच में दाखिला लिया। गांधी जी को यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने हरिलाल को समझाया, लेकिन अब एक पिता के तौर पर नहीं एक मित्र के रूप में, लेकिन अब तक बहुत देर हो चुकी थी। पिता और पुत्र में दूरी काफ़ी बढ़ चुकी थी। जिस तरह से हरिलाल अपने जीवन का रास्ता तय कर रहे थे, उससे भविष्य कोई सुनहरा नहीं लग रहा था।


दूसरे पुत्र मणिलाल

दूसरे पुत्र मणिलाल

गांधी जी के दूसरे पुत्र मणिलाल हरिलाल से चार साल छोटे थे। नियमित रूप से पढ़ाई न कर पाने का उन्हें भी मलाल था, लेकिन उनकी स्थिति हरिलाल से थोड़ी अलग थी। फीनिक्स के एक स्कूल में उनका दाखिला भी करा दिया गया था। जब हरिलाल सत्याग्रह की लड़ाई में व्यस्त थे तब उन्होंने भाभी गुलाब बहन के साथ मिलकर घर की और अस्वस्थ मां, कस्तूरबा की देखभाल भी की। जिन दिनों गांधीजी भी जेल में थे, जेल से मणिलाल को पत्र लिखा करते जिसमें तरह-तरह की हिदायतें होती थीं। जैसे संस्कृत और गणित पर सबसे अधिक ध्यान देना। संगीत का भी अध्ययन करना। घर के ख़र्चों का ठीक से हिसाब-किताब रखना। सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने की सीख तो होती ही थी। मणिलाल अपने कर्तव्यों के निर्वाह में तत्पर रहते। जब अलबर्ट वेस्ट बीमार पड़े, तो उन्होंने उनकी खूब देख-भाल की। गांधीजी का वेस्ट से परिचय दक्षिण अफ़्रीका के शुरुआती दिनों से ही था। दोनों की भेंट जोहान्सबर्ग के एक निरामिष भोजनालय में हुई थी। बाद में 10पौंड के मासिक भुगतान पर उन्होंने इंडियन ओपिनियन का काम संभाला था। वेस्ट का जन्म इंगलैण्ड के लाउथ नामक गांव में एक किसान परिवार में हुआ था।

1909 के आखिरी दिनों में, जब हरिलाल जेल में थे, गांधीजी ने मणिलाल को भी सत्याग्रह आंदोलन के कूद पड़ने को कहा। ट्रांसवाल की सीमा को पार कर वे घर-घर जाकर बिना लाइसेंस के फलों की फेरी लगाते। 14 जनवरी, 1910 को उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। कुछ दिनों की क़ैद के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। सीमा पार कर उन्होंने फिर से घर-घर जाकर फलों की फेरी लगाना शुरू कर दिया। इस बार उन्हें तीन महीने की सज़ा हुई। मई, 1910 में रिहाई के बाद वे टॉल्सटॉय फर्म आ गए। साल 1912 के आते-आते उनके रहन-सहन में काफ़ी बदलाव आ गया। उनके कपड़ों, अंग्रेज़ों जैसा रहन-सहन और वेश-भूषा आदि में हुए परिवर्तन से गांधीजी ख़ुश नहीं थे। मणिलाल सारा जीवन पिता के आदेश को सम्मान दिया। एक बार गांधीजी ने इच्छा बताई थी कि मणिलाल का स्थान फीनिक्स में है। इसे शिरोधार्य कर वे अपना पूरा जीवन ‘इंडियन ओपिनियन’ और फीनिक्स आश्रम को समर्पित कर दिया। मणिलाल और उनकी पत्नी सुशीला ने ‘इंडियन ओपिनियन’ का संचालन वर्षों तक किया।


देवदास गाँधी


रामदास गांधी

रामदास और देवदास

जब परिवार फीनिक्स में रहने लगा तो रामदास और देवदास 9 और 6 साल के थे। घर में स्वावलंबन का वातावरण था, इसलिए ये बच्चे घर के काम में मदद करते थे। इस उम्र में पढ़ाई कैसी हो, इसकी उन्हें विशेष चिन्ता तो नहीं थी, लेकिन पिता के सादगी और निर्धनता के जीवन जीने की शैली से उन्हें कुछ परेशानी तो होती ही थी। भाभी गुलाब बहन उन्हें गुजराती पढ़ना-लिखना सिखाती थीं। जब परिवार टॉल्सटॉय फर्म रहने आया, तो यहां के रहन-सहन के साथ समझौता करने में उन्हें बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। सारा दिन उन्हें काफ़ी शारीरिक श्रम, जैसी ज़मीन की खुदाई करनी पड़ती। लेकिन इस तरह के काम में उन्हें काफ़ी आनन्द आता और उन्हें लगता वे एक अच्छे आदमी बन रहे हैं। पंद्रह वर्ष की छोटी उम्र में रामदास ने सत्याग्रह में भाग लेकर तीन माह की सज़ा पाई। जेल में किए जाने वाले अत्याचार के विरुद्ध उन्होंने उपवास भी रखा था। जेल में किए गए उनके व्यवहार, नम्रता, सरलता और दृढ़ता ने सबको चकित कर दिया। देवदास की कर्तव्यनिष्ठा और मेहनत करने की शक्ति गजब की थी। फीनिक्स में जब सभी बड़े लोग जेल में थे, तब 12-13 साल के देवदास ने पूरी जिम्मेदारी से प्रेस में काम किया और ‘इंडियन ओपिनियन’ का नियमित रूप से प्रकाशन ज़ारी रखा। वे विनोदी प्रकृति के इंसान थे।

उपसंहार

जो शिक्षा अग्राह्य है, संस्कृति के लिए बाधक है, उसे नहीं देने के पक्ष में गांधीजी थे। अपने बच्चों की जिस तरह की परवरिश उन्होंने की वह सही था या ग़लत, यह विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन इसका मलाल उन्हें भी काफ़ी दिनों तक रहा। फिर भी अपने पुत्रों के प्रति उन्होंने अपनी क्षमता से भी अधिक किया। उन्होंने जान-बूझ कर उस तरह की शिक्षा का एक अंग होने से अपने पुत्रों को दूर रखा, जिसे वे बुराइयों से रहित नहीं मानते थे।

***         ***    ***

मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।