रविवार, 15 दिसंबर 2024

184. निर्वासन

 गांधी और गांधीवाद

184. निर्वासन



1909

सत्याग्रह आंदोलन के तीन वर्ष हो चुके थे। अब तक ट्रांसवाल के 7000 भारतीयों में से लगभग 1500 गिरफ़्तार हो चुके थे। फिर भी सत्याग्रही, खासकर तमिल सत्याग्रही अदम्य उत्साह का परिचय दे रहे थे। पारसी समूह भी सरकार के दमन का डटकर सामना कर रहा था। लेकिन जनरल स्मट्स नरम होने के मूड में नहीं था।

दक्षिण अफ्रीका की सरकार सत्याग्रहियों को तीन तरह की सज़ाएँ दे सकती थी, जुर्माना (उनकी संपत्ति और सामान जब्त करके नीलाम कर सकती थी), कारावास (उन्हें जेल भेज सकती थी) और निर्वासन (उन्हें निर्वासित कर सकती थी)आखिरी सज़ा शुरू में ज़्यादा डरावनी नहीं थी। न्यायालयों को एक साथ सभी सज़ाएँ देने का अधिकार दिया गया था, और सभी मजिस्ट्रेटों को अधिकतम दंड लगाने का अधिकार दिया गया था। पहले निर्वासन का मतलब था 'अपराधी' को ट्रांसवाल सीमा से परे नेटाल, ऑरेंज फ़्री स्टेट या डेलागोआ बे (पुर्तगाली पूर्वी अफ़्रीका) की सीमा में ले जाना और उसे वहीं छोड़ देना। उदाहरण के लिए, नेटाल से पार करने वाले भारतीयों को वोक्सरस्ट स्टेशन की सीमा से आगे ले जाया जाता था और वहाँ उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाता था। इस तरह के देशनिकाले में थोड़ी-सी तकलीफ़ के अलावा कोई नुकसान न था। इस तरह का निर्वासन एक तमाशा था, इसमें केवल थोड़ी सी असुविधा होती थी, और इससे भारतीयों को हतोत्साहित करने के बजाय और भी प्रोत्साहन मिलता था।

इसलिए सरकार ने उन्हें परेशान करने का कोई और कारगर तरीका ढूँढ़ने का फैसला किया। जेलों में पहले से ही भीड़ थी। सरकार ने सोचा कि अगर भारतीयों को भारत भेजा जा सके तो वे पूरी तरह से हतोत्साहित हो जाएंगे और अपनी मर्जी से आत्मसमर्पण कर देंगे। सत्याग्रहियों को जेल भेजने से ही स्मट्स संतुष्ट नहीं था, बल्कि उसने लोगों को निर्वासित करना शुरू कर दिया था। गांधीजी ने इसे अनावश्यक अत्याचार कहा।

सरकार ने भारतीयों के एक बड़े समूह को भारत भेजा। इन निर्वासितों को बहुत कष्ट सहना पड़ा। उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं था, सिवाय सरकार द्वारा स्टीमर पर दिए जाने वाले भोजन के, और उन सभी को डेक यात्रियों के रूप में भेजा गया। उनमें से कुछ के पास दक्षिण अफ्रीका में अपनी ज़मीन और दूसरी संपत्ति और अपना व्यवसाय था, कई के वहाँ परिवार थे, जबकि अन्य लोग भी कर्ज में डूबे हुए थे। अधिकारियों ने अनुमान लगाया कि बहुत से लोग अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए तैयार नहीं होंगे। लेकिन हद तो तब हो गई जब एक सोलह साल के बच्चे को भारत भेज दिए जाने का हुक्म दिया, वह भी तब जब उसके सत्याग्रही पिता वॉल्करस्ट की जेल में थे। लेकिन सरकार कितनी भी दमनकारी क्यों न हो सत्याग्रहियों के जोश को ठंडा नहीं कर सकी।

इस तरह की सज़ा की संभावना ने कई भारतीयों को भयभीत कर दिया और इसलिए उन्होंने गिरफ़्तारी देना बंद कर दिया, हालाँकि उन्होंने अपने जलाए गए प्रमाणपत्रों की प्रतिलिपि के लिए आवेदन नहीं किया। हालाँकि ऐसे कई लोग थे जो कमज़ोर नहीं हुए थे और इस उद्देश्य के लिए अपनी जान तक देने को तैयार थे, संपत्ति तो दूर की बात है। कुछ लोगों को तो फिर से पंजीकरण करवाने के लिए भी डराया गया।

सत्याग्रह का संघर्ष बढ़ा तो भारतवासियों के ऊपर जुल्म और अत्याचार काफ़ी बढ़ गए। कई ग़रीब गिरमिट-मुक्त भारतीय सज़ा काट कर जेल से लौटे थे। भारत निर्वासित किए गए लोगों में से कई गरीब और सीधे-सादे लोग थे जो केवल आस्था के कारण आंदोलन में शामिल हुए थे। उनमे से अधिकांश ने भारत की धरती देखी तक नहीं थी। इन पर इतना अत्याचार किया जाना गांधीजी के लिए असहनीय था। वे गरीब लोग थे जिनकी भारत में कोई जड़ें नहीं थीं। सत्तर-अस्सी वर्ष पहले उनके पूर्वज भारत छोड़कर दक्षिण अफ़्रीका आए थे। इनका जन्म अफ़्रीका में ही हुआ था। उनके लिए भारत एक अनजाना देश था। जनरल स्मट्स की सरकार ने ऐसे तीन-चार सौ भारतीयों को पकड़कर समुद्री जहाज के तहख़ाने में भेड़-बकरी की तरह लादकर निष्कासित कर दिया। पास के डेलागोवा बंदरगाह से इन लोगों को सरकार वापस भारत भेजने लगी।

उनकी मदद करने का कोई रास्ता गांधीजी को नहीं सूझ रहा था। उनके पास बहुत कम पैसे थे और अगर वह आर्थिक मदद देते तो लड़ाई हारने का खतरा था। किसी भी व्यक्ति को आर्थिक प्रलोभन से आंदोलन में शामिल होने की अनुमति नहीं थी; अन्यथा इस तरह की स्वार्थी आशाओं के बल पर आने वाले लोगों के कारण आंदोलन को दबा दिया जाता।

पैसा उतना दूर तक नहीं जा सकता जितना कि सहानुभूति, दयालु शब्द और दयालु नज़रिए जा सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति, जो धन पाने के लिए उत्सुक है, किसी दूसरे से धन प्राप्त करता है, लेकिन सहानुभूति के बिना, तो वह अंततः उसे छोड़ देगा। दूसरी ओर, जो प्रेम से जीता है, वह उस व्यक्ति के साथ कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार रहता है जिसने उसे अपना प्यार दिया है।

इसलिए गांधीजी ने निर्वासितों के लिए वह सब करने का संकल्प लिया जो दयालुता से किया जा सकता था। उन्होंने उन्हें यह वादा करके सांत्वना दी कि भारत में उनके लिए उचित व्यवस्था की जाएगी। उनमें से कई पूर्व-बंधुआ मजदूर थे, और भारत में उनके कोई रिश्तेदार नहीं थे। कुछ तो दक्षिण अफ्रीका में पैदा हुए थे, और सभी के लिए भारत एक अजनबी भूमि की तरह था। यह सरासर क्रूरता होगी अगर इन असहाय लोगों को भारत में उतरने के बाद खुद के लिए छोड़ दिया जाए। इसलिए गांधीजी ने उन्हें आश्वासन दिया कि भारत में उनके लिए सभी उपयुक्त व्यवस्थाएँ की जाएंगी।

लेकिन यह पर्याप्त नहीं था। निर्वासितों को तब तक सांत्वना नहीं मिल सकती थी जब तक कि उनके साथ कोई साथी और मार्गदर्शक न भेजा जाए। यह निर्वासितों का पहला जत्था था, और उनका स्टीमर कुछ ही घंटों में रवाना होने वाला था। चयन करने के लिए ज़्यादा समय नहीं था। गांधीजी ने अपने एक सहकर्मी पी.के. नायडू के बारे में सोचा और उनसे पूछा:

‘क्या आप इन गरीब भाइयों को भारत ले जाएंगे?’

‘क्यों नहीं?’

‘लेकिन स्टीमर अभी शुरू हो रहा है।’

‘रहने दो।’

‘तुम्हारे कपड़ों का क्या? और खाने का?’

‘जहां तक ​​कपड़ों की बात है, तो मैंने जो सूट पहना है, वही काफी है और मैं स्टीमर से खाना भी ले लूंगा।’

यह गांधीजी के लिए सुखद आश्चर्य था। बातचीत पारसी रुस्तमजी के यहाँ हुई। वहीं उन्होंने नायडू के लिए कुछ कपड़े और कंबल खरीदे और उन्हें भेज दिया।

‘रास्ते में इन भाइयों का ख्याल रखना। पहले उनकी सुविधाओं का ध्यान रखना और फिर अपनी। मैं मद्रास में श्री नटेसन को तार भेज रहा हूँ और तुम्हें उनके निर्देशों का पालन करना होगा।’

‘मैं खुद को एक सच्चा सैनिक साबित करने की कोशिश करूँगा।’ यह कहते हुए पी.के. नायडू घाट की ओर चले गए। गांधीजी ने खुद से कहा कि ऐसे वीर योद्धाओं के साथ जीत निश्चित होनी चाहिए। नायडू दक्षिण अफ्रीका में पैदा हुए थे और पहले कभी भारत नहीं आए थे। गांधीजी ने उन्हें श्री नटेसन के लिए एक सिफारिशी पत्र दिया और एक केबलग्राम भी भेजा।

उन दिनों श्री नटेसन शायद भारत में अकेले थे, जो विदेश में रह रहे भारतीयों की शिकायतों के विद्यार्थी, उनके मूल्यवान सहायक और उनके मामले के व्यवस्थित और सुविज्ञ व्याख्याता थे। गांधीजी का उनसे नियमित पत्र-व्यवहार होता था। जब निर्वासित लोग मद्रास पहुँचे, तो इन निष्कासितों के स्वागत के लिए नटेसन मद्रास बंदरगाह पर उपस्थित थे। नटेसन ने उनकी पूरी सहायता की। निर्वासित लोगों के बीच नायडू जैसे योग्य व्यक्ति की मौजूदगी के कारण उन्हें अपना काम आसान लगा। उन्होंने स्थानीय स्तर पर चंदा एकत्र किया और निर्वासित लोगों को एक पल के लिए भी यह महसूस नहीं होने दिया कि उन्हें निर्वासित किया गया है। अधिकांश निष्कासित दक्षिण भारतीय थे, कुछेक बिहार और उत्तर प्रदेश के थे। नटेसन ने उनकी इतनी अच्छी तरह से आवभगत की कि उन्हें महसूस ही नहीं हुआ कि वे अपरिचित देश में पहुंचे हैं।

ट्रांसवाल सरकार द्वारा सत्याग्रहियों को इस तरह निर्वासित करना गैरकानूनी था। लोग आमतौर पर इस बात से अनजान हैं कि सरकारें अक्सर जानबूझकर अपने ही कानूनों का उल्लंघन करती हैं। आपातकाल की स्थिति में नए कानून बनाने का समय नहीं होता। इसलिए सरकारें कानून तोड़ती हैं और अपनी मर्जी से काम करती हैं। इसके बाद वे या तो नए कानून बनाती हैं या फिर लोगों को कानून तोड़ने की बात भूलने पर मजबूर कर देती हैं।

इस मामले में ट्रांसवाल सरकार की गैरकानूनी कार्रवाई के खिलाफ दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों ने एक जोरदार आंदोलन चलाया। जिससे सरकार को हर दिन गरीब भारतीयों को निर्वासित करना मुश्किल होता गया। भारतीयों ने सभी संभव कानूनी कदम उठाए, निर्वासन के खिलाफ अदालतों में अपील की, जिसके परिणामस्वरूप सरकार को भारत में निर्वासन की प्रथा को रोकना पड़ा। इस समय तक सरकार को यह एहसास होने लगा था कि वे सत्याग्रह आंदोलन को दबा नहीं पाएंगे। जेलें पहले से ही भरी हुई थीं। निर्वासन ने भारत के साथ-साथ लंदन में भी दक्षिण अफ्रीका की सरकार को बदनाम कर दिया था और ट्रांसवाल की अदालतों ने उन मामलों में उसके खिलाफ फैसले दिए थे, जो अपील में गए थे। दक्षिण अफ़्रीकी सरकार पर यूरोप के कई भागों से दवाब बढ़ता जा रहा था कि एशियावासियों की समस्याओं का सामना वह अधिक मानवीय तौर-तरीक़ों से करे।

लेकिन निर्वासन की नीति का सत्याग्रही ‘सेना’ पर भी असर पड़ा। सभी लोग भारत निर्वासित होने के डर से उबर नहीं पाए। कई लोग भाग गए और केवल असली लड़ाके ही बचे।

यह सरकार द्वारा समुदाय की भावना को तोड़ने के लिए उठाया गया एकमात्र कदम नहीं था। सरकार ने सत्याग्रही कैदियों को परेशान करने की पूरी कोशिश की थी, उन्हें पत्थर तोड़ने सहित हर तरह के काम में लगाया जाता था। लेकिन इतना ही नहीं था। पहले सभी कैदियों को एक साथ रखा जाता था। अब सरकार ने उन्हें अलग करने की नीति अपनाई और हर जेल में उनके साथ कठोर व्यवहार किया। ट्रांसवाल में सर्दी बहुत कठोर होती है; ठंड इतनी कड़ाके की होती है कि सुबह काम करते समय हाथ लगभग जम जाते हैं। इसलिए सर्दी कैदियों के लिए कठिन समय था, जिनमें से कुछ को सड़क पर एक शिविर में रखा गया था जहाँ कोई भी उनसे मिलने नहीं जा सकता था। इन कैदियों में से एक अठारह वर्षीय युवा सत्याग्रही स्वामी नागप्पन था, जिसने जेल के नियमों का पालन किया और उसे जो काम सौंपा गया था, उसे किया। सुबह-सुबह उसे सड़कों पर काम करने के लिए ले जाया जाता था, जहाँ उसे डबल निमोनिया हो गया, जिससे रिहा होने के बाद उसकी मृत्यु हो गई (7 जुलाई, 1909)। नागप्पन के साथी कहते हैं कि वह संघर्ष और संघर्ष के बारे में ही सोचता रहा, जब तक उसकी साँस नहीं चली गई। उसे जेल जाने का कभी पछतावा नहीं हुआ और उसने अपने देश की खातिर मौत को गले लगा लिया। नागप्पन 'अनपढ़' था। वह अनुभव से अंग्रेजी और ज़ुलु बोलता था। शायद वह टूटी-फूटी अंग्रेजी भी लिखता था, लेकिन वह किसी भी तरह से शिक्षित व्यक्ति नहीं था। फिर भी धैर्य, देशभक्ति, दृढ़ता में वह किसी से कम नहीं था। सत्याग्रह आंदोलन सफलतापूर्वक चला, हालांकि इसमें कोई उच्च शिक्षित व्यक्ति शामिल नहीं था, लेकिन नागप्पन जैसे सैनिकों के बिना यह कहां होता?

जिस तरह नागप्पन की जेल में दुर्व्यवहार के कारण मृत्यु हो गई, उसी तरह निर्वासन की कठिनाइयां नारायणस्वामी की मृत्यु का कारण बनीं (16 अक्टूबर, 1910)। फिर भी समुदाय अविचल खड़ा रहा; केवल कमजोर लोग ही पीछे हटे। लेकिन कमजोर लोगों ने भी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया था। जो आगे बढ़ते हैं, वे आमतौर पर पीछे हटने वालों को नीची निगाह से देखते हैं और खुद को बहुत बहादुर समझते हैं, जबकि अक्सर तथ्य इसके ठीक विपरीत होते हैं। यदि कोई व्यक्ति जो पचास रुपये का योगदान दे सकता है, केवल पच्चीस रुपये का योगदान देता है और यदि वह जो केवल पाँच रुपये का योगदान दे सकता है, वह पूरी राशि का योगदान देता है, तो जो पाँच रुपये देता है, उसे पाँच गुना अधिक देने वाले की तुलना में अधिक उदार दाता माना जाना चाहिए। फिर भी बहुत बार जो पच्चीस रुपये का योगदान देता है, वह पाँच रुपये देने वाले से अपनी श्रेष्ठता की झूठी धारणा पर अनावश्यक रूप से उत्साहित होता है। इसी तरह, अगर कोई व्यक्ति कमज़ोरी के कारण पीछे हट जाता है और उसने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया है, तो वह वास्तव में उस व्यक्ति से बेहतर है जो उसे पीछे छोड़ देता है लेकिन अपनी पूरी आत्मा को अभियान में नहीं लगाता। इसलिए जो लोग परिस्थितियों को अपने लिए बहुत मुश्किल पाते हुए पीछे हट गए, उन्होंने भी समुदाय की सेवा की। अब वह समय आ गया था जब धैर्य और साहस की अधिक आवश्यकता थी। लेकिन ट्रांसवाल के भारतीय इसमें भी कम नहीं पाए गए। जो वीर अपने पदों पर डटे रहे, वे उनसे अपेक्षित सेवा के बराबर थे।

इस प्रकार दिन-प्रतिदिन भारतीयों के लिए यह मुकदमा अधिक से अधिक कठिन होता गया। समुदाय द्वारा लगाई गई ताकत के अनुपात में सरकार अधिक से अधिक हिंसक होती गई। हमेशा विशेष जेलें होती हैं जहाँ खतरनाक कैदियों या ऐसे कैदियों को रखा जाता है जिन्हें सरकार झुकाना चाहती है, और ट्रांसवाल में भी ऐसी ही जेलें थीं। इनमें से एक थी डीपक्लोफ कांविक्ट जेल, जहाँ एक कठोर जेलर था, और जहाँ कैदियों से लिया जाने वाला श्रम भी कठोर था। कुछ ऐसे भारतीय भी थे जिन्होंने सफलतापूर्वक अपना आवंटित कार्य पूरा किया। लेकिन यद्यपि वे काम करने के लिए तैयार थे, लेकिन वे जेलर द्वारा किए गए अपमान को बर्दाश्त नहीं कर सके और इसलिए भूख हड़ताल पर चले गए। उन्होंने गंभीरता से घोषणा की कि वे तब तक भोजन नहीं लेंगे जब तक कि जेलर को जेल से नहीं हटा दिया जाता, या फिर उन्हें ही (कैदियों को) किसी अन्य जेल में स्थानांतरित नहीं कर दिया जाता। यह पूरी तरह से वैध हड़ताल थी। हड़ताल करने वाले काफी ईमानदार थे और वे गुप्त रूप से भोजन नहीं करते थे। ट्रांसवाल में इस तरह के सार्वजनिक आंदोलन के लिए बहुत जगह नहीं थी। ट्रांसवाल में जेल के नियम विशेष रूप से कठोर थे। बाहरी लोग इस तरह के अवसरों पर भी कैदियों से मिलना नहीं चाहते थे। एक बार जब कोई सत्याग्रही जेल में आ जाता था, तो उसे आम तौर पर खुद ही जेल से भागना पड़ता था। यह संघर्ष गरीबों की खातिर था और इसे गरीबों के आंदोलन के रूप में चलाया जा रहा था। और इसलिए इन हड़तालियों ने जो शपथ ली थी, वह बहुत जोखिम भरी थी। हालाँकि, वे दृढ़ थे और सात दिनों के उपवास के बाद खुद को दूसरी जेल में स्थानांतरित करवाने में सफल रहे। चूँकि उन दिनों भूख हड़ताल एक दुर्लभ बात थी, इसलिए इन सत्याग्रहियों को अग्रणी (नवंबर, 1910) के रूप में विशेष श्रेय दिया जाता है।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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