गांधी और गांधीवाद
166. जनरल स्मट्स से समझौता
1908
प्रवेश
10 जनवरी, 1908 को जनरल जान क्रिस्टियान स्मट्स (24 मई 1870 - 11 सितम्बर 1950) ने गांधीजी और उनके कुछ साथियों को गिरफ़्तार कर
लिया था। उन्हें जोहान्सबर्ग की जेल में रखा गया। गांधीजी
ने जेल जीवन का भरपूर आनंद
लिया। गीता, क़ुरआन, बाइबिल पढ़ते और साथी क़ैदियों को उसे पढ़ाते उनका समय आराम से बीत रहा
था। गांधीजी की गिरफ़्तारी ने दूसरे लोगों में साहस का संचार किया और अनेक लोगों ने
गिरफ़्तारी दी। अल्पसंख्यक भारतीय समुदाय को, सरकार से लोहा लेने के लिये राजी
करने में, बड़े साहस, धैर्य और संगठन-कौशल की जरूरत थी। गांधीजी को कई बातों का ध्यान रखना
था; प्रबल यूरोपीय जन समाज की असीम
राजनैतिक शक्ति और विपुल आर्थिक साधन, दक्षिण अफ्रीका की स्थानीय सरकार की
हठधर्मिता, ब्रिटेन के उपनिवेश विभाग की
प्रिटोरिया-सरकार की नीति का विरोध करने की अनिच्छा और विदेश में जीवित रहने के
लिए संघर्ष में लगे अल्पसंख्यक भारतीयों के अति सीमित साधन। स्वयं गांधीजी को बड़ी
कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था। सरकार ने सोचा कि आंदोलन के नेता को गिरफ़्तार कर लेने से
आंदोलनकारियों का मनोबल टूट जाएगा। लेकिन हुआ उल्टा ही। गांधीजी कि गिरफ़्तारी
ने लोगों में साहस का संचार कर दिया। जिन ‘कुली’ को कायर कहा जाता था, उन्होंने
बहादुरी से सत्ता का उल्लंघन किया। गांधीजी के पकड़े जाते ही जेल जाने वालों की होड़ मच गई। आंदोलनकारियों ने
जेल का नाम ही रख दिया था ‘बादशाह एडवर्ड का होटल’। जोहान्सबर्ग की जेल में
मुश्किल से 50 क़ैदियों के रखने की जगह थी, लेकिन सत्याग्रियों की संख्या 150 के ऊपर थी। सत्याग्रहियों में अपार उत्साह था।
समझौते का प्रस्ताव
गांधीजी के आंदोलन को सब ओर से प्रशंसा और सहानुभूति मिल रही थी। आंदोलनकारियों की गिरफ़्तारी का चारों ओर विरोध हुआ। यहाँ तक कि भारत और इंग्लैंड, दोनों जगह भी, सार्वजनिक विरोध हुए। सरकार की चिंता
बढ़ना स्वाभाविक ही था। उपनिवेशों के लिए राज्य के अवर सचिव विंस्टन चर्चिल ने भी चाहते
थे कि एशियाई कानून संशोधन अधिनियम को उचित रूप से बदला जाना चाहिए या इस तरह से
लागू किया जाना चाहिए जिससे एशियाई लोग अधिक सहज महसूस कर सकें। सोलोमन के माध्यम
से जनरल स्मट्स तक उनके विचार पहुँचाए गए। जनरल स्मट्स काफी परेशान था। स्मट्स ने महसूस किया कि
भारतीय प्रतिरोध आंदोलन टूटने की संभावना नहीं है और इसलिए, उनके लिए समझौता करना बुद्धिमानी होगी।
समाज के अंग के रूप में
पत्रकार विभिन्न समयावधियों में, मीडिया मंचों के स्तंभों के बाहर महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाते रहे
हैं। संपादक मध्यस्थ के रूप में? यह संपादक की भूमिका का हिस्सा कैसे बन जाता है? अपनी अंतरात्मा की आवाज़ और विवेक
के बीच मध्यस्थता करते हैं, पहला उन्हें हस्तक्षेप करने के लिए प्रेरित करता है और दूसरा
प्रत्यक्ष कार्रवाई से पीछे हटता है। जोहान्सबर्ग में प्रकाशित होने वाले सभी
दैनिक समाचार-पत्र सोने की खदानों के यूरोपीय मालिकों में से किसी एक की संपत्ति
थे। केवल बहुत ही योग्य और प्रसिद्ध व्यक्तियों को ही संपादक के रूप में चुना जाता
था। अल्बर्ट कार्टराइट जितने सक्षम थे, उतने ही उदार थे। उन्होंने अपने स्तंभों में लगभग हमेशा भारतीयों के
हितों का समर्थन किया था। वह गांधीजी का मित्र था और भारतीयों के मकसद से हमदर्दी
रखता रखता था। गांधीजी के जेल जाने के बाद उन्होंने जनरल स्मट्स से मुलाकात की। जनरल
स्मट्स ने उनकी मध्यस्थता का स्वागत किया। इसके बाद कार्टराइट ने भारतीय नेताओं से
मुलाकात की, जिन्होंने कहा, 'हमें कानूनी तकनीकी पहलुओं के बारे में कुछ नहीं पता है, और जब तक गांधीजी जेल में हैं, तब तक हम समझौते के बारे में
बात नहीं कर सकते। हम समझौता चाहते हैं, लेकिन अगर सरकार हमारे लोगों के जेल में रहने के दौरान ऐसा चाहती है, तो आपको गांधीजी से मिलना
चाहिए। हम किसी भी व्यवस्था को मंजूरी देंगे जिसे वह स्वीकार करते हैं।'
28 जनवरी 1908 को जनरल जान
क्रिश्चियन स्मट्स के आग्रह पर ‘ट्रांसवाल लीडर’ नामक अंग्रेज़ी दैनिक
के संपादक पत्रकार अल्बर्ट कार्टराइट (1868–1956) समझौते का प्रस्ताव लेकर जेल में गांधीजी से मिलने आए। कार्टराइट अपने साथ जनरल स्मट्स
का बनाया हुआ समझौते का मसविदा भी साथ लाए थे।
प्रस्तावित समझौते का सार यह था: एशियाई लोग बिना किसी कानून के
संदर्भ के स्वेच्छा से अपना पंजीकरण कराएंगे; इस प्रक्रिया में पंजीकरण अधिकारी
आवेदकों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली किसी भी जानकारी के लिए दबाव
नहीं डालेंगे; उनके पास उन लोगों के मामले में
फिंगरप्रिंट की आवश्यकता को खत्म करने का विवेक होगा जिन्हें हस्ताक्षर की मदद से
आसानी से पहचाना जा सकता है; और यदि अधिकांश भारतीय स्वैच्छिक
पंजीकरण कराते हैं, तो सरकार इसे वैध बनाने के लिए कदम
उठाएगी।
वार्ता एक निजी कमरे में आयोजित की गईं, जिसमें कोई मौजूद नहीं था। गांधीजी को दस्तावेज़ की अस्पष्ट भाषा
पसंद नहीं आई, लेकिन फिर भी वह एक बदलाव के साथ उस
पर अपने हस्ताक्षर करने के लिए तैयार थे। कार्टराइट के माध्यम से स्मट्स ने प्रस्ताव रखा था कि यदि भारतीय स्वेच्छा से अपना पंजीकरण
करायें, तो अनिवार्य पंजीकरण का आपत्तिजनक क़ानून वापस ले लिया जाएगा। मसौदे
में यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि सरकार को ब्लैक एक्ट को निरस्त करने की क्या
शर्त है, इसलिए गांधीजी ने एक ऐसा बदलाव सुझाया जो उनके अपने दृष्टिकोण से इस
पर संदेह से परे हो।
कार्टराइट को यह छोटा-सा
संशोधन भी पसंद नहीं आया और उन्होंने कहा, 'जनरल स्मट्स इस मसौदे को अंतिम मानते हैं। मैंने खुद इसे मंजूरी दे
दी है और मैं आपको आश्वस्त कर सकता हूँ कि अगर आप सभी पुनः पंजीकरण करवाते हैं, तो ब्लैक एक्ट निरस्त हो ही जाएगा।'
गांधीजी ने उत्तर दिया, 'जहां मैं स्वयं अर्थ के बारे में
संदिग्ध हूं, वहां मुझे निश्चित रूप से भाषा में परिवर्तन का सुझाव देना चाहिए, और यदि समझौता होना ही है, तो दोनों पक्षों को मसौदे में
परिवर्तन करने का अधिकार होना चाहिए। जनरल स्मट्स को हमें यह कहते हुए अल्टीमेटम
देने की आवश्यकता नहीं है कि ये शर्तें अंतिम हैं। उन्होंने पहले ही भारतीयों पर
ब्लैक एक्ट के रूप में एक पिस्तौल तान दी है। दूसरी बंदूक तानने से उन्हें क्या
लाभ होगा?'
कार्टराइट ने जनरल स्मट्स के
समक्ष परिवर्तन के लिए उनके सुझाव को रखने का वादा किया।
गांधीजी ने उस प्रस्ताव के
बारे में थम्बी नायडू और चीनी नेता मि. क्विन से बात की जिन्होंने कुछ संशोधन
सुझाए। गांधीजी ने पहले ही एक जनसभा में यह ऐलान कर रखा था कि वे अनधिकृत आव्रजन
पर अंकुश रखने में अधिकारियों को सहायता देने के लिए स्वैच्छिक पंजीकरण पर आपत्ति
नहीं करेंगे। इसलिए कार्टराइट द्वारा लाया गया प्रस्ताव कुछ सुझाव के साथ गांधीजी ने मान लिया। गांधीजी, ल्यूइंग क्विन और थम्बी नायडू ने मसौदे
पर हस्ताक्षर कर दिए और उसे मिस्टर कार्टराइट को सौंप दिया।
इस पत्र का पैरा 2, जो दिखने में तो मासूम था, लेकिन इसके कुछ गंभीर निहितार्थ थे:
हमारा विरोध कभी भी अधिनियम के तहत विनियमों की फिंगरप्रिंट आवश्यकताओं के खिलाफ
इतना नहीं था - जहां तक ऐसे फिंगरप्रिंट एशियाई लोगों की पहचान के लिए आवश्यक
माने जाते थे, जिन्हें अन्यथा पहचाना नहीं जा सकता था - जितना कि अधिनियम में निहित
अनिवार्यता के तत्व के खिलाफ था। इस आधार पर हमने बार-बार यह प्रस्ताव रखा है कि
यदि अधिनियम निरस्त हो जाता है तो हम स्वैच्छिक पंजीकरण कराएंगे। और अब इस देर से
समय पर भी हम सरकार से आग्रह करेंगे कि वह यथासंभव हमारे द्वारा एक से अधिक बार
प्रस्तावित रास्ते को अपनाए।
अंतिम वाक्य में ‘जहाँ तक
संभव हो’ शब्दों ने सरकार को समझौते पर पहुँचने के बाद अपनी इच्छानुसार आगे
बढ़ने के लिए पर्याप्त स्थान दिया।
अन्तरिम
समझौता
उसके दो दिनों
बाद 30 जनवरी को जनरल
स्मट्स ने गांधीजी को मिलने के लिए प्रिटोरिया के अपने दफ़्तर में बुलाया। 30 जनवरी गांधीजी
के जीवन का एक भयानक दिन था। 40 वर्ष बाद इसी दिन उनकी ह्त्या हुई
थी। पुलिस अधीक्षक जे.सी.
वर्नोन द्वारा क़ैदी के कपड़े में ही जरल स्मट्स से
मिलने गांधीजी को प्रिटोरिया ले जाया गया। वह जेल अधीक्षक के दफ़्तर से वह बाहर निकलते हैं, एक कार उनका इंतज़ार कर रही थी। उन्हें सुरक्षा के तहत निकटतम रेलवे स्टेशन ले
जाया गया। एक आरक्षित डिब्बे में पर्दे खींचे हुए, वह उसमें
सवार होते हैं। ट्रेन मुख्य टर्मिनस से कुछ मील दूर प्रिटोरिया के बाहर फाउंटेन
हॉल्ट पर रुकती है। यहाँ एक और कार उनका इंतज़ार कर रही थी, जो उन्हें स्मट्स के
साथ एक गुप्त मुलाकात के लिए ले जाती है। शहर के केंद्र में स्थित औपनिवेशिक
कार्यालय में स्मट्स से बातचीत बड़े दोस्ताना माहौल
में हुई। बैठक दोपहर 12
बजे शुरू हुई थी, और लगभग दो घंटे तक चली। उन्होंने गांधीजी को
बताया कि उनके और श्री कार्टराइट के बीच क्या बातचीत हुई थी। उन्होंने गांधीजी को
बधाई दी कि उनके जेल जाने के बाद भी भारतीय समुदाय दृढ़ रहा। बड़ी शालीनता से बात करते हुए स्मट्स ने कहा, “'मैं आपके लोगों के प्रति कभी भी नापसंदगी नहीं
रख सकता। आप जानते हैं कि मैं भी एक बैरिस्टर हूँ। लेकिन मुझे अपना कर्तव्य निभाना
चाहिए। इस क़ानून के बारे में मेरे अपने निजी
विचार चाहे जो भी क्यों न हों, मैं असहाय हूं।
इसका कारण यह है कि यूरोपीय समुदाय का इस क़ानून को बनाने के लिए भारी दवाब पड़ रहा
था। मैं मसौदे में आपके द्वारा सुझाए गए परिवर्तन
को स्वीकार करता हूँ। मैंने जनरल बोथा से भी सलाह ली है, और मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि जैसे ही आप
में से अधिकांश स्वैच्छिक पंजीकरण करवा लेंगे, मैं एशियाई अधिनियम को निरस्त कर दूँगा। जब इस
तरह के पंजीकरण को वैध बनाने वाला विधेयक तैयार हो जाएगा, तो मैं आपको आलोचना के लिए इसकी एक प्रति
भेजूंगा। मैं नहीं चाहता कि इस तरह की समस्या दोबारा हो और मैं आपके लोगों की
भावनाओं का सम्मान करना चाहता हूं।”
स्मट्स ने अपना
प्रस्ताव रखते हुए कहा कि अगर भारतीय स्वेच्छा से परवाने ले लें, तो सरकार पंजियन
क़ानून रद्द कर देगी। गांधीजी को स्मट्स की बातों से लगा
कि उसके मन में सहानुभूति है। गांधीजी ने कुछ सुझाव दिए। स्मट्स
ने उन्हें मंज़ूर कर लिया। गांधीजी ने
समझौते की पुष्टि की। गांधीजी
ने यह मान लिया कि स्मट्स ने एशियाई कानून संशोधन अधिनियम को निरस्त करने के लिए
खुद को बाध्य कर लिया है, जबकि स्मट्स का मानना था कि उन्होंने ऐसी कोई
प्रतिबद्धता नहीं जताई थी। यह गलतफहमी बाद में सरकार और भारतीय समुदाय के बीच बहुत
कड़वाहट का कारण बन गई।
दोपहर में
कैबिनेट की बैठक थी। गांधीजी एक एंटरूम में इंतजार कर रहे थे। अंततः शाम को सात
बजे के करीब उन्हें जनरल स्मट्स के कार्यालय में बुलाया गया, जहां उन्हें पता चला कि समझौते को
कैबिनेट की मंजूरी मिल गई है। जनरल स्मट्स जो चाहते थे, वही देश का कानून बन जाता था।
गांधीजी ने
पूछा, “अब मुझे कहां जाना
है?”
स्मट्स ने हंस
कर जवाब दिया, “अप तो अभी से आज़ाद
हैं।”।
गांधीजी ने अन्य भारतीय क़ैदियों के बारे में पूछा, तो स्मट्स ने कहा,
“मैं जेल-अधिकारियों को फोन कर देता
हूं, सारे कैदियों को कल सुबह रिहा कर दिया जाएगा।”
गांधीजी उस समय ख़ाली जेब थे। स्मट्स के सचिव ने उन्हें जोहान्सबर्ग लौटने
का किराया दिया। प्रिटोरिया में
रुकने और वहाँ के भारतीयों को समझौते की घोषणा करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। नेता
सभी जोहान्सबर्ग में थे, जो उनका मुख्यालय था। गांधीजी जोहान्सबर्ग
की ट्रेन पकड़ने के लिए चल पड़े। वह शाम 7.45 बजे की ट्रेन से जोहान्सबर्ग के लिए चले
और रात 9 बजे स्टेशन पर पहुंचे। यह दो ज़बान के पक्के व्यक्तियों के बीच मौखिक
सहमति थी। गांधीजी जीवन भर अपने विरोधियों पर भरोसा करते रहे। हालाकि कई बार
उन्हें निराशा हाथ लगी। यहाँ भी कुछ ऐसा ही होने वाला था।
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मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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