शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

190. हिंद स्वराज-2

 गांधी और गांधीवाद

190. हिंद स्वराज-2



1909

विद्वानों के विचार

गोपालकृष्ण गोखले जी ने इस किताब को नापसंद किया था और आशा की थी कि भारत लौटने के बाद गांधीजी स्वयं इस किताब को रद्द कर देंगे। लेकिन वैसा हुआ नहीं। हिंद स्वराज एक विचित्र और विचलित करने वाली रचना है, जो गांधीजी की ताकत को उजागर करने की अपेक्षा उनकी कमजोरियों को अधिक बार उजागर करती है। जब गोखले ने यह पुस्तक देखी तो वे भयभीत हो गए और उन्होंने इसे मूर्खता का काम बताया और भविष्यवाणी की कि गांधीजी भारत में एक वर्ष बिताने के बाद इसे नष्ट कर देंगे। लेकिन इस रचना में जो विचित्र और विचलित करने वाली बात थी, वह भारत की अपरिवर्तनीय पदानुक्रमों और सभ्यता की खतरनाक उपस्थिति के विरुद्ध भारतीय ग्राम जीवन को बनाए रखने की आवश्यकता के बारे में इसके प्रतिक्रियावादी सिद्धांत नहीं थे, बल्कि कल्पनाशील जुनून, अहिंसक प्रतिरोध के पक्ष में तर्कों का जोरदार ढंग से प्रस्तुतीकरण था।

 

गांधीजी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक शिष्य पं. जवाहरलाल नेहरू ने ‘हिंद स्वराज’ को यथार्थ से परे कहा था। लगभग चालीस साल बाद उन्होंने इसे नेहरू को यह कहते हुए भेंट किया कि इसमें भारतीय गणराज्य का खाका है। नेहरू ने इस पुस्तक को निराशाजनक रूप से पुराना बताकर खारिज कर दिया। पुस्तक का अधिकांश भाग सरकार, औद्योगिकीकरण और ग्रामीण जीवन की स्थायी समस्याओं से संबंधित है और यह नेहरू के विचार से काफी कम पुराना था।

 

अप्रैल 1910 को जब गाँधीजी ने इस पुस्तक को थियोसोफिस्ट और ट्रांसवाल लेजिस्लेचर के सदस्य डब्ल्यू. जे. वीबर्घ को भेजी, तो उन्होंने जवाब में कहा था, “मैं नहीं समझता कि कुल मिलाकर आपके तर्क सुसंगत हैं। साथ ही गांधीजी के विचार से असहमत होते हुए उन्होंने कहा, “यूरोपियन सभ्यता में बहुत-सी कमियां हो सकती हैं, पर मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि वह शैतान का राज्य है, उसे ख़त्म हो जाना चाहिए। गांधीजी ने इसके जवाब में कहा था, “मैंने आधुनिक सभ्यता को नकारा है क्योंकि मैं विश्वास करता हूं कि इसकी मनोवृत्ति नकारात्मक है। मैंने इसका मूल्यांकन नैतिक आधार पर किया है।

पश्चिमी सभ्यता ने एक "शैतानी सभ्यता" का निर्माण किया था, जहाँ संसदों की माँ से लेकर अंतिम और सबसे अस्पष्ट डॉक्टर या वकील तक सब कुछ गलत था। रेलमार्ग शैतान के काम हैं, क्योंकि वे तेज़ परिवहन प्रदान करके बुबोनिक प्लेग के प्रसार में मदद करते हैं, और अकाल के प्रसार में, क्योंकि अनाज के मालिक अपने उत्पादों को सबसे महंगे बाजारों में बेचने के लिए रेलमार्गों का उपयोग करते हैं। उसी तीव्रता के साथ गांधी ने उन तीर्थयात्रियों पर हमला किया जो एक पवित्र स्थान से दूसरे स्थान तक यात्रा करने के लिए भारतीय रेलमार्गों का उपयोग करते हैं। उन्हें अधिक तेज़ी से यात्रा करने से क्या लाभ होता है? वे पैदल क्यों नहीं चल सकते?

 

इस पुस्तक को पढ़कर टॉल्सटॉय ने लिखा था, “मैंने तुम्हारी पुस्तक बहुत रुचि के साथ पढ़ी। तुमने जो सत्याग्रह के सवाल पर चर्चा की है यह सवाल भारत के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए महत्वपूर्ण है।

 

नागिनदास सिंघवी ने लिखा है, “हिंद स्वराज राजनैतिक मैनिफ़ेस्टो नहीं है, क्योंकि गांधीजी की राष्ट्रीयता भौगोलिक न होकर नैतिक और सांस्कृतिक है। गांधीजी का हिंद स्वराज गांधीजी के वैश्वीकरण की तरफ़ बढ़ता क़दम है।

गांधीजी ने कहा था, 'अगर हम न्यायपूर्ण तरीके से काम करेंगे, तो भारत जल्दी ही स्वतंत्र हो जाएगा। आप यह भी देखेंगे कि अगर हम हर अंग्रेज को दुश्मन मानकर उससे दूर रहेंगे, तो होम रूल में देरी होगी। लेकिन अगर हम उनके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करेंगे, तो हमें उनका समर्थन मिलेगा...’ यह भविष्यवाणी थी।

गांधीजी के निजी सचिव महादेव देसाई, जिन्हें उनका दूसरा व्यक्तित्व कहा जाता था, ने सितंबर 1938 में प्रकाशित आर्यन पथ के विशेष अंक में हिंद स्वराज के बारे में लिखा, "अपनी अवधारणा में अद्वितीय" और "अपने कार्यान्वयन में खूबसूरती से सफल"।

 

संवाद शैली

लन्दन से डरबन की वापसी की यात्रा में उन्होंने कलम और कागज उठाया और एक संपादक, जो खुद गांधीजी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, और उनके पाठक जो एक देशभक्त भारतीय के लिए खड़े थे, के बीच संवादों के रूप में गांधीजी ने अपनी आत्मा को उडेलना शुरू कर दिया, जो आम धारणाओं से दबे हुए थे, जिसमें यह विश्वास भी शामिल था कि भारत को आजाद कराने के लिए हिंसा का इस्तेमाल बिल्कुल जरूरी था। हिंद स्वराज का शिल्प आधुनिक है। यह पुस्तक संवाद शैली में लिखी गई है। यह संपादक और पाठक के बीच एक जीवन्त संवाद है। जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने हिंद स्वराज को संवाद के रूप में क्यों लिखा, तो उन्होंने बताया कि गुजराती भाषा, जिसमें उन्होंने पहली बार हिंद स्वराज लिखा था, इस तरह के उपचार के लिए उपयुक्त थी। संभवतः उन्होंने अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए ऐसा किया। इससे उन्हें तस्वीर के दोनों पक्षों को प्रस्तुत करने में मदद मिली। गांधीजी एक उच्च कोटि के संपादक और पत्रकार थे। एक सजग संपादक और प्रबुद्ध पाठक के बौद्धिक स्तर में बहुत अंतर नहीं होता। इसलिए संपादक की भूमिका में खुद को रखकर गांधीजी किसी बौद्धिक श्रेष्ठता या दंभ नहीं दिखला रहे थे। संपादक और पाठक अपने-अपने तर्कों से समान स्तर पर बात करते हैं। यह पुस्तक आधुनिक सभ्यता की समीक्षा, मास्टर नरेटिव के रूप में आधुनिक सभ्यता को स्वीकार करने पर प्रश्नचिह्न है। गांधीजी अपने देश के युवकों को हिंसा, अराजकता और आतंक की बढ़ती लहर से बचाना चाहते थे, जो ब्रिटेन द्वारा भारत पर किए गए दमन के जवाब के रूप में सामने आई थी। इसके लिए जो विचार उनके मन में आए उसे इससे बेहतर शैली में वे प्रस्तुत ही नहीं कर सकते थे। संवाद शैली – जो पढ़ने और समझने में बहुत ही आसान थी। इस पुस्तक में जिस विधा का उपयोग किया गया है वह प्रश्नोत्तरी का है। उन्होंने अपने को संपादक और एक देश भक्त भारतीय पाठक के रूप में विभाजित किया। हर संभव प्रश्न वे अपने-आप से पूछते हैं और उसका जवाब भी देते हैं। यह आत्म-संयम और संतुलन की एक कठिन प्रक्रिया है।

 

भारत के भविष्य की रूपरेखा

इस पुस्तक में उन्होंने भारत के भविष्य की रूपरेखा का वर्णन किया। गांधीजी ने 1921  में ‘नवजीवन’ में लिखा था, “यह समझने की ज़रा भी ग़लती न की जाए कि ‘हिन्द स्वराज’ में जिस तरह के स्वराज की कल्पना की गई है, मैं उसे लाने की कोशिश कर रहा हूं। मैं जानता हूं कि भारत अभी उस तरह के स्वराज के लिए तैयार नहीं है। ... उस तरह के स्वराज्य के लिए मैं ख़ुद को ज़रूर तैयार कर रहा हूं। बाक़ी जो आंदोलन है वह तो भारत की जनता जिस तरह का पार्लमेंटरी स्वराज्य चाहती है उसी को पाने के लिए है।

 

सत्याग्रह की नवीन विचारधारा

इसमें उन्होंने सत्याग्रह की नवीन विचारधारा का निचोड़ भी दिया। गांधीजी ने बार-बार संजीदगी से दावा किया है कि उन्हें सत्य के अलावा किसी और वस्तु की खोज नहीं है। गांधीजी ने आध्यात्मिक नैतिकता की सहायता से कमज़ोरी को शक्ति में बदल दिया, अहिंसा को हमारी सबसे बड़ी शक्ति बना दी। सत्याग्रह की सहायता से भारतीयों को शोषितों की तरह नहीं, विद्रोही की तरह जीना सिखाया। बल्कि यह कहें कि सत्याग्रह को एक अस्त्र में बदल दिया। सहनशीलता को सक्रियता में बदल दिया।

 

चरखा

इस समय तक उन्होंने चरखा देखा तक नहीं था, लेकिन इस पुस्तक में उन्होंने चरखे को देश के उद्धार की नींव माना है।

 

गांधीवाद को समझने की कुंजी

एन्थोनी जे. परेल ने ‘हिंद स्वराज’ को एक ऐसा बीज बताया है, जिसमें से गांधी दर्शन का संपूर्ण वृक्ष विकसित हुआ है। आदमी की अपने आपको समझने की कोशिश और अपने होने का अर्थ की तलाश चलती रहती है। व्यक्ति इससे जूझता रहता है। गांधीजी अपने अंतर्ज्ञान के बल पर अपने विचार निर्धारित करते थे और फिर अपने निष्कर्षों को एक वकील की तरह बुद्धिसंगत ढंग से पैरवी करते थे। जब पश्चिमी सभ्यता उत्थान पर थी तब भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद चरम पर था। ऐसी परिस्थिति में अपनी सभ्यता और संस्कृति के अर्थ की तलाश करने में गांधीजी जुटे थे। और इसी तलाश के परिणाम के रूप में “हिन्द स्वराज्य” सामने आता है। माना तो यह जाता है कि गांधीजी को समझना आसान भी है और मुश्किल भी। हिंद स्‍वराज गांधीवाद को समझने की कुंजी है। गांधीजी उन दिनों जो कुछ भी कर रहे थेवह इस छोटी सी किताब में बीज रूप में है। गांधीजी को ठीक से समझने के लिए इस किताब को बार-बार पढ़ना चाहिए। उनके सारे जीवन-कार्य के मूल में जो श्रद्धा काम करती रही वह सब इस पुस्तक में पाई जाती है।

भारत में ब्रिटिश शासन के प्रति अधीरता व्याप्त थी, साथ ही भारतीयों में अंग्रेजों के प्रति घृणा भी थी। ब्रिटिश लोग वाणिज्यिक स्वार्थ के राक्षस से ग्रस्त प्रतीत हो रहे थे। दोष मनुष्यों का नहीं, बल्कि व्यवस्था का था ... भारत का विदेशी पूंजीपतियों के हितों में शोषण किया जाता था। उन्होंने कहा, "रेलवे, मशीनरी और भोग-विलास की बढ़ती आदतें भारतीय लोगों की गुलामी का असली प्रतीक हैं। मेरा शासकों से कोई झगड़ा नहीं है। मुझे उनके तरीकों से हर तरह का झगड़ा है। मेरे लिए कलकत्ता और बॉम्बे जैसे शहरों का उदय बधाई की बजाय दुख की बात है। भारत ने अपनी ग्राम व्यवस्था के एक हिस्से को तोड़कर नुकसान उठाया है। इन विचारों को रखते हुए, मैं राष्ट्रीय भावना को साझा करता हूं, लेकिन मैं तरीकों से पूरी तरह असहमत हूं, चाहे वे चरमपंथियों के हों या उदारवादियों के, क्योंकि दोनों ही पक्ष अंततः हिंसा पर निर्भर करते हैं। हिंसक तरीकों का मतलब आधुनिक सभ्यता को स्वीकार करना होगा, और इसलिए, उसी विनाशकारी संरचना को, जिसे हम यहां देखते हैं, और परिणामस्वरूप नैतिकता का विनाश। मुझे इस तथ्य में कोई दिलचस्पी नहीं होनी चाहिए कि कौन शासन करता है। मुझे उम्मीद करनी चाहिए कि शासक मेरी इच्छा के अनुसार शासन करेंगे, अन्यथा मैं उन्हें मुझ पर शासन करने में मदद करना बंद कर दूंगा। मैं शासकों के खिलाफ एक निष्क्रिय प्रतिरोधक बन जाता हूं।"

राष्ट्रीय आन्दोलन की चर्चा

गांधीजी कांग्रेस की मौलिक भूमिका को और अधिक स्पष्ट रूप से सामने लाने की कोशिश करते हैं और बंगाल के विभाजन के बाद कांग्रेस द्वारा की गई गतिविधियों को भी रेखांकित करते हैं। स्थिति को स्पष्ट करने के लिए, वे स्वदेशी आंदोलन और उसके बाद की अन्य सभी चीजों पर विस्तार से चर्चा करते हैं, जिसमें कांग्रेस का उदारवादियों और उग्रवादियों में विभाजन भी शामिल है। वे आशा व्यक्त करते हैं कि यह आंतरिक दरार लंबे समय तक नहीं रहेगी। वे मानते हैं कि देश ने जो अनुभव किया है वह पूर्ण जागृति नहीं है। जो मूल रूप से एक प्रकार का असंतोष था, वह नींद और जागने के बीच की स्थिति के बराबर अशांति में बदल गया है।

साधन और साध्य

साधन और साध्य के बारे में उन्होंने लिखा: "साधन की तुलना बीज से की जा सकती है, और साध्य की तुलना वृक्ष से की जा सकती है; और साधन और साध्य के बीच वैसा ही अटूट संबंध है जैसा बीज और वृक्ष के बीच है। शैतान के सामने खुद को नतमस्तक करके मैं ईश्वर की आराधना से मिलने वाले परिणाम को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए, अगर कोई कहे, 'मैं ईश्वर की आराधना करना चाहता हूँ; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं शैतान के माध्यम से ऐसा करता हूँ,' तो इसे अज्ञानतापूर्ण मूर्खता माना जाएगा। हम जैसा बोते हैं, वैसा ही काटते हैं।"

धर्म बनाम सभ्यता

एक महत्वपूर्ण विचार जिसे गांधीजी प्रस्तुत करना चाहते हैं: 'यह मेरा जानबूझकर किया गया विचार है कि भारत अंग्रेजों के पैरों तले नहीं, बल्कि आधुनिक सभ्यता के पैरों तले कुचला जा रहा है। यह राक्षस के भयानक भार के नीचे कराह रहा है... धर्म मुझे प्रिय है और मेरी पहली शिकायत यह है कि भारत अधार्मिक होता जा रहा है। यहाँ मैं हिंदू या मुसलमान या पारसी धर्म के बारे में नहीं सोच रहा हूँ, बल्कि उस धर्म के बारे में सोच रहा हूँ जो सभी धर्मों का आधार है। हम ईश्वर से दूर होते जा रहे हैं।' इसके बाद धर्म बनाम सभ्यता के बारे में संक्षिप्त चर्चा होती है। गांधीजी स्वीकार करते हैं कि मानव इतिहास धर्म के नाम पर क्रूरता के कृत्यों से भरा पड़ा है। लेकिन सभ्यता के नाम पर जो कुछ भी हुआ है, वह बहुत बुरा है। वे इसकी तुलना एक चूहे से करते हैं जो कुतर रहा है जबकि पीड़ित को यह सुखदायक लगता है। यह वास्तव में उन तथाकथित आशीर्वादों की प्रकृति है जो ब्रिटिश शासन ने भारत को दिए हैं।

हिन्द स्वराज अभी जारी है ...

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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