रविवार, 16 अक्तूबर 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 87

भारतीय काव्यशास्त्र – 87

- आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में अप्रतीत, ग्राम्य और नेयार्थ दोषों पर चर्चा की गयी दी। इस अंक में क्लिष्टत्व, अविमृष्टविधेयांश और विरुद्धमतिकृत् दोषों पर चर्चा होगी।

आचार्य मम्मट श्रुतिकटु से नेयार्थ दोषों को समासरहित पद, समासगत पद और वाक्यगत दोष मानते हैं, लेकिन क्लिष्टत्व, अविमृष्टविधेयांश और विरुद्धमतिकृत् दोषों को केवल समासगत दोष ही मानते हैं। जबकि विश्वनाथ, वामन आदि आचार्य इन्हें केवल समासगत दोष न मानकर पद दोष और वाक्य दोष भी मानते हैं।

जब काव्य में ऐसी शब्द-योजना हो जिससे अर्थ की प्रतीति प्रत्यक्ष रूप से न होकर व्यवधान के साथ हो, वहाँ क्लिष्टत्व दोष होता है-

अत्रिलोचनसम्भूतज्योतिरुद्गमभासिभिः।

सदृशं शोभतेSत्यर्थं भूपाल तव चेष्टितम्।।

अर्थात् हे राजन, आपका चरित्र अत्रिमुनि के नेत्र से उत्पन्न ज्योति के उदित होने से विकसित होने वाले कुमुदों की तरह सुशोभित हो रहा है।

यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि चन्द्रमा को महर्षि अत्रि के नेत्र से उत्पन्न माना जाता है। इसीलिए उन्हें महर्षि अत्रि की सन्तान माना जाता है। इस श्लोक में चन्द्रमा के लिए अत्रि मुनि के नेत्र से उत्पन्न ज्योति कहा गया है, जिससे अर्थ की प्रतीति प्रत्यक्ष रूप से न होकर रुकावट के साथ हो रही है। अतएव इसमें क्लिष्टत्व दोष है।

इसी प्रकार हिन्दी में महाकवि सूरदास का निम्नलिखित पद भी इस दोष से दूषित है-

कहत कत परदेसी की बात।

मंदिर अरध अवधि बदि हमसों हरि अहार चलि जात।

ससि रिपु बरस, सूर रिपु जुगबर, हररिपु कीन्हों घात।

मघ पंचक लै गयो साँवरो, ताते अति अकुलात।

नखत, बेद, ग्रह जोरि अरध करि सोइ बनत अब खात।

सूरदास बस भई बिरह के, कर मींजे पछतात।।

यहाँ दूसरी पंक्ति में एक पक्ष (पन्द्रह दिन) के लिए मन्दिर अरध (घर का आधा-पाख या पक्ष) अवधि और एक माह के लिए हरि अहार (हरि अर्थात् सिंह का आहार- माँस और माँस से मास-महीना) प्रयोग किया गया है।तीसरी पंक्ति में दिन के लिए ससि रिपु (चन्द्रमा का शत्रु सूर्य जो दिन में दिखता है) और रात के लिए सूर रिपु (सूर्य का शत्रु जो रात में दिखता है) प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार चौथी पंक्ति में चित्त के लिए मघ पंचक (मघा से पाँचवाँ नक्षत्र चित्रा और फिर चित्रा से चित्त) प्रयोग किया गया है। पाँचवी पंक्ति में इसी प्रकार विष के लिए नखत(27), बेद(4) और ग्रह (9) जोरि अरध करि (27+4+9=40/2=20 बीस, उससे विष) प्रयोग किया गया है। इस प्रकार यहाँ अर्थ का ज्ञान तुरन्त या प्रत्यक्ष रूप से न होकर बड़ी ही कठिनाई से हो रहा है। अतएव यहाँ क्लिष्टत्व दोष है।

अविमृष्टविधेयांश का अर्थ है विधेय का अविमर्श (बोध, ज्ञान या विचार न होना) होना। किसी भी वाक्य के दो भाग होते हैं- उद्देश्य और विधेय। जैसे- मैं खाना खा रहा हूँ, इस वाक्य में मैं उद्देश्य है और खाना खा रहा हूँ विधेय। उद्देश्य सिद्ध और विधेय साध्य होता है, अर्थात् उद्देश्य अप्रधान और विधेय प्रधान होता है।

इसके बाद थोड़ी सी जानकारी समास के विषय में जरूरी है, क्योंकि यह दोष समास में ही होता है। समास में दो या अधिक पद होते हैं। समास के कई भेद हैं। किसी समास में पूर्व पद प्रधान होता है, किसी में उत्तर पद, किसी में दोनों पद, तो किसी में अन्य पद प्रधान होता है, जैसे- अव्ययीभाव समास में पूर्व पद प्रधान होता है, तत्पुरुष में उत्तर पद, द्वन्द्व में दोनों पद और बहुव्रीहि में अन्य पद। समास में भी जो पद प्रधान होता है, वह उस वाक्य का विधेय होता है। यदि समास में प्रयोग के कारण विधेय अप्राधन स्थान पर बैठ जाय, उसकी प्रधानता नष्ट हो जाती है। ऐसी स्थिति में अविमृष्टविधेयांश दोष होता है।

निम्नलिखित श्लोक हनुमन्नाटकम् के आठवें अंक का 48वाँ श्लोक है। यह रावण की गर्वोक्ति है-

मूर्ध्नामुद्वृत्तकृत्ताविरलगलद्रक्तसंसक्तधारा-

धौतेशाङ्घ्रिप्रसादोपनतजयजगज्जातमिथ्यामहिम्नाम्

कैलासोल्लासनेच्छाव्यतिकरपिशुनोत्सर्पिदर्पोद्धुराणां

दोष्णां चैषां किमेतत्फलमिह नगरीरक्षणे यत्प्रयासः।।

अर्थात् उद्धतता से लगातार काटे गए गले से अविच्छिन्न रक्त की धार से धुले भगवान शिव के चरणों की कृपा से मिली हुई जय (के वरदान) से जगत में मिथ्या ही जिनकी महिमा हो गई, ऐसे मेरे सिरों का और कैलास पर्वत को उठाने से गर्वान्वित मेरी इन भुजाओं का क्या यही फल है कि इस नगरी की रक्षा के लिए (मुझे) प्रयास करना पड़े?

यहाँ मिथ्या-महिमाशाली होना उद्देश्य नहीं, अपितु विधेय है, इसलिए प्रधान है। किन्तु बहुव्रीहि समास में इसका अन्तर्भाव हो जाने के कारण इसकी प्रधानता नष्ट हो गयी है। अतएव यहाँ अविमृष्टविधेयांश दोष है।

निम्नलिखित श्लोक में कर्मधारय समास में विधेय का अन्तर्भाव होने के कारण अविमृष्टविधेयांश दोष है-

स्रस्तां नितम्बादवरोपयन्ती पुनः पुनः केसरदामकाञ्चीम्।

न्यासीकृतां स्थानविदा स्मरेण द्वितीयमौर्वीमिव कार्मुकस्य।।

अर्थात् मौलश्री (बकुल) के फूलों की माला की कमर में करधनी जो बार-बार खिसक रही है और पार्वती उसे पुनः ठीक करती हैं। यह करधनी मानो कामदेव के धनुष की दूसरी प्रत्यंचा है, जिसे (धरोहर को रखने के लिए उचित स्थान की पहिचान रखने वाले) कामदेव ने बड़े यत्न से उचित स्थान पर रखा है।

इस श्लोक में में द्वितीयमौर्वी पद से उत्प्रेक्षा की गयी है, अतएव यह विधेय है। इसमें कर्मधारय समास के कारण, जो तत्पुरुष समास का ही एक भेद है और इसमें उत्तर पद प्रधान होता है, द्वितीय पद समास में पहले आने के कारण अप्रधान हो गया है, जबकि यही यहाँ विधेय है। समास में पूर्वपद होने के कारण इसका अर्थ होगा कि पहली मौर्वी (धनुष की प्रत्यंचा) से यह गुणवत्ता में इतर है, न्यून है। यदि यहाँ इस पद को समास में न डालकर मौर्वीं द्वितीयाम् कर दिया गया होता, तो इसकी गुणवत्ता पहली मौर्वी की भाँति या उसके बराबर मानी जाती (न्यून नहीं), जो कि कवि का अभीष्ट है। अतएव इस कारण से यहाँ अविमृष्टविधेयांश दोष है।

निम्नलिखित श्लोक में नञ् समास के कारण अविमृष्टविधेयांश दोष है। नञ् का अर्थ निषेध होता है। इसपर विचार करने के पहले नञ् समास को समझना आवश्यक है, जो तत्पुरुष समास का ही एक भेद है। नञ् समास के दो भेद होते हैं- प्रसज्य और पर्युदास। प्रसज्य समास में का प्रयोग पूर्णतया निषेध के लिए होता है, अर्थात् इसमें निषेध की प्रधानता होती है, प्रायः क्रिया पद के साथ, जबकि पर्युदास में समानता के साथ निषेध होता है- द्वौ नञर्थौ समाख्यातौ पर्युदासप्रसज्यकौ। पर्युदासः सदृग्ग्राही प्रसज्यस्तु निषेधकृत्।। जैसे- अशेष अर्थात् शेष होने का अभाव, कुछ भी शेष नहीं। यहाँ प्रसज्य है। लेकिन अब्राह्मण = न ब्राह्मण, ब्राह्मणेतर, जो ब्राह्मण न हो। लेकिन इसका अर्थ घोड़ा या गधा नहीं होगा, अपितु कोई मनुष्य होगा, जो ब्राह्मण जाति से इतर जाति का होगा। यहाँ मनुष्य होने की समानता के साथ निषेध है। अतः इसमें पर्युदास है।

कुमारसम्भव का निम्नलिखित श्लोक इस प्रकार के अविमृष्टविधेयांश दोष का उदाहरण है। इस श्लोक में सप्तर्षियों द्वारा माँ पार्वती से भगवान शिव की कमियों को बताया गया है-

वपुर्विरूपाक्षमलक्ष्यजन्मता दिगम्बरत्वेन निवेदितं वसु।

वरेषु यद् बालमृगाक्षि मृग्यते तदस्ति किं व्यस्तमपि त्रिलोचने।।

अर्थात् हे मृगनयनी, तीन नेत्रोंवाले में आपको कौन सा गुण दिखाई देता है? तीन नेत्रों के कारण वह कुरूप है, उसके जन्म का पता-ठिकाना नहीं, उसके पास धन भी नहीं है, नंगा रहता है। उसमें कोई भी गुण तो नहीं जो एक वर में ढूँढ़ा जाता है।

यहाँ अलक्ष्यजन्मता पद में जिसके जन्म का पता नहीं है विधेय है। लेकिन समास में आ जाने के कारण यह बहुव्रीहि समास में अन्तर्भूत होकर अप्रधान हो गया है और इसका अर्थ है कि जिसके जन्म का पता नही है वह। इस प्रयोग के कारण अन्य पद (शिव) प्रधान हो गया है। इसके स्थान पर अलक्षिता जनिः किया गया होता, तो कवि का अभीष्ट अर्थ, अर्थात् जिसका अर्थ होता जन्म, कुल आदि का पता नहीं है। इसलिए यहाँ अविमृष्टविधेयांश दोष है।

निम्नलिखित श्लोक में भी नञ् समास का गलत प्रयोग होने के कारण अविमृष्टविधेयांश दोष है-

आनन्दसिन्धुरतिचापलिशालचित्तसन्दाननैकसदनं क्षणमप्यमुक्ता

या सर्वदैव भवता तदुदन्तचिन्तातान्तिं तनोति तव सम्प्रति धिग् धिगस्मान्।।

अर्थात् जो कभी आपके लिए सुख का सागर थी, आपके चंचल मन के लिए एक मात्र आश्रय थी, जिसे आप क्षणभर के लिए भी नहीं छोड़ते थे और अब आपको उसके नाम से आपको घृणा है। इससे हम सभी को बारंबार धिक्कार है।

यहाँ अमुक्ता (न छोड़ी गयी हो) पद में प्रसज्य-प्रतिषेधक है। लेकिन समास हो जाने के कारण अप्रधान हो गया है, जबकि वही यहाँ विधेय है। इसलिए इस पद के कारण इस श्लोक में अविमृष्टमृष्टविधेयांश दोष है। अतएव इसे समास न डालकर न मुक्ता प्रयोग करना चाहिए था।

जब समास के कारण या शब्दयोजना के कारण अभीष्ट अर्थ के विपरीत अर्थ की प्रतीति हो, तो विरुद्धमतिकारिता दोष होता है-

सुधाकरकराकारविशारदविचेष्टितः।

अकार्यमित्रमेकोSसौ तस्य किं वर्णयामहे।।

अर्थात् चन्द्रमा की किरणो की तरह निर्मल व्यवहार करनेवाला निःस्वार्थ मित्र वह एक ही है, ऐसे मित्र का क्या कहना।

यहाँ अकार्यमित्र (अकार्य में मित्र) पद में विरुद्धमतिकारिता दोष है। क्योंकि अकार्य में मित्र का अर्थ होगा अकरणीय कार्यों मे जो मित्र है। अकार्य का अर्थ निःस्वार्थ ग्रहण नहीं होता।

विरुद्धमतिकारिता के लिए कुछ हिन्दी के वाक्य दिए जा रहे हैं- भगाई गयी लड़की को पुलिस द्वारा बरामद करने पर अखबारों में सुर्खियाँ यों छपी मिलती हैं- पुलिस द्वारा भगाई गयी लड़की बरामद। जबकि होना चाहिए- भगाई गयी लड़की पुलिस द्वारा बरामद। इसी प्रकार पिता जी को हिलाकर दवा पिला देना में विरुद्ध मति (बुद्धि) हो जाती है। क्योंकि दवा हिलाकर पिता जी को पिलाना है, न कि पिता जी को हिलाकर दवा

16 टिप्‍पणियां:

  1. धन्य-धन्य यह मंच है, धन्य टिप्पणीकार |

    सुन्दर प्रस्तुति आप की, चर्चा में इस बार |

    सोमवार चर्चा-मंच

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  2. कक्षा में हमारी हाज़िरी जारी है। ये वो बातें हैं जो आज से ज़्यादा कल समझ आएंगी।

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  3. बहुत सुन्दर , सार्थक प्रस्तुति,आभार.

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  4. गहन शास्त्र का विशद विवेचन। हम सभी न्यूनाधिक लाभान्वित हो रहे हैं। आभार,

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  5. आपके आलेखों से अच्छी जानकारी मिलती है .... आभार !

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  6. बहुत सुन्दर , सार्थक प्रस्तुति,आभार.

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  7. आचार्य जी!
    विरुद्ध्मतिकारिता दोष के तो अनेक उदाहरण हम सभी बचपन में प्रयोग करते थे..किन्तु इनकी व्याख्या आज आपके द्वारा जानी.. हम कहते थे कि माँ ने आलमारी में कपडे बिछाकर सोने के लिए कहा है. अब लगता ऐसा है कि कपडे बिछाकर आलमारी में सोना होगा जबकि आलमारी में कपडे बिछाकर तब सोने की जगह पर सोने की बात कही गयी है..
    सेव में कीड़े देखकर खाना... कहकर हम सब बहुत हंसते थे. तब कहाँ पता था कि इसे क्या कहते हैं..मगर आज जाना तो बहुत सी बातों पर पुनः हँसी आई!!
    आचार्य जी, यही विशेषता है आपकी कक्षा की!!

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  8. भारतीय काव्यशास्त्र पर मै पहलीबार पढ़ रही हूँ !
    आभार .......

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  9. bahut hi kam ki jaankari..lekin ek baar me samajh paana mushkil hota hai..is bishay se sambandhit aapki purani posts kaise dekhi jaa sakti hain..

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  10. bahut hi kam ki jaankari..lekin ek baar me samajh paana mushkil hota hai..is bishay se sambandhit aapki purani posts kaise dekhi jaa sakti hain..

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  11. डॉ.मिश्र, भारतीय काव्यशास्त्र पर क्लिक करें। प्रायः सभी पोस्टें आ जाएँगी। आभार।

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  12. काव्य शास्त्र की महत्वपूर्ण एवं अद्भुत जानकारियाँ देता है आपका लेख .....साधुवाद

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