बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

देसिल बयना – 102 : पिया मन भावे वही सुहागिन...

 

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-- करण समस्तीपुरी

धरती सुनहरी अंबर नीला, हर मौसम रंगीला... ऐसा देश है मेरा... ऐसा देश है मेरा....! अब ई को क्या कहेंगे? गाना की पांति या देश की बहुरंगी संस्कृति? कहें कुछ भी, सच्चाई थोड़े बदलेगी। पटरू काका पनिया जहाज से बारह मुलुक में व्यपार कर आए थे। वही कहे थे कि कौनो-कौनो देश में तो साल में एक से दो त्यौहार होता है मोस्किल से... मगर इहाँ न देखिये, एगो गया नहीं कि दूसरा हाजिर। होली का रंग सूखा नहीं कि चैता शुरु। दशहरा के दस दिन भी नहीं हुआ पता चला कि बीच में कैय्येक परब पास हो गया।

शनीचर के भोरे बैठे थे सनीचरी मौसी कने कि फिर अंगना-घर लिपाई-पुताई शुरू। क्या रे भाई.... तो आज करबा चौथ है। हा... हा... हा... हा...! मगर एक बात हमैं बुझाया नहीं कि आखिर ई में तो बड़ा मीठा-मीठा पर-पकवान बनता है फिर भी करबा चौथ काहे ? वैसे तो अँग्रेजी में ‘ओक्सीमोरन्स’ मतलब कि परस्पर विरोधी शब्द-युग्म चलते रहते हैं। जैसे कि ‘फ़ाउंड-मिसिंग’। अब भला आपहि बताइये, जब ‘फ़ाउंड’ तो ‘मिसिंग’ कैसे? ‘फ़ुल्ली एम्पटी’। कहो तो भला, ‘फ़ुल्ली’ भी और ‘एम्पटी’ भी? ‘लोन-पेयर’। ई तो अँगरेजिये का कमाल है कि ‘लोनली’ भी ‘पेयर’ बना लेता है। आज-कल ‘कारपोरेट जगत’ में एगो टर्म बड़ा प्रचलित है, ‘बिजिनेस-एथिक्स’। अब आपहि कहिये कि ‘बिजिनेस’ में जो ‘एथिक्स’ देखे लगेगा तो बिजिनेस चलेगा?

खैर ई सब तो अँगरेज मुलुक का किस्सा रहे दीजिये ‘थेम्स-अटलांटिक’ में। मगर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ वहाँ भी मीठे-मीठे फल-पकवान वाले परब को करबा-चौथ कहें तो हमरे समझ में नहीं आता है। भावनात्मक स्तर पर भी ई परब ‘दाम्पत्य’ जैसे सुमधुर संबंध में और मधुरिमा घोलने के लिये आता है। ई का नाम तो ‘मिठका चौथ’ होना चाहिये। ख़ैर नाम में का रक्खा है? एक बार सेक्सपियर साहेब कहे रहे, “गुलाब का नाम बदल के कुछ और कर दें उससे क्या... उसके रंग, सुगंध और काँटो के बीच मुस्कुराने की प्रवृति थोड़े न बदल जाएगी।” सत्य वचन। नाम लाख करबा कर दें मगर ई परब की जो मिठास है उ थोड़े न कम हो जाएगी? हरि बोल।

हर परब-त्यौहार में सब की अलग-अलग खुशी होती है। किसी को कपड़ा-लत्ता। किसी को गहना-जेवर। किसी को पूजा-पाठ और किसी को पर-पकवान। उसी तरह करबा-चौथ में मैय्या को बरत का बाबूजी को इंतिजाम का, भैय्या को खरीदारी का, भौजी को सज-धज का और हमरे खुशी का एगो अलगे एंगिल है। अब आप कहियेगा कि है मरदे ई तो जनाना-परब है ई में मरद-जात की सिरिफ़ जेब ही कटती है.... खुशी क्या...? तो महाराज जी, एक दफ़े रेवाखंड आइये फिर पता लगेगा। रेवाखंड में परब सिरिफ़ उल्लास के लिये होता है। जाति-धरम, लिंग-वरन के लिये नहीं। इहां होली का रंग हर चेहरे पर चढ़ता है और दिवाली के दिये हर घर में जलते हैं। ईद में सभी गले मिलते हैं और पच्चीस दिसंबर को बड़ा दिन तो सबके लिये है ही।

हम भी कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं। हाँ तो भाई कथा चल रही थी करबा-चौथ की। हाँ तो उ का हुआ कि जैसे ही हम शनिचरी मौसी कने करबा चौथ की चर्चा सुने, झट-पट घर आके कलेउ किये और सरपट भागे लुखिया ताई कने। टपकू भाई का तो गए लगन में ही बियाह हुआ है। पहिला करबा-चौथ होगा। फ़िलमी सजावट होगी। वैसे भी पहिलहि से दो-दो भौजी थी... ई बार तिसरी भी हो गई। सब नख-सिख सज रही होंगी। चलो सब को चिढाएंगे...! खूब होगा हँसी-मजाक-बतरस। रस्ते में झमेलिया को भी हरकार कर साथ ले लिये।

ताई गयी थी टोले में हकार देने। बैजू काका वहीं बाहरे में गाय को सानी-पानी दे रहे थे। “पांय लागें काका”, कहकर हम और झमेलिया वहीं ठिठक गए। काका काम में लगे हुए ही बोले, “आओ बैठो...!” फिर दो-टप्पी बातें हुई और हमलोग आंगने में धमक गए। पूरा अंगना गाय के गोबर से लिपा कर पितंबरी के तरह चमचमा रहा था। दुआरी पर कथा-परसंग होने वाला था। डीह पर वाली चतुरी बुआ नर्मदा-अनसुइया-सती-सावित्री के पतिव्रत की कथा वांचती हैं हर साल।

अंगना में पहुँचते ही अपना डियुटी पर लग गए। वैसे तो हर साल सबसे पहिले और सबसे ज्यादा बड़कीए भौजी को मजकियाते थे लेकिन ई बार सोचे कि रिवर्स औडर में शुरू करते हैं। छोटकी भौजी को छेड़े, “का हो भौजी... टिकुली तो माथे पर बिजुरिया जैसी चमक रही है....! नैहर से आया है क्या?” हमरा मजाक पर तो कैसन-कैसन चम्पिअन का मुँह में सिटकिनी लगा जाता है। छोटकी भौजी तो नई-नवेली थी। दू-चार दफ़े हाँ-हूँ कि फिर घुंघट काढ़ के खिसक गयी... शायद ओन्ने पूजा-पाठ का वर-व्यवस्था करना था।

छोटकी गई तो मझली। उ बोलने में भी जरा चरफ़र थी। आधा घंटा तक उनको रगेदते रहे। फिर बेचारी निहोरा कर के चली गयी, ‘कथा-कीर्तन’ के बात-व्यवस्था में। हकारिन-तिहारिन, गीतगायिन-सुहासिन सब के संध्या-भोज का जिम्मा उन्हीं के मत्थे था। मझली भौजी को बखश कर चले बड़की भौजी तरफ़। बड़की थी तो उमर में काफ़ी बड़ी मगर रिश्ता में तो भौजिये थी।

जा... बड़की भौजी को देखकर तो लगिये नहीं रहा है कि आज उनका भी करबा चौथ है। आम दिनों की तरह वही सिंपल लिबास। गहना-जेवर भी नहीं। केश को संभाल कर पहाड़ जैसन जूड़ा बनाई कोनिया घर में भकोलिया माय, जिबछी और मिसरीलाल को दिशा-निर्देश दे रही है। क्या मंगाना है, कहाँ पर चौकी रखनी है, चटाई बिछाना है आदि-आदि। बीच-बीच में मझली भौजी को बुला कर खान-पान के मेनू भी समझा रही थी।

बड़की भौजी हमें देखते ही बांह पकड़कर चौकी पर बैठाते हुए जिबछी से बोली कि बबुआ लोगों के लिये चाह बनाकर लाए। हम मजाक किये थे, “नाहिं भौजी... चाह नाहिं पिएम। हम तो रौए लागि करबा-चौथ के बरत धएले बानी।” “धत्‍ ... हमरे लागि राउर भैय्ये बहुत बारन.... देखऽ बिना नश्ता-पानी कैले निकलले बारन बज़ार... समान-पाति लेवे लागि। कहत-कहत रह गयिनी, मुँह में पानियो ना लेले सन...! कहेलन कि हम उनका खातिर बरत रखेली तऽ उ हमरा लागि रखिहन... हें... हें..हें....हें....!” बात खतम करते-करते भौजी की हंसी भी फूट पड़ी थी।

तड़के हम एक और टोन्ट कस दिये, “करबा चौथ...! रौअओ बरत करेली...? रौआ के देखकर तो जड़को ना बुझा ला कि रौओ के बरत बा...?” झमेलिया भी हमरे हाँ में हाँ मिलाया था, “और नहीं तो का... बिना सिंगारे-पटारे करबा चौथ...?” भौजी बाँयी हथेली दिखाकर बोली थी, “अब हमनी के उमर भइल... एक हाथ में बिध के खातिर मेहंदी लगा लेहनी... अब बूढ़े-बूढ़े का सिंगार कएल जाओ...!” शायद अपनी बात के समर्थन के लिये भौजी की नजर भकोलिया माय पर गड़ गयी थी।

भकोलिया माय बोली, “अरे ना हो दुल्हिन... अबहि तू काहे बुढ़ैबू...! देवी मैय्या तोहार सोहाग बनवले रहस... सिंगार-पटार तो सुहागिन के लच्छन बा...!” भौजी अपना पत्ता कमजोर पड़ते देख बोली थी, “अरे नाहि काकी... सिंगार-पटार तो दिखावटी बा... असल तो ‘पिया मन भावे वही सुहागन’। जरा देखीं जोखुआ के जोरू के.... इपिस्टिक-लिप्स्टिक, झुमका-कंगन झमका के दिन रात पति के माथा पर तबला पीटतिया... भोरे उ बज्जर गिराबेली आ सांझ में जोखुआ डंडा बजाबे ला...! उ से भली तो निरहुआ के लुगाई...! गरीबी में गहना जेवर कौन पूछे... मगर निरहुआ जब दिन भर खेत-पथार में कामकर के सांझ में आके सिनेह से लुगाई के मुँह निहारता तऽ ओहके मुँह पर कैसन सुहाग के लाली दौड़ जाला... देख.. तानी...! एहे लागि कहतानि कि ‘पिया मन भावे वही सुहागन’।”

बड़की भौजी की सुबुद्धि पर भकोलिया माय की आँखें फटी की फटी रह गई। हमरा मजाक भी अंदरे दब गया। भकोलिया माय सिर्फ़ सहमति में सिर हिला पाई थी और हमलोग श्रद्धा से अवनत हो मने-मन भौजी को प्रणाम किये और सोचे लगे, “हूँ... सही तो कहती हैं भौजी। अधिकार प्राप्त व्यक्ति जिसको पसंद करे वही योग्य है। ‘पिया मन भावे वही सुहागिन...!’ बांकी सबकुछ तो दिखावटी ही है। योग्यता का पैमाना तो साहेब की पसंदगी है।”

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपके बयना का फलक व्यापक हो रहा है.. व्यंग्य... समाज... संस्कृति.. सब सम्मिलित हो रहे हैं... सचमुच बिजनेस में एथिक्स देखेगा हो कैसे होगा बिजनेस.... बढ़िया बयना...

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  2. अति सुन्दर ,आभार.

    मेरे ब्लॉग पर आप सादर आमंत्रित हैं.

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  3. बहुत कुछ समेट कर लिखा है यह देसिल बयना ..अच्छी प्रस्तुति

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  4. बहुत खूब लिखा है आपने..बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  5. सबसे पहिले त आपका टेम्स पोंड वाला हुलिया के लिए बधाई.. एकदम ०००७ लग रहे हैं.. (ध्यान से देखिये आपके में एगो जीरो बेसी ठोंक दिए हैं)... आप ढेर अंगरेजी सब्द लिखे अऊर उसका बिरोधी माने भी समझा दिए.. बाकी हमरे ऑफिस में एगो चपरासी था उसका नाम त कमाल का था.. कमलेस.. हम लोग रोज उसको पूछते थे कि तुम "कम" भी है अऊर "लेस" भी!!
    बहुते निमन बयना...

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  6. ब्लॉग में आने का आभार,
    सुंदर पोस्ट बढ़िया लगी..बधाई....

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  7. “हूँ... सही तो कहती हैं भौजी। अधिकार प्राप्त व्यक्ति जिसको पसंद करे वही योग्य है। ‘पिया मन भावे वही सुहागिन...!’ अच्छी प्रस्तुति.

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  8. देशज भाषा की यह अभिव्यक्ति पसंद आयी,....! अच्छी रचना का आभार !

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