गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

आँच-92 – चुप्पी ओढ़ परिन्दे सोए .......

 

समीक्षा 

आँच-92 – चुप्पी ओढ़ परिन्दे सोए...

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हरीश प्रकाश गुप्त

 

जयकृष्णclip_image004 तुषार की यह कविता “चुप्पी ओढ़ परिन्दे सोए सारा जंगल राख हुआ” अभी पिछले दिनों 12 अक्टूबर को उनके ब्लाग छान्दसिक अनुगायन पर प्रकाशित हुई थी। सरल शब्दों में रची गई उनकी यह कविता वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में सामान्य सी बन गई असंगतियों और उसकी विद्रूपताओं पर करारी चोट करती है। अभी पिछले कुछ माह से राजनैतिक हलकों में अतिशय सरगर्मी देखी जा रही है। जनता में एक बड़े मुद्दे पर प्रतिरोध का स्वर मुखर हो चला है। हालाकि जनता के असन्तोष का विषय वही एकमात्र नहीं है। स्वतंत्रता के पश्चात राजनैतिक नेतृत्व का जो दिशा परिवर्तन हुआ है, मूलभूत विषयों और आवश्यकताओं के प्रति प्रतिबद्धताओं के अभाव ने सत्ता और जनता के बीच जो दूरी बढ़ाई है, असन्तोष का मूल वहीं विद्यमान है। या इसे यों कहें कि सत्ता में जो प्रतिबद्धताएं आम जनता के प्रति दायित्व की और सेवा-भावना की होनी चाहिए, वे अपने मूल स्थान से भटक कर स्वार्थपरता, सुविधा, लोभ, मोह और चाटुकारिता के आगोश में पहुँच चुकी हैं। वहाँ से सत्ता के मद और दम्भ में जो प्रतिक्रियाएं देखी जा रही हैं, वे लोकतंत्र के लोक को दोयम दर्जे का साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। इससे जनता अपने आपको ठगी सी महसूस कर रही है। जयकृष्ण तुषार की यह कविता देश के इस दुर्भाग्यपूर्ण राजनैतिक परिदृश्य को और इसके परिणाम स्वरूप जनता की पीड़ा और बेचारगी का सटीक चित्रण करती है।

राजनीति भले ही उन्हें सत्ताधिकारी और सर्वोपरि होने का भाव देती हो, शासक में दम्भ सहित कौशल का पर्याय दिखता हो, पर इसका अंतिम उद्देश्य जनता की सेवा, सुरक्षा और उसके विकास में निहित है। लेकिन वर्तमान सन्दर्भ में ये सभी लक्ष्य अप्रासंगिक हो गए हैं। उनका स्थान विपर्यय हो चुका है। जिस राजनीति में पहले ककहरा सीखने के लिए अथवा पैर जमाने के लिए बरसों की सेवा और त्याग तथा जनता के बीच काम करना और उसको समझना आवश्यकता हुआ करते थे, अब उनका स्थान चाटुकारिता आदि जैसी प्रवृत्तियों ने ले लिया है अथवा परिवार विशेष में जन्म लेना ही राजनीति में सर्वगुण सम्पन्न होने का पर्याय बन गया है राजनीति के / नियम न जाने ...... इस कच्चेपन की समझ के कारण ही लोकशाही कमजोर हुई है। जिन्हें जनता की सेवा करनी चाहिए थी, उनका जनता की आवश्यकताओं को पूरा करने से कोई विशेष सरोकार नहीं रहा है। राजनीति में गहरी जड़ें जमा चुके इन स्वार्थी लोगों ने अपना एकमात्र मकसद सिर्फ अपनी झोली भरना बना लिया है। केवल अपनी प्यास / बुझाते ये फव्वारे हैं। सत्ता के मद ने उन्हें जो शक्ति दी है उसका उन्होंने दुरुपयोग ही किया है, इसलिए उनसे अब कोई आशा भी नहीं है। यह देश जिनका है, उन्होंने इनके मद से आक्रांत और भयभीत होकर उनका विरोध करने के बजाए मौन रहना श्रेयस्कर माना। यही नहीं, बहुतायत लोगों ने उनकी शक्ति के प्रभाव में आकर उनकी अराजकता की अनदेखी करते हुए उन्हें सिर आँखों पर बिठा लिया है चुप्पी ओढ़ / परिन्दे सोए / सारा जंगल राख हुआ / वनराजों का .... । इसी का परिणाम है कि देश में राजनीति के चरित्र का पतन हुआ और यह हालात उत्पन्न हो गए। राजनीति के इस अपकर्ष से कोई भी दल अछूता नहीं है। देश में राजनैतिक शक्ति के जो तीन प्रमुख केन्द्र हैं, सबकी निष्ठाएं कमोवेश समान ही हैं।

आज के राजनेताओं की धनाड्य बनने की तीव्र गति, उनका शानदार रहन-सहन और पाँचतारा जीवन शैली हर एक को आकर्षित करती है और वे भी इसी में अपनी शान समझते हैं। वे इस चकाचौँध से इस कदर घिर चुके हैं कि जब वे आदर्श की बात करेंगे तो भी अपनी शान-ओ-शौकत में कोई आँच नहीं आने देंगे राजघाट भी जाना हो तो चलें / लिमोजिन कारों से जनता उनके लिए बहुमूल्य और उपयोग की वस्तु तो है लेकिन उसे वे हेय दृष्टि से देखते हैं। वे उसके समीप नहीं हैं और इस प्रकार खोखले समाजवाद की ढपली बजाकर वे उसका सामीप्य पा भी नहीं सकते हैं हम शीशे की / बन्द दीवारों में / धुँधलाए पारे हैं देश की समस्याएं मात्र आकर्षक नारों के रूप में केवल लाभ अर्जित करने के लिए इस्तेमाल की जाती रही हैं। व्यवहार में उनके प्रति सजगता और संवेदनशीलता का सर्वथा अभाव है। विकास, समाजवाद और परिवर्तन आदि अन्य आज के इसी प्रकार के प्रचलित नारे हैं। इन सभी ने जनता को एक बार नहीं, कई-कई बार छला है “..... हम हारे के हारे हैं। अपना यशोगान स्वयं करने य़ा अपने चाटुकारों से कराने वाले इन राजनीतिज्ञों की छवि, विश्वसनीयता और उनका सम्मान बहुत घट चुके हैं।

सरल शब्दावलि में सीधे-सीधे अभिव्यक्त तुषार जी की यह कविता आज के हालात को, यथार्थ को सर्वथा उपयुक्त चित्रित करती है। कविता में आम जन की पीड़ा और व्यवस्था से निराशा की झलक है। सरल होने के कारण यह कविता का संदेश आम पाठक को सहजता से सम्प्रेषित करती है। कविता की शीर्ष पंक्तिया चुप्पी ओढ़ परिन्दे सोए सारा जंगल राख हुआ और पहले पैरा की पंक्तियाँ राजमहल की / बुनियादों पर / गिरती ये दीवारें हैं आकर्षक बन गई हैं।

यद्यपि कविता में तुकबन्दी मिलाने का प्रयास किया गया है, लेकिन कविता में गीतात्मकता का अभाव और आधुनिक कविता की परिवेशगत सत्य को उद्घाटित करने की प्रवृत्ति इसे आधुनिक कविता की श्रेणी में बनाए रखने को विवश है। एकाधिक स्थानों पर पंक्ति विभाजन उपयुक्त कम प्रतीत होता है जिससे अर्थ ग्रहण में अवरोध आता है। जैसे राजघाट भी जाना हो तो / चलें लिमोजिन कारों से तथा “अब तो केवल / अपनी प्यास / बुझाते ये फव्वारे हैं होतीं तो अधिक उपयुक्त रहता। कविता में बिम्बात्मक और व्यंजनात्मक अभिव्यक्तियाँ कम है और सरल और सपाट अभिव्यक्ति अधिक, इसीलिए कविता में संदेश की तुलना में लम्बाई अधिक हो गई है। जबकि काव्य की सार्थकता तभी होती है जब उसमें अमूर्त सा दिखने वाला सत्य व्यंजना के माध्यम से अभिव्यक्त होकर सामने आए और अर्थ में चमत्कार पैदा करे, न कि पाठक के सामने सीधे और शांत ढंग से आकर पसर जाए। कविता में जो अधिकांश बिम्ब प्रयोग में आए हैं वे सीधा अर्थ तो देते हैं, पर विशेष चमत्कृत नहीं करते।

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  2. एक सुन्दर नवगीत की बेहतरीन समीक्षा।

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  3. सदा ने आपकी पोस्ट " आँच-92 – चुप्पी ओढ़ परिन्दे सोए ....... " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  4. काव्य की सार्थकता तभी होती है जब उसमें अमूर्त सा दिखने वाला सत्य व्यंजना के माध्यम से अभिव्यक्त होकर सामने आए और अर्थ में चमत्कार पैदा करे, न कि पाठक के सामने सीधे और शांत ढंग से आकर पसर जाए।
    संक्षिप्त एवं प्रयोजनमूलक समीक्षा अच्छी लगी । मेर पोस्ट पर भी आपका सर्वदा इंतजार रहता है । दीपावली की शुभकामनाओं के साथ । धन्यवाद ।

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  5. समीक्षा आँच के आकर्षण के अनुरूप यथावत है। समीक्षक गीत के आयामों को रेखांकित करने में पूरी तरह सफल है। आभार।

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  6. बहुत बढ़िया प्रस्तुति... शुभकामनायें

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  7. राजनीति भले ही उन्हें सत्ताधिकारी और सर्वोपरि होने का भाव देती हो, शासक में दम्भ सहित कौशल का पर्याय दिखता हो, पर इसका अंतिम उद्देश्य जनता की सेवा, सुरक्षा और उसके विकास में निहित है। लेकिन वर्तमान सन्दर्भ में ये सभी लक्ष्य अप्रासंगिक हो गए हैं.सटीक समीक्षा.

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