शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

फ़ुरसत में ... जहां देखा उफान, लगा ली वहीं दुकान

फ़ुरसत में ...

जहां देखा उफान, लगा ली वहीं दुकान

IMG_0568मनोज कुमार

images (62)जब कभी फ़ुरसत में होता हूँ तो सोचता हूँ मट्ठाधीश बनना है … और मट्ठाधीश बनना है तो कुछ पंगे ले ही लूँ। जी हाँ मट्ठाधीश, मठाधीश नहीं। मठ से तो एक व्यक्ति के होने का आभास होता है, मट्ठाधीश से सब-कुछ घोर-मट्ठा हो गया हो कुछ ऐसा स्वाद आता है। फिर भी, यह मठाधीश से कुछ वजनदार तो प्रतीत होता ही है। इस बार जब मैंने अपने परम मित्र छदामी को यह बताया तो उसने कहा ‘थोड़ी मिर्ची तीखी कर देना, मट्ठा बहुत स्वादिष्ट हो जाएगा।’ मैंने भी सहमति की मुहर लगाते हुए कहा, ‘सही कह रहे हो दोस्त, अब वक़्त आ ही गया है जब लोगों को कुछ न कुछ मट्ठाधीशी दिखानी ही होगी। कतार भले ही लंबी क्यों न हो, मट्ठाधीशी की लाइन में हम भी हैं यहाँ।’

छदामी ने भी अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी – ‘अब आप जैसे महान लेखक यह सब अपने हाथ में ले ही लें। फिर तो उससे हम जैसे छदमियों का भी वारा-न्यारा हो जाएगा।’

मैंने ठहाका लगाया, वह भी अंतरजाल के ठहाके स्टाइल में ‘हाहहहहहहहहहाऽऽआह ..।’

इस तरह का ठहाका जब कभी चैट बॉक्स में लिखता हूँ तो यह ठहाका सदैव एक ‘आह..’ संबोधन के साथ ही समाप्त होता है। कितनी भी सतर्कता क्यों न बरतूँ, ये मेरा हिन्दी टाइपिंग टूल भी गाहे-बगाहे कुछ का कुछ अर्थ दे जाता है। अब तो मुझे खुद पर भी शक होने लगा है कि जो मैं लिखना चाहता हूँ, वही प्रकट हो रहा है या जो मेरे भीतर होता है और जिसे मैं प्रकट नहीं करना चाहता हूँ वह प्रकट हो जाता है।

छदामी को तो जैसे मेरे इन ख़्यालातों से कोई मतलब ही न हो। बोलता है, “इस बार कोलकाता आऊँगा, तो आपका औटोग्राफ भी ले लूँगा! आपके मट्ठाधीश बन जाने के बाद बड़ा काम आएगा।” और उधर से ठहाके के थोड़े ही नीचे वाले स्तर की हँसी का संकेत आया, ‘हे-हे-हे- ए ए।’

उसने इतनी सतर्कता बरती कि ‘आह’ शब्द न निकले, पर जो अंत का ‘ए-ए-ए...’ था, मुझे चिढ़ाता-सा प्रतीत हुआ। छदामी ने उस गीतात्मक ‘ए-ए-ए’ के बाद जोड़ा, ‘और उस औटोग्राफ की एक पोस्ट बनाकर अपने ब्लॉग पर लगा दूँगा, हाँ पोस्ट में केवल औटोग्राफ ही होगा और कुछ नहीं।’

मैंने कहा, ‘क्या छदामी? अभी से ही तुम मुझे चढ़ा रहे हो चने के पेड़ पर! अभी तो कोई प्रगति ही नहीं हुई है।”

छदामी बड़ा समझदार है, कभी-कभी तो मुझे उससे भी थोड़ा ज़्यादा लगता है। उसने तपाक से कहा, ‘सर जी, जब आग लगी होती है तभी धुआँ उठता है।’ मुझे उसके इस पुराने बिम्ब का जुमला बड़ा ताजगी भरा लगा। मैंने भी जड़ ही दिया - ‘कुछ लोग आग लगाते भी हैं , हाथ सेंकने के लिए ..! कहीं तुम भी …!’ छदामी ने कुछ कहने के बजाए फिर से वही, ठहाके के थोड़ा सा नीचे वाले स्तर की हँसी का संकेत दिया, ‘हे-हे-हे- ए ए!! सर जी, आजकल मेरे ब्लॉग पर बड़ी सरदी छाई हुई है। हाथ सेक लूँ, तभी तो गरमी आएगी।’ मैंने उसे समझाया, ‘ऐसे नहीं छदामी, ऐसे नहीं। तुम्हें आग लगानी होगी। खाली हाथ सेकने से काम नहीं चलेगा अब। मट्ठाधीशी की खिचड़ी पकानी है तो पहले तो आग जलानी ही पड़ेगी।’ इतना कह कर अपने बुद्धि-चातुर्य के ऊपर मुहर लगाने के लिए मैंने ज़ोरदार ठहाका लगाया ‘हाहहहहहहहह्हहहहाह्हहहहह्हऽऽअआह ....!’

मेरी हँसी इतनी ज़ोर की थी कि किचन से निकल कर श्रीमतीजी बोलीं, ‘पगला तो नहीं गए हैं ऽऽ ?’ जैसे मेरी चोरी पकड़ी गई हो, मैंने तुरन्त सामान्य होने का नाटक करते हुए सफाई दी- ‘नहीं, छदामी ने एक चुटकुला सुनाया था, उसी पर हँसी आ गई।’

मै बहुत सक्रिय ब्लॉगर तो नहीं हूँ लेकिन कुछ चुनिन्दा लोगों के ब्लॉग पढता रहता हूँ। उसमें भी कुछ चुनिंदा लोगों के ब्लॉग पर ही कमेंट करता हूँ और उनसे अपने रिश्ते भी बनाता चलता हूँ। यह काम करते-करते इन दिनों हमारा भी एक गुट बनकर तैयार हो गया है। मेरी भी आदत है की जिससे मन मिलता है या जिसके लेखन से प्रभावित होता हूँ , जब भी उसके शहर में होता हूँ, मेरे हाथ में हो न हो फिर भी किसी तरह मौका निकाल कर उससे मिलता जरूर हूँ। बड़े सिस्टमैटिक तरीक़े से हमने भी अपना एक दल तो बना ही लिया है। यह सब सोचते-सोचते मेरे मन के सामने मट्ठाधीश बनने की रूपरेखा घूम गई। लेकिन इस बार श्रीमतीजी के भय से मुँह दबाकर मन-ही-मन हँसा ‘हाहहहहहहह्हहहह...’ और इस बार ‘आह’ भी न निकली।

मट्ठाधीश बनने की रूपरेखा मन में घूमते ही जो हँसी निकल आई थी, बड़ी मुश्किल उसे ‘उन’ तक पहुँचने से रोक पाया इस बार! अन्यथा घर से बाहर कर दिया जाता। यह न भी होता तो कम से कम लैपटॉप बंद कर दिए जाने या ब्रॉड-बैंड का स्विच ऑफ कर दिए जाने का खतरा तो अवश्यम्भावी था ही। इन दिनों घर में मेरा अधिकांश टाइम तो अपने लैपटॉप के साथ खेलते ही बीतता है। उनका भी टाइम पास हो और मेरी मट्ठाधीशी में दखल न हो इसलिए हमने उनको भी एक लैपटॉप अलग से ले दिया है। पर, डर तो छदामी जैसे लोगों से है, जिनका अपना तो कोई दल नहीं है। बस, डालने कि फिराक में रहते हैं राजनीति का मट्ठा किसी की भी मट्ठाधीशी में। या कुछ नहीं तो किसी को मट्ठाधीश बनवाने के लिए उसे झाड़ पर ही चढ़ाने की जुगत ही करते फिरते हैं। जो दल देखा, उसी में घुस गए या जहाँ देखा उफान, लगा ली वहीं दुकान।

अरे! यह तो करण वाला देसिल बयना हो गया। जहाँ देखा उफान, लगा ली वहीं दुकान। ... ... हहहहहहहह्हहहह ... हाहह्हहहहह्ह ... । घर पर हूँ। किसी तरह ‘आह’ तो रोक लूँ, भाई। मुँह बन्द करके हँसना पड़ रहा है।

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44 टिप्‍पणियां:

  1. मठाधीशी के फार्मूले ढूंढ ही लिए ....
    रोचक स्टाईल वाला व्यंग्य!

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  2. मठाधीशी से मट्ठाधीशी तक की खोज का प्रयत्न (व्यंग्य)काफी रोचक है। व्यंग्य बहुत ही प्रवाहपूर्ण है।

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  3. बस जरा देसिलपना कम है वरना सचमुच मट्ठा बयान है.

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  4. मट्ठाधीशी.... ह हा हा हा। सही व्यंग्य किया है आपने। सब कुछ घोर मट्ठा कर देने के लिए बढ़िया जुमला गढ़ा है। आज के युग में लोग मठाधीश कम मट्ठाधीश ही अधिक बन रहे हैं। रचना मजेदार है।

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  5. मठ्ठाधीश बन ही जाइए, हम सब आपके साथ हैं।

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  6. नीचे वाले स्तर की हँसी का संकेत: ‘हे-हे-हे- ए ए

    ठहाका लगाया:हाहहहहहहहह्हहहहाह्हहहहह्हऽऽअआह...

    मुझे तो उपर्युक्त दोनों हँसी बड़ी मज़ेदार लगी. टिप्पणी लिखते हुए अभी भी हँसी आ रही सोंच रहा हूँ कहीं मेरी श्रीमती जी देख न लें और सोंचने लगें कि ये आख़िर बिना बात के अकेले क्यों हंस रहे हैं.इन्हें हो क्या गया है...........,ऐसा ज़बरदस्त और natural हास्य आप ही लिख सकते हैं.बधाई.

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  7. आज कल मठाधीश से मट्ठाधीशी ज्यादा सही है ...अब ठहाकों की जगह चिह्न से ही काम चलाएंगे ..:):):)
    बहुत बढ़िया फुर्सत में अच्छी खुराफात

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  8. हाहा , ये छदामी ने भी तो सही कहा , जब आग लगी हो धुंवा तभी उठेगा . वैसे पहले दही जमानी पड़ती है मट्ठाधीशी के लिए. छदामी को छाछ दे दीजिये , चने के झाड़ पर चढ़ाना छोड़ देगा .

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  9. मजेदार ... मठादीश बन्ने का प्रयास अच्छा है ...असली सुख तो उसी में है ...

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  10. sundar hai मट्ठाधीश. banne me kasar baki rahe tou itila kijiye. mast post hai.

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  11. वाह... बेहतरीन पोस्ट..

    एक कहावत मेरे मन में भी आ गयी आपकी पोस्ट पढते पढते, रुक नहीं पा रहा :

    "जोगी बहुतेरे मठ वीरान"

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  13. जहां देखा उफान,

    लगा ली वहीं दुकान,

    और बह गए मय सामान

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  14. शानदार व्यंगात्म प्रस्तुति समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

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  15. ह्ह्हह्ह्ह्ह....हहहः
    ह्ह्हह्ह्ह्ह....हहहहा
    ह्ह्हह्ह्ह्ह....हहहहाह
    ye bhi options hain :)

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  16. 'mathadhishi-matthhadhishi' jaisi koi
    baat nai na hai.....samandharmi...aapas me ek doosre se milte batiyate hain...aur kuchho nai na hai......

    bakiya 'harek ras' me hame 'mouj ke ras' sabse achha lage hai......


    pranam.

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  17. फुर्सत में अच्छी दुकान सजा लेते हैं आप भी.. एक तो मट्ठा पीता/खाता नहीं था, दूसरे डॉक्टर ने मना भी कर रखा है.. हम तो पहले ही से सूंघ लेते हैं गंध मट्ठे की और सटक जाते हैं... गौरतलब है कि 'गटक' जाते हैं नहीं कहा...
    मज़ा आ गया!!!
    - सलिल वर्मा

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  18. बहुत बढ़िया व्यंग्य्………पसन्द आया।

    yahan bhi dekhein..........http://vandana-zindagi.blogspot.com

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  19. आदरणीय मनोज जी ..गंभीर भाव बहुत कुछ कह गए
    आप के शब्द विचार करने को ...चुनिन्दा लोगों के ब्लॉग ...एक ग्रुप ....ढेर सारी हार्दिक शुभ कामनाएं .....जय माता दी आप सपरिवार को ढेर सारी शुभ कामनाएं नवरात्रि पर -माँ दुर्गा असीम सुख शांति प्रदान करें
    थोडा व्यस्तता वश कम मिल पा रहे है सबसे क्षमा करना
    भ्रमर ५

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  20. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है! आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो
    चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

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  21. हा हा आह ..... आह के बाद ... आह से उपजा होगा गान ... यहाँ तो पूरा चिट्ठा उपज आया है ..

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  22. वाह साहब, इस मट्ठाधीशी के प्रयोग के चलते मुहावरा तो बडा उपयोगी बन गया है ।

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  23. मनोज जी आप तो ऐसे नहीं लगते थे...पर जब तमन्ना कुलांचे मारने लगी है...तो मट्ठाधिशी भी कर लीजिये...एकाध जमूरे की कमी तो हम पूरी कर ही सकते हैं...कानपुर आना हो तो बंदा यहीं स्थापित है...सूचित कीजियेगा...

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  24. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|

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  25. आप तो बन ही चुके हैं,हम भी बनने की प्रक्रिया में हैं ! बिना किसी टेंट के नीचे आए भीगने और भागने का ख़तरा बना रहता है.इसलिए जिस टेंट का खूँटा मज़बूत हो,वह ज़्यादा मुफ़ीद है.सौभाग्य से हमने इसके लिए तगड़ा इंतज़ाम किया है !
    आप की इस प्रविष्टि की चर्चा को 'मंच' मिल गया है तो सिद्ध होता है कि आपका भी खेमा और खूँटा मज़बूत है !!

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  26. क्या बात है ,, अवसर वादिता ही वांछित है ......शुक्रिया जी

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  28. hamari badhayi advance me sweekar karen maththadheesh banNe ki.

    haaaaaaaaaa.haaaaaaaaaaa.haaaaaaaaaaaaa.

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  29. हाहहहहहहहहहाऽऽआह ..।


    अभी की लोकेशन क्या चल रही है दुकान की. :)

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  30. अरे आप मट्ठाधीशी की दूकान लगाइए हम पहले ग्राहक होंगे :):).
    देखिये हमने ठहाका भी नहीं लगया तो आह निकलने का खतरा भी नहीं.
    बढ़िया रोचक व्यंग.

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  31. राम कृष्ण परमहंस जी को काफ़ी रूचि से पढ़ा लगता है आपने सर जी

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  32. आपकी लिखी रचना सोमवार 4 जुलाई 2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

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  33. लाजवाब व्यंग । शानदार लेखन शैली ।

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  34. वाह!!!
    गजब की मट्ठाधीशी !
    मजेदार हास्यव्यंग।

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