सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

बावरे घन, तुम सघन वन में जरा बरसो !

नवगीत


बावरे घन, तुम सघन वन में जरा बरसो !

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- हरीश प्रकाश गुप्त

4बावरे घन

तुम सघन वन में

जरा बरसो !

 

आस अंजन सी बसी

हिय में मचलती उर्म्मियाँ,

कौन जाने कब फटेगी

पौ, खिलेंगी रश्मियाँ,

डगर सी-रूठी हुई

प्राची सनी रव से घनी

प्रीत पाखी डोर बाँधे

उड़ चले पुर को।

 

प्रवाद को आकुल पड़ा घट

रीत, पनघट पर,

शिथिल औ परिश्रांत अब

जैसे बरज दी गई हो सोहर,

चू रही टप-टप विटप से

गगन मन की आर्द्रता,

पूरना दे शीत, व्यथित

अविराग-से उर को।

*****

15 टिप्‍पणियां:

  1. यदि गुप्त जी का नाम हटा दे तो यह कविता महादेवी जी या फिर बच्चन जी की लग रही है. एक कवि के रूप में भी हरीश जी प्रभावित कर रहे हैं. सुन्दर.

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  2. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

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  3. व्यवस्थित शब्दों से सजी बहुत अच्छी रचना.

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  4. हरीश गुप्त जी को सादर बधाई इस बहुत खुबसूरत प्रवाहित रचना के लिए...

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  5. पढ़ने का आनन्द ऐसी ही रचनाओं में आता है।

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  6. खूबसूरत प्रवाहमयी कविता के लिये हार्दिक बधाई।

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  7. भावपूर्ण रचना ,
    सार्थक प्रस्तुति , बधाई

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  8. बेहतरीन रचना पढवाई है हरीश जी की मनोज जी .बहुत बहुत शुक्रिया ज़नाब का .

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  9. लाजवाब कविता....महादेवी जी ....अतुकांत कब लिखती थीं ..

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  10. हरीश जी.. शीत काल के आगमन पर आपकी यह घन गरजे बरसे सुनकर शीतलता और बढ़ गयी.. किन्तु कविता की लयात्मकता ने और शब्दों के चयन ने मुग्ध कर दिया!! एक नया रूप आपका देखने को मिला!!

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  11. गीत के प्रवाह और शब्द व्यंजना ने मन को छू लिया !
    आभार !

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  12. बहुत सुन्दर रचना............आभार

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