काव्य भेद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
काव्य भेद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 28 नवंबर 2010

भारतीय काव्यशास्त्र - काव्य के भेद - ध्वनि काव्य

भारतीय काव्यशास्त्र - काव्य के भेद - ध्वनि काव्य

आचार्य परशुराम राय

प्रारम्भ में आचार्य मम्मट ने काव्य के तीन भेद - उत्तम, मध्यम और अधम बताए थे। उत्तम शब्द ध्वनि और काव्य को कहा गया है जिसका स्वरूप हम अब तक देख चुके हैं। इन तीनों मुख्य भेदों अर्थात् उत्तम काव्य - ध्वनि काव्य, मध्यम काव्य - गुणीभूत - व्यंग्य काव्य और अधम - चित्रकाव्यों के अन्य अवान्तर भेद भी हैं। इस क्रम में अब हम ध्वनि काव्य के अवान्तर भेदोपभेद की चर्चा करेंगे। सर्वप्रथम अवान्तर से ध्वनि काव्य के दो भेद किए गए हैं - अविवक्षित वाच्य ध्वनि और विवक्षितवाच्य ध्वनि।

अविवक्षित वाच्य ध्वनि का ही दूसरा नाम लक्षणामूलक ध्वनि है। लक्षणामूलक ध्वनि में वाच्य अर्थात् शब्दार्थ विवक्षित नहीं होता अर्थात् शब्दार्थ (अभिधार्थ) अभिप्राय को अभिव्यक्त नहीं कर पाता है। बल्कि उसके लिए दूसरा अर्थ लिया जाता है। जैसे:- 'उसका चेहरा ओज से खिला है' में हम 'खिला' का अर्थ 'प्रसन्न' लेते हैं। जबकि 'खिलना' का अर्थ 'प्रसन्न होना' नहीं होता। अतएव जहाँ वाच्य विवक्षित नहीं होता, उसे अविवक्षित वाच्य ध्वनि या लक्षणामूलक ध्वनि कहते हैं। अविवक्षित वाच्य ध्वनि के पुन: दो भेद किए गए हैं - अर्थान्तर संक्रमित वाच्य ध्वनि और अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य ध्वनि।

अर्थान्तन्तर संक्रमित वाच्य ध्वनि - जहाँ वाच्यार्थ का सीधा अन्वय नहीं हो पाता वहाँ शब्द अपने सामान्य अर्थ को छोड़कर अपने से सम्बन्धित किसी विशिष्ट अर्थ का बोध कराता है। अर्थात् जब वाच्यार्थ अर्थान्तर (दूसरे अर्थ) में संक्रमित हो जाये उसे अर्थान्तर संक्रमित वाच्य ध्वनि कहेंगे। जैसे:-

त्वामस्मि वच्यि विदुषां समवायोऽच तिष्ठति।

आत्मीयां मतिमास्थाय स्थितिमत्र विधेहि तत्॥

यहाँ एक विद्वान व्यक्ति अपने शिष्य को सचेत करते हुए कहता है:-

'मैं तुम्हें बताता हूँ कि यहाँ विद्वानों का समुदाय है। अतएव अपनी बुद्धि को ठीक करके रखना।'

उक्त उदाहरण में देखने की बात यह है कि 'मैं तुम्हें बताता हूँ' इन पदो को बिना प्रयोग किए भी बात कही जा सकती थी। यहाँ वक्ता और बोद्धा दोनों आमने-सामने बैठे हैं। अतएव इतना कहना पर्याप्त होता - 'यहाँ विद्वानों का समाज है। जरा संभल कर रहना।' पर यहाँ प्रयुक्त 'तुम्हें' शब्द उस शिष्य को अन्य उपस्थित शिष्यों से अलग करता है और उसकी विशेषता को सूचित करता है। वह विशेषता शिष्य के लिए विशेष कृपापात्रता भी हो सकती है और उसकी अनुभवहीनता भी हो सकती है। 'मैं' शब्द से भी उसी प्रकार वक्ता की विशेष हित-भावना और अनुभवशीलता आदि अभिव्यक्त होता है। इसी प्रकार 'बताता हूँ' क्रिया पद से सामान्य सूचना देने से अलग अर्थ 'उपदेश देता हूँ' व्यक्त हो रहा है। अतएव यहाँ अर्थान्तर संक्रमित वाच्य ध्वनि होगी।

जहाँ पर वाच्यार्थ को तिरस्कृत कर एकदम विपरीत अर्थ लिया जाए अर्थात् विपरीत सम्बन्ध मूलक लक्षणा से उन शब्दों का एकदम उल्टा अर्थ लिया जाएं, वहाँ अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य ध्वनि होती है। जैसे:-

उपकृतं बहु तत्र किमुच्यते सुजनता प्रथिता भवतापरम्।

विदधदीयदृशमेव सदा सखे सुखित मास्स्व तत: शरदां शतम्।

यहाँ एक व्यक्ति का अपने मित्र के प्रति कहा गया वाक्य है जिसके साथ मित्र ने धोखा किया है, उसका अपकार किया है, ऐसे मित्र के प्रति वह कहता है कि -

हे मित्र, मैं आपकी कहाँ तक प्रशंसा करूं, आपने मेरा बहुत उपकार किया है। ऐसा करते हुए आप सैकड़ों वर्ष तक सुखपूर्वक इस संसार में रहें।

यहाँ विपरीत लक्षणा से व्यक्ति अपने मित्र से कहना चाहता है कि तुमने मेरे साथ धोखा किया है इतना बड़ा अपकार किया है कि उसकी जितनी निंदा की जाए, कम होगी। तुम्हारे जैसे लोग संसार को जितना जल्दी छोड़ दे उतना ही अच्छा होगा। यहाँ यही व्यंग्य है और यहाँ अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य ध्वनि है।

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

काव्य शास्त्र-शब्द और अर्थ भेद

काव्य शास्त्र

शब्द और अर्थ भेद

आचार्य परशुराम राय

अब तक काव्य के प्रयोजन, हेतु, लक्षण और भेद की चर्चा की गयी है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि यहाँ भारतीय काव्यशास्त्र शृंखलाओं का आधारभूत ग्रंथ आचार्य मम्मटकृत काव्यप्रकाश को रखा गया है। काव्य लक्षण करते समय हमने देखा कि आचार्य मम्मट का काव्य-लक्षण है -

‘तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलङ्कृती पुन: क्वापि’ अर्थात गुण सहित शब्द और अर्थ काव्य है, भले ही कहीं-कहीं अलंकार न हो।

अतएव तदनुसार यहाँ शब्द और अर्थ के भेदों का विवेचन ही अभिप्रेत है।

शब्द के तीन भेद माने गए है- वाचक (अभिधार्थक), लाक्षणिक और व्यंजक। इसी प्रकार अर्थ के भी तीन भेद होते हैं - वाच्य (अभिधा), लक्ष्य और व्यंग्य। इसके अतिरिक्त अभिहितान्वयवादियों और अन्विताभिधानवादियों के 'तात्पर्यार्थ' को चौथे भेद के रूप में आचार्य मम्मट लेते हैं।

वाचक, लक्ष्यक और व्यंजक शब्दों के जो भेद बताए गये हैं, इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि ये अलग-अलग शब्दों का विभाजन है, बल्कि शब्दों के वाक्य में प्रयोग होने पर अर्थग्रहण की दृष्टि से विभाजन है। एक शब्द वाचक, लक्ष्यक और व्यंजक तीनों हो सकता है। इसी प्रकार वाच्यार्थ भी व्यंजक हो सकता है, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ भी व्यंजक हो सकते हैं।

वाच्यार्थ के व्यंजक होने का उदाहरण नीचे दिया जा रहा है:-

मातर्गृहोपकरणमद्य खलु नास्तीति साधितं त्वया।

तद्भण किं करणीपमेवमेव न वासर: स्थायी॥

घर में आटा-दाल नहिं, तूने दिया बताय।

क्या करूँ अब तो बता, यह दिन बीता जाय॥

(हिन्दी छाया)

यहाँ वधु अपनी सास से कहती है कि हे माँ, तुमने यह बताया कि घर में सामान (आटा-दाल आदि) नहीं है, तो अब बताओ क्या करना चाहिए। क्योंकि दिन स्थायी नहीं है।

इस मुख्यार्थ से यह व्यंग्य भी निकलता है कि वधु अपने प्रेमी (उपपति) के पास जाना चाहती है। अन्यथा उसे इस प्रकार की बात करने की आवश्यकता नहीं थी।

लक्ष्यार्थ से व्यंग्य का उदाहरण -

साधयन्ती सखि सुभगं क्षणे क्षणे दूनासि मत्कृते।

सद्भाव स्नेहकरणीयसदृशकं तावद् विरचितं त्वया॥

बार-बार पति पास जा, कष्ट उठाय अधिकाय।

इतना सखि अब और कर, तू अपने घर जाय॥

(हिन्दी पद्यानुवाद)

इस श्लोक में एक वंचिता नायिका की अपनी सहेली के प्रति उक्ति है जो उसके पति को मनाने के बहाने उसके (पति) साथ रमण करती रही। इसकी जानकारी होने के बाद वह कहती है - हे सखि, उस सुंदर (मेरे पति) के पास बार-बार जाकर मेरे लिए तुमने काफी कष्ट उठाया है। पर, अब उसकी जरूरत नहीं है। सद्भावना और स्नेह के चलते जो करना चाहिए था, वह तुमने कर लिया।

यहाँ, मेरे पति के साथ रमण करके तूने सहेली जैसा नहीं, अपितु शत्रु का कार्य किया है, यह लक्ष्यार्थ है और उससे कामुकता भरे अपराध का कथन व्यंग्य है।

अब व्यंग्यार्थ से व्यंग्य का उदाहरण:-

पश्य निश्चलनिष्पन्दा बिसनीपत्रे राजते बलाका।

निर्मलमरकतभाजनपरिस्थिता शंखशुक्तिरिव॥

देखो कैसे जलज पात पर निश्चल निष्पंद बलाका सोहे।

जैसे मरकत थाल पर सजे शंख-शुक्तिका बरबस मन मोहे॥

(हिन्दी पद्यानुवाद)

यहाँ कमल के पत्ते पर निश्चल और निष्पंद बैठी बलाका (बगुली) से उसकी निडरता लक्ष्यार्थ है। उसके निडर और आश्वस्त होने से यह दूसरा अर्थ निकलता है कि वह स्थान जनशून्य है, यह अर्थ व्यंजना से आया है। यह उक्ति नायिका अपने प्रेमी से कह रही है। यहाँ यह भी अर्थ निकलता है कि नायिका यह जताना चाहती है कि उसका प्रेमी झूठ बोल रहा है। वह पहले वहाँ आया ही नहीं था, अन्यथा बगुली निश्चल और निष्पंद नहीं रह सकती थी। यह अर्थ पूर्वोक्त व्यंग्यार्थ से व्यंजना द्वारा आया है।

अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद को समझने के पहले भारतीय साहित्य में शब्द-बोध का निरूपण करने वाले शास्त्रों के विषय में जान लेते हैं। व्याकरण, न्याय तथा मीमांसा ये तीनों शास्त्र शब्द-बोध का विवेचन करते हैं। व्याकरण-शास्त्र पद और पद के अर्थ (पदार्थ) का विवेचन करता है। इसलिए इसे पद-शास्त्र भी कहते हैं। न्याय-शास्त्र प्रमाण का विशेष रूप से विवेचन करता है। अतएव इसे प्रमाण-शास्त्र भी कहा जाता है। मीमांसा-शास्त्र में वाक्यों की अर्थ-शैली का निरूपण किया जाता है। इसलिए इसे वाक्य-शास्त्र भी कहा जाता है।

अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद वाक्यार्थ के विषय में मीमांसकों के दो मत है।

अभिहितान्वयवाद के अनुसार पहले पदों से पदार्थों की प्रतीति होती है और उन पदार्थो का वाक्य के परस्पर सम्बन्ध द्वारा वाक्यार्थ का बोध होता है। पहले पदों द्वारा पदार्थ अभिहित होता है, अर्थात पदार्थ का अभिधा शक्ति द्वारा बोध होता है। तत्पश्चात वक्ता के आशय के अनुसार उनका परस्पर अन्वय (सम्बन्ध) होता है जिससे वाक्यार्थ का बोध होता है। वाक्य का अर्थ बोध वक्ता के तात्पर्य के अनुसार होने के कारण इसे 'तात्पयार्थ' भी कहा जाता है। वाक्य बोध आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि के कारण होता है। 'आकांक्षा' श्रोता की जिज्ञासा को कहते हैं, अर्थात श्रोता ध्यान से वाक्य के सभी शब्दों को जिज्ञासु की तरह सुनता है। 'योग्यता' का अर्थ है पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध में व्यवधान का अभाव। सन्निधि का अर्थ है वक्ता द्वारा वाक्य के पदों का अविलम्ब उच्चारण करना। यहाँ बताना आवश्यक है कि जब शब्द वाक्य में प्रयुक्त होता है तब उसे पद कहते हैं। उक्त मत को अभिहितान्वयवाद कहते हैं। इसका दूसरा नाम तौतातिक मत भी है। यह अत्यन्त मूर्धन्य मीमांसक आचार्य कुमारिल भट्ट और उनके अनुयायियों का मत है। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ब्रह्रमसूत्र पर अपने भाष्य टीका पर सहमति पाने के लिए इनके पास गए थे। इस पर अलग से एक अंक की आवश्यकता पडेगी अतएव इसे यहाँ छोड़ा जा रहा है।

दूसरा मत है अन्विताभिधानवाद। यह सिद्वान्त आचार्य कुमारिल भट्ट के मूर्धन्य शिष्य प्रभाकर का है। इस मत के अनुसार पहले से अन्वित पदार्थों का ही अभिधा से बोध होता है। इसलिए इस सिद्वान्त को अन्विताभिधानवाद कहते हैं। इसे और स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण लेते हैं - परिवार में छोटा बच्चा लोगों की बातें सुनता है, यथा- लोटा लाओ, पानी लाओ, लोटा ले जाओ आदि। इन वाक्यों के अनुसरण में किये गये कार्य-व्यापार द्वारा धीरे-धीरे लोटा, पानी, लाना, ले जाना, रखना, आदि का अलग-अलग अर्थ समझने लगता है। इस प्रकार व्यवहार से, शब्द से पदार्थ का संकेत ग्रहण होता है और फिर वाक्य के समष्टिभूत अर्थ का बोध होने लगता है।

अगले अंक में शब्दार्थों के उपभेदों का उल्लेख किया जाएगा।

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

काव्य शास्त्र :: काव्य भेद

काव्य शास्त्र :: काव्य भेद


आचार्य परशुराम राय

काव्य की परिभाषा के बाद आचार्य मम्मट ने काव्य के भेदों का निरूपण किया है। हालाँकि अन्य आचार्यों ने इस प्रकार का भेद नहीं किया है। काव्य प्रकाश में काव्य के तीन भेद बताए गए है:-

(1) उत्तम (2) मध्यम और (3) अधम काव्य

उत्तम काव्य की परिभाषा करते समय आचार्य मम्मट लिखते हैं:-

'इदमुत्तममतिशायिनि व्यङग्ये वाच्याद् ध्वनिर्बुधै: कथित:।

अर्थात वाच्यार्थ (मुख्यार्थ) की अपेक्षा व्यंग्यार्थ जब काव्य में अधिक चमत्कारयुक्त हो, तो उसे उत्तम काव्य कहा जाता है और सुधीजन उसे ध्वनि-काव्य कहते हैं। यथा:-

परिरम्भ कुंभ की मदिरा

निश्वास मलय के झोंके।

मुख-चन्द चाँदनी जल से

मैं उठता था मुँह धोके॥ ऑसू॥

यहाँ स्मरण से संयोग शृंगार की व्यंजना है जो वास्तव में कवि का अभीष्ट है। यद्यपि कि 'परिचय कुंभ', 'निश्वास मलय' और 'चॉदनी जल' में रूपक अलंकार हैं। लेकिन कविता में विभाव नायक-नायिका, अनुभाव-परिरंभ आदि और संचारी भावों के संयोग से यहाँ शृंगार रस ही प्रधान है और यही कवि का अभीष्ट है। अतएव इसे उत्तम काव्य कहा जाएगा।

जब काव्य में व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ की अपेक्षा उतना अधिक चमत्कारपूर्ण नहीं होता, अर्थात् जहाँ व्यंग्यार्थ गुणीभूत होता है, उसे गुणीभूत व्यंग्य काव्य अथवा मध्यम काव्य कहते हैं।

'अतादृशि गुणीभूतव्यङग्यं व्यङग्ये तु मध्यमम्।'

जैसे:-

ग्रामतरुणं तरुण्या नववञ्जुलमञ्जरीसनाथकरम।

पश्यन्त्या भवति मुहुर्नितरावं मलिना मुखच्छाया॥

अर्थात् वेतस-वृक्ष की ताजी मंजरी को हाथ में लिए गाँव के एक युवक को बार-बार देखकर युवती के मुख की आभा मलिन होती जा रही है।

यहाँ वेतस के लतागृह में गाँव के तरुण से मिलने का संकेत करने के बावजूद (काम में फँसाव या अन्य लोगों की उपस्थिति के कारण) युवती देर से पहुँची और युवक पहले पहुँच गया यह सोचकर युवती उदास हो गयी। ‘ग्रामतरुण’ का अर्थ है गाँव में एक ही युवक है। अनेक युवतियोंके आकर्षित होने के कारण उससे दुबारा मिलना कठिन होगा। इसलिए उसका अतिशय उदास होना यह व्यंग्य वाच्यार्थ के उस व्यंग्य से अधिक चमत्कार पूर्ण होने के कारण वह गुणीभूत हो गया है। अतएव इसे गुणीभूत व्यंग्य काव्य माना गया है।

तीसरे भेद के अन्तर्गत चित्र-काव्य लिए गए हैं अर्थात् व्यंग्य-रहित शब्द और अर्थ केवल चित्रण हो अथवा कवि का उद्देश्य अलंकारों को प्रदर्शित करना हो, उसे चित्र काव्य कहा गया है। इसके दो भेद किए गये हैं:- (1) शब्द-चित्र काव्य और (2) अर्थचित्र काव्य –

‘शब्दचित्रं वाच्यचित्रमव्यङ्यं त्ववरं स्मृतम्’

जहाँ केवल शब्दालंकारों द्वारा शाब्दिक चमत्कार ही कवि का अभिप्रेत हो, उसे शब्द-चित्र काव्य कहा जाता है:-

चंचला चमाके चहुं ओरन ते चाह भरी

चरजि गई थी फेरि चरजन लागी री।

घुमड़ि घमंड घटा घन की घनेरे आयी

गरजि गई थी फेरि गरजन लागी री।

कहें 'पदमाकर' लवंगन की लोनी लता

लरजि गई थी फेरि लरजन लागी री।

यहाँ वर्षा ऋतु के वर्णन में केवल अनुप्रास अलंकार की छटा से काव्य में चमत्कार उत्पन्न करना कवि का अभीष्ट लगता है। अतएव इसे शब्द चित्र काव्य की श्रेणी में रखा जा सकता है।

जहाँ अर्थालंकारों द्वारा अर्थ में चमत्कार उत्पन्न किया जाए, उस काव्य को अर्थालंकार कहते हैं:-

चेतना के स्खलन का भूल जिसे कहते हैं।

एक बिन्दु जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं

(कामायनी)

यहाँ एक बूँद में नदों का उमड़ना विरोधाभास अलंकार है और दोनों पंक्तियों को साथ लेने पर शब्द-लुप्तोपमा अलंकार है। यहाँ 'मानो' उपमा वाचक शब्द लुप्त है। अर्थात् चेतना का च्युत होना ही भूल है और वह ऐसा लगता है मानो एक बिन्दु में अवसाद के नद उमड़ रहे हों।