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गुरुवार, 30 जनवरी 2025

258. युद्ध सहायता परिषद

राष्ट्रीय आन्दोलन

258. युद्ध सहायता परिषद


वायसराय लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड

1918

यूरोप में महायुद्ध ज़ारी था। हालाकि यह अब अपने अंतिम चरण में प्रवेश कर रहा था, लेकिन विकट संकट आसन्न था। मित्र राष्ट्रों को मदद की ज़रूरत थी। ब्रिटेन और उसके मित्र राष्ट्रों की हालत खराब थी और पश्चिमी मोर्चे पर जर्मनों के जोरदार आक्रमण की आशंका थी। इस युद्ध के लिए अंग्रेजों को हिन्दुस्तान से भी काफी संख्या में सिपाही भर्ती करने की जरूरत महसूस हो रही थी। रियासतों द्वारा बड़ी सेनाएँ भेजी गई थीं, लेकिन ब्रिटिश प्रशासन के अधीन क्षेत्रों से बहुत कम सेनाएँ आई थीं। तो वायसराय लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड ने युद्ध में सहायता देने के प्रश्न पर विचार करने के लिए अप्रैल के अंत में दिल्ली में भारतीय नेताओं का युद्ध सहायता परिषद का आयोजन किया। इसका उद्देश्य सैनिकों की भर्ती में तेज़ी लाने के लिए भारतीय नेताओं का समर्थन पाना था।

17 अप्रैल, 1918 को वायसराय के निजी सचिव ने गृह सदस्य को लिखा: "महामहिम वायसराय ने मुझसे तत्काल आपकी राय आमंत्रित करने के लिए कहा है कि क्या श्री गांधी को वायसराय से मिलने के लिए आमंत्रित करना अच्छी बात होगी या नहीं। ऐसा लगता है कि उनकी गतिविधियों को किसी उपयोगी दिशा में मोड़ा जा सकता है, जबकि अगर उन्हें उनके कामों पर छोड़ दिया जाए, तो उनकी हरकतें और ऊर्जा हमेशा परेशानी पैदा करती हैं।" गृह सदस्य ने जवाब दिया: "मैंने देखा है कि श्री गांधी मेसोपोटामिया या फ्रांस में युद्ध सेवा में नियुक्त होने के लिए उत्सुक हैं, और अगर उन्हें किसी भी क्षमता में मेसोपोटामिया भेजा जा सकता है, तो इससे बहुत परेशानी से बचा जा सकता है।"

गांधीजी को 26 अप्रैल 1918 को होने वाले युद्ध सम्मेलन में भाग लेने का निमंत्रण मिला। गांधीजी इस सम्मेलन में भाग नहीं लेना चाहते थे, क्योंकि सरकार ने लोकमान्य तिलक, मौलाना शौकत अली और मौलाना मोहम्मद अली आदि नेताओं को निमंत्रित नहीं किया था। लेकिन वह अली बंधुओं के ख़िलाफ़त आन्दोलन के समर्थन में वायसराय के समक्ष अपनी बात रखना चाहते थे इसके लिए वे दिल्ली गए। लेकिन यह संभव नहीं हो सका। वहां तो सिर्फ़ इस बात पर चर्चा हुई कि इंग्लैण्ड की सेना के लिए रंगरूटों को कैसे, कहां से भर्ती करना है? वायसराय ने अनुरोध किया: "आप जो भी नैतिक मुद्दे उठाना चाहें उठा सकते हैं और युद्ध की समाप्ति के बाद हमें जितनी चाहें चुनौती दे सकते हैं, आज नहीं।" गांधीजी ने इस शर्त के साथ वायसराय के साथ हुई बैठक में हिस्सा लिया था कि वे अपनी बात हिन्दुस्तानी भाषा में रखेंगे। इस सम्मेलन में गांधीजी ने अपने विचार हिंदी में रखे। पहली बार गोरी सरकार ने राष्ट्रीय भाषा को मान्यता दी। सारे देश को अच्छा लगा कि वायसराय के समक्ष कोई नेता हिंदी में बोलने का आग्रह रखता है। बहुतों ने उन्हें हिन्दुस्तानी में बोलने पर बधाई दी। गांधीजी ने रंगरूट भरती करने के प्रस्ताव का, हिन्दी में समर्थन कियाः अपने दायित्व का पूरा ध्यान रख कर मैं प्रस्ताव का समर्थन करता हूं।गांधीजी को कहीं न कहीं यह विश्वास था कि अगर भारत युद्ध में लड़ने के लिए अपने नौजवानों को भेजने की पेशकश करता है, तो वह कम समय में और कम प्रयास से स्वराज प्राप्त कर लेगा। 29 अप्रैल 1918 को गांधीजी ने युद्ध सम्मेलन से वापस आने के बाद वायसराय को एक पत्र लिखा। इस पत्र से स्पष्ट है कि गांधीजी ने युद्ध प्रयासों में भारत से बिना शर्त और पूरे दिल से समर्थन देने पर जोर दिया, लेकिन उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा कि सरकार खिलाफत और स्वशासन दोनों के संबंध में भारतीय लोगों की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को समझे और अपने हित में उन अपेक्षाओं को पूरा करने की आवश्यकता को समझे।

गांधीजी 30 अप्रैल को दिल्ली से निकले और अगली सुबह नाडियाड पहुंचे, जहां उन्होंने खेड़ा सत्याग्रह का मुख्यालय स्थापित किया था। वे उसी रात बंबई के लिए रवाना हो गए। वहां 3 मई को उनकी मुलाकात श्रीमती बेसेंट से हुई। वे भर्ती के लिए बिना शर्त समर्थन के बारे में गांधीजी का समर्थन करने के लिए सहमत हो गईं। शाम को गांधीजी कांग्रेस की बैठक में शामिल हुए। खापर्डे, तिलक और अन्य लोगों ने इस दृष्टिकोण की जोरदार वकालत की: "हमें स्वराज दो और हमारी मदद लो।" गांधीजी ने पूरी ऊर्जा के साथ भर्ती अभियान में खुद को झोंक दिया और वे तिलक, बेसेंट और अन्य होम रूलर्स को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करते रहे।

10 जून, 1918 को गवर्नर लॉर्ड विलिंगडन की अध्यक्षता में बंबई में एक युद्ध सम्मेलन आयोजित किया गया था। उन्होंने अपने श्रोताओं को होम रूल पर कठोर उपदेश दिया, जिनकी ईमानदारी पर उन्होंने सवाल उठाए थे। तिलक को बोलने के लिए बुलाया गया, लेकिन उन्हें होम रूल का उल्लेख करने की अनुमति नहीं दी गई और तिलक जिन्ना, कॉर्निमैन, केलकर और करंदीकर के साथ बाहर चले गए, जिन्हें भी होम रूल के उल्लेख पर गवर्नर ने रोक दिया। 16 जून को बॉम्बे में आयोजित एक सार्वजनिक बैठक में गांधी जी ने सम्मेलन में गवर्नर के व्यवहार के खिलाफ विरोध जताया। उन्होंने लॉर्ड विलिंगडन द्वारा होम रूलर्स का अपमान करने की निंदा की। उन्होंने कहा कि गवर्नर का व्यवहार असहिष्णु और निंदनीय था। तिलक को इस तरह अपमानित करना युद्ध के उद्देश्य को नष्ट करना है। लेकिन उन्होंने लोगों को इस बात पर जोर दिया कि संकट के समय ब्रिटेन की मदद करना जरूरी है। तिलक ने इस अवसर पर जोशपूर्ण भाषण दिया: "सरकार हमें कपटी कहती है, लेकिन मेरे पास इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि ये आरोप हम लोगों से अधिक सरकार पर सत्य हैं, और यदि यह संभावना स्पष्ट है कि युद्ध के बाद देश पर लगी बेड़ियाँ ढीली नहीं होंगी, बल्कि और कड़ी होंगी, तो सरकार की मदद कौन करेगा! यदि सरकार सेना में उच्च पदों पर भारतीयों को नियुक्त करने का वादा करती है, तो मैं तुरंत 5,000 भर्तियाँ करवाने का वचन देता हूँ और यदि मैं सफल नहीं हुआ, तो मैं प्रत्येक असफलता के लिए 100 रुपये का जुर्माना भरूँगा और मैं इस प्रस्ताव की गारंटी के रूप में गांधीजी के हाथों में 50,000 रुपये रखने के लिए तैयार हूँ।"

चंपारण और खेड़ा के बावजूद गांधीजी का अभी भी यही विश्वास था कि ब्रिटिश साम्राज्य अधिकतर एक शुभ शक्ति है और ब्रिटिश संबंधों के कारण कुल मिलाकर भारत का भला ही हुआ है। उन दिनों गांधीजी भी अंग्रेजी राज की तमाम बुराइयों के बावजूद यह मानते थे कि जर्मनी और इटली आदि की तानाशाही की तुलना में अंग्रेजों का शासन भारत सहित अन्य गुलाम देशों के लिए मौजूदा विकल्पों में बेहतर विकल्प है। साम्राज्य के संकट की घड़ी में उसकी सहायता करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य था। फिर तो वह तन-मन से रंगरूट-भरती के काम में लग गए। उन्होंने साम्राज्ञी सेना के एक भरती करनेवाले सार्जेंट के रूप में सचमुच प्रचार कार्य किया। वायसराय के निजी सचिव को उन्होंने लिखा: "मुझे लगता है कि अगर मैं आपका भर्ती एजेंट-इन-चीफ बन गया, तो मैं आपके लिए लोगों की बारिश कर सकता हूँ।" यूरोप के मोर्चे पर लड़ने वाली ब्रिटेन की भारतीय फौज के लिए गुजरात के गांवों में रंगरूट भरती करने के लिए जाना अहिंसा के पुजारी गांधीजी के लिए एक तरह से हास्यास्पद ही था। उनके इस प्रयास में तिलक का भी साथ मिला।

गांधीजी ने 21 जून को नाडियाड में भाषण देकर गुजरात में भर्ती अभियान की शुरुआत की और अगले दिन अपनी पहली 'भर्ती के लिए अपील' जारी की। गांधीजी ने खेड़ा के लोगों से हजारों की संख्या में उनके बैनर तले आने का आह्वान किया: "खेड़ा जिले में 600 गांव हैं और हर गांव की औसत आबादी 1,000 से अधिक है। अगर हर गांव कम से कम बीस आदमी दे तो खेड़ा जिला 12,000 लोगों की सेना खड़ी कर सकता है।" उन्हें लगा कि खेड़ा के लोग उनकी बात मानेंगे और सेना में भर्ती हो जाएंगे।

पिछले अवसरों पर उन्होंने एम्बुलेंस कॉर्प्स का गठन करके संकटग्रस्त साम्राज्य की सहायता की थी। लेकिन इस बार उन्होंने मरने-मारने के लिए लोगों को भर्ती किया। उन्हें पता था कि उनका प्रचार जनता में कम ही उत्साह जगाता था। गाँधीजी ने सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि साथियों से विचार करने के बाद तय किया कि सबसे पहले खेड़ा के युवाओं से फौज में भर्ती के लिए अपील करेंगे जहां कुछ समय पहले किसान आंदोलन में लोगों ने बढ चढकर भाग लिया था। जिस खेड़ा ज़िले में हाल ही में कर-बंदी अभियान का नेतृत्व किया था और जहां वे जन-नायक समझे जाते थे, उसी खेड़ा ज़िले में जब वे भर्ती कराने वाले सार्जेंट के रूप में गए तो शायद ही किसी ने उनका स्वागत किया था या उनकी बात सुनी थी। गांधीजी की आशावादिता को करारा झटका लगा। लेकिन गांधीजी जिस काम को अंतर्तत्त्व के आधार पर उचित समझते थे, उसे करने जनसमर्थन का अभाव उन्हें कभी नहीं रोक सका।

गांधीजी को अपने मन में अहिंसा में अपने विश्वास और अंग्रेजों के लिए लड़ने के लिए किसानों को भर्ती करने की उनकी इच्छा के बीच कोई विरोधाभास नहीं दिखाई दिया। उनका यह विश्वास था कि उनके देशवासियों की आभासी शांतिप्रियता अहिंसा में उनकी साहसपूर्ण आस्था के कारण नहीं थी बल्कि लड़ाई से उनके कायरतापूर्ण भय का नतीजा थी। उन्होंने अपने मित्र पोलाक को लिखा था, आप मेरे भर्ती अभियान के बारे में क्या कहते हैं? मेरे लिए यह अहिंसा के पवित्र सिद्धांत के हित में शुरू की गई एक धार्मिक गतिविधि है। मैंने यह खोज की है कि भारत अपनी लड़ने ली प्रवृत्ति को नहीं, उसकी शक्ति को ही खो बैठा है। उसे पहले इस शक्ति को पाना होगा और फिर अगर वह चाहे तो पीड़ा कराहती इस दुनिया को अहिंसा का संदेश दे। उसे अपनी कमजोरी का नहीं, अपनी शक्ति का भरपूर दावा करना चाहिए। संभव है, वह ऐसा कभी नहीं करे। यह मेरे लिए उसके विनाश का पर्याय होगा। वह अपनी विशिष्टता खो देगा और दूसरे राष्ट्रों की तरह पशुबल का उपासक बन जाएगा। भरती कराने का यह काम अभी तक मेरे द्वारा किया गया शायद सबसे कठिन काम है।

गांधीजी ने तर्क दिया कि स्वराज सभी चीजों में सबसे वांछनीय है, और इसे साम्राज्य की रक्षा के लिए केवल एक पुरस्कार के रूप में दिया जाना चाहिए। स्थायी सेना में स्वाभाविक रूप से कुछ भी गलत नहीं था; यदि भारतीय हथियारों का उपयोग सीखना चाहते थे, तो उनका कर्तव्य था कि वे भर्ती हों। समय के साथ भाड़े की सेना एक राष्ट्रीय सेना बन जाएगी और अगर अंग्रेज फिर भी स्वराज देने से इनकार करते हैं तो उनका इस्तेमाल उनके खिलाफ किया जा सकता है। लेकिन ये राजनीतिक तर्क थे। चार्ली एंड्रयूज ने उन्हें बिना किसी नैतिक आधार के सुविधा के तर्क माना, और उन्होंने स्पष्टीकरण की मांग करते हुए एक व्यथित पत्र लिखा।

तिलक और गांधीजी ने अंग्रेज़ों की सहायता के लिए धन और आदमी जुटाने का काम इस आशा से किया था कि इस निष्ठा के बदले सरकार बड़े राजनीतिक सुधार करेगी। तिलक ने कहा था, युद्ध के ऋणपत्र खरीदो, पर उन्हें होमरूल के पट्टे समझो। राजस्व अभियान के दौरान जहाँ लोग अपनी गाड़ियाँ निःशुल्क देने के लिए तैयार थे और जब एक की ज़रूरत होती थी तो दो स्वयंसेवक आगे आ जाते थे, वहीं अब किराए पर भी गाड़ी मिलना मुश्किल था, स्वयंसेवकों की तो बात ही छोड़िए। गुजरात के गांवों में यात्रा के लिए बैलगाड़ी तक न मिलने पर गांधीजी और उनके साथियों को अक्सर एक दिन में बीस-बीस मील तक पैदल चलना पड़ता था। कुछ ही समय पहले जब गांधीजी करों के खिलाफ अभियान चलाते हुए उनके बीच यात्रा कर रहे थे, तो उन्होंने उन्हें खाना खिलाया, बैलगाड़ियाँ उपलब्ध कराईं, सोने के लिए कमरे की व्यवस्था की, हर तरह से उनकी मदद की, लेकिन वे यह नहीं समझ पाए कि अहिंसा के पुजारी उन्हें सेना में भर्ती होने और फ्रांस या मेसोपोटामिया में अपने प्राणों की आहुति देने के लिए क्यों कह रहे हैं। वे जहाँ भी जाते थे, वहाँ उनकी बैठकें होती थीं। लोग आते थे, लेकिन मुश्किल से एक या दो लोग ही भर्ती के लिए खुद को पेश करते थे। 'आप अहिंसा के पुजारी हैं, आप हमसे हथियार उठाने के लिए कैसे कह सकते हैं?' 'सरकार ने भारत के लिए ऐसा क्या अच्छा किया है कि वह हमारा सहयोग पाने लायक है?' इस तरह के सवाल उनसे पूछे जाते थे।

उन्होंने एक महीना गाँव-गाँव घूमकर बिताया था; अनगिनत भाषण दिए थे; और इसके एवज़ में उन्हें कुछ खास प्राप्त नहीं हुआ। अपने परिश्रम और बेहद अपर्याप्त आहार के परिणामस्वरूप - वह मूंगफली के मक्खन और नींबू पर जी रहे थे। यह जानते हुए भी कि बहुत अधिक मक्खन खाने से स्वास्थ्य को नुकसान हो सकता है, फिर भी उन्होंने ऐसा किया। उन्हें पेचिश हो गई और वह सात सप्ताह तक बीमार रहे। उन दिनों वह शायद ही कोई दवा लेते थे। उन्हें लगा कि अगर वह एक भोजन छोड़ दें तो ठीक हो जाएंगे और उन्होंने सुबह का भोजन छोड़ दिया। चूंकि वह खुद को आहार का विशेषज्ञ मानते थे, इसलिए वह समझ नहीं पाए कि वह इतना कमज़ोर क्यों हो गए थे। यह उनकी अब तक की सबसे बुरी बीमारी थी। उनका स्वास्थ्य लगभग पूरी तरह नष्ट हो गया। लोगों को लगा कि अब वे मृत्यु के समीप हैं। एक समय उन्हें विश्वास हो गया था कि वे ज़िंदा नहीं बचेंगे और उन्होंने निराश होकर अपने आसपास के लोगों से कहा था कि ‘उनका पूरा जीवन ऐसा रहा है कि उन्होंने कुछ काम हाथ में लिए, उनको आधा किया और वे जा रहे हैं, लेकिन अगर यही ईश्वर की इच्छा है तो कोई चारा भी नहीं है।’ मिल मालिक अंबालाल साराभाई को बुलाया गया और गांधीजी को अहमदाबाद के बाहरी इलाके में मिर्जापुर स्थित अपने घर ले गए। डॉक्टरों का फैसला था कि वह पेचिश, भूख और नर्वस ब्रेकडाउन से पीड़ित थे। वह बेचैन रहने लगे और उन्होंने आग्रह किया कि उन्हें आश्रम में ले जाया जाए। उन्हें आश्रम ले जाया गया। । दूसरे दिन डा. राजेन्द्रप्रसाद मिलने के लिए आए तो उन्होंने गांधीजी को मरनासन्न अवस्था में पाया—शरीर सूखकर लकडी हो गया था और जीवन की कोई उमंग भी बाकी नहीं रही थी।

जब वह आश्रम में दर्द से कराह रहे थे, तब सरदार वल्लभभाई ने खबर दी कि जर्मनी पूरी तरह से पराजित हो चुका है और कमिश्नर ने संदेश भेजा है कि अब भर्ती की जरूरत नहीं है। यह खबर कि अब उन्हें भर्ती के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है, उनके लिए बहुत बड़ी राहत लेकर आई।

लोगों के आग्रह पर स्वास्थ्य लाभ के लिए वे नवंबर में मुंबई के सहयाद्रि की घाटी में मथेरान गए। कोई खास लाभ न होने की स्थिति में मुंबई आ गए। डॉ. दलाल के उपचार से ठीक हुए। 21 जनवरी, 1919 को डॉ. दलाल ने उनके फिशर का सफल ऑपरेशन किया। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य बेहतर होने लगा और उन्होंने बंबई में स्वास्थ्य लाभ के दौरान कताई सीखी और उसका अभ्यास किया। उन्होंने कहा, "चरखा खुशी से गुनगुनाता था और मेरे स्वास्थ्य को वापस लाने में इसका बहुत बड़ा योगदान था।" हालाँकि कुछ हफ़्तों में तीव्र पेचिश ठीक हो गई, लेकिन वह साल के बाकी दिनों के लिए बिस्तर पर पड़े रहे।

बीमार होने पर ज़्यादातर लोगों की तरह, उन्हें भी बच्चों में सबसे ज़्यादा खुशी मिलती थी, हरिलाल के बेटे और बेटियों को उनके बिस्तर के आस-पास खेलने की इजाज़त दे दी गई थी। हरिलाल का सबसे बड़ा बेटा रसिक अब छह साल का था और अपने दादा की सबसे बड़ी खुशी था। कस्तूरबाई भी अपने चार पोते-पोतियों से बहुत प्यार करती थीं और उनकी पूरी जिम्मेदारी उठाती थीं। गांधीजी अपने बेटों से ज़्यादा अपने नाती-पोतों के प्रति समर्पित थे। उन्होंने मणिलाल को दक्षिण अफ्रीका में इंडियन ओपिनियन का प्रकाशन जारी रखने के लिए भेज दिया। रामदास को भी दक्षिण अफ्रीका भेजा गया। देवदास ने मद्रास में एक अध्यापन पद ग्रहण किया, जबकि हरिलाल कल्पना करते रहे कि वे एक दिन कलकत्ता में एक सफल व्यवसायी बनेंगे। उनके व्यवसाय आमतौर पर विफल हो जाते थे और इस समय उन्हें दस हज़ार रुपये का नुकसान हुआ था।

जब गांधीजी बीमार थे, तब भारत तेज़ी से बदल रहा था, इतनी तेज़ी से कि उन्हें शायद ही पता था कि क्या हो रहा है। युद्ध के परिणामस्वरूप जीवनयापन की लागत बढ़ गई, पूरे देश में इन्फ्लूएंजा महामारी फैल गई, छोटे पैमाने पर आतंकवादी साजिशें हुईं, जिन्हें सरकार ने चिंता के साथ देखा, और "बोल्शेविक खतरा" सरकारी अधिकारियों के बीच जुनून बन गया। युद्ध के अंत में स्वराज की उम्मीद करने वाले भारतीयों को लगातार दमनकारी उपायों का सामना करना पड़ा। एक बार फिर वे अपने ही घर में कैदी बन गए।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

मंगलवार, 28 जनवरी 2025

255. खेड़ा सत्याग्रह

राष्ट्रीय आन्दोलन

255. खेड़ा सत्याग्रह



1918

अहमदाबाद के मिल मज़दूरों की हड़ताल की समस्या से निपटकर गांधीजी चंपारण जाना चाहते थे। लेकिन उन्हें इसका अवसर नहीं मिला। गुजरात के खेड़ा जिले में किसानों के हंगामे की ख़बर आई। ‘मेरे भाग्य में साँस लेने की फ़ुरसत नहीं थी, ऐसा गांधीजी ने आगे चलकर कहा था। 22 मार्च, 1918 को खेड़ा के कठलाल गांव के ग्रामीण नेता ‘मोहनलाल पंड्या ने गांधीजी को सूचित किया कि गुजरात के खेड़ा ज़िले में साल भर सूखा पड़ा था। वर्षा न होने से खेतों को काफ़ी नुकसान पहुंचा। वहां अकाल जैसी स्थिति थी। फसल बहुत ख़राब हुई है। साथ ही बहुत सी चीज़ों के दाम काफ़ी बढ़ गए हैं। 1917-18 में, खराब फसल के साथ-साथ केरोसिन, लोहे के बर्तन, कपड़े और नमक की कीमतें भी बढ़ गईं। जो लोग खेतों में मज़दूर के रूप में काम करते हैं उनकी मज़दूरी भी बढ़ गई थी। बड़े पैमाने पर फसलों की तबाही के कारण किसान भुखमरी के कगार पर पहुँच गए थे। इसके बावज़ूद भी गोरे ज़मींदारों द्वारा किसानों से अन्यायपूर्वक भूमि कर वसूल किया जा रहा था।  हल, बैल, मकान, ज़मीन आदि लगान के एवज में ज़ब्त किए जा रहे हैं। गवर्नर से फ़रियाद भी की गई है, लेकिन कोई हल नहीं निकला है। लगान की माफ़ी के सवाल पर वहां के किसानों और स्थानीय अधिकारियों में ठनी हुई थी। उसने गांधीजी से खेड़ा चलने का अनुरोध किया।

हाल के अध्ययनों से पता चला है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के ‘स्वर्ण युग’ के बाद 1899 के बाद अहमदाबाद में बार-बार अकाल और प्लेग आया, जिससे राजस्व भुगतान बहुत मुश्किल हो गया। गांवों में रहने वाले निचले दर्जे के पाटीदार सबसे अधिक प्रभावित हुए। भूमि राजस्व नियमों के तहत, अगर फसल चार आने या उससे कम हो तो उस साल का लगान माफ हो जाता था। किसानों का कहना था कि फसल चार आने से कम है जबकि अधिकारी इसे अधिक मान रहे थे। सरकार सुनने के मूड में नहीं थी, और मध्यस्थता की लोकप्रिय मांग को राजद्रोह मान रही थी।  पाँच सौ में से केवल एक सौ तीन गाँवों को ही कोई राहत दी गई। खेड़ा के किसान अपेक्षाकृत समृद्ध थे। समीप के अहमदाबाद शहर के लिए अनाज, कपास और तंबाकू का उत्पादन करते थे। गाँव वालों ने वल्लभभाई पटेल से उनके लिए हस्तक्षेप करने के लिए कहा। वे हताश थे, क्योंकि सरकार के पास उन लोगों की संपत्ति और ज़मीन जब्त करने का पूरा अधिकार था जो अपने करों का भुगतान करने से इनकार करते थे। सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी के अमृतलाल ठक्कर, जी.के. देवधर और एन.एम. जोशी ने मामले की जांच कर ली थी और गांधीजी द्वारा किसानों को कोई निश्चित सलाह दिए जाने से पहले ही कमिश्नर को रिपोर्ट कर दी थी। जब गांधीजी चंपारण से अहमदाबाद लौटे तो उन्होंने देखा कि किसान विद्रोह की स्थिति में हैं। पटेल और गांधीजी ने पूरी जांच-पड़ताल की। गांधीजी ने व्यक्तिगत रूप से पचास से अधिक गांवों का दौरा किया और वहां जितने लोगों से मिल सकते थे, उनसे मिले, उनके खेतों का निरीक्षण किया और ग्रामीणों से गहन पूछताछ के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उनकी फसल चार आने से कम थी। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि किसानों की मांग जायज़ है। फसल में बारह आने से भी ज्यादा का नुकसान हुआ था। ‘राजस्व संहिता’ के तहत पूरा लगान माफ़ कर दिया जाना चाहिए। लेकिन सरकार ने इसे 'बाहरी लोगों की जांच करार देकर मानने से इनकार कर दिया।

विट्ठलभाई पटेल और सर गोकुलदास कहनदास पारीख ने बॉम्बे विधान परिषद में आंदोलन की शुरुआत की थी। इस संबंध में एक से अधिक प्रतिनिधिमंडल राज्यपाल से मिलने आए थे। गांधीजी उस समय गुजरात सभा के अध्यक्ष थे। सभा ने सरकार को याचिकाएँ और तार भेजे और कमिश्नर की गालियाँ और धमकियाँ भी धैर्यपूर्वक सहन कीं। गांधीजी खेड़ा जाकर कलेक्टर से मिले। उसे बताया कि किसानों की कठिनाईयां वास्तविक हैं, उनकी मांगें न्यायपूर्ण हैं। सरकार को स्वीकार कर लेना चाहिए।  कलेक्टर ने गांधीजी की एक न सुनी।

5 फरवरी, 1918 को गांधीजी की अध्यक्षता में गुजरात सभा का एक प्रतिनिधिमंडल जिसमें विट्ठलभाई पटेल, दिनशॉ वाचा और गोकुलदास पारेख शामिल थे, राज्यपाल से मिलने आया। उन्होंने उनसे अनुरोध किया कि फसल की स्थिति का अध्ययन करने और स्थानीय राजस्व अधिकारियों की ओर से कठोरता की शिकायतों पर गौर करने के लिए एक स्वतंत्र आयोग नियुक्त किया जाए। गांधीजी ने सुझाव दिया कि श्री पारेख और पटेल को समिति में शामिल किया जाए और डॉ. हेरोल्ड मान या इवबैंक को अध्यक्ष नियुक्त किया जाए। अधिकारियों ने अनुरोध ठुकरा दिया।

खेड़ा के किसानों से निपटने के लिए अधिक सूक्ष्म तकनीकों की आवश्यकता थी। चूंकि सरकार को दी गई याचिकाओं और प्रेस में दिए गए बयानों का कोई असर नहीं हुआ, इसलिए गांधीजी को लगा कि केवल बड़े पैमाने पर सविनय अवज्ञा ही सरकार को करों में कमी करने के लिए प्रेरित कर सकती है। गांधीजी को लगा कि सत्याग्रह ही एकमात्र उपाय है और उन्होंने 22 मार्च 1918 को सत्याग्रह की घोषणा कर दी। बेहतरहाल और ग़रीब दोनों तरह के किसानों से वह व्रत लेने को कहा कि जब तक कर चुकाने में असमर्थ लोगों को कर की माफी नहीं दी जाती, वे कोई कर नहीं चुकाएंगे और सरकार के दमनकारी आदेश के ख़िलाफ़ जुझारू संघर्ष करने का आह्वान किया। भारत में गांधीजी द्वारा चलाया जाने वाला यह पहला किसान सत्याग्रह था।

नड़ियाल अनाथालय के मकान में सत्याग्रह कार्यालय खोला गया। किसानों ने एक सामूहिक प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर कि, जिसमें लिखा था

"हमारे गांवों की फसलें चार आने से भी कम हैं, यह जानते हुए हमने सरकार से अनुरोध किया कि वह आगामी वर्ष तक राजस्व मूल्यांकन की वसूली स्थगित कर दे, लेकिन सरकार ने हमारी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। इसलिए हम, नीचे हस्ताक्षरकर्ता, गंभीरता से घोषणा करते हैं कि हम अपनी इच्छा से सरकार को वर्ष के लिए पूरा या शेष राजस्व नहीं देंगे। हम सरकार को जो भी कानूनी कदम उठाने चाहिए, उठाने देंगे और भुगतान न करने के परिणामों को सहर्ष भुगतेंगे। हम अपनी जमीन जब्त होने देना पसंद करेंगे, बजाय इसके कि स्वैच्छिक भुगतान करके हम अपने मामले को झूठा मान लें या अपने आत्मसम्मान से समझौता करें। लेकिन अगर सरकार पूरे जिले में मूल्यांकन की दूसरी किस्त की वसूली स्थगित करने के लिए सहमत हो जाती है, तो हममें से जो लोग भुगतान करने की स्थिति में हैं, वे पूरा या शेष राजस्व चुका देंगे। जो लोग भुगतान करने में सक्षम हैं, वे अभी भी भुगतान नहीं कर रहे हैं, इसका कारण यह है कि अगर वे भुगतान करने के लिए, गरीब किसान घबराहट में अपनी संपत्ति बेच सकते हैं या अपना बकाया चुकाने के लिए कर्ज ले सकते हैं, और इस तरह खुद पर मुसीबत ला सकते हैं। ऐसी परिस्थितियों में, हमें लगता है कि गरीबों के हित में, उन लोगों का भी कर्तव्य है जो भुगतान करने में सक्षम हैं कि वे अपना कर न चुकाएं।"

सत्याग्रहियों की संख्या 2,000 से अधिक हो गई। गुजरात सभा, जिसके गांधीजी अध्यक्ष थे, ने आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई। वल्लभभाई पटेल आंदोलन के मुख्य आयोजक के रूप में उभरे। एक गरीब किसान के बेटे, वल्लभभाई पटेल वकालत छोड़कर सत्याग्रह से जुड़ गए। इस सत्याग्रह के दौरान खेड़ा ज़िले के युवा वकील वल्लभभाई पटेल गांधीजी के जादू में आ गए। उन्होंने मिडिल टेंपल में कानून की पढ़ाई की थी और एक युवा बैरिस्टर की तरह एक फ़ैशनेबल जीवन जिया करते थे। खेड़ा के दौरान न सिर्फ़ उन्होंने अपने विदेशी कपड़ों और आरामदायक जीवन को त्याग दिया बल्कि वो किसानों के साथ रहने लगे। उन्होंने कुर्ता और धोती पहनी और गांव-गांव घूमते रहे, जरूरत पड़ने पर लोगों को प्रोत्साहित करते। उनका साधारण खाना खाने लगे, ज़मीन पर सोने लगे और यहां तक कि अपने कपड़े भी ख़ुद धोने लगे। इसके अलावा इंदुलाल याज्ञिक, नरहरि बैंकर, महादेव देसाई, मोहनलाल पंड्या, श्रीमती अनसूयाबहन, और नरहरि पारिख भी सहभागी बने।

महादेव देसाई ने गांधीजी के सचिव के रूप में काम किया। वे एक कुशल अनुवादक थे। वह डायरी रखते थे और सुंदर हाथ से लिखते थे। उनकी लिखावट एक व्यक्ति के चित्र की तरह थी, स्पष्ट, तेज, ईमानदार। गांधी की लिखावट अच्छी नहीं थी, आसानी से पढ़ी नहीं जा सकने वाली। महादेव देसाई ने उस सुंदर लिखावट में हजारों पत्र लिखे, और नीचे गांधी के हस्ताक्षर हमेशा अजीब तरह से बेमेल लगते थे। पाटीदार किसानों के लिए भी यह लड़ाई बिल्कुल नई थी। इसलिए गांव-गांव जाकर गांधीजी और वल्लभ भाई पटेल ने लोगों के मन से सरकारी अधिकारी के डर को दूर करने का प्रयास किया और लगान न देने की गुजारिश की और सत्याग्रह के सिद्धांत समझाए। किसानों को यह एहसास दिलाकर उनके भय को दूर किया गया कि अधिकारी लोग मालिक नहीं, बल्कि जनता के सेवक हैं, क्योंकि उन्हें करदाताओं से वेतन मिलता है। खेड़ा की घटनाओं की रिपोर्ट दिन-प्रतिदिन प्रेस में आती रही।

कमिश्नर ने गांधीजी पर आरोप लगाया कि उन्होंने उस समय आंदोलन की शुरुआत की जब युद्ध एक महत्वपूर्ण चरण में प्रवेश कर रहा था। 15 अप्रैल को गांधीजी ने उत्तर दिया: "कमिश्नर ने संकट को आमंत्रित किया है। और उन्होंने इसे इतना महत्व दिया है कि उन्होंने लॉर्ड विलिंगडन के पत्र के साथ खुद को पहले से ही तैयार कर लिया है कि उन्हें भी कमिश्नर के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। वे अपनी स्थिति की रक्षा के लिए युद्ध में उतरते हैं और साम्राज्य के लिए संकट के इस समय में रैयतों और मुझे अपने काम से विरत रहने के लिए कहते हैं। लेकिन मैं यह सुझाव देने का साहस करता हूं कि कमिश्नर का रवैया जर्मन संकट से कहीं अधिक बड़ा संकट है, और मैं साम्राज्य को इस संकट से बचाने के लिए अंदर से उसकी सेवा कर रहा हूं। इस तथ्य में कोई संदेह नहीं है कि भारत अपनी लंबी नींद से जाग रहा है। रैयतों को अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझने के लिए साक्षर होने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें अपनी अजेय शक्ति का एहसास होना चाहिए और कोई भी सरकार, चाहे कितनी भी मजबूत क्यों न हो, उनकी इच्छा के विरुद्ध खड़ी नहीं हो सकती। खेड़ा रैयत भारत में पहले दर्जे की शाही समस्या का समाधान कर रहे हैं। वे दिखाएंगे कि उनकी सहमति के बिना शासन करना असंभव है। युद्ध को अधिकारियों को अपने आदेशों का पालन करने का लाइसेंस देने की अनुमति नहीं दी जा सकती, भले ही रैयत उन्हें अनुचित और अन्यायपूर्ण मानते हों।"

गुजरातियों को इस लड़ाई में गहरी दिलचस्पी थी, जो उनके लिए एक नया प्रयोग था। वे इस लड़ाई की सफलता के लिए अपनी सारी दौलत लुटाने को तैयार थे। खेड़ा आंदोलन के लिए बम्बई के सेठों ने काफी आर्थिक मदद की थी सत्याग्रह ने खेड़ा के लोगों में जोश भर दिया। सत्ताधारी समझौते के लिए तैयार न थे। किसान क़ानून भंग करने लगे। शुरू-शुरू में यह आंदोलन बहुत सफल रहा लेकिन आंदोलन की सफलता से घबराई सरकार ने अपने कुर्की अधिकारियों को गांवों में भेजा;  काफी सख्ती की और कुर्की करके किसानों के पशु तक बेच डाले। अकाल, प्लेग और महँगाई की तिहरी मार के बाद किसानों ने सरकारी दमन को भी सहा, पर अंत में वे थकने लगे।  सख्ती के सामने कुछ किसान टूटने लगे। जुर्माने के नोटिस दिए गए और कुछ मामलों में खड़ी फसलें भी जब्त कर ली गईं। इससे किसान घबरा गए, जिनमें से कुछ ने अपना बकाया चुका दिया, जबकि अन्य ने अधिकारियों के रास्ते में सुरक्षित चल संपत्ति रखना चाहा ताकि वे बकाया वसूलने के लिए उसे कुर्क कर सकें। दूसरी ओर कुछ लोग अंत तक लड़ने के लिए तैयार थे।

शंकरलाल पारीख के एक काश्तकार ने अपनी ज़मीन के लिए कर अदा कर दिया। इससे सनसनी फैल गई। शंकरलाल पारीख ने तुरंत अपने काश्तकार की गलती का प्रायश्चित करते हुए वह ज़मीन दान में दे दी, जिसके लिए कर अदा किया गया था। इस तरह उन्होंने अपनी इज्जत बचाई और दूसरों के लिए एक अच्छी मिसाल कायम की।

भयभीत लोगों के दिलों को मजबूत करने के उद्देश्य से गांधीजी ने मोहनलाल पंड्या के नेतृत्व में लोगों को सलाह दी कि वे उस खेत से प्याज की फसल हटा दें, जिसे गलत तरीके से जब्त किया गया था। गांधीजी की सलाह पर मोहनलाल पांड्या ने, जो इस आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता थे, अपने साथियों के साथ कुर्की किए हुए खेत से प्याज काटा, तो उसे गिरफ्तार कर लिया गया। मोहनलाल और उनके साथियों की गिरफ्तारी ने लोगों के उत्साह को और बढ़ा दिया। जब जेल का डर गायब हो जाता है, तो दमन लोगों में हिम्मत भर देता है। सुनवाई के दिन भीड़ ने अदालत को घेर लिया। मुकदमा चलाया गया, तथा उसे दस दिन के साधारण कारावास की सजा सुनाई गई। कोई अपील दायर नहीं की गई क्योंकि नीति कानूनी अदालतों से बचने की थी। जब उसे जेल ले जाया जा रहा था, तो लोग नारे लगा रहे थे, ‘प्याज चोर मोहनलाल की जय’। लोगों के मन से कारावास का भय दूर हुआ, तो वे ज़्यादा उत्साह से क़ानून भंग कर जेल जाने लगे।

जब खेड़ा जिले में गांधीजी ने भूमि-कर घटाने के लिए ‘सत्याग्रह’ किया, तो यह तरीक़ा शांतिपूर्वक विरोध का था। इसका उद्देश्य था स्वयं कष्ट सहकर अत्याचारी का हृदय परिवर्तन करना। कर न देने का यह अभियान लगभग चार महीने चला। स्थानीय अधिकारी गांधीजी के इन कार्यों से घबड़ा गए लेकिन सरकार जल्दी में आकर बल-प्रयोग नहीं करना चाहती थी। गांधीजी भी इन झगड़ों को सीमित ही रखना चाहते थे और राष्ट्रीय स्तर पर संकट पैदा किए बिना ही इन समस्याओं का ऐसा समाधान चाहते थे, जिससे मजदूरों और किसानों को किसी हद तक न्याय प्राप्त हो जाए। गांधीजी इस आंदोलन को भी समझौता कर समाप्त करना चाहते थे और हुआ भी ऐसा ही, कुछ ही दिनों में कलेक्टर ने लगान माफ़ करने की घोषणा कर दी। नाडियाड तालुका के मामलतदार ने गांधीजी को संदेश भेजा कि अगर संपन्न पाटीदारों ने भुगतान कर दिया, तो गरीब लोगों को निलंबित कर दिया जाएगा। गांधीज़ी ने इसे पर्याप्त कारण मानकर सत्याग्रह-आंदोलन वापस ले लिया। 6 जून, 1918 को खेड़ा के लोगों को संबोधित एक पत्र में गांधीजी ने 22 मार्च को शुरू हुए सत्याग्रह की समाप्ति की घोषणा की।

जेल से रिहा हुए सत्याग्रहियों के स्वागत के लिए कुछ बैठकें आयोजित की गईं, जीत का जश्न मनाने के लिए और गांधी को सम्मान देने के लिए कई बैठकें की गईं। 27 जुलाई, 1918 को आयोजित एक बैठक में गांधी ने रिहा हुए सत्याग्रहियों का स्वागत करते हुए कहा: "हम एक धुंधलके की दहलीज पर खड़े हैं - सुबह होगी या शाम, हमें नहीं पता। एक के बाद रात आती है, दूसरी भोर का संदेश देती है। अगर हम धुंधलके के बाद सुबह देखना चाहते हैं और शोकपूर्ण रात नहीं, तो हम सभी होम रूलरों को इस मोड़ पर सच्चाई का एहसास करना चाहिए, किसी भी मुश्किल के खिलाफ इसके लिए खड़ा होना चाहिए और किसी भी कीमत पर इसका प्रचार और अभ्यास करना चाहिए। केवल सही व्यवहार और सच्चाई ही हमें होम रूलर कहलाने का हकदार बनाएगी।"

गांधीवादी हस्तक्षेप गुजरात के खेड़ा जिले में कहीं अधिक स्थायी रूप से सफल साबित हुआ। किसानों ने खुद अपने अनुभव से जान लिया था कि ‘जनता की मुक्ति उसके अपने ऊपर, उनकी कष्ट सहने और बलिदान देने की क्षमता पर निर्भर होती है’। खेड़ा सत्याग्रह गुजरात के किसानों में जागृति की शुरुआत थी, उनकी सच्ची राजनीतिक शिक्षा की शुरुआत थी। यह खेड़ा अभियान ही था जिसने शिक्षित सार्वजनिक कार्यकर्ताओं को किसानों के वास्तविक जीवन से संपर्क स्थापित करने के लिए मजबूर किया। गुजरात में सार्वजनिक जीवन एक नई ऊर्जा और एक नए जोश के साथ सहज हो गया। पाटीदार किसान अपनी ताकत के बारे में अविस्मरणीय चेतना में आ गए। खेड़ा अभियान के माध्यम से सत्याग्रह ने गुजरात की धरती पर मजबूती से जड़ें जमा लीं। खेड़ा के किसान खुश थे, क्योंकि वे जानते थे कि उन्होंने जो हासिल किया है वह उनके प्रयास के अनुरूप है, और उन्होंने अपनी शिकायतों के निवारण के लिए सच्चा और अचूक तरीका खोज लिया है।

गांधीजी के सत्याग्रह के इन आरंभिक प्रयोगों के समय पहला महायुद्ध चल रहा था। गांधीजी इस समय सरकार को मुसीबत में डालना नहीं चाह रहे थे। सरकार से सीधी भिड़ंत तो वह बिल्कुल ही नहीं चाहते थे। चंपारण या खेड़ा की लड़ाइयों को उन्होंने उन्हीं क्षेत्रों तक सीमित रखा। न्याय की थोडी-सी झलक मिलते ही समझौता कर लिया और उन्हें अखिल भारतीय संकट का रूप न लेने दिया। गांधीजी के सत्याग्रह के चंपारण, खेड़ा एवं अहमदाबाद के प्रयोगों ने उन्हें आम जनता के अत्यंत निकट ला दिया। उसमें ग्रामीण क्षेत्रों के किसान भी थे और शहरी क्षेत्र के मज़दूर भी। राष्ट्रीय आंदोलन को यह गांधीजी की एक महान देन थी। चंपारण, अहमदाबाद और खेड़ा कृषक आंदोलन ने संघर्ष के गांधीवादी तरीक़ों को आजमाने का अवसर दिया था, साथ ही साथ गांधीजी को देश की जनता के नज़दीक आने, उसकी समस्याएं समझने का भी अवसर मिला था। गांधीजी को जनता की ताक़त, उसकी कमज़ोरियों का पता चला। इसका अनुमान लगाने का भी मौक़ा मिला। और इस दौरान गांधीजी ने भारतीय जनता में अपनी पहचान बनायी। अनुभव और लोकप्रियता ने गांधीजी को अदम्य साहसी बना दिया। इसी साहस और विश्वास के कारण उन्होंने फरवरी 1919 में एक एक्ट के ख़िलाफ़ देश-व्यापी आन्दोलन किया।

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मनोज कुमार

 

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