बुधवार, 28 मार्च 2012

स्मृति शिखर से... 11: वे लोग, भाग – 3

स्मृति शिखर से... 11
वे लोग, भाग – 3
- करण समस्तीपुरी

गाँव में समरसता अधिक होती है। सरलता भी अधिक होती है। अपने पराये का भेद थोड़ा कम होता है। सुविधा और संसाधनों पर अधिकार व्यक्ति या परिवार विशेष तक सीमित नहीं रहता। हाँ, किसी के खेत की फ़सल कोई और नहीं काट सकता। किसी के गाछी-बगीचे से कोई पेड़ या पेड़ की डालियाँ नहीं काट सकता। किसी के केला-बगान से केले का घौंद कोई और नहीं काट सकता। किन्तु किसी के बीजू आम, अमरुद, जामुन के पेड़ों से फ़ल तोड़कर कोई भी खा सकता है। खेत में फ़सल नहीं है तो कोई भी माल-मवेशी चरा सकता है। अगर धान झाड़ लिए गए हों तो झड़ुआ कोई भी ले जा सकता है। गेहूँ की दौनी हो गई है तो भूसा कोई भी ले जा सकता है। हलाँकि अब भी परिस्थितियाँ ऐसी ही है कहना मुश्किल होगा। इनमें से तो बहुत कुछ मेरे बड़े होने तक बदल चुका था।

कुछ चीजें कभी नहीं बदलती। कुछ लोग भी कभी नहीं बदलते। परस्थितियाँ बदल रही थी। खेतों में मेड़ और आँगन में दीवारें खड़ी हो रही थी। बगीचों में कंटीले तारों का घेरा डाला जा रहा था। कुँए-तालाब अपना अस्तित्व खो रहे थे। चूल्हे जलाने के लिए दूसरे घरों से आग नहीं ली जाती। लोग अपने आग-पानी से निर्वाह करते हैं। करें...! मगर रामबल्लभ झा पंडीजी को इन परिवर्तनों से क्या लेना। संक्रमण काल में भी वे इन परिवर्तनों से उसी प्रकार निस्पृह बने रहे जैसे जल में कमल-पत्र। कुछ पुश्तैनी जमीन थी मगर झाजी खेती का श्रमसाध्य एवं अनिश्चित कार्य पसंद नहीं करते थे। बंटाईदारों से इतना मिल जाता था जो निःसंतान दंपति के लिए पर्याप्त था। थोड़ी यजमानी भी थी। और सबसे बड़ी पूँजी थी एक भैंस। खेत किसी की हो यदि फ़सल नहीं है तो पंडी जी साधिकार अपनी भैस चरा सकते हैं। बगीचों में बाड़ लगे हों, मगर झाजी इच्छानुकूल फ़ल-सब्जियाँ तोड़ ही लेंगे। 

यही क्यों उनका अधिकार तो गाँव के हरेक व्यक्ति पर था। छोटे बच्चों से लेकर बड़े-बुजुर्गों तक। जो भी मिला... उसका स्वागत पंडीजी अवस्थानुसार नानी, मामी और मौसी के अभिवादन से करते थे। अजब कवित्त गढ़ लेते थे। अभय भैय्या को देखते ही बोलते थे, “अभे हो अभे... तोरा नानी के होवे शुभे हो शुभे।” कारी नजर आए तो, “कारी... रे कारी.... तेरी नानी है सरकारी।” मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा रहती ही थी। मुझे भी उनका आशीष बहुत अच्छा लगता था। यदि कभी वो भूल जाते तो मैं अवश्य याद दिला देता था।

पंडी जी को थोड़ी अँगरेजी भी आती थी। अपना नाम बोलते थे, “माई इज दी नेम रामबल्लभ झा...लिव इन दी रेवाड़ी।’’ गाँव के बच्चे जिनके लिए अँगरेजी का काला अक्षर भैंस बराबर था उन्हे पंडीजी अँगरेजी के शब्द और वाक्य पूछ आधुनिक शिक्षा व्यवस्था को खूब कोसते थे। “टू बुइल्ड अ कैसल इन दी एयर”। उनकी प्रिय कहावत थी। एक बार मैंने उनसे पूछा था “आई डोंट नो” की हिन्दी। पंडीजी बार-बार जवाब देते थे और मैं दुहराकर पूछता “क्यों नहीं जानते?” पंडीजी चिढ़ गए थे। मेरी नानी का तो उन्होंने उद्धार ही कर दिया था। वैसे मुझसे अत्यंत स्नेह भी रखते थे। सड़क से आते-जाते मेरे घर के पास एक बार मेरा नाम अवश्य पुकार लेते थे। दृष्टि पड़ गई तो नानी को नमस्कार निश्चित था।

पदुम लाल गुरुजी के स्कूल से सटे था पंडी जी का घर। पंडी जी के घर से सटे अमरूद के दो बड़े-बड़े पेड़ थे। उन पेड़ों से अमरूद कोई भी तोड़ सकता था। पंडिताइन के मना करने पर भी...। पंडी जी के तरफ़ से खुली छूट थी। लेकिन भैंस का दूध उधार में भी नहीं देते थे। सिर्फ़ नकद और अन्य से एक रुपया प्रति लीटर अधिक। उनका कहना था वे दूध में पानी नहीं मिलाते। सच में। ग्राहक के सामने दूह कर देते थे। जब भैंस बकैन हो जाती थी तो वे ग्राहक को ही कहते थे, थोड़ा पानी मिला लीजिएगा नहीं तो दूध फ़ट जाएगा।

पंडी जी का एक और सिद्धांत था। वे खरीदते कुछ भी नहीं थे। बँटाई-दारों से मिला अन्न यदि खत्म हो जाए तो यजमानी का आसरा...। यदि वो भी नहीं तो अमरूद या भैंस का दूध...। यदि वो भी नहीं तो फ़ाँके...। कहते थे ब्रह्मन हैं कोई व्यपारी नहीं।

रामजी बाबू उनके यजमान थे। प्रायः कुछ दे दिया करते थे। दोनों समव्यस्क भी थे। देह-राशि भी लगभग समान ही थी। साल में एक बार नये कपड़े और आवश्यकतानुसार अपने कपड़े पंडी जी को देते रहते थे। वैसे उनके घर में कोई आता था तो पंडीजी के लिए कपड़े अवश्य लाता था। रामजी बाबू का जीवन भी उतार-चढ़ाव का पर्याय रहा।

इसी शृंखला में सरकार जी की चर्चा हुई थी। रामजी बाबू उनके पुत्र थे। वैष्णव परिवार। साधु संस्कारों और आर्थिक संपन्नता में लालन-पालन हुआ। दुर्व्यसन तो कुछ नहीं व्यसन के नाम पर बीड़ी बहुत पीते थे। एक समय समस्तीपुर कचहरी में उनकी तूती बोलती थी। गाँव से आने-जाने वाला कोई रामजी बाबू के नाम पर कचहरी-प्रांगण के किसी दुकान से कुछ भी ले सकता था। पैसे की कोई जरूरत नहीं थी। रामजी बाबू का खाता चलता था। दिन, सप्ताह या मासांत में सबका हिसाब हो जाता था। गाँव या संबंधियों में किसी का विवाह, उपनयन, श्राद्ध, यज्ञ, अनुष्ठान कुछ भी हो, उन्हे निमंत्रण की चिंता नहीं थी। सिर्फ़ सूचना होनी चाहिए। रामजी बाबू पहुँच जाते थे। 

उनकी एक और विशेषता थी। वे किसी भी काम में हाथ नहीं लगाते किन्तु उनके पहुँचते ही सारे काम बिजली की गति से हो जाते थे। जब तक सारा कार्य संपन्न न हो जाए सब को विशेषतः कार्यकर्ताओं को ललकारे रहते थे। गाँव में कार्तिक देवोत्थान एकादशी को होने वाले अष्टयाम में तो उनका उत्साह और ऊर्जा देखते ही बनता था। कहते हैं कि किशुनदेव गुरुजी के साथ उन्होंने भी गंगा में खड़े होकर तुलसी और ताँबा लेकर शपथ लिया था कि याज्जीवन रेवाखंड में इस वार्षिक अष्टयाम का निर्वाह करेंगे।

व्यवस्था और अवस्था दोनों तेजी से बदल रहे थे। धीरे-धीरे पता नहीं चला... आय कम होती गई... व्यय अधिक और विभाजन के बाद मिली पैतृक संपत्ति भी उसी अनुपात में घटती चली गई। मेरे कालेज के दिनों में सिर्फ़ “पांडेजी” के होटल में रामजी बाबू का खाता रह गया था। यदि दीख जाते थे तो मैं चरण-स्पर्श करता था और वे बिना भोजन करवाए नहीं आने देते थे।

शरीर जीर्ण हो गया था। आय शीर्ण। कुछ संचित तो किया नहीं था बस प्रशंसा अर्जित करते रहे थे। एक विधवा बहू के भरण-पोषण की जिम्मेदारी थी। सो कचहरी भी नहीं छोड़ सकते थे। बुढ़ापे में प्रतिदिन गाँव से आना-जाना भी मुश्किल था। अर्थाभाव में समस्तीपुर में किराए पर अलग घर लेकर रहना दुष्कर। कुछ सगे-संबंधी रहते थे उसी शहर में। उनके साथ रहने लगे। हमारे समाज में अर्थहीन व्यक्ति वैसे ही भार समझा जाता है। उपर से बुढ़ापा... मतलब कोढ़ में खाज। बेचारे रामजी बाबू आजीवन शान से जीए थे। बुढ़ापे में अपने सगे-संतानों से अनादर वर्दाश्त नहीं कर सके।

समस्तीपुर स्टेशन पर रहने लगे। वहीं पंचम राय के भूजा और सत्तु की दुकान थी। थोड़े से पैसे में रायजी दो जून का भोजन दे देते थे। सोने के लिए स्टेशन का चबूतरा। एक छोटी सी झोली दिन भर रायजी के दूकान पर पड़ी रहती थी। लोग फिर बुलाने आए... किन्तु रामजी बाबू दुबारा नहीं गए। जीवन के अंतिम क्षण तक स्टेशन पर ही रहे। हालत बिगड़ते देख पंचम राय ने ही रिक्शा पर घर पहुँचवा दिया था। अगली सुबह विधवा बहू का करुण-क्रंदन...! देहरी पर रामजी बाबू का पार्थिव शरीर पड़ा था। बाहर यशगान चल रहा था। लोग कह रहे थे... आज तक इन्होंने जो भी निश्चय किया उसका निर्वाह करते रहे किन्तु मुझे उनके निर्जीव मुख पर तभी भी शायद कुछ क्षोभ की रेखाएँ नजर आ रही थी। उनकी अर्थी को अगला कंधा देते हुए मेरी भी आँखे भर आई थी मगर एक संतुष्टी भी हुई...।

सोमवार, 26 मार्च 2012

बंजरों से लड़ते-लड़ते


बंजरों से लड़ते-लड़ते

श्यामनारायण मिश्र

फागुन उनके नाम लिखे हैं,
     अपने  हिस्से  में  है
               रातें माघ की।

उमर पराई हुई
बंजरों से लड़ते-लड़ते
उनके खेत
मेड़ तक जिनके पांव नहीं पड़ते।
झुठलाने पर तुला हुआ है
समय कहावत घाघ की।

औरों की डोली देने को
कंधे हैं अपने
उपवासों के भोगे अनुभव
पारण के सपने।
अपना ही मन रहे रिझाते
दुहराते धुन फाग की।

अपने ओठ
बोल औरों के कहते
हम कुम्हार के चाक हो गए
चक्कर सहते-सहते।
अपने कस्तूरी  मृग पर है
दृष्टि भयानक बाघ की।
***  ***  ***

रविवार, 25 मार्च 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 105


भारतीय काव्यशास्त्र – 105
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में व्यभिचारिभावस्वशब्दवाच्यता, रसस्वशब्दवाच्यता, स्थायिभावस्वशब्द- वाच्यता रसदोषों पर चर्चा की गई थी। इस अंक में अनुभाव की कठिनाई से प्रतीति, विभाव की कठिनाई से प्रतीति और प्रतिकूल विभाव आदि का ग्रहण रसदोषों पर चर्चा की जाएगी। पिछले अंक में कुछ पाठकों ने प्रतिक्रिया करते हुए लिखा था कि पोस्ट स्पष्ट नहीं हो पायी है, समझने में कठिनाई हो रही  है। यह बात मुझे पोस्ट लगने के बाद समझ में आई कि लोगों को ऐसा क्यों लगा। अतएव, उन परिभाषिक शब्दों को स्पष्ट करने के लिए उनकी एक बार फिर चर्चा की जा रही है।
रस को परिभाषित करते हुए आचार्य भरत कहते हैं- विभावानुभावव्यभिचारिभावसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः, अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव (संचारिभाव) के संयोग से रस निष्पन्न होता है, उत्पन्न होता है या ये विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव (संचारिभाव) रस की अनुभूति के कारक होते हैं। विभाव रस के बाह्य कारक होते हैं और ये दो तरह के होते हैं- आलम्बन और उद्दीपनशृंगार रस में नायक या नायिका या दोनों आलम्बन होते हैं और चाँदनी, नदी, बाग आदि उद्दीपन होते हैं। स्थायिभाव रस की अनुभूति के आंतरिक कारक हैं। प्रत्येक रस का अपना अलग स्थायिभाव होता है, जैसे - रति (शृंगार रस), हास (हास्य रस), शोक (करुण रस) आदि। रस की अनुभूति के समय शारीरिक और मानसिक व्यापार अनुभाव कहलाते हैं- जैसे रौद्र रस में नथुनों का फूलना, आँखें लाल-लाल होना आदि। प्रत्येक रस के अनुभाव भी विभाव की भाँति अलग-अलग होते हैं। अनुभाव की तरह व्यभिचारिभाव भी आंतरिक रस की अनुभूति से उत्पन्न शारीरिक और मानसिक व्यापार या अभिव्यक्ति है। आचार्य भरत लिखते हैं कि जो रसों में सक्रिय होते हैं और उन्हें (रसों को) पुष्टकर आस्वादन के योग्य बनाते हैं, वे व्यभिचारिभाव कहलाते हैं। इनकी कुल संख्या 33 है, जैसे- निर्वेद, ग्लानि, ईर्ष्या, आलस्य आदि। ये रसों के अनुसार अलग-अलग नहीं होते। रस के निष्पन्न होने में इनकी अनुभूति होने में इन कारकों के विभिन्न व्यतिक्रमों से व्यवधान उत्पन्न होने पर ही रसदोषों का जन्म होता है।   
अब अपने मूल विषय पर वापस लौटते हैं और अनुभाव की कठिनाई से प्रतीति, विभाव की कठिनाई से प्रतीति और प्रतिकूल विभाव आदि का ग्रहण रसदोषों पर चर्चा प्रारंभ करते हैं।
जहाँ काव्य में अनुभावों की प्रतीति होने में कठिनाई हो, वहाँ अनुभाव की कठिनाई से प्रतीति रसदोष होता है। जैसे-
        कर्पूरधूलिधवलद्युतिपूरधौतदिङ्मण्डले   शिशिररोचिषि  तस्य  यूनः।
        लीलाशिरोंSशुकनिवेषविशेषक्लृप्तिव्यक्तस्तनोन्नतिरभून्नयनावनौ सा।।
   अर्थात् चन्द्रमा के उदय होने से कर्पूर के चूर्ण के समान श्वेत चाँदनी से दिङ्मंडल प्रकाशित हो रहा है। ऐसे में सिर पर इस प्रकार घूँघट डाले कि उसके स्तन का उभार स्पष्ट हो। इस प्रकार वह उस नवयुवक की दृष्टि की परिधि में आ गयी।
   यहाँ शृंगार रस के आलम्बन विभाव के रूप में नायिका और उद्दीपन विभाव के रूप में चन्द्रमा का वर्णन तो है, लेकिन इन विभावों के परिणाम स्वरूप नायक में उत्पन्न होनेवाले अनुभावों - स्वेद, रोमांच आदि के वर्णन का अभाव होने के कारण इनकी (अनुभावों की) प्रतीति होने में कठिनाई है। जिससे शृंगार रस के निष्पन्न होने में या तो व्यवधान उत्पन्न होता है, या तो बिलम्ब होता है। इसलिए यहाँ अनुभाव की कष्ट से प्रतीतिजनित रसदोष है।      
   जहाँ काव्य में विभावों की प्रतीति में कठिनाई हो, वहाँ विभाव की कठिनाई से प्रतीति रसदोष होता है। जैसे-        
           परिहरति रतिं मतिं लुनीते स्खलति भृशं परिवर्तते च भूयः।
           इति बत विषमा दशास्य देहं परिभवति प्रसभं किमत्र कुर्मः।।
   अर्थात् वह बेचैन रहता है, उसका विवेक नष्ट हो गया है, लड़खड़ाता है, लोटने-पोटने लगता है। इस प्रकार उसका शरीर अत्यन्त भयावह दशा को प्राप्त हो गया है। समझ में नहीं आता कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाय?
   यहाँ बेचैनी, लड़खड़ाना आदि केवल अनुभावों का वर्णन किया गया है और ये अनुभाव विप्रलम्भ शृंगार और करुण रस दोनों में ही पाए जाते है। आलम्बन विभाव के रूप मे प्रियतमा का कथन न होने के कारण इस विभाव का अनुमान बड़ी कठिनाई से हो पाता है। इसके अतिरिक्त यह भी संदेह होता है कि उस व्यक्ति की वर्णित दशा किसी बीमारी विशेष के कारण तो नहीं है। अतएव यहाँ विभाव-कष्टकल्पना रसदोष है।
   निम्नलिखित हिन्दी दोहे में भी विभाव और अनुभाव की कठिनाई से प्रतीति देखने को मिलेगी-
                हिमकर किरण पसारकर, जब   देता   आनंद।
                तब वह हँसती दृग नचा, खिल उठता मुखचंद।।
   इसमें नायिक आलम्बन विभाव और चन्द्रमा उद्दीपन विभाव है। लेकिन नायक के प्रेम को व्यक्त करने वाले अनुभावों की प्रतीति में कठिनाई हो रही है। इसी प्रकार, यहाँ नायक के उल्लेख के अभाव में यह कहना कठिन है कि नायिका का हँसना, आँख का नचाना, मुखचंद का खिलना प्रेमगत है या मात्र स्वाभाविक विलास, यह स्पष्ट नहीं हो रहा है।  
       जब काव्य में इस प्रकार के विभावों का वर्णन हो, जिससे अपेक्षित रस के प्रतिकूल विभाव का ग्रहण होता है, वहाँ प्रतिकूल विभाव आदि का ग्रहण रसदोष होता है। निम्नलिखित श्लोक इसका उदाहरण है। अपनी रूठी प्रियतमा को मनाने के लिए उसके प्रति नायक की यह उक्ति है- 
प्रसादे  वर्तस्व  प्रकट्य   मुदं  संत्यज  रुषं
प्रिये शुष्यन्त्यङ्गान्यमृतमिव ते सिञ्चतु वचः।
निधानं सौख्यानां मक्षणमभिमुखं स्थापय मुखं
न मुग्धे  प्रत्येतुं   प्रभवति  गतः कालहरिणः।।
   अर्थात्, हे प्रिये, मान जाओ, थोड़ा मुस्करा दो, गुस्सा छोड़ दो, तुम्हारी नाराजगी से मेरे सूखते जा रहे अंगों को अपनी वाणी रूपी अमृत से सींच दो, मेरे सभी सुखों के आधार अपने सुन्दर मुख को मेरे सामने करो। क्योंकि हे मुग्धे, गया हुआ यह काल रूपी हिरण पुनः लौटकर नहीं आता।
   इस शलोक में कालरूपी हिरण पुनः वापस नहीं आएगा (बीता हुआ समय लौटकर नहीं आता) कथन से यौवन की अनित्यता रूपी विभाव शान्त रस को निष्पन्न करनेवाले निर्वेद व्यभिचारिभाव को प्रकाशित करता है। जो शृंगार रस के प्रतिकूल है, जबकि यहाँ कवि का अभीष्ट शृंगार का वर्णन है। इसलिए यहाँ प्रतिकूल-विभाव-ग्रहण रसदोष है।
   प्रतिकूल विभावादि का ग्रहण रसदोष के लिए हिन्दी की निम्नलिखित कविता ली जा रही है -
            मधु  कहता है  ब्रजबाले, उन पद-पद्मों का करके ध्यान।
            जाओ  जहाँ  पुकार  रहे  हैं  श्रीमधुसूदन मोद निधान।
            करो प्रेम मधुपान शीघ्र ही यथासमय कर यत्न विधान।
            यौवन  के  सुरसाल योग में कालरोग है अति बलवान।   
   यहाँ भी कालरोग पद यौवन की अनित्यता का संकेतक है, जो शान्त रस में आलम्बन विभाव होता है। जबकि शृंगार रस का वर्णन कवि का अभीष्ट है। अतएव इसमें भी प्रतिकूल-विभाव-ग्रहण रसदोष है।

     इस अंक में बस इतना ही।

शनिवार, 24 मार्च 2012

फ़ुरसत में ... मुझे मेरा दोस्त मिल गया!

फ़ुरसत में ... 96

मुझे मेरा दोस्त मिल गया!

IMG_0130_thumb[1]मनोज कुमार

 

फ़ुरसत में हूं।

कभी-कभी जब फ़ुरसत में होता हूं, तो चिन्तन-मनन की प्रक्रिया चल पड़ती है। आज भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। आस-पास हमें हर दूसरा आदमी यह कहता हुआ मिल जाता है कि दुनिया बड़ी स्वार्थी है। ... और साथ में यह भी जोड़ देते हैं कि सच्चे दोस्त नहीं मिलते। भले ही अपने-आप में लाख कमी हो, दोस्तों में प्रायः दो गुण अवश्य ढूँढते हैं, एक मार्गदर्शक और दूसरा राज़दार! जब कभी भी हम मुसीबत में हों, किसी दोराहे पर अटक गए हों, तो वह हमें सही रास्ता सुझाए और जो व्यक्तिगत या विशेष योजना बने या जो बातें हम आपस में बांटें, उसे अपने तक ही सीमित रखे। कुल मिलाकर वह मेरी कमियों को भी दिखाए और हमारे साथ भी चले।

दुनिया की भीड़ में कौन सही दोस्त है, कौन नहीं, इसकी तलाश चलती रहती है। आज फुरसत में हम भी एक कोशिश करके देख ही लेते हैं। काफ़ी सोच-विचार के बाद, अब सही दोस्त की तलाश में निकलने को हम और हमारा मन उद्यत हैं। बस अभी निकलने को ही थे कि एक एस.एम.एस. आता है। ‘इनबॉक्स’ में जाकर उसे देखता हूं। लिखा है –

“दुनिया में कभी सही दोस्त की तलाश में बाहर मत निकलना ... चूँकि आजकल गर्मी प्रचंड है और मैं घर के अंदर ए.सी. चलाकर बैठा होता हूं।”

सोचता हूँ – “हुंह! कैसे-कैसे लोग! कैसी-कैसी बातें!!” मैं एस.एम.एस. डिलिट करके बाहर निकल पड़ता हूं। मेरे साथ मेरा मन भी चल पड़ता है और शुरू होती है हमारी तलाश भी। सही और सच्चे दोस्त की तलाश।

लोग मिलते हैं, बिछड़ जाते हैं। हम निर्णय करने में देर करते रहते हैं। दिल कहता है - यही सही है, मन कहता है - सही निर्णय पर पहुंचने के लिए समय चाहिए। इसी वाद-विवाद के बीच, हम मन की सुन लेते हैं। अब मन तो मनमौजी है - भटकता रहता है और जब अटकता है – देर हो चुकी होती है। तब तक सही निर्णय भी ग़लत हो जाता है। सही निर्णय, सही समय पर न लिया जाए, तो सही होते हुए भी ग़लत हो जाता है। ऐसे में देर से लिया गया सही निर्णय भी किसी काम का नहीं रहता।

कालिदास ने मालविकाग्निमित्र में कहा है, “सर्वज्ञस्यप्येकाकिनो निर्णयाभ्युपगमो दोषाय” अर्थात्‌अकेला व्यक्ति यदि सर्वज्ञ भी हो तो भी उसके निर्णय में दोष हो ही जाता है। अकेले तो मैं भी हूं। अकेले होने पर निर्णायक भी खुद ही बनना पड़ता है।

आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने पुनर्नवा में कहा है, “निर्णायक को पांच दोषों से बचना चाहिए – राग, लोभ, भय, द्वेष और एकान्त में वादियों की बातें सुनना।” इनमें से सारे ही दोष हममें विराजमान हैं और एक हम हैं, सोचते हैं कि - हम जो चाहते हैं – मन जो चाहता है - वह नहीं होता। हां, यह सच है कि मेरा मनचाहा कभी भी नहीं होता। आखिर ऐसा क्यों होता है?

हम चाहते हैं कि सब कुछ परफेक्ट हो, हमारे मन मुताबिक। मगर ऐसा होता नहीं। होने को कुछ और हो जाता है - पर वो नहीं होता जो हम चाहते हैं। फलतः हम स्व-निर्धारित व्यवस्था और मनोनुसार जीवन जी नहीं पाते।

जीवन में ऊँच-नीच, तो लगी ही रहती है। दाएं-बाएं, और आगे-पीछे भी। मनोनुसार जीवन नहीं चलता। इसका चलना-न-चलना हमारे हाथ में होता भी नहीं। लेकिन हम अपने जीवन में कुछ परफेक्ट मोमेंट्स भर तो सकते ही हैं। कुछ पंक्तियां याद आती हैं -

कैनवास पर तस्वीरें बनाने चला था

भरा रंग उस पर, मुझे जो मिला था

पर हुआ वही, जो था नसीब में होना

रीता रहा मेरे जीवन का कोई कोना

चलो ढूंढ़ें एकांत अपने लिए

जहां बना सकें वह तस्वीर मनचाही।

दुर्भाग्य, ऐसा हुआ नहीं, हर-बार तस्वीर अधूरी रह गई। आज फिर ऐसी किसी जगह की तलाश आ गया हूं।

एकांत और मौन है मेरे पास।

चहुं ओर पसरा मौन

मुझे मेरे करीब लाता है

मेरा स्वर निकल कर नयन से

मेरे मन में प्रवेश पाता है

मौन मन को भाता है

जग – जीवन से प्यार गहराता है।

इस एकांत में एक दिव्य-ज्योति दिखती है। एक आकृति जो हज़ार रंग लिए है – कुछ कहती है – अस्पष्ट – धुंधले मन पर वह अंकित होता है --- “तू करता है वह – जो तू चाहता है और होता वह है – जो मैं चाहता हूं!”

--- हां – हां – हां ... ... पर क्या करूं ?

-- “तू वो कर जो मैं चाहता हूं, फिर वह होगा जो तू चाहता है।”

***

आकृति अब नहीं है। वह शून्य में विलीन हो गई है।

अहा! आज जो मेरी एटर्नल-जर्नी हुई .. वह बहुत ही अच्छी रही। इस जर्नी से एक मोरल ऑफ द स्टोरी तो मिली ही मुझे –

“दिन में एक बार अपने आप से बात कर ही लेनी चाहिए, नहीं तो हम दुनिया के सबसे अच्छे दोस्त के मिलने का अवसर गंवा बैठते हैं।”

- फ़ुरसत में आज अपने से मिला – मुझे मेरा सही दोस्त मिल गया!

***

गुरुवार, 22 मार्च 2012

जल का संचय !

22 मार्च - विश्‍व जल दिवस के अवसर पर

जल का संचय !

IMG_0130_thumb[1]मनोज कुमार

जान लें

सूखती जा रही है धरा की कुक्षि

दिन ब दिन गिर रहा है स्तर जल का

करें कल्पना उस पल का

आने वाले भयानक कल का!

 

जब समस्या होगी विकट

पृथ्वि पर होगा जल का संकट

लोग हैरान होंगे

हालात से परेशान होंगे

भयावह है आने वाला कल

जल जब न होगा

सारा जग जाएगा जल।

 

इसी लिये आज से ही बूंद-बूंद बचाओ जल!

वरना हो जाएगा बिन पानी जग सून!

 

बापू ने कहा था

‘प्रकृति हमारी ज़रूरतों को तो

कर सकती है पूरा

लेकिन हमारे लालच को नहीं।’

 

सिंचाई पंप का इस्तेमाल

तालाब पाट कर बनते बस्तियों का जाल

औद्योगीकरण विशाल

शहरीकरण का कमाल

कि दुनिया में

एक अरब से अधिक लोगों के जीने को

मिलता नहीं साफ़ पानी पीने को

 

सच है यह कि

संसार में तीन चौथाई भाग पानी है

सागर है, ग्लेशियर है, खाड़ियां हैं

पर इनका जल हमारे किस काम का?

ये तो नमकीन है

इंसान को जीने के लिए

जो साफ़ जल है पीने के लिए

तीन प्रतिशत से भी कम

 

पानी

यानी

आबरू, इज़्ज़त, गौरव, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान

सब धरा रह जाएगा ...!

 

पानी

यानी

आभा, कांति, चमक

सब फींकी पड़ जाएगी …!

 

पानी

यानी

जौहर और धार

हम किसे दिखाएंगे .....!

 

पानी

यानी

अंबु, अंभ, अप, क्षीर

आप, आब, उदक, नीर

तोय, पय, पानीय, वन

वारि, सलिल, पाथ, जीवन

हां, जल ही है जीवन !

 

जल जीवन, जीवन जल

जल बिन जीवन ...  जल-जल

चाहिए तुझे यदि हरपल पय

कर मानव तू जल का संचय,

जल का संचय!!

सोमवार, 19 मार्च 2012

टुकड़ों के लिए चुना


टुकड़ों के लिए चुना

श्यामनारायण मिश्र

हीरामन !
बहुत हुआ राम-राम रटना।
पंख लिखे नभ के
     इतिहास का उलटना।

बंसवट की चहचह
     कोटर की कुटकुट,
भूल गए
धूप-छांव छतनारे झुरमुट।
टुकड़ों के लिए
     चुना पिंजड़े में खटना।
हीरामन !
मुश्किल है समय से निपटना।

तुमने भी मान लिया
     राजा औ’ रानी।
क्या हुआ ?
कटीले झरने का पानी।
व्यर्थ है नई इस
     सुबह को डपटना।
हीरामन !
घटने को आज नई घटना।

छोड़ो भी
अब यह ठकुर-सुहाती।
सपनों के चम्पागढ़
     पहुंचाना पाती।
भोर भये दिल्ली
     सांझ भये पटना।
हीरामन !
बहुत हुआ नयौते सा बंटना।

शनिवार, 17 मार्च 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 104


भारतीय काव्यशास्त्र – 104
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में अर्थदोषों पर चर्चा समाप्त हो गयी थी। इस अंक से रसदोषों पर चर्चा प्रारम्भ हो रही है। वैसे, अब तक जिन दोषों पर चर्चा हुई है, वे भी किसी न किसी प्रकार रस की प्रतीति में परोक्ष रूप से व्यवधान उत्पन करते हैं। पर जो दोष प्रत्यक्ष रूप से रस की प्रतीति में बाधक होते हैं, उन्हें रसदोष माना गया है। काव्यप्रकाश में निम्नलिखित 13 दोषों का उल्लेख किया गया है-

व्यभिचारिरसस्थायिभावानां    शब्दवाच्यता।
कष्टकल्पनया     व्यक्तिरनुभावविभावयोः।।
प्रतिकूलविभावादिग्रहो  दीप्तिः  पुनः  पुनः।
अकाण्डे प्रथनच्छेदौ अङ्गस्याप्यतिविस्तृतिः।।
अङ्गिनोSननुसन्धानं   प्रकृतीनां  विपर्ययः।
अनङ्गस्याभिधानं च  रसे दोषाः स्युरीदृशाः।।
1.      व्यभिचारिभावस्वशब्दवाच्यता,
2.      रसस्वशब्दवाच्यता,

3.      स्थायिभावस्वशब्दवाच्यता,
4.      अनुभाव की कठिनाई से प्रतीति,
5.      विभाव की कठिनाई से प्रतीति,
6.      प्रतिकूल विभाव आदि का ग्रहण,
7.      रस की बार-बार दीप्ति,
8.      अनवसर में रस का विस्तार,
9.      अनवसर में रस का विच्छेद,
10. अप्रधान रस का अत्यधिक विस्तार,
11. अङ्गी (प्रधान) रस का अननुसन्धान (त्याग)
12.  प्रकृतियों का विपर्यय अर्थात् पात्रों के स्वभाव का विपर्यय
13. अनङ्ग का कथन अर्थात् प्रधान रस के अपुष्टकारक तथ्यों का कथन।
जहाँ काव्य में व्यभिचारिभावों को नाम से, अर्थात् उनके वाचक शब्द से व्यक्त किया गया हो, वहाँ व्यभिचारिभावस्वशब्दवाच्यता रसदोष होता है। जैसे-

सव्रीडा   दयितानने   सकरुणा   मातङ्गचर्माम्बरे
सत्रासा भुजगे  सविस्मयरसा  चन्द्रेSमृतस्यन्दिनि।
सेर्ष्या   जह्नुसुतावलोकनविधौ  दीना  कपालोदरे
पार्वत्या नवसङ्गमप्रणयिनी दृष्टिः शिवायाSस्तु वः।।

अर्थात् नवसंगम के लिए उत्सुक माँ पार्वती की दृष्टि तुमलोगों के लिए कल्याणकारिणी हो, जो अपने पति (भगवान शिव) के मुख को देखकर लज्जायुक्त, हाथी के चर्म का वस्त्र उन्हें देखकर करुणायुक्त, उनके आभूषण सर्पों को देखकर त्रासयुक्त, अमृत को प्रवाहित करने वाले चन्द्रमा को देखकर विस्मय रस से युक्त, उनके सिर पर गंगा को देखकर ईर्ष्या-भाव से युक्त और उनके द्वारा धारण किए कपाल के भीतर देखकर दीनतायुक्त हो गयी है।

इस श्लोक में व्रीडा, त्रास, ईर्ष्या, दीनता आदि व्यभिचारी भावों के नाम हैं। इनके नाम से इन्हें अभिहित करने के कारण यहाँ व्यभिचारिभावस्वशब्दवाच्यता रसदोषहै।

इसी प्रकार जहाँ काव्य में रस की अभिव्यक्ति रस शब्द से या किसी अन्य रस के नाम से की गयी हो, वहाँ रसस्वशब्दवाच्यता दोष होता है। जैसे-

तामनङ्गजयमङ्गलश्रियं   किञ्चिदुच्चभुजमूललोकिताम्।
नेत्रयोः कृतवतोSस्य गोचरे कोSप्यजायत रसो निरन्तरम्।।

अर्थात् कामदेव की विजय की मंगल-लक्ष्मी और थोड़ी ऊपर को उठी हुई बाहों वाली नायिका को देखकर नायक के अन्दर किसी अनिर्वचनीय और अविच्छिन्न रस का उदय हुआ।

यहाँ रस शब्द का प्रयोग होने के कारण रसस्वशब्दवाच्यता दोष है।

निम्नलिखित उदाहरण में शृंगार रस विशेष कहकर वर्णन करने के कारण रसस्वशब्दवाच्यता दोष है-

आलोक्य  कोमलकपोलतलाभिषिक्तव्यक्तानुरागसुभगामभिराममूर्ति।
पश्यैष बाल्यमतिर्वृत्य विवर्तमानः शृङ्गारसीमनि तरङ्गितमातनोति।।

अर्थात् कोमल कपोलों पर व्यक्त अनुराग के कारण सुन्दर और मोहक रूपवाली नायिका को देखकर बाल्यावस्था का अतिक्रमण करके नवयौवन में प्रवेश करनेवाला यह नायक शृंगार की सीमा में तरंगित हो रहा है।

यहाँ शृंगार रस की अभिव्यंजना न होकर उसका नाम से उल्लेख हुआ है। अतएव इस श्लोक में भी रसस्वशब्दवाच्यता दोष है।

और जहाँ काव्य में स्थायिभावों को उनके नाम से अभिव्यक्त किया गया हो, वहाँ स्थायिभावस्वशब्दवाच्यता रसदोष होता है। जैसे-

सम्प्रहारे   प्रहरणैः   प्रहाराणां  परस्परम्।
ठणत्कारैः श्रुतुगतैरुत्साहस्तस्य कोSप्यभूत्।।

अर्थात् युद्ध में शस्त्रों के आपस में टकराने से उत्पन्न ध्वनि को सुनकर उसमें (वीर में) अनिर्वचनीय उत्साह उत्पन्न हुआ।

यहाँ वीर रस का स्थायिभाव उत्साह का स्वशब्द से कथन होने के कारण स्थायिभावस्वशब्दवाच्यता रसदोष है।

इस अंक में बस इतना ही।