भारतीय
काव्यशास्त्र – 111
पिछले कई अंकों में रसदोषों
की परिहारजनित अवस्थाओं पर चर्चा की जा चुकी है। यहाँ से पदादि दोषों के परिहार या
किन परिस्थितियों में वे दोष नहीं माने जाते, इस पर चर्चा करना अभीष्ट है। दोषों
पर चर्चा करते समय यह उल्लेख किया गया था कि दोषों में कुछ दोष नित्य हैं और कुछ
अनित्य। दोषों के परिहार की युक्तियाँ ही दूसरे शब्दों में दोषों की अनित्यता है।
अर्थात् जो दोष हर परिस्थिति में दोष बने रहते हैं, वे नित्य दोष होते हैं और जो
दोष परिस्थिति या विषय के बदल जाने से उनका दोषत्व समाप्त हो जाता है, वे अनित्य
दोष। जैसे च्युतसंस्कार (व्याकरण की त्रुटि) आदि दोष नित्य माने गये हैं। लेकिन
हिन्दी के सन्दर्भ में यह अनित्य दोष है, जैसे यदि वक्ता या पात्र गँवार है, तो यह
दोष नहीं माना जाता। जबकि श्रुतिकटुत्व आदि दोष शृंगार आदि रसों के वर्णन में तो
दोष हैं। लेकिन वीर, रौद्र आदि रसों में गुण हो जाते हैं।
अब अपने विषय, अर्थात् दोषों
की अनित्यता पर चर्चा प्रारम्भ करते हैं। जैसे, कान में पहने जाने वाले आभूषण
अवतंस कहलाते हैं। अतएव अवतंस के साथ कर्ण (कान) का प्रयोग पुनरुक्त या
अपुष्टार्थत्व दोष कहा जाएगा। परन्तु निम्नलिखित परिस्थिति में यह दोष नहीं है -
अस्याः कर्णावतंसेन जितं
सर्वं विभूषणम्।
तथैव शोभतेSत्यर्थमस्याः श्रवणकुण्डलम्।।
अर्थात् इसके कर्णावतंस ने
सभी आभूषणों को जीत लिया है और उसी प्रकार कान के कुण्डल (कान की बाली) भी सशोभित
हो रहे हैं।
यहाँ वर्णन के अवसर पर पहने
कान के आभूषण (अवतंस और कुंडल) के सौन्दर्य की प्रशंसा सन्निधान (कान में
उपस्थिति) का बोध कराने के लिए की गयी है। अतएव श्रवण और कर्ण पदों
का प्रयोग करना यहाँ पुनरुक्त या अपुष्टार्थत्व दोष नहीं है। इसी प्रकार
निम्नलिखित श्लोक में भी शिरः पद का प्रयोग भी दोषकारक नहीं है -
अपूर्वमधुरामोदप्रमोदितदिशस्ततः।
आययुर्भृङ्गमुखराः शिरःशेखरशालिनः।।
अर्थात् इसके बाद अपूर्व
मधुर सुगन्ध से दिशाओं को सुगन्धित करते हुए भौरों की गुंजार से युक्त सिर पर शेखर
(सिर पर पहने जानेवाले आभूषण) धारण किए पुरुष आ गए।
यहाँ भी शिरः पद का
प्रयोग तत्कालीन वर्णित सिर पर पहने आभूषण का सन्निधि बताने के लिए प्रयुक्त हुआ
है। अतएव यहाँ भी दोष नहीं है।
इसी प्रकार ज्या पद
के साथ धनुष शब्द का प्रयोग करना भी उचित नहीं है, क्योंकि धनुष की डोरी को ज्या
कहते हैं। लेकिन ज्या (डोरी) को धनुष पर चढ़ाना व्यक्त करने के लिए यदि धनुष पद का
साथ में प्रयोग किया जाय, तो पुनरुक्त या अपुष्टार्थत्व दोष नहीं होगा। जैसे -
विदीर्णाभिमुखारातिकराले सङ्गरान्तरे।
धनुर्ज्याकिणचिह्नेन दोष्णा विस्फुरितं तव।।
अर्थात्, अपना सामना
करनेवाले अपने शत्रुओं के विनाश से भयंकर संग्राम के बीच में या अन्य युद्ध में
धनुष की प्रत्यंचा के बार-बार लगने से हुए क्षत (घाव) के चिह्न से युक्त तुम्हारी
भुजा फड़क उठी है।
निम्नलिखित श्लोक में केवल
ज्या का प्रयोग किया गया है। क्योंकि यहाँ उपर्युक्त स्थिति नहीं है। यह श्लोक
महाकवि कालिदासकृत रघुवंश से उद्धृत किया गया है। इन्दुमती के स्वयंवर के
समय राजाओं का परिचय कराते समय सुनन्दा ने कार्तवीर्य सहस्रार्जुन के वंशधर का
परिचय देते हुए इसे कहा है। कहा जाता है कि कार्तवीर्य ने अपनी रानियों के साथ
रेवा नदी में जलक्रीडा करते समय अपनी भुजाओं से नदी की धार को रोक दिया था। नदी का
पानी तट को पार करता वहाँ तक पहुँच गया, जहाँ रावण भगवान शिव की आराधना में लीन
था। पूजा के लिए रखे हुए पुष्प जल के साथ बह गए और इससे रावण कुपित होकर
कार्तवीर्य को दंड देने के उद्देश्य से नदी के तट पर कार्तवीर्य के पास गया।
परन्तु कार्तवीर्य ने उसे अपनी धनुष की डोरी से बाँधकर कारावास में डाल दिया।
निम्नलिखित श्लोक में इसी घटना का उल्लेख किया गया है-
ज्याबन्धनिष्पन्दभुजेन यस्य
विनिश्वसद्वक्त्रपरम्परेण।
कारागृहे निर्जितवासवेन
लङ्केश्वरेणोषितमाप्रसादात्।।
अर्थात्, जिसकी धनुष की डोरी
से बाँध देने से निश्चेष्ट भुजावाला और हाँफते हुए मुख-परम्परा (दस मुखों की
पंक्ति) से युक्त, इन्द्र पर भी विजय प्राप्त करने वाला लंकापति रावण जिसकी
कृपादृष्टि होने तक (महिष्मती नगरी की) कारागार में पड़ा रहा (ऐसे शक्तिशाली
कार्तवीर्य के वंशधर हैं ये)।
यहाँ उतरी हुई धनुष की डोरी
का बोध कराने के लिए केवल ज्या पद का प्रयोग किया गया है, साथ में धनुष पद
का नहीं। यदि इस अवस्था में धनु पद का प्रयोग किया गया होता, तो पुनरुक्त
या अपुष्टार्थत्व दोष होता।
इस अंक में बस
इतना ही।
*****
adbhut gyanwardhan ke liye sadhuwad swikarkaren.
जवाब देंहटाएंaasha hai yah kishton men milata rahega sangrahaniy.
आचार्य जी,
जवाब देंहटाएंविस्तार से व्याख्या की है आपने.. छोटे-छोटे प्रयोग द्वारा शब्द कैसे अपनी गरिमा प्राप्त करते हैं और दोष की श्रेणी में आते हैं यह आपके आलेख से स्पष्ट हो जाता है.. बहुत ही ज्ञानवर्धक पोस्ट!!
अच्छी ज्ञान की पोस्ट.
जवाब देंहटाएंनित्य दोष और अनित्य दोष स्पष्ट भेद को सुन्दर से बताया है ..
जवाब देंहटाएंबहुत ही अदभुत सर । मैं आज पहली बार ही पहुंचा हूं लेकिन मुझे लगता है कि इस पन्ने को हिंदी ब्लॉगर एवं हिंदी अंतर्जाल के लिए अनिवार्य बुकर्माक कर लेना चाहिए , मैं कर रहा हूं । बहुत बहुत आभार
जवाब देंहटाएंइस अंक में बहुत सी काम की बातें सीखने को मिलीं।
जवाब देंहटाएंbookmark...
जवाब देंहटाएंश्रुतिकटुत्व आदि दोष शृंगार आदि रसों के वर्णन में तो दोष हैं। लेकिन वीर, रौद्र आदि रसों में गुण हो जाते हैं।
जवाब देंहटाएं@ ये शास्त्रीय दृष्टि से सही है. लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से भी इसे सही माना जाना चाहिए.
मेरे जैसे कई और ब्लोगर बड़ों की फटकार को अनुचित ले लेते हैं और क्रोध के कारण हानिकर संकल्प ले लेते हैं. उनसे गुरुजनों का तो कुछ नहीं बिगड़ता, जिज्ञासु छात्रों (लघुओं) का ही अहित होता है.
जैसे 'कड़वे वचन' गुरु-शिष्य आदि प्रेय भावों में तो दोष हैं किन्तु प्रतिस्पर्धा और अहंपुष्टि के जुगुप्सापूर्ण संवादों में गुण ही होने चाहिए.
यदि दो प्रेमियों, दो मित्रों, दो विमर्शकों के मध्य अनायास कोई वितंडा खड़ा हो जाता है और अपशब्दों वाला वाकयुद्ध शुरू हो जाता है तब दोनों ओर की मति लौट आने पर उसे परिस्थितिजन्य घटना मान विस्मृत कर देना चाहिए.
आज ब्लॉग जगत में चारों ओर गुटबाजी और कलह का वातावरण देखने को मिल रहा है... ये कितने उपयुक्त हैं? ये कहाँ पर दोष और कहाँ पर गुण समझे जाएँ? -- इसे शांत मन से समझना होगा.
किसी के द्वारा अपशब्दों के प्रयोग में श्रुतिकतुत्व आदि दोष की गुण रूप में पहचान सिद्ध करनी होगी.
आचार्य जी, आपके इस काव्यशास्त्रीय प्रवचन को नज़रअंदाज़ नहीं कर सका. सादर प्रणाम.
वशिष्ठ जी,
हटाएंआपको भी सादर प्रणाम।
कुछ लोग हैं जो गुट आदि से ऊपर हैं।
आप भी!
आचार्य जी को जो कहना होगा, सो वो जाने, आपकी इस टिप्पणी के प्रति अपना आभार और उद्गार प्रकट करने से मैं भी खुद को रोक न पाया।
(बंधु थोड़ी सरल भाषा में लिखते तो आसानी से समझ में बात आती, इतना कठिन था कि कई बार पढ़ना पड़ा।)
सादर,
मनोज
प्रतुलजी,
हटाएंसादर नमस्कार,
आपके प्रति मेरे मन में न उस समय कुछ था और न आज है। जो कुछ निर्णय लिया गया था, वह आपकी ओर से था। यह आपकी महानता है कि अपने अन्दर पल रहे अपराध बोध को आपने झटककर फेंक दिया। आपका बहुत-बहुत आभार।