भारतीय काव्यशास्त्र – 112
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में चर्चा की गयी थी कि किन परिस्थितियों
में काव्यशास्त्र में वर्णित काव्यदोष दोष नहीं होते। आज भी कुछ ऐसी ही अन्य
परिस्थितियाँ चर्चा के लिए लेते हैं। इसके लिए उदाहरण के लिए निम्नलिखित श्लोक
लेते हैः
प्राणेश्वरपरिष्वङ्गविभ्रमप्रतिपत्तिभिः।
मुक्ताहारेण लसता हसतीव स्तनद्वयम्।।
अर्थात् गले में मोतियों की माला प्राणपति के
आलिङ्गन के आनन्दित दोनों स्तनों के हँसी की तरह सुशोभित हो रही है या मुक्ताहार
मानो वह दोनों स्तनों के हास्य हो।
संस्कृत में हार का अर्थ मोतियों की माला
होता है। अतएव हार के साथ मुक्ता (मोती) शब्द का प्रयोग अनावश्यक
है। किन्तु आचार्यों ने इस प्रयोग को यह कहकर उचित ठहराया है कि मुक्ता शब्द का
प्रयोगकर कवि यह कहना चाहता है कि उस हार में मोतियों के अलावा कोई अन्य रत्न
मिश्रित नहीं है। अतएव यहाँ काव्यदोष नहीं है।
इसी प्रकार एक और उदाहरण लेते हैं-
सौन्दर्यसम्पत्
तारुण्यं यस्यास्ते च विभ्रमाः।
षट्पादान् पुष्पमालेव कान् नाकर्षति सा सखे।।
अर्थात् हे मित्र, जिस स्त्री के पास सौन्दर्य की
सम्पत्ति, यौवन और आकर्षण भरे हाव-भाव हो, वह किसको आकर्षित नहीं करती अर्थात् सभी
को आकर्षित कर लेती है जैसे फूलों की माला भौरों को आकर्षित करती है।
यहाँ यह बता दूँ कि संस्कृत में माला फूलों
की माला को कहा जाता है। अतएव उपर्युक्त श्लोक में माला के साथ पुष्प
शब्द का प्रयोग अनावश्यक है। पर यहाँ भी आचार्यों का मानना है कि यहाँ कवि द्वारा पुष्प
शब्द का प्रयोग करके खास पुष्प की ओर संकेत किया गया है, सामान्य पुष्प से अलग
करने के लिए। इसलिए इस श्लोक को इस आधार पर दूषित नहीं माना है।
इस तरह का प्रयोग हिन्दी में भी देखा जाता है। जब
चाँद पर पहली बार मनुष्य गया था तो दिनकर जी ने एक कविता लिखी थी- चाँद पर आदमी।
वैसे शीर्षक मुझे ठीक से याद नहीं है। अतएव इससे मिलता-जुलता शीर्षक भी हो सकता
है। इस कविता की पहली पंक्ति यहाँ केवल उद्धृत कर रहा हूँ-
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है।
इस वाक्य में रात, गगन और जीव ये तीन
पद अनावश्यक प्रतीत होते हैं। क्योंकि चाँद कहने से रात और गगन
का स्वतः बोध हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि चाँद रात में ही उदय होता है
और वह भी आकाश में। फिर दिनकर जी जैसा समर्थ कवि ऐसा प्रयोग क्यों करता है। इसी
प्रकार आदमी कहने से जीव का बोध हो जाता है। यदि अर्थ ढूँढा जाय, तो रात का अर्थ यहाँ
अज्ञान से, पिछड़ेपन से लिया गया है और गगन ऊँचाई को दर्शाने के लिए। जीव
शब्द का प्रयोग सामान्य जीवों से आदमी को अलग कर उसकी विचित्रता बताने के
लिए, जिसका उल्लेख आगे की पंक्तियों में किया गया है। अतएव इस आधार पर इस कविता को
दूषित नहीं कहा जा सकता।
लेकिन इन सबके बावजूद काव्यशास्त्रियों का मानना है
कि प्राचीन कवियों के प्रयोगों का औचित्य बताने के लिए अर्थान्वेषण कर यह युक्ति
दी गयी है। नये कवियों को इन्हें आदर्श मानकर जघनकांची जैसे प्रयोग नहीं
करना चाहिए। अर्थात् बिना औचित्य के इस प्रकार के प्रयोग नवीन प्रयोग के
नाम पर स्वीकार नहीं किए जा सकते।
इस बात का समर्थन करने के लिए आचार्य मम्मट ने किसी
आचार्य का निम्नलिखित मत प्रस्तुत किया है-
न खलु कर्णावतंसादिवज्जघनकाञ्चीत्यादि क्रियते।
जगाद मधुरां वाचं
विशदाक्षरशालिनीम्।।
अर्थात् कर्णावतंस* आदि की तरह जघनकांची आदि प्रयोग नहीं करने चाहिए।
जैसे वह स्पष्ट अक्षरों से युक्त मधुर वाणी बोला।
ऊपर जो बात
बताई गई है उसी का यहाँ समर्थन है। इसमें एक और बात की गई है कि जगाद मधुरां
वाचं विशदाक्षरशालिनीम् में जगाद मधुरां
वाचम् के स्थान पर मधुरं जगाद कहना चाहिए था। क्योंकि जगाद
का अर्थ ही है वाणी बोला, वाचम् पद का जगाद के साथ प्रयोग अनुचित
है। यहाँ केवल मधुरम् क्रियाविशेषण का प्रयोग ही ठीक है।
नीचे के श्लोक में भी इस प्रकार का प्रयोग है।
जिसका अर्थ है कि बिना जूते पहने पैरों
से दूरतक तेज चलने से भी वह नहीं थकता।
चरणत्रपरित्राणरहिताभ्यामपि द्रुतम्।
पादाभ्यां दूरमध्वानं व्रजन्नेष न खिद्यते।।
जबकि व्रजन् (चलते हुए) का अर्थ पैरों से ही चलने
को ही कहेंगे। गाड़ी से चलते हुए आया प्रयोग गलत है। लेकिन पादाभ्याम्
(पैरों से) का क्रियाविशेषण नहीं बनता, अतएव यहाँ पादाभ्याम् का प्रयोग
उचित है, कोई दोष नहीं है। इसी प्रकार ऊपर की कविता में दिनकर जी ने रात, गगन और
जीव शब्दों का प्रयोग सोद्देश्य किया है। इसलिए इस सन्दर्भ में वह प्रयोग भी
निर्दोष है।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में कुछ इसी
सन्दर्भ में नयी चर्चा होगी।
(पिछले अंक से संदर्भ हेतु उद्धृत)
*अस्याः कर्णावतंसेन जितं सर्वं विभूषणम्।
तथैव
शोभतेSत्यर्थमस्याः
श्रवणकुण्डलम्।।
अर्थात् इसके कर्णावतंस ने सभी आभूषणों को जीत लिया
है और उसी प्रकार कान के कुण्डल (कान की बाली) भी सशोभित हो रहा है।
यहाँ वर्णन के अवसर पर पहने कान के आभूषण (अवतंस और
कुंडल) के सौन्दर्य की प्रशंसा सन्निधान (कान में उपस्थिति) का बोध कराने के लिए
की गयी है। अतएव श्रवण और कर्ण पदों का प्रयोग करना यहाँ पुनरुक्त
या अपुष्टार्थत्व दोष नहीं है।है। वहाँ इन पदों के प्रयोग का औचित्य है।
मनोज जी, काव्यशास्त्र पर बहुत अच्छी चर्चा चल रही है...पढ़ कर बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है..आभार.....
जवाब देंहटाएंआचार्य जी,
जवाब देंहटाएंआज तक यह श्रृंखला पढते हुए मुग्ध होता रहा हूँ, सीखता रहा हूँ, ज्ञान अर्जित करता रहा हूँ.. इस विषय पर कुछ कहने या जोड़ने का साहस अपनी अज्ञानता के कारण कभी नहीं हुआ.. किन्तु आज बताए गए दोष पढकर बिना कहे रहा नहीं गया.. एक दिन एक दूकान के बाहरए बोर्ड पर लिखा देखा - यहाँ ठंडी कोल्ड-ड्रिंक्स मिलती है! मैंने जब उस दुकानदार से पूछा कि ठंडी भी और कोल्ड ड्रिंक्स भी तो भाई साहब का उत्तर था कि "कोल्ड-ड्रिंक्स" जातिवाचक संज्ञा है, जिसके अंतर्गत पेप्सी, कोक आदि ड्रिंक्स व्यक्तिवाचक संज्ञा के उदाहरण हैं.. अर्थात यदि कोल्ड ड्रिंक्स को फ्रिज से बाहर निकाल दिया जाए और वो गर्म हो जाएँ तब भी वे कोल्ड-ड्रिंक्स ही रहेंगे..
वह दूकान एक साहित्य सभागार के बाहर थी!! :)
बहुत ही साढ़े शब्दों में सरलता से समझाया है आपने!!
आचार्य जी आज जो दोषों की व्याख्या में एक और बात समझ में आती है कि दोष लिखने वाले की हैसियत के मुताबिक़ गिने जाते है. तुलसीदास जी की वह लाइन याद आ रही है कि समरथ को नहीं दोष गुसांई... या फिर कुछ इस तरह से भी कहा जा सकता है कि व्याकरण में अपवादों का स्थान भी बहुत है और यह कमोवेश सभी भाषाओँ में है.
जवाब देंहटाएंआभार आचार्य जी.
रचना जी, जब यह पोष्ट लिख रहा था, तो गोस्वामी जी की यह चौपाई मेरे मन में भी उठी थी। लेकिन तुरन्त यह बात समझ में आई कि जहाँ चूक होती है, वहाँ सामर्थ्य की न्यूनता होती है, चेतना स्खलित हो जाती है। यहाँ प्राचीन कवि से तात्पर्य उस काल के कवियों से है काव्य-सृजन के प्रारम्भिक काल के हैं। क्योंकि आचार्य मम्मट स्वयं दसवीं सदी के हैं। ऐसी कोई समर्थ उटपटांग काम करने लगे,तो यह उसकी असमर्थता मानी जाएगी, सामर्थ्य नही। काव्य के गुण-दोष की कसौटी औचित्य और अनौचित्य ही है। बहुत-बहुत आभार।
हटाएंकाव्यशास्त्र पर बहुत अच्छी चर्चा,बहुत ही सरलता से समझाया है आपने!,,,,,,,,,,
जवाब देंहटाएंअति सुंदर भाव पुर्ण अभिव्यक्ति ,...
MY RECENT POST ,...काव्यान्जलि ...: आज मुझे गाने दो,...
यहां कुछ ऐसे दोषों की चर्चा की गई है, जिसे हम सचेत होकर प्रयोग करें तो बच सकते हैं। बड़े सर्ल शब्दों में आपने समझाया है।
जवाब देंहटाएंbahut acchi prastuti....
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट!
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मातृदिवस की शुभकामनाएँ!