आँच- 109
नेह भर सींचो कि मैं अविराम जीवन-राग दूँगा
-
हरीश प्रकाश गुप्त
प्रतिभा
सक्सेना जी कैलीफोर्निया में रहती हैं। अध्ययन में रुचि रखती हैं, अध्यापन उनका व्यवसाय है और लेखन उनका संस्कार है।
उनका एक ब्लाग है “शिप्रा
की लहरें” जिसमें
वह नियमित रूप से अपनी कविताएं प्रकाशित करती रहती हैं। पिछले सप्ताह उन्होंने
अपने ब्लाग पर एक गीत “नेह
भर सींचो” पोस्ट
किया था। यह गीत एक प्रकार से प्रकृति, पर्यावरण
को समर्पित है जिसमें एक वृक्ष को प्रतीक के रूप में प्रस्तुत कर उसकी अन्तरात्मा
को अभिव्यक्ति प्रदान की है। सुन्दर शब्द योजना में पिरोया उनका यह गीत आज की आँच की चर्चा की विषयवस्तु है।
वृक्ष का जीवन सर्वस्व त्याग और तपस्या का पूरक
है। उसका सम्पूर्ण जीवन परोपकार हेतु समर्पित है। वह स्वयं तो अनेकानेक कठिनाईयों
का सामना करता है,
भिन्न-भिन्न मौसमों में
शीत और ताप बर्दाश्त करता है, प्राकृतिक
आपदाओं को सहता है,
फिर भी वह अपने उद्देश्य
से विचलित नहीं होता है। परहित उसका धर्म है। दूसरों के सुख के लिए उनके हिस्से के
कष्ट अंगीकार कर लेना उसका व्रत है, जिसका
वह आजन्म पालन करता है, भले
ही इस हेतु उसके अपने प्राणों को संकट ही क्यों न उत्पन्न हो जाए। वृक्ष केवल
पशु-पक्षियों और अन्य वन्य जीवों के ही शरणस्थल मात्र नहीं हैं बल्कि मनुष्यों के
भी नीड़-निर्माण के अपरिहार्य तत्व हैं। एक तरफ बड़े आकार और स्थूल प्रकार के
वृक्ष हैं जो अपनी विशालता से अचम्भित करते हैं तो वहीं छोटे-छोटे विविध प्रकार के
पौधे और बलखाती तन्वी लताएँ आकर्षित करते हैं। अपने नाना प्रकार के रंगबिरंगे
रूपों में प्रकट होकर वे न केवल प्रकृति पटल पर सुन्दर दृश्य उपस्थित करते हैं
बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि उन्होंने इस भू-लोक को समस्त रंगों से सराबोर
किया है। पक्षियों के कलरव और पवन के साथ मिलकर उनका रचा संगीत जीवन की नीरसता को
भंगकर उसे सरस और आनन्दमय बनाता है। पृथ्वी पर रहने वाले समस्त जीवों को
फल-फूल-अन्न के रूप में भोजनादि के साथ-साथ प्राणवायु और अमूल्य औषधियाँ प्रदानकर
उनके जीवन का आधार बने हैं। इसी प्रकार वे स्वयं की पूर्णाहुति भी देते रहते है।
इस गीत में जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वह है मूक
वृक्ष का मानवीकरण और उसकी संवेदना जिसे कवयित्री ने बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी है। वृक्ष की आकांक्षा मानवजाति के
जीवन को सुखद तथा शान्ति से परिपूर्ण अर्थात स्वर्ग बनाने की है और वह इसके लिए
प्राणपण से प्रतिबद्ध भी है - “स्वर्ग सम वसुधा बने, सुख-शान्ति-श्री से पूर दूँगा”। इस
हेतु उसकी चाहत मानवजाति से प्रेम पाने की है। जब वह कहता है कि - “नेह
भर सींचो कि मैं अविराम जीवन-राग दूँगा” या स्वयं गरल पीकर प्राणवायु देने को उद्दत होने
में त्याग का उत्कर्ष - “मैं प्रदूषण का गरल पी, स्वच्छ कर वातावरण को / कलुष पी पल्लवकरों से प्राण वायु बिखेर दूँगा” या शिथिल पड़ रहे जीवन बन्धनों या अवरोधों को रोक
लेने की अटूट आस्था - “मूल
के दृढ़ बाँधनों में खंडनों को कर विफल / इन टूट गिरते पर्वतों को रोक कर फिर जोड़ लूँगा” या जीवन को सुगम बनाने के लिए बाधाओं को दूर करने
का अटल विश्वास - “पास
आते मरुथलों को और दूर सकेल दूँगा” - तो उसकी प्रतिबद्धता में विश्वास भी प्रकट होता है और आश्वस्त करने
का भाव भी और इसकी गूँज पंक्ति-दर-पंक्ति पूरे गीत में ध्वनित होती है। गीत का यह
उदात्त भाव मोहक है और अत्यंत हदयस्पर्शी भी है। वृक्ष के माध्यम से कवयित्री
द्वारा अभिव्यक्त असीम विश्वास के साथ प्रतिबद्धता और स्पृहा बहुत ही प्रेरणास्पद है।
“रूप नटवर धार करते कुंज-वन में वेणु-वादन
जल प्रलय वट- पत्र पर विश्राम
रत हो सृष्टि-शिशु बन”
***
“हरित-वसना धरा को कर, पुष्प फल मधुपर्क धर कर”
***
“लताओं को बाहुओँ में साधकर गलहार डाले,
पुष्पिता रोमांचिता तनु देह
जतनों से सँभाले,
रंग दीर्घाएँ करूँ जीवंत
अंकित कूँचियाँ भर,
स्वर्ग सम वसुधा बने, सुख-शान्ति-श्री से पूर दूँगा”
***
“तंतु के शत कर पसारे, उर्वरा के कण सँवारे,
नेह भीगे बाहुओं से थाम कर तृणमूल सारे”
***
स्वाभाविक सौन्दर्य से परिपूर्ण
इस गीत की रचना निसन्देह है तथापि एकाधिक स्थानों पर प्रवाह में अवरोध उत्पन्न हुए
हैं। “जलद-मालायें खिंचें, आ मंद्र मेघ-मल्हार गायें” में “खिंचे” से स्वतंत्र प्रवाह में रुकावट आती है, “बदलते इन मौसमों का शीत-ताप स्वयं वहन कर” में “बदलते” का “ते” अवरोधक है, “ वृक्ष हूँ मैं व्रती, पर-हित देह भी अर्पण करूँगा” में ‘भी’ नाहक है, “प्राण के पन से भरूँगा जो कि माटी से लिया ऋण ” में “जो कि” से, “मैं कृती हूँ, नेह से भर, सदा आशिर्वाद दूँगा!” में “आशिर्वाद” की वर्तनी भी दोषपूर्ण है और इससे प्रवाह में बाधा भी
उत्पन्न हुई है। यदि यह पंक्ति कुछ इस तरह - “कृती हूँ, निज नेह से भर मैं सदा आशीष दूँगा !” - होती तो बेहतर विकल्प हो सकता था। इसी प्रकार अन्य स्थानों पर
भी संशोधन की आवश्यकता है। गीत में कई स्थानों पर सर्वनाम प्रयोग में आए हैं। गीत
में अव्ययों की भी अधिकता है। ‘कि’, ’जो’, ‘भी’, ‘जोकि’, ‘का’, ‘को’, ‘में’, ‘मैं’, ‘तुम्हारा’ आदि का
प्रयोग गीत की पहली ही पंक्ति से है। श्रेष्ठ काव्य में अव्ययों और सर्वनाम के प्रयोग
से प्रायः बचा जाना चाहिए। इनसे उत्पन्न रिक्त स्थानों पर सार्थक पदों का प्रयोग
उत्तम काव्य की रचना में सहायक होता है। गीत में प्रयुक्त “सकेल” शब्द की उपयुक्तता पर काफी चर्चा
हुई है। “ढकेल” का भी सुझाव आया है। जहाँ तक “सकेल” के प्रयोग की बात है तो यह कोमल
और श्रुति-मधुर अवश्य है परन्तु यह नितांत देशज शब्द शेष गीत की शब्द-योजना में
सुसंगत नहीं बैठता। इसी तरह “ढकेल” अधिक कर्णकटु है। “धकेल” में शक्ति का आगम भी है और “ढकेल” की अपेक्षा कम कर्णकटु, अतः यहाँ “धकेल” की तुलना में अधिक उपयुक्त हो
सकता था। वैसे भी, इस गीत में रेफ, ण, भ, ध व घ आदि वर्ण कई बार प्रयोग में आए हैं
जो कठोर ध्वनियाँ मानी जाती हैं। इसके अतिरिक्त गीत की तीसरी, 8वीं, 16वीं, 17वीं, 18वीं, और 25वीं पंक्ति में मात्राएँ
असमान अर्थात क्रमशः 29, 30, 26, 30, 29, तथा 29 हैं जबकि शेष गीत में 28-28 बराबर मात्राएँ
हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये वही पंक्तियाँ हैं जिनमें प्रांजलता में
दोष उत्पन्न हुआ है। यदि चौथी पंक्ति में “पंक्षियों
की” कर दिया जाए तो मात्रा दोष भी समाप्त हो जाता है और
प्रवाह भी उत्तम बन जाता है। आठवीं पंक्ति में “का” दो बार प्रयोग हुआ है। यह टंकण त्रुटि है। इस गीत में ये दोष कवयित्री की
शिल्प के प्रति शिथिलता को दर्शाते हैं। अतः स्पष्ट है कि कवयित्री द्वारा यदि
यहाँ सजगता बरती जाती तो यह गीत पूर्णतया निर्दोष हो सकता था। यहाँ प्रस्तुत सुझाव
मेरे मात्र निजी विचार हैं, अतएव प्रत्येक पाठक का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं
है।
*****
प्रतिभा जी के तो हम मुरीद हैं. आपने बेहतरीन समीक्षा की है.
जवाब देंहटाएंक्या बात है!!! वाह!
जवाब देंहटाएंअरे ,अपना गीत यहाँ पा कर विस्मित रह गई - विस्तृत समीक्षा हेतु आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया समीक्षा की है आपने, गुण-दोषों समेत.. मधुरता इस गीत का प्रधान तत्व है। आशा है आंच पर इसी तरह बढ़िया समीक्षाएं पढ़ने को मिलती रहेंगी।
जवाब देंहटाएंआशा जी के रचना की लाजबाब समीक्षा, बहुत अच्छी लगी,...
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST,,,,काव्यान्जलि ...: बेटी,,,,,
MY RECENT POST,,,,फुहार....: बदनसीबी,.....
आशा जी की रचना की बहुत बढ़िया समीक्षा की है ...बहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंप्रतिभा जी की रचना की समीक्षा करना सरल नहीं ... पर आपने यह कठिन कार्य भी बखूबी किया है ... सुंदर समीक्षा
जवाब देंहटाएंप्रतिभा जी का लेखन गहन है ....नियमित ही पढ़ना होता है ...बहुत अच्छा लिखतीं हैं ...और मनोज जी आपकी समीक्षा उतनी ही लाजवाब है ...!पूरी कविता का गहन अध्ययन कर की गई समीक्षा ...!!
जवाब देंहटाएंआप दोनों को बधाई
्प्रतिभा जी की रचना तो लाजवाब है ही और आंच की कसौटी पर कस कर कुन्दन हो गयी।
जवाब देंहटाएंयह तो गीतों की पाठशाला है |
जवाब देंहटाएंज्ञान और सुख प्राप्त करने का स्थान |
सादर नमन ||
“मैं कृती हूँ, नेह से भर, सदा आशिर्वाद दूँगा!” में “आशिर्वाद” की वर्तनी भी दोषपूर्ण है और इससे प्रवाह में बाधा भी उत्पन्न हुई है। यदि यह पंक्ति कुछ इस तरह - “कृती हूँ, निज नेह से भर मैं सदा आशीष दूँगा !” - होती तो बेहतर विकल्प हो सकता था।
जवाब देंहटाएंमाता जी की कविता का सुन्दर विश्लेषण और सुक्ष्म व्याख्या सहित समालोचना .
माता जी को बधाई सहित आप इस शानदार समीक्षा के लिए प्रणाम स्वीकारें .
बहुत ही सर्वांगीण समीक्षा है।
जवाब देंहटाएंप्रतिभा जी सहित सभी पाठकों को सराहना के लिए आभार,
जवाब देंहटाएंप्रांजल गीत और सहानुभूति पूर्ण सद्य समीक्षा .दोनों उत्तम .कोई परस्पर वैर भाव नहीं .
जवाब देंहटाएंसमीक्षा निष्पक्ष देखकर अच्छा लगा.गीत की भाषा कुछ जोर-ज़बरदस्ती वाली लगी .भाषा में जितनी सहजता हो उतनी ग्राह्यता बढ़ जाती है ऐसा मेरा मानना है.
जवाब देंहटाएंसमीक्षा निष्पक्ष देखकर अच्छा लगा.गीत की भाषा कुछ जोर-ज़बरदस्ती वाली लगी .भाषा में जितनी सहजता हो उतनी ग्राह्यता बढ़ जाती है ऐसा मेरा मानना है.
जवाब देंहटाएंsundar samiksha !
जवाब देंहटाएंसार्थक समीक्षा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंहरीश जी!
जवाब देंहटाएंव्यक्तिगत चिंताओं के कारण अनियमित हूँ और एकाग्रता भंग हो रही है.. किन्तु उसका प्रभाव यहाँ की गयी टिप्पणी पर नहीं होना चाहिए इसका भरसक प्रयास करता हूँ.. प्रतिभा जी के पाठकों की एक बड़ी संख्या हैं और उनके प्रशंसक भी उतनी ही संख्या में हैं.. उनकी रचनाएं प्रभावशाली होती हैं.. आपकी समीक्षा ने इसे और भी सुन्दर बना दिया है.. आपकी समीक्षा को पढ़ना अपने आप में कुछ सीखने जैसा होता है..
आभारी हूँ आपका!!
पुनश्च:
आपके नूतन आवास हेतु विलंबित बधाइयां एवं शुभकामनाएं!!
आभार आपका कि आपके दर्शन हुए। आपकी सूक्ष्म दृष्टि का मैं कायल हूँ। आपकी टिप्पणियाँ संन्दर्भ को सदैव एक नवीन दिशा की ओर ले जाती हैं जिससे मुझे कुछ न कुछ सीखने को अवश्य मिलता है, इसलिए आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहती है। परन्तु वर्तमान में आपकी कठिनाईयाँ अधिक महत्वपूर्ण हैं, अतः अनुरोध है कि उन पर पहले ध्यान दें। ईश्वर से कामना है कि वह आपकी कठिनाईयों को शीघ्र दूर करे।
हटाएंप्रतिभा जी की कविताओं में नयापन और परंपरा का अद्भुत संगम होता है। मुझे उनकी रचनाएं हमेशा से प्रेरित करती रही हैं। इस ब्लॉग पर देर से ही सही, उनकी कविता को इस स्तंभ में लाकर हम अपने को गर्वान्वित महसूस कर रहे हैं। आपकी समीक्षा ने कविता के प्रति हमारे सोच को एक नई दिशा दी है।
जवाब देंहटाएंused cycles london uk
जवाब देंहटाएंExcellent Working Dear Friend Nice Information Share all over the world.God Bless You.
Bicycle shops in north London
cycle shops north in london