भारतीय काव्यशास्त्र – 114
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में यह चर्चा की गई थी कि वक्ता के
वैशिष्ट्य के कारण अप्रतीत्व या कष्टार्थत्व आदि काव्यदोष दोष
नहीं होते। इस अंक में चर्चा की जाएगी कि बोद्धा (श्रोता), व्यंग्य,
वाच्य और प्रकरण आदि के वैशिष्ट्य के कारण भी तथाकथित काव्यदोष दोष न
होकर या तो काव्य के गुण हो जाते हैं या न तो गुण होते हैं और न ही दोष।
यदि श्रोता (बोद्धा) वैयाकरण हो, तो भी
श्रुतिकटु दोष काव्यदोष न होकर गुण हो जाता है। जैसे-
यदा त्वामहमद्राक्षं
पदविद्याविशारदम्।
उपाध्यायं तदाSस्मार्षं समस्प्राक्षं च सम्मदम्।।
अर्थात् मैंने जब आप जैसे महान वैयाकरण को देखा तो मुझे अपने उपाध्याय (गुरु) का ध्यान आ
गया और मेरा अभिमान चला गया।
यहाँ अद्राक्षम्,
अस्मार्षम्, समस्प्राक्षम् आदि पद श्रुतिकटुत्व दोष से ग्रस्त हैं। पर बोद्धा
अर्थात् श्रोता के वैयाकरण होने के कारण यह काव्यदोष न होकर काव्य का गुण हो गया
है।
इसी प्रकार यदि
कहीँ बीभत्स रस, वीररस आदि व्यंग्य हों, तो श्रुतिकटु या बड़े समासयुक्त
पदों का प्रयोग गुण हो जाता है। निम्नलिखित श्लोक इसका उदाहरण है। यह श्लोक महावीरचरितम्
से लिया गया है। भागती हुई ताड़का के बीभत्स रूप को देखकर लक्ष्मण ने महर्षि
विश्वामित्र से पूछा कि आखिर इस प्रकार का रूप धारण किए यह कौन है-
अन्त्रप्रोतवृहत्कपालनलकक्रूरक्वणत्कङ्कणप्रायप्रेङ्खितभूरिभूषणरवैराघोषयन्त्यम्बरम्।
पीतच्छर्दितरक्तकर्दमघनप्राग्भारघोरोल्लसद्व्यालोलस्तनभारभैरववपुर्दर्पोद्धतं
धावति।।
अर्थात् वह अभिमान से उद्धत होकर भयंकर शरीरवाली कौन दौड़
रही है और आँतो से गुँथे हुए बड़े-बड़े कपाल, जाँघों की हड्डियों से बने जिसके नाना
आभूषणों के हिलने से उत्पन्न भयंकर आवाज से आकाश कोलाहलमय हो रहा है; शरीर का
ऊपरी भाग रक्तपान करने के बाद वमन किए हुए कीचड़ युक्त रक्त से सने और बीच में
भयंकर रूप से उठे झूलते स्तनों से जिसका
शरीर बड़ा ही भयंकर लग रहा है।
यहाँ बीभत्स
रस व्यंग्य होने के कारण कटु वर्णों और समास बहुल पद का प्रयोग काव्यदोष न
होकर गुण माना गया है।
इसी प्रकार वाच्य (वर्णन का आधार) के आधार पर भी
श्रुतिकटु वर्णों या अधिक समास वाले पदों का प्रयोग काव्यदोष न होकर काव्य के गुण
बन जाते हैं। जैसे-
मातङ्गाः किमु
वल्गितैः
किमफलैराडम्बरैर्जम्बुकाः
सारङ्गा महिषा
मदं व्रजथ किं शून्येषु शूरा न के।
कोपाटोपसमुद्भट्टोत्कटसटाकोटेरिभारेः पुरः
सिन्धुध्वानिनि हुङ्कृते स्फुरति यत् तद्गर्जितं
गर्जितम्।।
अर्थात् हे हाथियों, इस प्रकार चिंघाड़ने से क्या होता है? सियारों, व्यर्थ का आडम्बर करने से क्या लाभ? ओ हिरणों और भैसों, तुमलोग क्यों मतवाले हो रहे हो? खाली मैदान में कौन वीर नहीं होता? गर्जना तो उसे कहते हैं जब भयंकर बालों से युक्त
गरदन और सिर वाला, क्रोधाभिभूत समुद्र की भाँति सिंह की दहाड़ के सामने कोई गरजे।
यहाँ वाच्य
सिंह होने के कारण श्रुति-कटु वर्णों और बड़े समासयुक्त पदों का प्रयोग काव्य
दोष न होकर काव्य के गुण बन गए हैं।
प्रकरण (सन्दर्भ)
के अनुसार भी कटु वर्णों और दीर्घ समास वाले पदों का प्रयोग भी काव्यदोष नहीं माना
जाता, बल्कि गुण माना जाता है। निम्नलिखित श्लोक पुरुरवा के क्रोध की अभिव्यक्ति
है। उर्वशी के अचानक गायब हो जाने के बाद पुरुरवा रक्ताशोक (एक प्रकार का अशोक का
पेड़, जिसके फूल लाल-लाल होते हैं) से पूछ रहा है कि क्या उसने कहीं उसे देखा है।
हवा से हिलती टहनियों को देखकर पुरुरवा को लगता है कि वह पेड़ अपना सिर हिलाकर कह
रहा है कि उसने उर्वशी को नहीं देखा। लेकिन वह उसपर इसलिए नहीं करता कि अशोक फूलों
से लदा है और उसपर भौंरों का समूह टुट रहा है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि
कवि मान्यता है कि युवतियों के चरण-प्रहार से रक्त-अशोक पुष्पित होता है। इसलिए
पुरुरवा को विश्वास है कि यह रक्ताशोक उर्वशी के चरण-प्रहार से ही यह पुष्पित हुआ
है और इसे उर्वशी का पता मालूम है। इस श्लोक में पुरुरवा के क्रोध की अभिव्यक्ति
है। इसमें परुष (कठोर) वर्णों और दीर्घ समासयुक्त पदों का प्रयोग हुआ है। अतएव
यहाँ श्रुतिकटुत्व दोष न मानकर इसे काव्य का गुण मानना चाहिए-
रक्ताशोक कृशोदरी क्व नु गता त्यक्त्वानुरक्तं जनं
नो दृष्टेति
मुधैव चालयसि किं वातावधूतं शिरः।
उत्कण्ठाघटमानषट्पदघटासङ्घट्टदष्टच्छद-
स्तत्पादाहतिमन्तरेण भवतः पुष्पोद्गमोSयं कुतः।।
हे रक्ताशोक (लाल फूलोंवाला एक प्रकार का अशोक वृक्ष), इस
अनुरक्त व्यक्ति को छोड़कर कृशोदरी (जिसका उदर निकला न हो, यहाँ उर्वशी) कहाँ चली
गई? हवा से हिलते हुए रक्ताशोक के वृक्ष को देखकर
पुरुरवा कल्पना करता है कि वह कह रहा है कि मैंने उसे नहीं देखा। (इसपर पुरुरवा
कहता है) हवा से कम्पित अपने सिर को क्यों हिला रहे हो? तेरे ऐसे हिलाकर कर कह देने से थोड़े ही मान लिया
जाएगा कि तुमने नहीं देखा है। उसके (उर्वशी के) पादप्रहार के बिना तुम्हारे फूल
कैसे आए जिसपर उत्कंठा वश एकत्र हुए भौंरों के समूह से पंखुड़ियाँ टूट-टूटकर गिर
रही हैं।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में कुछ ऐसे ही
प्रसंगों पर चर्चा की जाएगी, जहाँ काव्यदोष काव्य के गुण बन जाते हैं या वे दोष
नहीं माने जाते।
*****
सहज बोध गामी प्रस्तुति बहुपयोगी छात्रों और शिक्षकों के लिए . . बढ़िया प्रस्तुति है .... .कृपया यहाँ भी पधारें -
जवाब देंहटाएं.
ram ram bhai
रविवार, 27 मई 2012
ईस्वी सन ३३ ,३ अप्रेल को लटकाया गया था ईसा मसीह को सूली पर
http://veerubhai1947.blogspot.in/
तथा यहाँ भी -
चालीस साल बाद उसे इल्म हुआ वह औरत है
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
saसंग्रहनीय पोस्ट हैबहुत दिन से लिखना पढना छोद रखा है तो इसे एक बार पढ कर भी समझ नही पाऊँगी।इस ब्लाग की पुरानी पोस्टस भी कई बार पढती हूँ। ब्लागजगत के लिये उपल्ब्धि है आपके ब्लाग। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंइधर बहुत दिनों बाद आप दिखाई पड़ीं। अब आपका स्वास्थ्य कैसा है? आज आपको देखकर बहुत सुख पहँचा है।
हटाएंThanks Acharya ji.....
हटाएंAApki sabhi post bahut imp hai meri study k liye
I am a student of M.A sanskrit
बहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंआभार आपका...!
उत्साह वर्धन और त्वरित टिपण्णी के लिए शुक्रिया आचार्य श्री .काव्य शाश्त्र के आपके पाठ हमें अपने विज्ञ हिंदी शिक्षक डॉ .जगदीश चन्द्र शर्मा की याद दिलातें हैं जो उनदिनों (१९६१-६३ )एन आर सी कोलिज की प्रोफेसरी छोड़कर डी ए वी इंटर कोलिज बुलंदशहर में चले आये थे बिल्ली के भाग से छींका टूटा था हिंदी भाषा से एक अनुराग रहा आया है यद्यपि उस दौर में केरीयर भी अरेंज्ड होते थे हम तो विज्ञान धारा में थे इंटर मीडिएट साइंस कर रहे थे उन दिनों ... .कृपया यहाँ भी पधारें -
जवाब देंहटाएंरविवार, 27 मई 2012
ईस्वी सन ३३ ,३ अप्रेल को लटकाया गया था ईसा मसीह
.
ram ram bhai
को सूली पर
http://veerubhai1947.blogspot.in/
तथा यहाँ भी -
चालीस साल बाद उसे इल्म हुआ वह औरत है
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
क्या बात है!!
जवाब देंहटाएंआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 28-05-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-893 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
आचार्य जी! दोषों के गुण कहे जाने की परिस्थितियाँ जानने को मिलीं.. ज्ञानवर्धन हुआ.. आश्चर्य इस बात से हुआ कि यदि श्रोता कोई वैयाकरण हो तो कुछ दोषों को दोष नहीं माना जाता.. अर्थात ज्ञानियों के संपर्क में आकर दोष भी गुण बन जाते हैं या काव्य दोषमुक्त हो जाता है!! बहुत ही सार्थक वर्णन!!!
जवाब देंहटाएंआपका कथन सही ये गुणधर्म है .सुन्दर विवेचना .
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया संग्रहनीय ज्ञानवर्धक पोस्ट ,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST ,,,,, काव्यान्जलि ,,,,, जिस्म महक ले आ,,,,,
101….सुपर फ़ास्ट महाबुलेटिन एक्सप्रेस ..राईट टाईम पर आ रही है
जवाब देंहटाएंएक डिब्बा आपका भी है देख सकते हैं इस टिप्पणी को क्लिक करें
बहुत ही बेहतरीन लिखा है आपने और ज्ञानवर्धक पोस्ट....आभार !
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