भारतीय काव्यशास्त्र – 113
आचार्य परशुराम राय
प्रसिद्ध अर्थ में निर्हेतुत्व दोष नहीं माना जाता है। काव्य में निर्हेतुत्व एक अर्थदोष है। इसका सोदाहरण उल्लेख दोष-प्रकरण में
अर्थदोष के अन्तर्गत किया जा चुका है। यहाँ इस सिद्धान्त की चर्चा आवश्यक है कि
कार्य-कारण का नित्य सम्बन्ध होता है - कार्य-कारणयोः
नित्यसम्बन्धः। प्रत्येक कार्य का कारण होता है। कारण के अभाव में कार्य नहीं
होता। अतएव काव्य में वर्णित कार्य के कारण (हेतु) का उल्लेख न किए जाने पर
निर्हेतुत्व दोष माना जाता है। किन्तु जहाँ प्रसिद्ध कारण से युक्त कार्य का वर्णन
किया जाय जिसका कारण सर्वविदित हो, तो उसका (हेतु का) वर्णन में अभाव होने पर भी
निर्हेतुत्व अर्थदोष नहीं माना जाता। जैसे-
चन्द्रं गता पद्मदुणान्न भुङ्क्ते पद्माश्रिता चान्द्रमसीमभिख्याम्।
उमामुखं तु प्रतिपद्य लोला द्विसंश्रयां प्रीतिमवाप लक्ष्मीः।।
अर्थात् चंचल
लक्ष्मी को, चन्द्रमा के पास जाने पर कमलों के गुणों (सुगन्ध आदि) का आनन्द नहीं
मिलता और कमल में रहने पर चन्द्रमा के सौन्दर्य का सुख नहीं मिलता। लेकिन माँ
पार्वती का मुख प्राप्त हो जाने पर उसे (लक्ष्मी को) चन्द्रमा और कमल दोनों का
आनन्द प्राप्त हो गया।
यहाँ पहले वाक्य में लक्ष्मी के चन्द्रमा में
निवास करने पर वह कमल के सौन्दर्य, सुगन्धादि गुणों का उपभोग नहीं कर पाती और कमल
में रहने पर चन्द्रमा के सौन्दर्य से वंचित रह जाती है। क्यों ऐसा होता है, इसका
कारण इसमें नहीं कहा गया है। फिर भी यहाँ निर्हेतुत्व दोष नहीं है। क्योंकि
यह सर्वविदित है कि दिन में कमल खिलते हैं, पर चन्द्रमा प्रभाहीन होता है और रात
में चन्द्रमा का सौन्दर्य उद्भासित होता है, तो कमल बन्द हो जाते है।
इसी प्रकार यदि कोई कवि या वक्ता किसी के
दोषयुक्त कथन का उल्लेख करता है, अर्थात् अनुकरण करता है, तो वहाँ कोई भी काव्य
दोष दोष नही होता है। जैसे-
मृगचक्षुषमद्राक्षमित्यादि
कथयत्ययम्।
पश्यैष च गवित्याह सूत्रमाणं यजेति च।।
अर्थात् वह “मैंने मृगनयनी को देखा” आदि कहता है और वह “गाय को देखो” तथा “इन्द्र को हवि दो” कहता है।
यहाँ किसी दूसरे के कथन का वर्णन किया गया
है। अतएव इसमें आए श्रुतिकटुत्व आदि काव्यदोष दोष नहीं हैं।
ऐसे ही वक्ता, बोद्धा (श्रोता), व्यंग्य,
वाच्य और प्रकरण आदि के वैशिष्ट्य के कारण भी कहीं दोष गुण हो जाता है
और कहीं न गुण और न ही दोष होता है। जैसे वैयाकरण आदि के वक्ता और श्रोता हों तथा
रौद्र आदि रस व्यंग्य हो, तो कष्टार्थत्व काव्यदोष गुण हो जाता है। नीचे एक श्लोक
उद्धृत किया जा रहा है जो किसी वैयाकरण द्वारा रचा गया है। इसमें व्याकरण के पारिभाषिक
शब्दों के माध्यम से व्यंग्य किया गया है और इसका अर्थ बड़ी कठिनाई से समझ में आता
है, अर्थात् कष्टार्थत्व दोष या अप्रतीतत्व दोष कहना चाहिए। वक्ता
के वैशिष्ट्य के कारण इसे दोष न मानकर गुण माना गया है-
दीधीङ्वेवीङ्समः कश्चिद् गुणवृद्धयोरभाजनम्।
क्विप्प्रत्ययनिभः कश्चिद्यत्र सन्निहिते न ते।।
अर्थात् कुछ
लोग दीधीङ् और वेवीङ् (संस्कृत की धातुएँ) की तरह होते हैं,
जो गुण (अ और ए को गुण कहा जाता है- अदेङ् गुणः) और
वृद्धि (आ और ऐ को वृद्धि कहा जाता है- वृद्धिरादैच्)
के पात्र नहीं होते और कुछ लोग क्विप् प्रत्यय के समान होते हैं, जिनके पास
आते ही लोगों (आनेवालों) के गुण (पाण्डित्य आदि) और वृद्धि (धन-धान्य आदि) दूर चले
जाते हैं।
इस श्लोक का अर्थ समझना सामान्य व्यक्ति के
लिए काफी कठिन है। इसमें दो धातुओं (verb roots) दीधी (चमकना) और वेवी (जाना, प्राप्त करना, गर्भ धारण करना,
चाहना आदि) के माध्यम से व्यंग्य किया गया है। इन धातुओं का प्रयोग अत्यन्त
विरल है। यहाँ गुण और वृद्धि के दो अर्थ लिए गए हैं। पहला यह कि
आचार्य पाणिनि के व्याकरण में अ और ए को गुण कहा गया है (अदेङ्गुणः)
तथा आ और ऐ को वृद्धि। जिन पाठकों को गुण और वृद्धि सन्धियाँ
याद हैं, शायद वे इनका अर्थ आसानी से समझ सकते हैं। उक्त दोनों धातुओं में गुण और
वृद्धि का निषेध किया गया है- दीधीवेवीटाम्। दूसरा गुण का अर्थ पाण्डित्य
आदि और वृद्धि का अर्थ समृद्धि आदि है। इस श्लोक के दूसरे वाक्य में एक प्रत्यय क्विप्
का उल्लेख किया गया है। इस प्रत्यय की विशेषता है कि जिस शब्द के साथ लगता है
उसमें होने वाले गुण और वृद्धि का निषेध हो जाता है। इसलिए यहाँ कवि ने कुछ लोगों
की तुलना दीधी और वेवी से की है, जिसमें गुण और वृद्धि
नहीं होती, अर्थात् कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनमें पाण्डित्य, दान, शौर्य आदि गुण और
धन-धान्य आदि की वृद्धि नहीं होती। कुछ लोग क्विप् प्रत्यय की तरह होते हैं
जिनके पास जाने पर जानेवाले के गुण और वृद्धि का ह्रास हो जाता है।
यह कथन एक वैयाकरण का होने के कारण यहाँ कष्टार्थत्व
या अप्रतीतत्व दोष नहीं है, बल्कि व्यंग्यपूर्ण है। इसलिए यहाँ गुण
मानना चाहिए।
इस
अंक में बस इतना ही। अगले अंक में बोद्धा (श्रोता), व्यंग्य, वाच्य और प्रकरण आदि
के वैशिष्ट्य के कारणों का उल्लेख करते हुए चर्चा की जाएगी।
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क्या बात है!!
जवाब देंहटाएंआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 21-05-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-886 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
आभार |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ,अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंRECENT POST काव्यान्जलि ...: किताबें,कुछ कहना चाहती है,....
अद्भुत संग्रहनीय .
जवाब देंहटाएंकाव्य शास्त्र पर इतना सुन्दर आलेख अब पढ़ने को कहाँ मिलता है |आपका आभार |
जवाब देंहटाएंजानकारी पूर्ण बढ़िया प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंसुन्दर उपयोगी जानकारियां..
जवाब देंहटाएंजयकृष्ण राय तुषार ने आपकी पोस्ट " भारतीय काव्यशास्त्र – 113 " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंकाव्य शास्त्र पर इतना सुन्दर आलेख अब पढ़ने को कहाँ मिलता है |आपका आभार |
एक और अद्वितीय अंक।
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