सोमवार, 21 मई 2012

सूख रहे गर्भाशय खेतों के


सूख रहे गर्भाशय खेतों के

श्यामनारायण मिश्र

झंडों के नीचे मत जाना
प्रेतों के डेरे हैं, प्रेतों के।

किसी तरह
बूचड़ से बचकर जो निकले हैं
     उनकी भी बात तो सुनो।
रुको यहीं,
रुख देखो रक्त सने पंजों के
     फिर अपनी राह तुम चुनो।
धूप के छलावे हैं
पानी के सोत नहीं
     टीले हैं रेतों के।

देखोगे कब तक
टूटी बरदौरी में फूस की मड़ैया
     थामोगे किस मोटे पेड़ के तने।
प्रजनन के लिए सिर्फ़
छुट्टे इन सांड़ों को
किसी तरह नाथो तो बात कुछ बने।
सूख रहे गर्भाशय खेतों के।
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

19 टिप्‍पणियां:

  1. मिश्र जी की कविता में मिटटी की पीड़ा झलक रही है.... मर्मस्पर्शी...

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  2. प्रजनन के लिए सिर्फ़
    छुट्टे इन सांड़ों को
    किसी तरह नाथो तो बात कुछ बने।
    सूख रहे गर्भाशय खेतों के।
    उफ़....

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  3. वर्तमान भारतीय राजनीतिक और सरकारी तंत्र पर व्यंग्य करता बहुत ही मोहक नवगीत।

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  4. झंडे,प्रेत,बूचड़,रक्त सने पंजे,राह,धूप,छलावे,टीले,टूटी बरदौरी,फूस की मडैया,सांड,प्रजनन,नाथो...
    से सूख रहे गर्भाशय खेतों के ...कुछ क्रांति का आह्वाहन करते प्रतीत हो रहें हैं। उम्दा रचना...

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  5. मिश्र जी का नवगीत हमें गांव की माटी से जोड़ देता है । गीत के भाव अच्छे लगे । धन्यवाद ।

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  6. किसी तरह नाथो तो बात कुछ बने।
    सूख रहे गर्भाशय खेतों के।

    वाह ,,,, बहुत अच्छी भावों भरी पंक्तियाँ ,...

    RECENT POST काव्यान्जलि ...: किताबें,कुछ कहना चाहती है,....

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  7. मेरी एक टिप्पणी स्पैम में मुक्ति चाहती है।

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  8. व्यवस्था का खोखलापन और कुंठित होती मानवीय संवेदना की पुकार !

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  9. बहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी.रचना.....

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  10. देखोगे कब तक
    टूटी बरदौरी में फूस की मड़ैया
    थामोगे किस मोटे पेड़ के तने।
    प्रजनन के लिए सिर्फ़
    छुट्टे इन सांड़ों को
    किसी तरह नाथो तो बात कुछ बने।
    सूख रहे गर्भाशय खेतों के।

    मानवीय संवेदना की पुकार !

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  11. देखोगे कब तक
    टूटी बरदौरी में फूस की मड़ैया
    थामोगे किस मोटे पेड़ के तने।
    प्रजनन के लिए सिर्फ़
    छुट्टे इन सांड़ों को
    किसी तरह नाथो तो बात कुछ बने।
    सूख रहे गर्भाशय खेतों के।
    उफ़्फ़ गज़ब कर दिया आपने....

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  12. ज़मीनी पीड़ा उभर के आ रही है इस बेहद संवेदनशील रचना में ...

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  13. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  14. हर् कदम पे समझौता और बेबसी ........and probably this is perpetual because everyone over here is living under so many constraints. things are not going exactly the same way what we once expected it to be. the world is something other way round.

    ये मार्मिक रचना प्रस्तुत करने के लिये धन्यवाद

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  15. धूप के छलावे हैं
    पानी के सोत नहीं
    टीले हैं रेतों के।
    बहुत प्रभावी ।

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  16. देखोगे कब तक
    टूटी बरदौरी में फूस की मड़ैया
    थामोगे किस मोटे पेड़ के तने।
    प्रजनन के लिए सिर्फ़
    छुट्टे इन सांड़ों को
    किसी तरह नाथो तो बात कुछ बने।
    सूख रहे गर्भाशय खेतों के।
    बाँझ होती धरती का दर्द समेटे है यह रचना .

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