बुधवार, 8 अगस्त 2012

स्मृति शिखर से – 20 : वह कौन था ?


 
 -- करण समस्तीपुरी

जीवन की कुछ घटनाएँ अविस्मरणीय तो होती ही है अविश्वसनीय भी हो जाती है। बाद में अपने साथ हुई घटना भी भ्रम जैसी लगती है। हम खुद को चिकोटी काटकर विश्वास दिलाते हैं कि हम होश में हैं, सपने नहीं देख रहे और वह सच में हमारे साथ हुआ था। मेरे ख्याल से ऐसा सभी के साथ होता होगा। उन्हें याद भी जरूर होगा। मेरे साथ भी ऐसी कुछ यादें जुड़ी हुई है। उन यादों का नायक मैं नहीं मेरे कोई जान-पहचान वाला भी नहीं बल्कि एक अजनबी है।

मेरी छोटी सी जीवन यात्रा में ईश्वर ने जो परिवर्तनधर्मी विषम परिस्थियों का उपहार दिया है, उस से यह घटना-प्रधान हो गई है। रेवाखंड से बंगलोर तक मैं अपने जीवन की कड़ियाँ जोड़ कर देखता हूँ तो मुझे भी सुखद आश्चर्य होता है। इस यात्रा में कुछ चित्र मेरे मानस पर ऐसे छपे जो कभी धुँधले नहीं हो सकते। आज उनमें से तीन चित्र मैं आपकी नजर कर रहा हूँ। जब भी मैं ‘उन्हें’ याद करता हूँ, एक प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है, ‘वह कौन था?’ उत्तर तो कई हो सकते हैं। उनमें से एक अति सामान्य ‘ईश्वर का रूप’।

वर्ष उन्नीस सौ निन्यानवे। मेरे एक चाचाजी देवघर में रहते थे, अभी भी रहते हैं। उन्हे विभागीय प्रशिक्षण हेतु कलकत्ता जाना था, कोई पंद्रह दिनों के लिए। अँग्रेजी महीने के अनुसार यह अगस्त था वैसे सावन। देवघर का श्रावणी मेला कितना प्रसिद्ध है यह तो विश्वविदित है। उस भीड़ भरे महीने में दो छोटे बच्चों को लेकर रहना चाचीजी के लिए थोड़ा कठिन था, अतः मुझे बुलावा भेजा गया था। मैं उस समय स्नातक प्रथम वर्ष की परीक्षा देकर परिणाम की प्रतीक्षा में था। टिकट आरक्षण का तो प्रश्न ही नहीं था। कुछ आवश्यक इंतिजाम के बाद एक सुबह चल पड़ा मैं। मुज़फ़्फ़रपुर से सियालदह सवारी गाड़ी चलती थी वाया समस्तीपुर-बरौनी-जसीडीह।

यह बिना किसी अभिभावक के समस्तीपुर-दरभंगा-पटना के अलावा मेरी पहली यात्रा थी। सुकून यही था कि हमारे गाँव से कई लोग उसी दिन कलकत्ता जा रहे थे। मुझे तो आजादी बड़ी अच्छी लग रही थी मगर मेरे माता-पिता को उन्हीं का भरोसा था। समस्तीपुर स्टेशन पहुँच टिकट लेकर नियत प्लेटफ़ार्म पर प्रतीक्षा करने लगा। सहसा मुझे याद आया...! अरे..! चाचाजी के घर का पता तो लिया नहीं। उस समय बिहार में दूरभाष सुविधा इतनी सुलभ नहीं थी। दो विकल्प थे – यात्रा रद्द करें या देवघर पहुँच कर चाचाजी का आवास खोजें। दो बातें थी जिसने मुझमें यात्रा करने का साहस भरा। एक तो चाचाजी बाटा में काम करते हैं जो मैंने पिछली यात्राओं में कई बार देख-सुन रखा था। दूसरी, चाचाजी पिछली बार आये थे तो बता रहे थे कि रामकृष्ण मिशन की तरफ़ घर शिफ़्ट कर लिया है। गृहस्वामी का नाम है, देवव्रत झा। मैंने चलने का निश्चय किया।

सावन मास। दिन का पहर। देवघर के रास्ते कलकत्ता जाने वाली पैसेंजर गाड़ी। तिल रखने की भी जगह नहीं। मैं बड़ी मुश्किल से एक कोने में अटका रहा। आठ घंटे की यात्रा में लग गए सोलह घंटे। रात के साढ़े बारह बजे पहुँच सका जसीडीह और फिर वहाँ से देवघर को दस मिनट में। बाबा-नगरी गुलजार थी। रात जैसा तो कुछ लग ही नहीं रहा था। चहुँ ओर बिजली की छटा। दुकाने खुली थीं, फेरी वाले भी घूम रहे थे, काँवरियों के झुँड भी इत-उत फिर रहे थे। मगर बाटा की ‘सरकारी’ दुकान बंद हो चुकी थी। पहला विकल्प खत्म। वहीं एक दुकानवाले से रामकृष्ण मिशन जाने वाली पथ का पता कर चल पड़ा।

अचानक बिजली गुल हो गई। रामकृष्ण मिशन देवघर के मुख्य नगर से थोड़ा हटकर पड़ता है। अँधेरे के कारण उस रास्ते पर चहल-पहल कम हो रही थी मगर काँवरियों का दर्शनिया धर्मशाला मिशन के प्रांगण में ही होने के कारण सन्नाटा नहीं था। एक जगह पहुँचकर मेरी अंत: प्रज्ञा ने कहा कि यही चाचाजी का आवास है। हाँ, सही तो। चाचाजी ने जो रूप-रेखा बताई थी उसके हिसाब से एकदम सही बैठता था। और कुछ मुझे मालूम नहीं था। मैंने चांस लेने का निर्णय लिया। 

उस अहाते में घुस तो गया। एक कमरे से गाने-बजाने की आवाज आ रही थी। मैं डर कर भाग आया। नहीं मेरे चाचाजी यहाँ तो नहीं रह सकते हैं। फिर मुख्य सड़क पर आकर आगे चलने लगा। थक कर चूर मगर कदम नहीं रुके। शायद काँवरियों जैसा उत्साह मेरे अंदर भी भर रहा था। बीच-बीच में कई लोगों से चाचाजी के मकान-मालिक का पता भी पूछा मगर निरर्थक। सावन में अधिकांश दुकानदार भी सामयिक और बाहरी होते हैं। चलते-चलते रामकृष्ण मिशन आ गया।

दर्शनिया धर्मशाला में अपार भीड़। इस से आगे तो नहीं हो सकता है। अब किससे पता पूछूँ? मैं थक-हार कर निराश काँवरियों के लिए बनी एक चौकी पर बैठ गया। अब अगले दिन जब तक बाटा की दुकान खुल नहीं जाती मेरे लिए ऐसी ही किसी जगह पर प्रतीक्षा करने के सिवा कोई चारा नहीं था। थकावट के मारे निद्रा-रानी गोद में लेने लगी। सहसा एक पंडानुमा व्यक्ति ने झकझोर कर जगा दिया। उसने डाँटते हुए कहा, “दिख नहीं रहा... यह बेंच काँवरियों के लिए है। तुम यहाँ क्या कर रहे हो? उठो निकलो यहाँ से...! मैं हरबराकर याचक की भाँति उनके सामने कातर मुद्रा में खड़ा हो गया। मैंने उनसे भी अपने चाचाजी के घर का जो पता मुझे मालूम था वो पूछा मगर वे बताएँगे क्या मेरी बेवकूफ़ी पर हँसे और मुझे वहाँ से निकल जाने का इशारा कर आगे बढ़ गए।

मैं बाहर आकर सड़क किनारे पड़े एक पत्थड़ पर बैठ गया। मच्छड़ बहुत काट रहे थे। थोड़ी देर में एक दुर्बल व्यक्ति आया और मेरी बगल में बैठकर मच्छड़ मारने लगा। उसका हुलिया एकदम बेवकूफ़ जैसा था। जैसे कोई आधा पागल आदमी हो। घुटने से ऊपर गंदी सी धोती थी और कमर से ऊपर बनियान। एक लाल रंग का गमछा था उसके काँधे पर जिससे वह कभी-कभी मेरे उपर आने वाले मच्छरों को भी भगा देता था। बगल में उसके बैठने से मुझे कोफ़्त हो रही थी। बातचीत का सिलसिला भी उसी ने शुरु किया। गँवार जैसी तुतली आवाज़ उसकी बेवकूफ़ी का जैसे प्रमाण दे रहे थे। मैंने उससे बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।

थोड़ी देर की एकतरफ़ा वार्तालाप के बाद उसने पूछा तुम तो काँवरिया नहीं हो... अपनी जगह क्यों नहीं चले जाते? मैं कुछ नहीं बोला। वह व्यक्ति बोलता रहा, “किसी का पता पूछना है तो मैं बता देता हूँ। मेरा घर यहीं है। मुझे यहाँ के बारे में सबकुछ पता है। मैंने चिढ़कर कहा, “मेरे चाचा का घर कहाँ है, आप जानते हैं?” उसने कहा, “हाँ, हाँ ! बस अपने चाचा का नाम बताओ। मैंने कहा मेरे चाचा का नाम तो अमुक है मगर वे किराये पर रहते हैं श्री देवव्रत झा जी के घर में। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उसने अंगिका मिश्रित हिन्दी में कहा, “अच्छा...! अपना देवव्रत...! ये तो यहीं मानसिंघ के पास रहता है।

मैंने कहा लो...! हो गया। एक तो पूरे देवघर में देवव्रत को एक यही महाशय जानते हैं ऊपर से ये भी कह रहे हैं कि मानसिंघ के पास। एक देवव्रत को खोजना तो मुश्किल था अब मानसिंघ को कहाँ से खोजें? उन्होंने थोड़ा हँसते हुए कहा, “अरे मानसिंघ घाट... बस यहाँ से कोई आधा किलोमीटर है दायें हाथ पे आएगा बड़ा सा तालाब। उसी के सामने देवव्रत का मकान है दो-महला।

मैं उसके निर्देशानुसार पहुँच गया। लेकिन यह क्या ? यह तो वही मकान था जिसके अहाते में घुसकर मैं निकल चुका था। अब के मैंने निचले तल्ले के दरबाजे को खटखटाकर अपना उद्देश्य प्रकट किया। हाँ, देवव्रत झा जी का घर यही है और करनजी (मेरे चाचा) यहीं दूसरे तल्ले पर रहते हैं। उस अपरिचित के प्रति मन श्रद्धा से नत हो गया। उस लघु प्रवास और बाद की देवघर यात्राओं में आँखें उन्हें ढूँढती रही मगर यह प्रश्न अब भी अनुत्तरित है कि वह कौन था।

वर्ष दो हजार सात। मार्च का महीना, नगर बंगलोर। नया शहर, नयी नौकरी, नया दफ़्तर, नये-नये लोग। एक दिन मैं अपना बटुआ घर पर ही भूल कर अखबार के दफ़्तर पहुँच गया। बस-पास होने से आने में तो कठिनाई नहीं हुई लेकिन मध्याह्न में भूख लगने पर तारे दिखने लगे। नया होने के कारण किसी से सहायता माँगने में भी झिझक थी। पैसे नहीं होने से क्षुधादेवी मेरी सहनशीलता की जमकर परीक्षा लेने लगी।

अपराह्न के दो बजे होंगे। भूख के मारे ललाट पर पसीने की बूँदे चुहचुहा आई थी। मैं अपने डेस्क से उठकर संपादक महोदय के कक्ष तक गया और फिर मारे संकोच के उल्टे पाँव वापस आ गया। हार-थक कर हाथ-मुँह धोया और एक ग्लास पानी से गला तरकर अपने स्थान पर वापस आ बैठा। सहसा एक व्यक्ति बिना अनुमति के मेरे डेस्क पर आकर दक्कनी हिंदी में पूछने लगा, “खाना खाएगा क्या साहब?” वह व्यक्ति मेरे दफ़्तर के ऊपर तीन माले में चल रहे महिला छात्रावास में खाना पहुँचाता था। उसे कई बार मैंने उस बिल्डिंग में आते-जाते देखा था। इस से अधिक कोई परिचय नहीं था मेरा उस से। मैंने कहा, “नहीं अभी भूख नहीं है।” मैं बगले झाँकने लगा और उसने मेरी चोरी पकड़ते हुए कहा, “क्या साहब भूख नक्को...? टू’ओ क्लाक हुआ ना...! फ़ेस सूखता और आप झूठ बोलना...! खाना तो बोलो मैं देता...! अच्छा खाना...!”

भूख तो सच में लग रही थी। सामने खाने की उपलब्धता देख और तीव्रतर होती जा रही थी। मैंने उस समव्यस्क युवक से पूछा, “कितने पैसे लोगे, एक खाने का?” उसने मुझे धिक्कारते हुए कहा, “हे... पैसा नक्को साहब...! खाना है तो बोलो...!” मैं संकोचवश चुप ही रहा। वह गया और महज दो मिनट के अंदर एक प्लेट में रोटी, दाल, सब्जी, पकौड़े, सलाद आदि लाकर मेरे सामने रख दिया। मैं साश्चर्य उसे देखता रहा। उसी ने मेरी तंद्रा भंग की, “साब...! जल्दी खाना... प्लेट मैंने उपर को देना... वो लड़कियाँ ना...!” खाना तो उसका था मगर प्लेटे उसने उपर रहने वाली किसी लड़की से लाकर दिया था। भूख अब असह्य थी। मैंने झटपट में खाना खाया। प्लेट धोकर उसे सधन्यवाद दे दिया। पैसे मेरे पास थे तो नहीं मगर फिर भी मैंने दुबारा पूछा। इस बार भी वह मुझे झिड़कता और धकियाता निकल गया। इस घटना के बाद भी उसे कई बार देखा। मुझे सलाम करता था। मगर एक प्रश्न अनुत्तरित ही रह गया कि वह कौन था?

वर्ष दो हजार सात। अक्तूबर, बंगलोर। नये (वर्तमान) कार्यालय में मेरा पहला दिन। रिपोर्टिंग टाइम सार्प 11’ओ क्लाक। मैं अपने घर से ससमय चला। निकटवर्ती बस अड्डे पर पहुँच प्रतीक्षा करने लगा। कोई आधे घंटे की प्रतीक्षा के बाद पता चला कि आगे के रास्ते में कहीं दुर्घटना हो गई है। कोई भी सवाड़ी-गाड़ी इधर से नहीं जाएगी। मैंने अपने भाई-साहब को फोन किया। वे अपने कार्यालय जा चुके थे जहाँ से उन्हें आने में कम-से-कम आधे घंटे लगते। अगर आप बंगलोर की यातायात व्यवस्था से परिचित हैं तो कहना नहीं होगा कि अब मेरा रिपोर्टिंग टाइम पर कार्यालय पहुँचना भगवान भरोसे ही था।

मैं सड़क किनारे खड़े हो भाई-साहब का इंतिजार बेसब्री से करने लगा। बार-बार नजरें कलाई घड़ी की ओर मुड़ जाती थी। सहसा एक मोटर-साइकिल सवार मेरे बगल में आकर रुका और बिहारी हिंदी में पूछा, “बन्नरघट्टा रोड जाइएगा न... बैठ जाइए!” मेरी प्रतिक्रिया से पहले ही उसने पीछे बैठने का इशारा करते हुए अपना वाक्य खत्म किया। मैं भगवान का धन्यवाद कह मोटरसाइकिल की पीछली सीट पर बैठ गया। भैय्या को एसएमएस कर दिया था। दुर्घटना के कारण वैकल्पिक रास्ते पर भी भारी ट्रैफिक हो गई थी मगर चालक की चालाकी से मैं समयपूर्व कार्यालय पहुँच गया। नियुक्ति की प्रक्रिया पूरी करने के बाद फिर वही प्रश्न, “वह कौन था?” वैसे अगले चार सालों तक उसी रास्ते से और उसी समय पर आना-जाना रहा मगर वह मोटर-साइकिल सवार फिर कभी नहीं दिखा। एक प्रश्न अब भी अनुत्तरित, “वह कौन था?”  

21 टिप्‍पणियां:

  1. कहते हैं कि इस संसार में सबसे दौडकर मिलिए, क्योंकि पता नहीं किस भेस में नारायण मिल जाएँ!! लेकिन आपके केस में तो नारायण ही धायकर आपसे मिले.. घटनाएँ सचमुच अविश्वसनीय हैं, लेकिन मेरा तो सदा से विश्वास रहा है इन घटनाओं के घटने पर.. वैसे भी तीन पोस्ट को एक में समेट दिया आपने.. लेकिन यह भी संयोग ही कहा जाएगा.. बहुत ही रोचक और जीवंत वर्णन!! शाबाश!!

    जवाब देंहटाएं
  2. ज़िन्दगी के मोड़ पर हर हले आदमी की सहायता के लिए कोई न कोई खड़ा होता है। सरल हृदय, मनुष्य मात्र से प्रेम भाव लिए जीवन जीने वाले को वह कौन द्व दूत की तरह आ मिलता है।

    जवाब देंहटाएं
  3. भीषण गर्मी में सरस, बरसाए मधु मेह |
    काट चिकोटी जाँचता, सपने का संदेह |

    सपने का संदेह, गेह ढूँढा दस घंटे |
    चूर चूर थक देह, भोग पंडों के टंटे |

    वह आया था कौन, मौनमन माना मंतर |
    ठौर कौर रथ-वाह, करण को मिले निरंतर |

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. वह आया था कौन ठग, भटके को भटकाय |
      भूखे को रोटी खिला, बिना कहे कुछ जाय |

      बिना कहे कुछ जाय, सही मंजिल पहुँचाता |
      जब जब मन घबराय, निदर्शन देकर जाता |

      भिन्न भिन्न धर रूप, मनुज सा परमेश्वर है |
      फैलाए यश धूप, करण-मन से बेहतर है ||

      हटाएं
  4. पता नहीं पर कोई तो है जो आपके गाढ़े भावों को पढ़ लेता है और सहायता भेज देता है।

    जवाब देंहटाएं
  5. 'ऐसे कौन' के भरोसे में न रहें, लेकिन 'ऐसे कौन' मिलते रहें.

    जवाब देंहटाएं
  6. मिलते हैं ऐसे लोग.... एक दो बार का मेरा भी अनुभव है.. रोचक और रोमांचक अनुभव...

    जवाब देंहटाएं
  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  8. ऐसा आपके साथ ही नहीं लगभग सभी के साथ जीवन में कभी न कभी होता है ।आप जैसे सरल मन लोग दूसरो के सहृद्यई व्यव्हार को इस्वर की कृपा या अनुकम्पा मानकर कृतअग्य होते है ,तो कुछ नास्तिक लोग मानव व्यव्हार का एक अच्छा पहलू मानते है । जैसा अच्छा या बुरा आप दूसरो के साथ करते है उसी की परणति अच्छे या बुरे परिणाम के रूप में कभी न कभी अप को परिलक्षित होती है ,रोचक वर्णन के लिए साधुवाद

    बुधवार, 08 अगस्त, 2012

    जवाब देंहटाएं
  9. अविश्वसनीय किन्तु सत्य होगी यह घटना.
    ईश्वर अपने अस्तित्व का अहसास करता रहता है हमें .

    जवाब देंहटाएं
  10. न जाने किस भेष में नारायण मिल जाये
    ऐसे ही इश्वर किसी न किसी रूप में मिलते हैं

    जवाब देंहटाएं
  11. वह कौन था? रोचक...पहला कदम दूसरे कदम की नींव बनता है और जीवन-यात्रा में जो लोग सही दिशा में कदम बढ़ाते हैं...उनका मंजिल स्वयं इंतजार कर रही होती है...जिसका पथ-प्रदर्शन करने के लिए वह अपने दूत भी भेजती रहती है.

    जवाब देंहटाएं
  12. कहावत है कि जब किसी की मदद नही मिलती है तो भगवान सामने आकर खड़ा हो जाता है। आपके साथ भी वैसा ही हुआ। इस जिंदगी की दौड़ में कभी हम अपने गंतव्य तक पहुंच जाते हैं एवं कभी पहुंचने के प्रयास में गिर जाते हैं एवं उस समय हमें ईश्वर का एहसास होता है जब एक अजनबी हाथ हमारा हाथ पकड़ कर ऊठा लेता है। हम उठ तो जाते हैं एवं धन्यवाद देकर उस मदद की कीमत भी उसी वक्त चुका देते हैं लेकिन शायद यह भूल जाते हैं कि वह मदद करने वाला एक व्यक्ति न होकर ईश्वर था। एक जीवंत अनुभव को आपने अच्छा तरह संस्मरण के रूप में प्रस्तुत किया है। मेरी अहर्निश कामना रहेगी कि भगवान आप पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखे। धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  13. प्रिय करण जी,
    सुषमा सिंह मेरी बेटी है। यह मेरा कमेंट है।

    जवाब देंहटाएं
  14. बेशक था वह ईश्वर का भेजा फ़रिश्ता ,पर ईश्वर हरेक के पास फ़रिश्ते नहीं भेजता नसीब वालों से संपर्क रहता है उसका वह जो सच्चे इंसान होतें हैं किसी का दिल नहीं दुखाते आस्था वादी होतें हैं , . .काइरोपेक्तिक श्रृंखला ज़ारी रहेगी अगला आलेख होगा -Shoulder ,Arm Hand Problems -The Chiropractic Approach.शुक्रिया .

    ram ram bhai
    शुक्रवार, 10 अगस्त 2012
    काइरोप्रेक्टिक चिकित्सा में है ब्लड प्रेशर का समाधान
    काइरोप्रेक्टिक चिकित्सा में है ब्लड प्रेशर का समाधान
    ram ram bhai
    http://veerubhai1947.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  15. I want to give sponsored ad for my website 3mik.com on your blog as i liked your blog. I was unable to see any contact form.So i am dropping you the message in comment. Please send me your rates at sanjeev@3mik.com

    जवाब देंहटाएं
  16. इस बार का "स्मृति शिखर से" एक नयापन लिए हुए था। रोचक और बदलती हुई दुनिया में भी इंसानियत का भरोसा दिलाती हुई पोस्ट...

    जवाब देंहटाएं

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।