शुक्रवार, 27 मई 2011

शिवस्वरोदय – 44

शिवस्वरोदय – 44

आचार्य परशुराम राय

या नाडी वहते चाङ्गे तस्यामेवाधिदेवता।

सन्मुखेSपिदिशा तेषां सर्वकार्यफलप्रदा।।238।।

भावार्थ जब व्यक्ति की उचित नाड़ी में उचित स्वर प्रवाहित हो, अभीष्ट देवता की प्रधानता हो और दिशा अनुकूल हो, तो उसकी कभी कामनाएँ निर्बाध रूप से पूरी होती हैं। यहाँ यह पुनः ध्यान देने की बात है कि श्लोक संख्या 75 के अनुसार चन्द्र स्वर (बाँए) की दिशा उत्तर और पूर्व एवं सूर्य स्वर (दाहिने) की पश्चिम और दक्षिण।

English Translation – When breath of a person flows through appropriate nostril, required god is favourable and direction is in conformity of the side through which the breath is flowing, his all desires are fulfilled without any hurdles. Here it is reminded that north and east are related to left nostril breath and right nostril breath to west and south as per verse No.75.

आदौ तु क्रियते मुद्रा पश्चाद्युद्धं समाचरेत्।

सर्पमुद्रा कृता येन तस्य सिद्धिर्न संशयः।।239।।

भावार्थ – युद्ध करने के पहले मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए, तत्पश्चात युद्ध करना चाहिए। जो व्यक्ति सर्पमुद्रा का अभ्यास करता है, उसके कार्य की सिद्धि में कोई संशय नहीं रह जाता।

English Translation – A soldier should practice posture before starting war and then he starts fighting. He, who practices snake posture, undoubtedly he gets success.

चन्द्रप्रवाहेSप्यथ सूर्यवाहे भटाः समायान्ति च योद्धुकामाः।

समीरणस्तत्त्वविदां प्रतीतो या शून्यता सा प्रतिकार्यनाशिनी।।240।।

भावार्थ – जब चन्द्र स्वर या सूर्य स्वर में वायु तत्त्व प्रवाहित हो रहा हो, तो एक योद्धा के लिए युद्ध हेतु प्रस्थान करने का उचित समय माना गया है। पर यदि अनुकूल स्वर प्रवाहित न हो रहा हो और सैनिक युद्ध के लिए प्रस्थान करता है, तो उसका विनाश हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं।

English Translation – The time, when Vayu tattva is present in the breath whether it is right breath or left breath, is appropriate for a soldier to start for a war. But if Vayu Tattva is not there and he starts for a war, he is killed without any doubt.

यां दिशां वहते वायुर्युद्धं तद्दिशि दापयेत्।

जयत्येव न सन्देहः शक्रोSपि यदि चाग्रतः।।241।।

भावार्थ – जिस स्वर में वायु तत्त्व प्रवाहित हो रहा हो, उस दिशा में यदि योद्धा बढ़े तो वह इन्द्र को भी पराजित कर सकता है।

English Translation -

यत्र नाड्यां वहेद्वायुस्तदङ्गे प्राणमेव च।

आकृष्य गच्छेत्कर्णातं जयत्येव पुरन्दरम्।।242।।

भावार्थ – किसी भी स्वर में यदि वायु तत्त्व प्रवाहित हो, तो प्राण को कान तक खींचकर युद्ध के लिए प्रस्थान करने पर योद्धा पुरन्दर (इन्द्र) को भी पराजित कर सकता है।

English Translation – If Vayu Tattva is active in the breath of the soldier and he starts for the war by fully breathing in, he can defeat even Indra, the king of gods.

प्रतिपक्षप्रहारेभ्यः पूर्णाङ्गं योSभिरक्षति।

न तस्य रिपुभिः शक्तिर्बलिष्ठैरपि हन्यते।।243।।

भावार्थ – युद्ध के समय शत्रु के प्रहारों से अपने सक्रिय स्वर की ओर के अंगों की रक्षा कर ले, तो उसे शक्तिशाली से शक्तिशाली शत्रु भी उसे कोई क्षति नहीं पहुँचा सकता।

English Translation – If a soldier safeguards body parts of the side through which nostril the breath is active, from the enemy attack, then even most powerful enemy cannot harm him.

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5 टिप्‍पणियां:

  1. युद्ध करने के पहले मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए, तत्पश्चात युद्ध करना चाहिए। जो व्यक्ति सर्पमुद्रा का अभ्यास करता है, उसके कार्य की सिद्धि में कोई संशय नहीं रह जाता।

    जीवन को जीना भी युद्ध लड़ने जैसा है ..और जो व्यक्ति हमेशा तैयार रहता है सांसारिक परिस्थितियों से लड़ने के लिए वह निश्चित रूप से जीवन के युद्ध को जीत जाता है ....काम , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार से लड़ना जीवन को जीतना है ....आपका आभार

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  2. एक और ज्ञान वर्धक पोस्ट.

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  3. हर चीज़ को लिपिबद्ध कर रखा है हमारे पूर्वजों ने...हमारे सामने लाने के लिए धन्यवाद...

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  4. युद्ध के समय शत्रु के प्रहारों से अपने सक्रिय स्वर की ओर के अंगों की रक्षा कर ले, तो उसे शक्तिशाली से शक्तिशाली शत्रु भी उसे कोई क्षति नहीं पहुँचा सकता।

    बहुत सटीक अर्थ प्रस्तुत किया है आपने.
    यह सचमुच बहुत ही व्यावहारिक तथ्य है. यदि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसे अपनाया जाए अर्थात् सजग रहा जाए तो जीवन में सफलता का प्रतिशत बढ़ जाएगा...

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  5. एक लाभकारी और ज्ञानवर्धक श्रृंखला।

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