बुधवार, 11 मई 2011

देसिल बयना-80 :: आई-माई को ठोप नहीं बिलाई को भरमंगा

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AIbEiAIAAAAhCOGGwPuf3efHRhC_k-XzgODa1moYsN388brgg9uQATABK_5TSqNcP8pRR08w_0oJ-am4Ew4करण समस्तीपुरी

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

ग्रामीण जीवन का अपना ही लालित्य है। अपना ही अल्हड़पन है। इहां आज भी इंसानो में अपनापन है। अलिजान मियाँ के घर बरहवां बच्चा जनमता है तो फ़गुनी मिसिर कने बधैय्या बजता है और बुच्चन ठाकुर कने कुछ अशुभ हो तो मोसखोद्दी मियाँ के घरे मातम होता है। लगन में झूमर और छट्ठी में सोहर का स्वर सूखा नहीं है। इहां आज भी खेतो में वैशाखी गूंजते हैं। अमराई में कोयलिया बरहमासा टेरती है। संकड़े रास्ते पर चलिये तो पेड़-पौधे भी गले मिलकर हाल-चाल पूछते हैं। शहर-बजार में भले माँ-बाप के लिये भी बिरधाश्रम बना हो मगर गाँव-घर में अब भी ईंट-पत्थड़, पेड़-पौधा, पशु-पक्षी भी भगवान जैसे पूजे जाते हैं।

कल भोरे गाँव पहुंचे मगर पुराना साथी-संगत, रंग-रहस में सो रमे कि मरदे भुलिये गये कि आज देसिल बयना का तारीख था। लेकिन भूल गये सो भले …. एगो तटका (ताजा) बयना सुना देते हैं। हम भी कल राते ही सुने हैं। गाँव आने का उद्देश्य तो आप लोगों को पते है। नही पता है फिर भी हम बतायेंगे थोड़े …. ! आखिर-गाँव घर वाली बात है थोड़ा लिहाज तो करना ही पड़ेगा न…. ! वरना शहर-बजार में तो फ़टाक से कह देते कि हमरा मैरिज है। खैर पर्दा तरे से मगर आप भी तो बुझिए गये होइयेगा।

(कल ‘१२ मई’ करण की शादी है … देसिल बयना के प्रति उनकी निष्ठा, कि उसे आज अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावज़ूद उन्होंने भेजा है … शुभकामनाएं करण … मनोज कुमार।)

हमरे तिरहुत में ब्याह से भारी विधे होता है। हमहु कल्हे जभिये रेवाखण्ड में पैड़ रखे तभिये से विध-व्यवहार शुरु है। सांझे गोसाउनि के गीत के लिये गाँव मोहल्ले की महिलाओं को हकार दिया गया था। उ अवसर हमरे लिये बहुत विशेष था। बचपन से ई सब विध-वाध देखते हुए बड़े हुए हैं। आन दफ़े इंतिजारी करते थे कि हमरी बारी कब आयेगी। लगन गाने में अतरुआ वाली ओझाइन और नसीमा बानो का कौनो जोर नहीं था। ई दोनो पहुँच गयी तो बूझ लीजिये कि महफ़िल जम गया।

ई लगन के रंग-रहस का एक दिलचस्प पहलू यह है कि आम गीत-गान का मतलब कि गोसाईं-देवता के गीत-उत में तो सब अलाउड रहता था मगर जहाँ लगन के रंगीन गाली-गीत शुरु हो कि मरद-मानुस का प्रवेश वर्जित। हम बचपने से बड़ी जोगार लगाते थे कि एक झांकी मिल जाये…. । मगर मौका कहियो नहीं मिला। मगर रामजी की ईच्छा से ई बार तो ’द मैन हिमसेल्फ़’ हमही थे। ई बार तो बीच में बैठा के दही-हल्दी लगा-लगा के ‘शुभ के लगनमा शुभे हो शुभे हो रहा था…..।’

गीत सब के बीच में आय-माय गीतगायिन सब को तेल-सिन्दूर का रस्म भी होता है। हर जगह का अपना अलग-अलग रीति-रिवाज। हमरे इहां भी एगो ऐसने मजेदार प्रथा है। शादी-ब्याह, जनेउ-मुंडन कौनो शुभ कारज में सबसे पहिले मार्जार-पूजा किया जाता है। कहते हैं कि कौनो जुग में परिवार की कौनो कन्या का जनम मार्जार जोनि में हुआ था। इसीलिये कौनो शुभ-कारज में सबसे पहिले एगो बिलाई (बिल्ली) को बैठा कर तेल-सिन्दूर लगाया जाता था फिर मार्जार माता के आशिर्वाद से सब गीतगायिन सुहासिन सब को तेल-सिन्दूर पड़ता है।

वही विध हो रहा था। एगो कवरी बिल्ली को बाँध के तेल-सिन्दूर चढ़ा रहे थी। गाँव के गीतगायिन सब तो सरधा से मार्जारमाता के आगे सिर झुकाए थी मगर हमरी छबीली मामी को ई अजगुत विध मालूम नहीं था। गीतगायिन सब को तेल-सिन्दूर में देरी देख टिहुँक पड़ी, “एँ….. ई रेवाखण्ड में तो सब अजगुते देखते हैं…… कहिये तो आई-माई को ठोप नहीं बिलाई को भरमंगा। गीतगायिन सब गला सुखा के मुँह ताक रही है। सिन्दूर के एगो ठोप पर आफ़त और घरैतिन सब बिलाई को नारियल तेल लगा के मांग भर रही हैं…. री दाई ई नगरी के अजबे रीत। आई-माई को ठोप नहीं बिलाई को भरमंगा….!

छबीली मामी जो आँख-भौंह नचा के बोली थी कि सगरे जनानी की हँसी रोके नहीं रुकी। “हा…… हा …. हा…… ही…..ही….ही…….. आई-माई को ठोप नहीं बिलाई को भरमंगा….!” जर-जनानी सब तो हा-हा-ही-ही में लगी हुई थी मगर इस कहावत का मरम तो हम बूझे।

“आई-माई को ठोप नहीं, बिलाई को भरमंगा” मतलब कि जो पात्र है उसकी अनदेखी और कुपात्र को एक्स्ट्रा-केयर। जय-जय हरि।

एक विध तो हुआ और ढेरी बाकी है। लेकिन देसिल बयना खतम। अभी चलते हैं अगले हफ़्ते फेर भेंटायेंगे उनका (Open-mouthed smile!) औडर होगा तो।SmileSmile

11 टिप्‍पणियां:

  1. कल करन की शादी है ,सबसे पहले उन्हें अनंत शुभकामनाएँ और ढेरों बधाईयाँ !
    शादी में दुल्हे की व्यस्तता सबसे अधिक होती है इसके बावजूद भी करन ने देसिल बयना के क्रम को टूटने नहीं दिया, लेखन के प्रति उनके समर्पण को मैं नमन करता हूँ !

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  2. करण जी ! जीवन के नव पथ पर प्रथम चरण रखने के लिए आपको और नयी बहुरिया को संयुक्त आशीर्वाद और मंगलकामनाएं. हमरे हिस्से का दही चूरा संजो के धरिह हो ..........

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  3. “आई-माई को ठोप नहीं, बिलाई को भरमंगा
    bol-chal ki bhasha ka ye kahawat humlog hamesha istemal karte hain isliye bahut achcha laga.

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  4. करण जी , आपका दाम्पत्य जीवन सुखमय हो ...एडवांस में शुभकामनायें

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  5. करन जी,
    यह बयना तो और मजेदार रहा।
    नव दम्पती को बहुत-बहुत बधाइयाँ और शुभ-कामनाएँ।

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  6. बहुत अग्रिम बधाई जी!

    बाकी, जो कहावत है पोस्ट में, उसके इक्वीवेलेण्ट है - सुअरी के सेन्हुर गिरगिटाने के माला!

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  7. बहुत कास्ट से भोरे भोरे उठाकर देखे त देसिल बयना नदारद.. हम त बूझ गए कि हमारा मजबूरी के कारण बऊआ गोसिया गए हैं.. मगर कारन बाबू सच्चो मजबूरी नहीं रहता त हमहूँ पटना में गारी सुनने के लिए हाजिर रहते.. मनोज बाबू भी बोले थे कि आएँगे,नहीं आए मिलने.. खैर ई सब बाद में फरिया लेंगे.. अभी त हमरे तरफ से असीस!!

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  8. करण जी आपके समर्पण को नमन।
    कल आप दाम्पत्य जीवन में प्रवेश कर रहें हैं। इस अवसर पर आप दोनों को असीम हार्दिक शुभकामनाएं।
    मुझे पता है कि आप मुझसे बहुत ही नाराज हैं। क्या करूँ। बीते एक माह से व्यस्तता इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि समय ही नहीं मिल पा रहा है। सबसे बड़ी शर्मिन्दगी तो मुझे इस बात की हो रही है कि उस दिन बातचीत का क्रम टूटने के बाद मैं अपनी तरफ से बात न कर सका। आपके हर गिले शिकवे स्वीकार मुझे स्वीकार होंगें। आपसे क्षमा प्रार्थी हूँ।

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  9. मेरी तर्फ़ से भी शुभकामना स्वीकार करें।

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  10. वाह...!
    पोस्ट में लगाए गये चित्रो का तो जवाब नहीं है!
    --
    करण जी को शादी की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

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