मंगलवार, 10 मई 2011

भारत में सहिष्णुता

मित्रों फ़ुरसत में स्तंभ के माध्यम से जितेन्द्र त्रिवेदी को आपके सामने पेश कर चुका हूं। हमारे संगठन के ही हैं। रंगमंच से जुड़े हैं, और कई प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन कर चुके हैं। खुद भी नाटक लिखा है। न सिर्फ़ साहित्य की गहरी पैठ है बल्कि समसामयिक घटनाओं पर उनके विचार काफ़ी सारगर्भित होते हैं। वो एक पुस्तक लिख रहे हैं भारतीय संस्कृति और सहिष्णुता पर। हमारे अनुरोध पर वे इस ब्लॉग को आपने आलेख देने को राज़ी हुए। उन्हों लेखों की श्रृंखला हम हर मंगलवार को पेश करेंगे। …. मनोज कुमार

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जितेन्द्र त्रिवेदी

 

[image[33].png]मैं तीन छोटे-छोटे दृष्टांत (आबजरवेसन) आपके सामने रखकर अपनी बात प्रारम्भ करूँगा -

प्रथम - एक दिन एक गाँव के सारे ग्रामीणों ने के लिये ईश्‍वर से सामूहिक प्रार्थना करने के लिये निश्‍चय किया और वे लोग एक साथ प्रार्थना करने के लिये खूब खुली जगह में खड़े हो गये; इस भीड़ में और तो कोई खास बात मुझे नजर नहीं आई सिवाय इसके कि केवल एक छोटा बालक एक छाता लेकर आया था

द्वितीय - अपने छः माह के बच्चे को जब मैं हवा में ऊपर उछालता था तो मैं जितनी भी बार ऐसा करता था वह अपने पोपले मुँह से खिल-खिला कर के हँस देता था और फिर मैंने इस तथ्य को पहली बार देखा कि सभी बच्चे हवा में उछालने पर हँसते हैं

 

तृतीय - यह कि मुझे ऊपर के दृष्टांत (आबजरवेसन) में तब तक कोई खास बात नजर नहीं आई थी पर आज खासियत लगती है जो आपसे बाँट लेता हूँ - पहली घटना में मुझे सिर्फ छोटा बालक ही ईश्‍वर की कृपा के विश्‍वास से लबालब भरा दिखा क्योंकि उसका बारि के लिये होने वाली प्रार्थना में छाता लेकर आना ईश्‍वर के रहम और दया में जरा सी भी संदेह की गुंजाइ से परे था दूसरी घटना में बच्चे का बेपनाह भरोसा कि उछालने वाला हाथ मुझे नीचे गिरने पर हर हाल में थाम लेगा कहीं से भी उसके मन में शक नहीं लगता, अगर जरा भी शक होता तो व रोता इनमें पहले को मैं फेथ (faith) कहूंगा, दूसरी को ट्रस्ट (trust) और इन दोनों के मेल से इस कायनात में जिस सुन्दर शब्द की रचना होती है वह है - ''सहिष्णुता'' जिसमें सबसे पहले ईश्‍वर की रहम पर पूरा भरोसा और दूसरा एक-दूसरे पर विश्‍वास। अगर ये दोनों चीच इंसान में हैं तो वह सब कुछ सहने की शक्ति रखता है

शायद बच्चे का हंसना बायोलोजिकल अधिक है, उसको गुदगुदी लगती है फिर भी जो भी हो मैं आपको अधिक तार्किक नहीं होने देना चाहता हूं। मैं तो चाहता हूं कि आप बात को पकड़ लें कि उस बच्चे को अभी अहसास ही नहीं कि उछालने पर वह सीधे जमीन पर भी गिर सकता है, इसी अबोधता की आज हमें सबसे ज्यादा जरूरत है और इसी पर आने वाली दुनियां टिकेगी

विषय प्रवे :

19वी सदी के अंत और 20वी सदी के मध्य तक सिर्फ भारतवासियों का ही नहीं अपितु दुनिया¡ के अधिसंख्य लोगों की यह सामान्य धारणा थी कि भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति दो अलग-अलग ध्रुव हैं। इसे सन्‌ 60 के दक की हिन्दी फिल्मों में बहुत अच्छे तरीके से दिखाया गया है, जो बहुत कलात्मक तो नहीं किन्तु सामान्य भारतीय की समझ के आस-पास है। “पूरब और पश्चिम” नाम की इस फिल्म में इन्हीं दो ध्रुवीय धारणाओं को भली-भांति दिखाया गया है निर्देक इस प्रयास में कामयाब है कि पूर्व और पश्चिम दो अलग-अलग सोच हैं और दोनों के मध्य परस्पर कोई तुलना नहीं की जा सकती है। एक में भोग ही सब कुछ है, जबकि दूसरे में त्याग; एक में संग्रह की इतनी अधिक चाह कि दुनिया¡ का सबसे धनी व्यक्ति बन जाने की लालसा और दूसरे में अपरिग्रह का इतना विराट चिन्तन कि दे को आजादी दिलाने के बाद भी किसी भी पद की लालसा तक नहीं रखना, अपितु यह भी सुनिश्चित कर देना कि उनकी कोई औलाद भी पद-लोलुपता में न फ¡स पाएं। इन दोनों ध्रुवो के अंतर से लोग बहुधा यह सामान्यीकरण कर लेते हैं कि वास्तव में हम ही सही हैं और फिल्म “पूरब और पश्चिम” की मानसिकता की तर्ज पर अंत में जीत हमारी पूज्यनीय पुर्वी संस्कृति की ही होगी जैसा कि उक्त फिल्म में भी अंत में यह तथ्य उद्घाटित करके निर्देक असीम शांति में लीन हो गया लेकिन आज भारत जहा¡ खड़ा है वहा¡ से या समकालीन भारतीयों के बीच रह कर तो ऎसी कथा का अंत कुछ और भी किया जा सकता है बहुत अधिक विस्तार में जाकर वर्तमान भारतीयों के जीवन को यदि गहराई से देखें तो उसे अब उन्हीं चीजो में लिप्त पाएंगें जिनकी हम पहले भर्त्सना करते थे। जिन चीजो को हम भोग विलास कहते थे, अब वे सुविधाएं हो गयी हैं और आवश्यताएं भी हमारी त्याग की मौलिक सोच को अगर अब के परिप्रेक्ष्य में अलग-अलग समझने के लिये कि कैसे दोनों में परस्पर दूरी बढ़ी है? उस भयावहता की समझ को दिखाने के लिये थोड़ा गम्भीर अध्ययन देना पड़ रहा है।

31 जनवरी, 1900 ई. को कैलीफोनियां के पॅसाडेना नामक स्थान “शेक्सपियर-क्लब” में स्वामी विवेकानन्द द्वारा पश्चिम में आज से 110 वर्ष पूर्व जो विचार दिये गये थे और यदि भारतीयों द्वारा वर्तमान के वह सन्देश पढ़ा जाएगा, तो जो कुलमुलाहट होगी या होनी चाहिये, उसे दिखाना मेरा मकसद है। उन्होंने कहा था- ''जीवन में सीता ने इतने कष्ट सहे, इतनी वेदनाएं सहीं किन्तु राम के विरूद्ध उनके मुख से एक कठोर शब्द भी न निकला वे उसे अपना कर्तव्य जानकर सहती रहीं। सीता के निर्वासन के घोर अन्याय पर विचार करो पर सीता ने उन सबको भी सह लिया - उनके हृदय में ले मात्र भी कटुता उत्पन्न नहीं हुई।” यह तितिक्षा ही भारतीय आदर्श है। भगवान बुद्ध ने कहा - “तुम्हें कोई आहत करता है और यदि तुम प्रतिकार में उसे आहत करने के लिये अपना हाथ उठाते हो तो इससे तुम्हारे घाव को तो आराम नहीं मिलेगा - हा¡, संसार के पापों में एक वृद्धि अवश्य हो जाएगी।” सीता इस भारतीय आदर्श की सच्ची प्रतिनिधि हैं अत्याचार के प्रतिशोध का विचार तक उनके हृदय में नहीं आया। कौन जानता है, इन दोनों आदर्शों में कौन सत्य और श्रेष्ट है - पाश्चात्यों की यह बल प्रतीयमान शक्ति या प्राच्यों की कष्ट सहिष्णुता, क्षमा और तितिक्षा? पश्चिम कहता है, “हम अशुभ पर विजय प्राप्त करके ही उसका ना करते हैं” भारत ने कहा है - “हम अशुभ का ना करते है, सहन करके।” यहा¡ तक कि यह हमारे लिये आनन्द की वस्तु बन जाता है शायद दोनों ही आदर्श महान हैं पर कौन जानता है कि अन्ततोगत्वा कौन सा आदर्श बच सकेगा - किस आदर्श की विजय होगी? कौन जानता है किस आदर्श से मानव जाति का अधिकतर तथा यथार्थ कल्याण सम्पादित हो सकेगा। किसे ज्ञात है कौन सा आदर्श मनुष्य की पाशविकता को निर्वीय कर उस पर विजय पा सकेगा - सहिष्णुता अथवा क्रियाशीलत।

विवेकानन्द इसके बाद देखने के लिये और अधिक जिंदा नहीं रहे और सन्‌ 1902 में उनकी अकाल मृत्यु हो गयी। इसी समय एक व्यक्ति, जिसने विवेकानन्द के उक्त भाषण को तब तक पढ़ा भी नहीं था, दक्षिण अफ्रीका में गरीब भारतीयों के अधिकारों के लिए आवाज उठा रहा था और एक औसत आदमी की जिन्दगी जी रहा था। वह धीरे-धीरे यह सोचने लगा था कि भारत की सनातन सहिष्णुता की विरासत को ही आगे ले जाना चाहिये। 1906 के बाद तो उसने ऐसा पक्का इरादा किया जो 1908 में उन्होंने “हिन्द स्वराज” नामक अपनी छोटी सी पुस्तिका में लिख कर उसी इरादे को समूची दुनिया¡ के सामने रख दिया। आने वाले लगभग 40 साल तक बिना रुके हुये वे अपने उस 1908 के तयशुदा “सहिष्णुता” के मिन पर चलते गये जबतक कि उन्हें गोली मार कर राह से हटा नहीं दिया गया और वह भी खुद उसी सनातन “सहिष्णुता” के वंज-एक भारतीय के ही द्वारा। उसके बाद सहिष्णुता को भारतीय मानस से धीरे-धीरे हटने में देर नहीं लगी। आज भारत जहा¡ खड़ा है वहा¡ से हम फिर से विवेकानन्द के सन्‌ 1900 के उस वक्तव्य के आसपास ही खड़े हुए हैं कि - ''कौन सा आदर्श मनुष्य की पाशविकता को निर्वीय करेगा - पश्चिम का विचार कि “ताकत” से अथवा भारत का सनातन विचार कि “सहिष्णुता” से?

(ज़ारी ….)

14 टिप्‍पणियां:

  1. रोचक! जीतेंद्र त्रिवेदी तो शिव खेड़ा छाप लगते हैं| बहुत सही लिखा है!

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  3. बड़े अच्छे द्रष्टान्त दिए हैं मगर समझेगा कौन ? यह बस्ती तो शिक्षकों की है मनोज भाई, यहाँ सीखने की उम्र निकल गयी !
    शिष्यों की बस्ती में इसे प्रकाशित कराएँ तो लोग समझ पायेंगे कि विश्वास और श्रद्धा का मूल्य क्या है !
    शुभकामनायें !

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  4. हृदय बड़ा हो तो वेदनाओं के दरिया भी समा जाते हैं।

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  5. तार्किक ढंग से लिखा गया लेख ....

    अच्छी श्रृंखला
    सारे ग्रामीणों ने के लिये ईश्‍वर से सामूहिक प्रार्थना करने

    ग्रामीणों ने वर्षा के लिए .... वर्षा या बारिश शब्द गायब है

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  6. रोचक सार्थक और तार्किक चिन्तन परक पोस्ट्\ द्रष्टांत प्रभावित करते हैं। अगली पोस्ट का इन्तजार। जीतेंद्र त्रिवेदी जी को साधुवाद।

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  7. जितेन्द्र जी से परिचित कराने के लिए धन्यवाद!
    अगले अंक की प्रतीक्षा है!

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  8. वाह.....

    बहुत ही सुन्दर विवेचना....

    आगामी अंकों की व्यग्रता से प्रतीक्षा रहेगी.

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  9. बहुत ही सहज तरीके से अपनी बात कह दी आपने...आदर्श और उपदेश सिर्फ बच्चों के लिए नहीं होते...हम बड़ों को उसकी ज्यादा आवश्यकता है...जब भी मै ये गाना सुनता हूँ...इंसाफ की डगर पर, बच्चों दिखाओ चल के...तो मन ही मन बच्चों को बुड्ढों में तब्दील कर देता हूँ...जीतेन्द्र जी ये विश्वास ही है जो हमें जिलाए रखता है...त्याग, सहिष्णुता और अहिंसा इसी से जिन्दा है...सीखने की कोई उम्र भी नहीं होती...सतीश जी...

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  10. जितेन्द्र जी को पहली बार पढ़ने का मौका मिला , अच्छा लगा !

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  11. जितेन्द्र त्रिवेदी जी से परिचय अच्छा लगा.
    तीनों observations ग़ज़ब के हैं.

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  12. आगाज अच्छा है। आशा है,अगली कड़ियों में कुछ और संजीदा पहलुओं से अवगत होने और विचार-विमर्श का अवसर मिलेगा।

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  13. भारत को समझने और समझाने का बहुत ही अच्छा प्रयास है। वैसे जितेन्द्र जी की लेखनी बड़ी ही सशक्त है। इनकी लेखनी स्वयं इनका परिचय है। साधुवाद।

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